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हास्य-व्यंग्य >> पूरब खिले पलाश

पूरब खिले पलाश

रवीन्द्रनाथ त्यागी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :410
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 722
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है रवीन्द्रनाथ त्यागी की सौ श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ...

Purab Khile Palash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


रवीन्द्रनाथ त्यागी को हिन्दी भाषा का ही नहीं, बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं का इस सदी का सर्वाधिक समर्थ हास्य-व्यंग्य लेखक बनाती हैं। उनके कवि होने के कारण व उनके विस्तृत अध्ययन के फलस्वरूप उनके लेखन में जो एक विशिष्ट ‘बाँकापन’ आता है, वह उनका विशिष्ट आकर्षण है। हिन्दी व्यंग्य-लेखन की भविष्य की पीढ़ियाँ शायद यह विश्वास ही न कर पाएँ कि हिन्दी के इस महान व्यंग्यकार को उसके अपने जीवनकाल में मात्र एक ‘नफीस हास्यकार’ कहकर ही उपेक्षित किया जाता रहा है।

नोट

मेरे मित्र शरद जोशी ने लगभग दस वर्ष पहले अपनी चुनी हुई सौ व्यंग्य-रचनाओं का ‘यथासम्भव’ नाम से एक मोटा संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से छपाया था। उसने मुझसे भी वैसा ही एक व्यंग्य-संग्रह छपाने का अनुरोध किया था। इच्छा तो मेरी थी पर अपने संकोची-स्वभाव व आलस्य के कारण मैं अपनी उस इच्छा को दबाता ही रहा। पिछले वर्ष वही इच्छा इतनी प्रबल हो उठी कि उसका और दबाना मेरे लिए असम्भव हो गया। मैंने के.के.बिड़ला फाउण्डेशन के निर्देशक श्री बिशन टण्डन से मदद माँगी क्योंकि उन्होंने मुझे सदा वही स्नेह दिया था जो एक बड़ा भाई अपने छोटे भाई को देता है। उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया और भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी श्री रमेशचन्द्रजी से बात की। श्री रमेशचन्द्र-पता नहीं क्यों-मेरे प्रति सदा से अतिरिक्त दयावान रहे हैं। उन्होंने टण्डनजी की बात मान ली और पुस्तक का अनुबन्ध हो गया। अपनी अब तक लिखी लगभग छह सौ व्यंग्य-रचनाओं में से सौ रचनाएँ छाँटने और उनका संशोधन वगैरा करने में मुझे एक वर्ष लग गया। अब पुस्तक आपके हाथों में है। इसे इतनी साज-सज्जा के साथ छापने का सारा श्रेय, मेरे पुराने आत्मीय और भारतीय ज्ञानपीठ में सम्पादक श्री पद्मधर त्रिपाठी को जाता है। मैं उनकी इस कृपा के लिए हृदय से आभारी हूँ।
रवीन्द्रनाथ त्यागी

