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उपन्यास >> और इंतजार थक गया

और इंतजार थक गया

मृदुला बाजपेयी

प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7219
आईएसबीएन :978-81-8322-099

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दीपक, यह मत कहो कि मैं जा रहा हूँ। ऐसे नहीं कहते, कहो, मैं जाकर वापस आता हूँ।...

Aur Intezar Thak Gaya - A Hindi Book - by Mridula Bajpai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समय को न जाने क्या हो गया था कि वह आने से पहले ही गुज़र गया था। एक लम्हा जब तक सहेजो, तब तक जाने कितने लम्हे बग़ैर जिये गुज़र जाते। मिनी परेशान होकर बार-बार घड़ी देखती और दीपक से पूछती, ‘दीपक, ग्यारह बज गए। बस, सात घंटे बचे हैं तुम्हारे जाने में।’
‘हाँ मिनी, पर सात घंटे कम थोड़े ही होते हैं,’ दीपक उसे समझाता और वह बेचैन होकर उसकी पीठ से लिपटकर कहती, ‘मत जाओ, प्लीज़ मत जाओ।’
‘मिनी, इतना परेशान मत हो। मैं जा रहा हूँ, तो क्या हुआ ? मेरे जाने की तो आदत ही डाल लो, क्योंकि तुम एक फ़ौजी की बीवी हो।’
‘दीपक, यह मत कहो कि मैं जा रहा हूँ। ऐसे नहीं कहते, कहो, ‘मैं जाकर वापस आता हूँ।’’

[ १ ]


दिसंबर में लखनऊ यूँ भी काफ़ी ठंडा रहता है, लेकिन यह दिन तो कुछ ज़्यादा ही सर्द है। बाहर चारों तरफ़ धुंध छाई हुई है। धूप निकलने का सबको इंतज़ार है। बहती हुई ठंडी हवा सबको और कँपकँपा देती है। हालाँकि, लोगों के लिए यह सिर्फ़ बेहद ठंडा दिन है, लेकिन मेरे लिए...
...मेरे लिए तो आज ज़िंदगी ज़्यादा ख़ुशगवार है। इस कड़ाके की सर्दी में भी एक ख़ुशनुमा गर्म एहसास है। बाहर अभी सूरज नहीं उगा है, पर मुझे गुनगुनी धूप की गर्मी का मखमली एहसास हो रहा है। मन चाहता है कि खिड़की पर खड़े होकर देर तक, दूर देखती रहूँ, बहुत दूर। अब मेरे लिए अँधियारी रातों में भी रोशनी है। मेरे पाँव के नीचे ज़मीन कुछ ज़्यादा हरी और सिर पर आसमान कुछ ज़्यादा नीला है। सच, बाहर की दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है।
दुनियाभर की खुशियाँ मेरी हैं। तभी मेरी नज़र ठंड से परेशान होकर बैठे गोरैया के जोड़े पर पड़ी, जो अब सुकून से बैठा है, क्योंकि इस जोड़े को आसरा जो मिल गया है। बाहर की सर्दी अब उसे परेशान नहीं कर रही है।
खिड़की से हटकर मैं अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई।

मुझे कमरे में सजे गुलाब के फूल भी ज़्यादा सुर्ख़ लग रहे हैं। देवेन्द्र, तुम मन में हो, तो सब कुछ कितना नया और अच्छा लग रहा है। मुझे तो अपने दिन ही बदले हुए लगते हैं। आने वाले कल को जैसे जीने की कितनी ख़ूबसूरत वजह मिल गई हैं। तुम हर जगह हो। इन फूलों की खुशबू में, इनके सुर्ख़ रंग में, यहाँ तक कि इस हवा की सिहरन में भी तुम ही हो। तुमने बरसों पहले कहा था, ‘ज़िंदगी यूँ भी बीत जाती, लेकिन मेरा यह एक ख़्वाब, यह एक ख़्वाहिश, एक चाह है, जो मुझे जीने की वजह दिए जाती है।’ यगी एक ख़्वाब है, जो मुझे भी जीवन के इस सुनसान में जीने की राह दिखाए जा रहा है।
ऑफ़िस टेबल के काँच के नीचे लिखी यह लाइन–‘द फ़्यूचर बिलोंग्स टू दोज़ हू बिलीव इन द ब्यूटी ऑफ़ देयर ड्रीम्स’ अब एक नया एहसास दे रही है।