भूमिका


हिन्दी में व्यंग्य को स्वतंत्र प्रतिष्ठा मिले अभी बहुत दिन नहीं हुए बकायदा चलन और लोकप्रियता तो शायद उसे अभी पिछले दो-तीन दशक में ही मिली है, जबकि पत्रिकाओं में एक जरूरी कॉलम के लिए उसे एक स्वतंत्र कथा-विद्या की हैसियत दी गई है। व्यंग्य किसी भी भाषा की जिन्दादिली और जीवन्तता का प्रतीक है। मगर हिन्दी में लोग उसके पहले हमेशा ‘हास्य’ का उपसर्ग लगाने के आदी रहे हैं और ‘हास्य’ भी हिन्दी में सच्चा और उन्मुक्त नहीं है; दुर्लभ है। हँसी मजाक के नाम पर या तो उसमें फूहड़ ‘बफ़नूरी’ होती है या ‘टाँगखींचवाद’ अथवा ‘टोपीउछालवाद’। यह हास्य नहीं, हास्यास्पद होता है। बहरहाल, व्यंग्य को भी उचित दर्जा न मिलने के कारण एक ओर तो यह धारणा है कि वह एक नकारात्मक योजना है और पराजय का सूचक अतः गौड़ और दूसरी ओर यह कि व्यंग्यकार एक दुःखी प्राणी है और व्यंग्य के पीछे लेखक की व्यक्तिगत ग्रन्थियाँ काम करती हैं। याने [नन्ददुलारे बाचपोई हों या देवीशंकर अवस्थी] व्यंग्य को रचनात्मक साहित्य की विधा मानने से इनकार किया गया। सच तो यह है कि आज की स्थितियों में वंयग्य सबसे पुरअसर और सार्थक विधा होती जा रही है। वह जितना प्रचलित है उतना ही कठिन भी है। हिन्दी में जो व्यंग्य लिखे गये या लिखे जा रहे हैं उनमें से अधिकांश बैठे-ठाले’ या ताल-बेताल’ के पाठकों के लिखे गये चुटकुले हैं या सस्ते मनोरंजन की सामग्री। व्यंग्यकार के अस्त्र-आइरनी, सर्काज़्म, इनवेक्टिव, विट और ह्यूमर-में से उसके पास केवल ह्यूमर है वह भी हल्के स्तर का। इसलिए वह टुच्चा और जनाना किस्म का है। सच्चे व्यंग्य की विराटता और पौरुष उसमें नहीं है। सच्चे और सार्थक व्यंग्य की यह खासियत होती है कि वह मूल्यों की आपा-धापी और संक्रान्ति का चित्र ही नहीं देता, नये मूल्यों की तलाश की छटपटाहट भी उसमें होती है। यत्किंचित ऐसा व्यंग्य परसाई में जरूर मिलता है। ऐसा व्यंग्य अनिवार्यतः साहित्य की सामाजिक प्रतीति में विश्वास करता है, उसमें युग की, उसके आदमियों, उनकी आदतों, फैशनों, रुचियों, मतों और धारणाओं की एक साफ और प्रामाणिक तस्वीर उभरती है। व्यंग्यकार समाज का निन्दक छद्रान्वेषी ही नहीं, परिशोधक भी है। शायद इसलिए एडीसन ने कहा था कि वह व्यंग्य जो कि सिर्फ चोट करना जानता है, अँधेरे में छूटे तीर की तरह है। सच्चे व्यंग्य का रुख व्यक्तिगत आक्षेपों से उठकर वर्ग और समूह की ओर होता है। वह गहरे नैतिक दायित्व और अपेक्षाकृत अधिक सशक्त और व्यापक सामाजिक बोध का लेखन है। उसके आक्षपों और इसीलिए प्रभाव का क्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होता है और उसका प्रतिवाद अधिक गहन और तीखा, क्योंकि वह मानवीय अस्तित्व के आधारभूत सवालों से सीधा टकराता है और अमानवीय और विसंगत स्थितियों का जायजा ले-देकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, वरन् उसके कारणों और निहित शक्तियों को भी उभारता है। इसलिए व्यंग्य अधिक प्रतिबद्ध और पक्षधर किस्म का लेखन है।

जिन लोगों ने व्यंग्य को एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा देने-दिलाने की दिशा में काम किया है, उनमें रवीन्द्रनाथ त्यागी का अपना अलग रंग है। इस विधा में उनका नाम न केवल स्थायी महत्त्व का हो जाता है, वह अपने वैशिष्ट्य से प्रथक् भी है। एक ओर तो वह हरिशंकर परसाई के तीक्ष्ण व प्रखर व्यंग्य से अलग है [और इसीलिए उसमें उस विराट् सामाजिक बोध की विरलता है जो परसाई की खास विशेषता है-इसका कारण शायद यह है कि त्यागी जी उस हद तक राजनीतिक पक्षधर और प्रतिबद्ध लेखक भी नहीं हैं] तो दूसरी ओर वह शरद जोशी आदि अन्य व्यंग्यकारों से अधिक गहन और व्यापक आशयों से भास्वर हैं। अमृतराय ने उनकी नब्ज पर अँगुली रखी है-‘‘एक गुदगुदी, एक चुटकी, एक पुरलुत्फ कैफियत जो बातों की रंगबिरंगी तितलियों के पीछे भागने में मिलती है।’’ त्यागी जी की खास बात उनकी उन्मुक्तता और लालित्य है। हिन्दी में इस तरह बिना किसी प्रकट और प्रत्यक्ष उद्देश्य के [निष्प्रयोजन और अहेतुक नहीं] लेखन की परम्परा बहुत विकसित नहीं है। शब्दों और विचारों के खिलवाड़-कौतुक (वर्डप्ले) के स्तर पर लेखन हिन्दी में विरल है। शायद इसका कारण हिन्दी की अकारण गम्भीरता है जो उसके पण्डितों ने उस पर जबरन लाद दी है और उसे जीवित और जिन्दादिल भाषा के बजाय वन्ध्या, नीरस और एक हद तक मृत बना दिया है।

त्यागीजी में वह जिन्दादिली और मस्ती या बेफिक्री है कि उनके लेखन को उन्मुक्त लेखन का दर्जा आसानी से दिया जा सकता है। उसमें एक सहज और स्वच्छन्द लेखन की भंगिमा हर जगह है और इसलिए वह एक ओर जहाँ निष्कलुष हास्य की सृष्टि करता है वहीं दूसरी ओर किसी भी ग्रन्थि से मुक्त व्यंग्य की रचना भी। हास्य के विषय में कहीं पढ़ा-सुना था कि उम्दा हास्य वह है जो उसे भी हँसने पर मजबूर कर दे जिस पर कि हँसा जा रहा है। त्यागी जी का हास्य ऐसा ही है। न तो उनके हास्य में और न ही उनके व्यंग्य में कोई दुर्भावना है और न वह हीन-ग्रन्थि का शिकार है। स्वस्थ मन और प्रकृति से ही वह उपजा है उनके हास्य की सृष्टि अकसर कहने के अन्दाज या फिर अतिरंजना से होती है और उनके अन्दाजे बयाँ के अस्त्र हैं उनकी ‘शार्पविट’ और उनकी वाग्विदग्धता।

अपनी उन्मुक्त उड़ान और मन की ‘ अनियन्त्रित दशा’ के कारण रवीन्द्र-नाथ त्यागी का रचना-संसार काफी विविध और व्यापक है। घर-परिवार, यार-दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, नौकर-चाकर और रोजमर्रा की जिन्दगी के आम पात्रों और स्थितियों से लेकर एक व्यापक सामाजिक अकर्मण्यता, पारम्परिक रूढियों की मोहाविष्टता, अफसरशाही, सार्वजनिक विघटन, महँगाई, घूस, भ्रष्टाचार, बेकारी, विधान-सभाओं की जूता-पैजार, मन्त्री, नेता और प्रतिपक्ष की राजनीति और नीतिहीनता और अवसरवाद, अनैतिक अखबार, छात्र-आन्दोलन की दिशाहीनता, अध्यापकों की संकीर्णता और शोधकार्यों की निस्सारता-गरज यह है कि स्वतंत्रता के बाद के भारत की पूरी संक्रान्ति और हास्यास्पदता उसमें उभरती है और जीती जा रही जिन्दगी के विविध स्तरीय अन्तर्विरोध और असंगतियाँ उघड़ जाती हैं। त्यागी जी खुद कवि हैं और साहित्य की राजनीति के दर्शक, शायद भोक्ता भी हों। इसीलिए उनके व्यंग्यों में हिन्दी साहित्य के समकालीन परिदृश्य भी खुलता है; सम्पादकों, प्रकाशकों और साहित्यकारों की अवसरवादिता, साहित्य की राजनीति और आन्दोलनों से फैली अराजकता, आलोचक और व्याख्याकारों की स्वेच्छाचारिता, लेखकों की छपास, प्रचारप्रियता, स्वैराचार और चौर्यवृत्ति-गरज यह कि साहित्यिक दुनिया की उठा-पटक, छीन-झपट, ले-लपक, गुटबाजी और फिरकापरस्ती सभी कुछ।

रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्यों का वातावरण काफी दोस्ताना और याराना है। उसमें सच्चे निबन्ध की वे विशषताएँ हैं जो उन्हें रम्यता प्रदान करती हैं। सर पर सवार होकर अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाने के बजाय, त्यागी जी मन के करीब सरककर गुफ्तगू करने में ज्यादा भरोसा करते हैं और इसलिए उनके लेखन में आत्मीयता और सह-अनुभूति अधिक है। उनके व्यंग्य की धार में वह तल्खी और तराशने का भाव भले न हो जो परसाई जी में है मगर उसमें कुछ ऐसी कैफियत है कि शिकार के मुँह से आवाज तक न निकले और चोट जो है वह भीतर ही भीतर बैठती चली जाय और दिनों तक कसकती रहे। इसका कारण यह भी है कि त्यागी जी ने न तो शुद्ध हास्य लिखा है न शुद्ध व्यंग्य न शुद्ध ललित निबन्ध। तीनों की मिली-जुली विशेषताओं को लेकर उन्होंने अपने खास रंग को चटख और शोख बना लिया है। उनके लेखन के पढ़ने से जो आनन्द मिलता है, वह इधर के बहुत सारे लेखन से नहीं मिलता। जो लेखन एक ‘डिलाइट’, एक ‘ज्वाय’, एक ‘एक्सटेसी’ दे उसकी अहमियत से इन्कार नहीं किया जा सकता।

रवीन्द्रनाथ त्यागी का दृष्टिकोण कोरम कोर अरोमैण्टिक और एण्टीरोमैण्टिक है। वह ढेर सारी परतों, मुद्राओं और छंद्मों के पीछे निहित भावना को उजागर करता है और किसी के प्रति भी भावुकता से भरा नहीं है। उनका परिसर काफी व्यापक और विविध है और उनकी उड़ानें काफी स्वच्छन्द। साहित्यिक विद्रूपताओं पर तो उनकी विशेष कृपा है, क्लासिकल युग से लेकर नवीनतम युग की साहित्यिक रूढ़ियों और छद्मों से लेकर फैशनों और प्रचलित नारेबाजी तक, उनके व्यंग्य का प्रसार है। हिन्दी कहानी में नये और आधुनिकता के नाम पर हुई दूकानदारी, फतवेबाजी, झूठी अन्तर्राष्ट्रीयता और आलोचना के स्वेच्छाचार पर उनके व्यंग्य जितना कह जाते हैं उतना गम्भीर से गम्भीर प्रबन्धों से भी कहना सम्भव नहीं है। व्यंग्य करते हुए उनका रुख जर्राह की तरह नहीं होता, उसमें एक संवेदन शीलता और साहनुभूतिपूर्ण हृदय स्पन्दित है, मजदूरों की मजबूरियों के प्रति उनमें सहानुभूति है और मध्यमवर्गीय मानसिकता पर चोट करते हुए भी उनकी स्थिति के लिए उनमें एक दर्द है। वे मुद्राओं और मैनरिज़्म को इस सीमा तक खींचते हैं कि उनकी विसंगतियाँ अपने- आप उजागर हो जाती हैं।
उनमें जितना वैविध्य है उतना उनके समकालीन किसी व्यंगकार में नहीं है।
जैसा कि मैंने पहले कहा, हास्य, व्यंग्य, विट-किसी भी भाषा की जीवन-शक्ति और पौरुष का लक्षण हैं। इस मामले में हिन्दी की नामर्दी और स्त्रैणता का इलाज करने वाले जिन चन्द लेखकों की भूमिका है उसमें रवीन्द्रनाथ त्यागी को भुलापाना मुश्किल होगा।

पूरब खिले पलाश पिया !