तभी नासिर ने धीरे से कमरे में झाँका। मुझे पहले से बैठा देखकर झेंप गया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘नमस्ते मैडम !’
‘नासिर, जरा केयर-टेकर को बुला लाओ,’ मैंने हँसकर कहा।
‘रमेशजी अभी आए नहीं है। बता दिया है कि जैसे ही आएँ, आपने याद किया है, ‘नासिर ने लौटकर कहा।
थोड़ी देर बाद–‘गुड मॉर्निंग मैम’ कहता हुआ रमेश कमरे में आया।
‘बैठिए ! रमेश जी, मेरी नेम-प्लेट बनवायी है।’
‘मैम, मैंने अंदर आते समय देखा कि आपकी नेम-प्लेट नदारद है। इन चौकीदारों की अभी ख़बर लेता हूँ। आप बेफ़िक्र रहें, नेम-प्लेट लग जाएगी।

‘रमेशजी, नई नेम-प्लेट बनवानी ही पड़ेगी। यह रही पुरानी नेम-प्लेट,’ यह कहते हुए मैंने उसकी ओर पुरानी नेम-प्लेट बढ़ा दी।
उसने अचरज भरी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और फिर नेम-प्लेट की तरफ़। वह चुपचाप नेम-प्लेट उठाकर जाने लगा।
‘रमेशजी, एक मिनट।’ मैंने काग़ज़ पर अपना नाम लिखकर उसकी ओर बढ़ा दिया।
‘...मेरा नाम बदल गया है। ‘‘दामिनी सिंह’’ लिखवाना है नई नेम-प्लेट पर।’
रमेश पहले सकपकाया, फिर बोला–
‘मैम, काँग्रेच्युलेशंस ! क्या साहब भी आए हैं ?’
‘नहीं, वह अभी सागर में हैं। अगले महीने छुट्टी मिलेगी, तब आएँगे।

तब तक बड़े बाबू लंबा सा सलाम करते हुए कमरे में दाखिल हुए, ‘मैम साहब आप आ गईं ?’ आपने छुट्टी जाने से पहले दो रिपोर्ट माँगी थीं, अभी तक किसी अधिकारी ने नहीं भेजी हैं। सब के सब छुट्टी काट रहे हैं सर्दी में।... रिमाइंडर बनवा दूँ ?
उनके इस मेम साहब की जगह मैम साहब संबोधन पर मुझे एक बार फिर से हँसी आ गई।
‘स्टेनो तो आया नहीं होगा ?’ मैंने पूछा।
‘मैम साहब, मैं टाइप कर दूँगा, आप बता दीजिए।’
‘अर्न्ड लीव के बाद की मेरी चार्ज रिपोर्ट भी ले आइए, पर पहले एक रिमाइंडर बना दीजिए। रेंज के सभी अफ़सरों को ऊपर ‘अर्जेंट’ लिखकर रिमाइंडर भी लिख दीजिए।... और मुझसे साइन करवाकर भेज दीजिएगा।’

थोड़ी देर में फ़ाइलों से लदे बड़े बाबू ने कमरे में प्रवेश किया। चिट्ठी ठीक-ठाक बना लाए थे। एकाध कॉमा-फ़ुलस्टॉप नदारद था, उसे मैंने ठीक कर दिया। अब चिट्ठी पर साइन करना था। साइन करते समय मैं हमेशा अपना पूरा नाम लिखती आई थी। ‘दामिनी’ लिखकर एक पल को मेरी क़लम रुक गई। जीवन में इस पल के आने का कितना इंतज़ार किया था–मैंने, देवेन्द्र ने, हमारी ज़िंदगी ने। फिर क़लम अपने आप आगे सरक गई–‘सिंह।’ कितना ख़ूबसूरत लग रहा है–‘ दामिनी सिंह !’ लगा मैं इतने बरस इसी पल के लिए जी रही थी। मानो समय कह रहा हो कि आख़िर मैं इस प्यार के आगे हार गया। देवेन्द्र तुमने मुझे इतना प्यार दिया कि सदियों सी लंबी दूरियों का एहसास लगा बस इस पल में सिमट कर रह गया। यह आसमान टूट कर गिरा नहीं, अरसे तक हवा में क़दम जमाए खड़ा रहा। ‘दामिनी जोसेफ़’ से ‘दामिनी सिंह’ तक का यह सफ़र बहुत लंबा रहा, पर आज लगता ही नहीं यह इतना लंबा था। यह ना तो कुछ क़दमों की दूरी थी। ना ही पल-दो पल का वक़्त। सत्रह बरसों में सदियों की तरह लंबे गुज़रते हर दिन में फैला यह सफ़र भी हज़ारों मील लंबा था। कितने पल थे इसमें–कुछ खु़शियों से लबरेज़, तो कुछ दुखों से छलकते। हालाँकि इस दौरान मम्मी, लिली आंटी मेरे साथ रहीं और देवेन्द्र तुम भी, परंतु...