मैं काव्य-प्रेमी व्यक्ति हूँ। स्थिति यह कि नित्य लीला से जो कुछ भी समय शेष बचता है वह काव्य-पाठ को ठीक उसी भाँति दिया जाता है जिस प्रकार विनोबा जी को उर्वर धरती दान में दी जाती रही। आज जो एक काव्य-ग्रन्थ खोला तो उसकी एक पंक्ति मेरे मन को काफी गहराई तक छू गयी। पंक्ति थी-पूरब खिले पलाश पिया ! कवि के शब्दों में नायिका जो है वह नायक से कहती है कि आर्यपुत्र, पूर्व नाम की दिशा में पलाश नाम के फूल खिल गये। सोचता हूँ कि इस सूचना के प्राप्त होते ही आर्यपुत्र के सामने वसन्त का चित्र खड़ा हो गया होगा-ठीक उसी भाँति जिस प्रकार उसके सामने नायिका खड़ी थी। पद्माकार से लेकर न जाने कौन-कौन से कवि की पंक्तियाँ उसके दिमाग में पलाशों की छवि की भाँति कौंध गयी होंगी। ‘बनन में बागन में बगरो बसन्त है’ से शुरू करके राजा-रानी’ से ये दिन बसन्त के’ तक का सारा माल उसकी निगाहों में झूम उठा होगा। इसके बाद उसने वसन्त की खोज पलाशों में की या कि आर्यपुत्री में-यह बताना आपके हित में भले ही हो, साहित्य के हित में हर्गिज नहीं होगा। साहित्य में सस्पेन्स का होना सदा से जरूरी रहा है। इसी कारण जब तक आप पलाशों के बारे में कोई निश्चित मत धारण करने की स्थिति में पहुँचेंगे, तब तक कवि अपने आप को वर्षा ऋतु में ले जायेगा, जहाँ उसी पुश्तैनी अन्दाज में कन्या अपने प्रियतम से कहती होगी-असाढ़ की निशानी, ओ पिया पानी !
कविता का नशा हल्का होता जा रहा है। दिमाग ने काम करना फिर शुरू कर दिया। सोचता हूँ कि नायिका पूरब में पलाश खिलने की सूचना नायक को क्यों दे रही है ? कहीं यह तो नहीं कि उधर वह गरीब इन्सान लाठी लेकर पलाश-वन की दिशा में प्रस्थान करे और इधर वह कविप्रिया युवती आँगन के पिछले द्वार से कहीं और के लिए गतिशील हो जाये। अगर ऐसा है तो बात पलाशों पर कभी खत्म नहीं हो सकती। आज वह कहती होगी कि ‘पूरब खिले पलाश पिया’ तो कल कहेगी, ‘पश्चिम सजे आकाश पिया’। थका-माँदा नायक पश्चिम से लौटेगा तो वह पतिव्रता कहेगी कि ‘दक्षिण फूले कास पिया’ और दक्षिण से छुट्टी मिलेगी तो इठलाकर और नयन मटकाकर शेष दिशा के बारे में वह सूचित करेगी-‘उत्तर हिलती घास पिया’। नतीजा जाहिर है; नायक बेचारा जो है वह हमेशा दौरे पर ही रहेगा। कभी पलाश खिलेंगे तो कभी केतकी। इसके साथ-साथ वह पुष्पप्रेमी कन्या भी खिलती जायेगी। कवि के शब्दों में जो कुछ भी होगा, ठीक ही होगा।

मुझे लगता है मैं शायद गलती पर हूँ। लड़की शायद वाकई पलाशों की प्रेमी है। उनके माध्यम से वह अपनी बेचैनी कभी-कभी नायक तक पहुँचाती थी-यह दीगर बात है। उधर पलाश खिलते थे, इधर इसका दिल बल्लियों उछलने लगता था। जब दिल का उछलना बन्द होता था तब वह बालिका खुद उछलना शुरू कर देती थी। नायक जो था वह उसे शान्त करने की चेष्ठा करता था और कभी-कभी सफल भी हो जाता था। पर तब तक शायद उस कन्या को किसी दूसरे फूल की गन्ध आ जाती थी और दोनों प्राणी हाथों में हाथ डाले वन की ओर निकल पड़ते थे। कुल मिलाकर खासा अच्छा शगल था।
क्या ‘पुष्पचरित’ दिन थे जो ‘हर्षचरित’ की भाँति वहीं समाप्त हो गये। अब न वे पलाश हैं, न वे लड़कियाँ। अब तो जो लड़कियाँ उपलब्ध हैं वे ऐसी रसहीन हैं कि भोर होते ही पंचम स्वर में कहती हैं कि ओ प्रियतम, कुछ सुना, दुकान पर शायद बासमती आ गयी। जब तक आर्यपुत्र बासमती का रूप धारण करने वाली शकुन्तला को लेकर क्षत-विक्षत घर पहुँचता है तब तक दूसरा आग्रह सुनने को प्राप्त होता है कि सिगड़ी में प्रज्वलित होने वाला कोयले नाम का रत्न आज फिर प्राप्त हो रहा है; जाओ और ले आओ। हातिमताई है कि सारा दिन बोझा ढोता रहता है और हुस्नबानू के सवाल हैं कि खत्म ही नहीं होते। सात समुन्दर पार एक देश में विवाह घट रहे हैं और तलाक बढ़ रहे हैं, सन्तानों की उत्पत्ति की दर बहरहाल वहीं है जहाँ थी। मैं चारों ओर देखता हूँ और सोचता हूँ कि इस शस्यश्यामला धरती पर से कहाँ चले गये पलाशों के वन ? कहाँ चली गयीं वे रूपप्रेमी युवतियाँ ? आपको कोई ऐसी बाई मिले, तो मुझे खबर करना।
एक बात और भी है जो समझ में नहीं आ रही है। लड़की लोग ऐसी काम की बातें अपने पतियों से ही क्यों कहती थीं ? सारे मामलों में उस गरीब को ही क्यों तंग किया जाता था ? अगर पलाश खिले हैं तो उसकी शिकायत भी प्रियतम से ही की जायेगी। अगर किसी दिन दुपहर को लड़की का अंग-अंग टूटता था तो उसका इलाज भी उसी के गरीब शफाखानें में होता था। यह सरासर अन्याय था। आखिर ये सारी बातें लड़की अपने बाप से भी तो कह सकती थी ! मुझे एक लोकगीत याद आ रहा है, जिसमें कोई कम्बख्त चिड़िया सुबह-सुबह कूक कर नायिका का नाश्ता हराम कर देती थी और नायिका थी कि उस चिड़िया की शिकायत भी अपने प्रियतम से करती थी :

भिनसारे चिरैया काय बोली ?
ताती जलेबी, दुधा के लडुआ
जेवन न पाये पिया फिर बोली;
पाना पचासी के बीरा लगाये
चाबन न पाये पिया फिर बोली,
काय बोली ?
सखि, वसन्त आया.....

वसन्त फिर आ गया। सखी तो नहीं आयी मगर वसन्त अलबत्ता जरूर आ गया। सखी बेचारी अब क्या खाकर आएगी-उसकी एक इंजीनियर के साथ शादी जो हो गयी। वसन्त यहाँ छोड़कर वह चली गयी। वसन्त और वासन्ती बयार-ये चीज़ें मेरे लिए सहेजकर वह अपना मन अब सीमेण्ट, रेत, लोहे की छड़ें और सड़क कूटने के इंजन से बहलाएगी। कवियों ने इसीलिए तो कहा है कि वसन्त की ऋतु बड़ी दु:खदायी है। एक पहुँचे हुए कवि ने तो यहाँ तक कहा है कि आज सहसा मेरे मन में दु:ख हो रहा है, आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है और हृदय नामक स्थान पर पीड़ा नाम की वस्तु ज़रूरत से ज्यादा मात्रा में उत्पन्न हो रही है। मेरे इस अनायास दु:खी होने का क्या कारण ? कहीं वह वसन्त तो नहीं आ गया ?
वसन्त की ऋतु जहाँ दु:खी होने के लिए प्रसिद्ध है वहाँ काव्य-रचना के सन्दर्भ में इसने काफी नाम पाया है। कुल मिलाकर इस ऋतु में या तो लोग दु:खी रहते हैं या कविता करते हैं। जो लोग कविता करते हैं वे कविता करने के बाद दु:खी होते हैं। जहाँ तक कविता पढ़नेवालों का सम्बन्ध है-दु:खी होने की दिशा में उन्हें भी निराश नहीं किया जाता। ज्यादातर लोग ‘सखि, घर-घर में आया वसन्त’ वाली तर्ज पर काव्य-सृष्टि करते हैं जिसे पढ़कर साफ़ लगता है कि वसन्त न आकर मलेरिया विभाग के कर्मठ कर्मचारी मच्छर मारने तथा तेल छिड़कने आये हैं। जो अकवितावादी हैं उनका वसन्त तो गन्दे नाले और चुंगी की टट्टियों का ऐसा शौकीन हो गया है कि सड़कों, गुलमुहरों और आँगनों तक आना ही पसन्द नहीं करता। नतीजा यह होता है कि लोग-बाग पोथियाँ निकालते हैं और पुराने कवियों की कविताएँ गा-गाकर पढ़ते हैं। पद्माकर, देव और बिहारी ने वसन्त पर काफी जमकर लिखा है। बिहारी की नायिका का तो कहना ही क्या; जैसे छापामार सैनिक बरसात के बाद सक्रिय होते हैं, उसी भाँति बिहारी की नायिका भी वसन्त ऋतु में विशेष रूप से सक्रिय हुआ करती थी।