कभी-कभी तो लगता था कि लम्हा-लम्हा उदासियाँ बढ़ती जा रही हैं। अक्सर अकेली रातों में, अकेले रास्तों पर घबरा जाती थी। मन को जितना सुलझाती वह उतना ही उलझता जाता। महीनों-महीनों देवेन्द्र की कोई ख़बर न मिलती। कभी दिल घबरा उठता और उम्मीदें कम होने लगतीं। फिर भी आस किसी दीये की लौ की तरह जलती रही, रोशन रही। हमारी मुलाक़ातें भी बस कितनी छोटी-छोटी सी थीं, लेकिन देवेन्द्र तुम इस इंतज़ार में भी कहते–‘मेरी हर सुबह पर तुम्हारा प्यार शबनमी मोती बिखेरता है।’ ज़िंदगी में तुमने जितने सपने देखे, सब मेरे लिए, मेरे साथ, मेरे आस-पास देखे।
‘...दामिनी, हम ज़िंदगी साथ बसर करेंगे।’ तुम्हें अपने इस सपने पर हमेशा भरोसा रहा। ‘...सभी सपने तुम्हें दे दिए हैं। ज़िंदगी में ज़रूर कुछ नया होगा,’ तुम हमेशा मुझसे विश्वास से भरकर कहते। सच, इसके बाद राह आसान हो जाती, पर मन में अक्सर कहीं घना कोहरा छाया रहता। जाने क्यों मन में यह प्रश्न सिर उठाते थे कि क्या मैं बिलकुल अकेली हूँ ? मेरी पहचान क्या है ? कैसे पहचानूँ, किसको पहचानूँ, शायद मेरी हर पहचान मुश्किल हो गई थी। जीवन के इस लंबे सफ़र में हमेशा एक अदृश्य साया मेरे ऊपर पड़ा रहा। किसी धुंध की तरह यह साया मेरे जीवन पर छाया हुआ था–मिनी जोसेफ़ और मेजर दीपक कुमार का साया।

[ २ ]


आज याद करती हूँ, तो अक्टूबर का वह शनिवार कई गुना ज़्यादा ख़ुशनुमा लगता है। इतने बरसों के बाद भी महसूस होता है कि वे लम्हे मेरी आँखों में ज्यों के त्यों रचे-बसे हैं, जैसे यह कल की ही तो बात हो। कहते हैं वक़्त बीत जाता है, पर शायद कुछ लम्हे कभी नहीं बीतते। वे हमेशा दिल में ज़िंदा रहते हैं या उनकी यादों की महक ता–ज़िंदगी रहती है। जैसे वे लम्हे वहीं ठहर गए हों। वह ख़ूबसूरत दिन भी कुछ ऐसा ही था। वह दिन तब से मेरा है और मेरा ही रहेगा। उस पल के बाद आने वाले सत्रह साल जैसे मैंने वहीं ठहरकर जिए हैं। उन पलों की मिठास, उनकी खुशबू आने वाले उन सभी पलों में घुलती-मिलती गई, जो मैंने बाद मे जिए। तब से मैंने एक भी साँस अकेले कहाँ ली है, मेरी हर साँस में एक और साँस शामिल रही है, मेरी हर धड़कन में एक और दिल धड़कता रहा।

उस साल मैंने यूनिवर्सिटी में फ़र्स्ट ईयर में दाख़िला लिया था।
स्कूल की बंधी-बंधाई दिनचर्या के बाद यूनिवर्सिटी का माहौल काफ़ी खुला–खुला लगता। फिर भी जिस स्कूल में बारह साल बिताए थे, वहाँ के प्रति एक लगाव, एक खिंचाव बराबर बना हुआ था। उस साल, जब हमारे स्कूल के ‘एनुअल डे’ में फेट होना तय हुआ, तो हम लोगों ने तय किया कि पिछले साल की तरह हम इस साल भी स्टॉल लगाएँगे। अपना वही पुराना स्टॉल–गानों का ‘रिक्वेस्ट स्टॉल’। इस स्टॉल पर अच्छी-ख़ासी भीड़ रहती थी। पिछले दो सालों से हम यह स्टॉल लगाते आए थे। यहाँ से सबसे ज़्यादा पैसे इकट्ठे हुए थे।

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