मैं कालिदास को खोलता हूँ। कालिदास को वसन्त से बड़ा प्रेम था। ‘कुमारसम्भव’ में जब यार लोग इस फिराक में थे कि शिव किसी प्रकार पार्वती से फँस जाएँ, तो सदा के चतुर इन्द्र ने कामदेव, वसन्त और रति को साथ ही साथ हिमालय पर भेजा था। पहाड़ों पर जाकर इन्होंने ऐसा नहीं किया कि किसी उम्दा होटल में सामान डाला और पिकनिक पर निकल गये। इन्होंने बड़ी तत्परता से अपनी ड्यूटी को अंजाम दिया। हिमालय पर जाकर वसन्त ने जँभाई ली। कालिदास के अनुसार जँभाई का लेना था कि पहाड़ों पर वसन्त आ गया। मैंने भी एक ऐसे जागीरदार को देखा है जिनकी जँभाई से वसन्त आता था। वसन्त उनके खिदमतगार का नाम था। हिमालय पर वसन्त क्या आया, लताएँ बिना बात पेड़ों से चिपटने लगीं और किन्नर दम्पती धरती पर बिखरी मदिरा में झाँक-झाँककर एक-दूसरे का मुख चूमने लगे। बाकी जो काम वसन्त की ऋतु में होते हैं, वे भी कसरत के साथ हुए। ‘रघुवंश’ में भी कालिदास ने वसन्त का वर्णन बड़ी तबीयत के साथ किया। इस बार वसन्त के अवसर पर कोयलों ने सुन्दर युवतियों से कहा कि ‘यह चतुर उम्र एक बार जाकर फिर नहीं आती। इस कारण यह मान तज दो, कलह बन्द करो और अपने प्रेमियों की दिशा में चरण बढ़ाओ।’’ युवतियाँ उन दिनों समझदार किस्म की होती थीं-वे मान गयीं। कितने सुन्दर दिन थे। यदि यही बात मैं लड़कियों से आज कह दूँ तो निश्चित है कि जूता खाने को मिले। ‘रघुवंश’ के बाद कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ में फिर वसन्त पर ध्यान दिया। जहाज का पंछी जिस प्रकार उड़-उड़कर फिर जहाज पर आ जाता है और आज के कहानीकार जिस प्रकार हर कथावस्तु में यौन-विकृतियों का सन्दर्भ ढूँढ़ ही लेते हैं, उसी प्रकार कालिदास भी घूम-फिरकर फिर वसन्त पर आ जाते थे। इस प्रवृत्ति के आधार पर आज के यौन-कुण्ठित कथाकार, कालिदास के समकक्ष उतरते हैं।


सेक्स से कालिदास को भी बहुत प्रेम था मगर उसमें और आज के सेक्स-चित्रण में अन्तर था। आज का सेक्स-चित्रण अश्लील है, अनैतिक है, वह सेक्स के लिए सेक्सवाले सिद्धान्त पर आधारित है। खजुराहों, कोणार्क, अजन्ता इत्यादि में चित्रित व कालिदास या जयदेव द्वारा वर्णित सेक्स उदात्त है, ऐश्वरीय है, देह के ऊपर है। उसे देखकर या पढ़कर लड़कियों के विचार खराब नहीं, वरन् पवित्र होते हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ों अमेरिकन युवतियाँ खजुराहों की मूर्तियाँ देखने आती हैं और अपने विचार पवित्र करके वापस चली जाती हैं। ‘मेघदूत’ में नायक द्वारा नायिका के नाड़ा खोलने की जो कथा प्रस्तुत की गयी वह ‘पुरुष’ द्वारा ‘प्रकृति’ के बन्धन खोलने की प्रतीक है। जो लोग इसे सांसारिक अर्थें में लेते हैं वे नीच हैं। उनके विचार पहले से ही दूषित हैं और उन दूषित विचारों का आरोपण वे पवित्र वस्तुओं पर करते हैं। कालिदास कितना महान् था और हम कितने गिरे हुए इन्सान हैं। मगर वसन्त की ऋतु में यह भेदभाव-भरी दृष्टि शोभा नहीं देती। कवि कहता है-सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ! हे प्रिये, वसन्त की ऋतु में सब-कुछ और ज्यादा सुन्दर हो गया।

‘ऋतुसंहार’ में कालिदास ने वसन्त का जो वर्णन किया है वह नितान्त पवित्र व अलौकिक है। उस वर्णन को भी लौकिक अर्थों में लेना कवि के साथ अन्याय करना ही है। कवि कहता है कि ‘वसन्त में पेड़ फूलों से युक्त हैं, जल कमल से युक्त है, हवा सुगन्धि से युक्त है और स्त्रियाँ कामदेव से युक्त हैं। सभी कुछ सुन्दर है। इस ऋतु में कामवती रमणियों के नितम्बों को कुसुम रंग से रँगे कपड़ों से और स्तनों को कुंकुमरंजित गोरे वस्त्रों से सजाया जाता है। इन दिनों स्त्रियाँ कानों में कनेर व अशोक के पुष्प धारण करती हैं। जो युवतियाँ मदनातुर हैं उनके स्तनों पर सफेद चन्दन से सिक्त मालाएँ सुशोभित हैं। पृथ्वी फूलों के कारण लाल बहू सरीखी दीखती है। अशोक के वृक्ष फूलों से लद गये हैं और स्थिति इतनी नाजुक हो गयी है कि पतियों के पास रहते हुए भी युवतियाँ उत्सुक हो रही हैं।’ जैसा कि मैंने पहले ही कहा, इन बातों को लौकिक अर्थों में लेना कवि के साथ अन्याय करना है। कवि कहता है कि वसन्त का सौन्दर्य देखकर सहृदय लोग व्यथित हो रहे हैं। वसन्त का दु:खी होने से जो चिरन्तन सम्बन्ध है वह कालिदास ने भी निभाया है। इस दु:ख के अतिरिक्त शेष जो कुछ है, वह वसन्त में सब सुन्दर है।

मैं ‘ऋतुसंहार’ बन्द कर देता हूँ। इसे पढ़कर मेरा मन भी दु:खी होने लगता है। सोचता हूँ कि हिन्दी की आज की कविता से तो लोकगीत ही ज्यादा दमदार होते हैं। कोई-कोई होली ऐसी फड़कती हुई होती है कि एक बार सुनकर उम्र-भर याद रहती है। एक होली मुझे याद है जिसमें एक युवती सबसे होली खेलने के निजी संकल्प पर प्रकाश डालती है। ‘मैं ससुर जी से होली खेलूँगी तो घूँघट की ओट करूँगी। जेठजी से खेलूँगी तो बरोठे की ओट करूँगी, देवर से खेलूँगी तो नयनों की ओट से काम निकाला जाएगा। अन्त में चलकर जब चौथी होली बलमजी से खेल्यों तो खेल्यों जोबनवा की ओट।’ कितना पवित्र प्रेम है। सादा जीवन उच्च विचार। फागुन में कहीं-कहीं ‘कबीर’ भी गाया जाता है। यह काफी साफ किस्म की शायरी होती है और इसमें स्त्री-पुरुषों के आपसी सम्बन्धों पर कुछ इस अन्दाज से प्रकाश डाला जाता है कि सुनकर लज्जा आती है। काव्य की इस विधा में मुझे बचपन से ही बड़ी रुचि रही है और कुछ कबीर तो मुझे याद भी हैं। चूँकि आपके विचार दूषित हैं, मैं उन्हें यहाँ सुनाऊँगा नहीं।
वसन्त आ गया। पलाश नहीं फूले वरन् किसी ने अपना कलेजा ही काढ़-काढ़कर वृक्षों की डालों पर लटका दिया। जैसा कि जाहिर है काफी बड़े कलेजे का कोई प्रेमी रहा होगा वरना इतने वृक्षों की सेवा एक साथ होनी मुश्किल थी। भौरें गूँजने लगे।

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