लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> अध्यात्म पदावली

अध्यात्म पदावली

राजकुमार जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :346
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 723
आईएसबीएन :81-263-1172-x

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

108 पाठक हैं

प्रस्तुत है हिन्दी के प्रमुख जैन भक्त कवियों के आध्यात्मिक पदों का संकलन....

Aadhyatma Padawali a hindi book by Rajkumar jain -अध्यात्म पदावली - राजकुमार जैन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

(प्रथम संस्करण से)

भारतवर्ष अति प्राचीन काल से अध्यात्म-विद्या की लीलाभूमि रहा है। अपनी आधिदैविक एवं आधिभौतिक समृद्धि के साथ उसके मनीषी साधकों ने अध्यात्म-क्षेत्र में जिस चिरन्तन सत्य का साक्षात्कार किया, उसकी प्रभास्वर रश्मिमाला से विश्व का प्रत्येक भू-भाग आलोकित है। भारतीय साहित्य तथा इतिहास का अध्ययन इस बात का साक्षी है कि आध्यात्मिक गवेषणा और उनका सम्यक् आचरण ही उसके सत्यशोधी पृथ्वी-पुत्रों के जीवन का एकमात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है। इसी लोक-मंगलकारिणी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के द्वारा भारत ने चिरकाल से विश्व का नेतृत्व किया और इसी की ही संजीवनी शक्ति से अनुप्राणित होकर आज भी उसकी वैदेहिक नीति विश्व को विस्मय-विमुग्ध करती हुई विजयिनी हो रही है।

जैन, वैदिक एवं बौद्ध तीनों परम्पराओं में अध्यात्म-विद्या की गरिमा का यथेष्ट गान और इसके द्वारा सम्प्रदाय आत्म-स्वातन्त्र्य का लाभ ही मानव जीवन का परम पुरुषार्थ उद्घोषित किया गया है। यद्यपि आज भौतिक-भक्ति के इस युग में मानव श्रेय की अपेक्षा प्रेय ही का सर्वात्मना पूजक हो रहा है, परन्तु अन्ततोगत्वा आत्मकल्याण के लिए उसे अध्यात्म-साधना ही की शरण लेनी होगी- ‘अध्यात्म-साधनशरणं गच्छामि’ की पवित्र भावना ही उसका त्राण कर सकेगी।
‘अध्यात्म-पदावली’ की भूमिका में हमने अति संक्षेप में उक्त त्रिविध परम्परा-सम्मत अध्यात्म-रूपों के संबंध में विनम्रभाव से प्रकाश डाला है। जैन अध्यात्म-पुरस्कर्ताओं के समान अन्य परम्पराओं में भी उदात्तचेता आध्यात्मिक एवं पदकार हो गये हैं। स्थानभाव के कारण हमने जानबूझ कर उन्हें यहाँ चित्रित नहीं है और न ही उनके अध्यात्म-रस-कलित पदों की संकलना की है। आज का हिन्दी-सेवी संसार जैन हिन्दी पदकारों की अध्यात्म-रसमयी काव्यधाराओं में अवगाहन कर ब्रह्मानन्द सहोदरी रसानुभूति करे और इस उपेक्षित धारा को भी भारती माता के मन्दिर में यथोचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, ‘अध्यात्म-पदावली’ के सम्पादन में मुख्यत: हमारी यही दृष्टि रही है।

वस्तुत:यह पुस्तक सौ. श्रीमती रमारानी जैन, धर्मपत्नी श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजी जैन, की चिरसंचित हार्दिक अभिलाषा का ही एक मूर्तमान रूप है। उन्हीं की प्रेरणा से लगभग आठ वर्ष पूर्व हमने इस कार्य को प्रारम्भ किया था, परन्तु खेद है कि अपनी व्यक्तिगत विवशताओं तथा प्रमाद के कारण हम इसे यथासमय पूर्ण नहीं कर सके। इस अन्तराल में मान्य बन्धुवर श्री अयोध्या प्रसाद जी गोयलीय, मन्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ने भी पदावली को यथाशीघ्र सम्पादित करने हेतु अनेक बार प्रेमपूर्ण प्रेरणाएँ कीं। हमारी ओर से उन्हें अनेक निश्चयात्मक वचन भी दिए गये, परन्तु वे पूरे न हो सके। आज उत्तम क्षमा की इस पुण्य वेला में इस प्रमाद के लिए हम उनसे तथा सौ. श्रीमती रमारानी से विनम्र ह्वदय से क्षमा-प्रार्थना करते हैं।

इस अवसर पर सुप्रसिद्ध साहित्यसेवी श्री अगरचन्द्रजी नाहटा के प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। जिन्होंने कतिपय अनुपलब्ध महत्त्वपूर्ण पदसंग्रह भेजकर हमारी सहायता की। बन्धुवर प्रो. श्री भरतसिंह जी उपाध्याय के भी हम बहुत कृतज्ञ हैं जिन्होंने लीडर प्रेस इलाहाबाद से शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाले ‘बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन’ नामक अपने महान् दार्शनिक ग्रन्थ के फार्मों का उपयोग कर लेने के लाभ से हमें उपकृत किया।
उन समस्त मनीषी लेखकों के भी हम विनम्र ह्वदय से अनुगृहीत हैं, जिनकी रचनाओं का पदावली के सम्पादन में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष- किसी भी रीति से उपयोग हुआ।

यदि प्रस्तुत पदावली सह्नदय अध्यात्म-प्रेमियों का किंचित् भी मनोरंजन कर सकी तो हमारा यह संयोजना-श्रम और परम पवित्र अभिलाषा का वह बीज अंशत: अवश्यमेव सफल हो गया।

आमुख

भारतीय प्रतिभा भी किन-किन रूपों और रंगों में व्यक्त हुई है! साहित्य के क्षेत्र में जब हमारे कवि-कलाकारों ने एक-दो नहीं, नौ रसों की सृष्टि कर डाली तो मानव-ह्वदय विस्मय से विमुग्ध हो गया। उसने कहा- ‘षट् रस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता माँहि!’ इस विमुग्धता का कारण यह है कि जब काव्य में किसी भी रस का प्रवाह उमड़ता है तो वह पाठक या श्रोता के मन को निमग्न कर देता है।

पर क्या आज यह हम सोचते हैं कि ये नौ रस साहित्य के विकास में बहुत बाद की वस्तु हैं जिन्हें भरत मुनि ने मनुष्य की स्थायी प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके मनोवैज्ञानिक आधार पर आयोजित किया? प्राचीन साहित्य में रस की कल्पना इससे कहीं ऊँची थी। उस समय रस अविभाज्य था। उसकी उपलब्धि मन से ही नहीं, ह्रदय से और आत्मा से मानी जाती थी। उस समय ‘रस’ ही ‘आनन्द’ था। ‘रसो वै स:’- ‘वह’ रस ही है। कौन ‘वह’? ईश्वर, आत्मा, सत्य, परम-तत्त्व, ऊँचे-से-ऊँचे ‘वह सब कुछ’ जो मनुष्य की कल्पना में आ सकता था। संक्षेप में यह, कि उस समय रस का आधार आध्यात्मिक था।
‘अध्यात्म’ और ‘आध्यात्मिक’ ऐसे शब्द हैं जो हमारे आज के इन्द्रियानुगतिक जीवन में बड़े ऊपरी, अलग-थलग, और कानों को ठस मालूम पड़ते हैं। इन्द्रियों की और इन्द्रिय-जन्य सुख की बात हम समझते हैं। लू की झुलस के बाद, रैफ्रीजरेटर के पानी में बने गुलाब के शर्बत का बिल्लौरी ग्लास जब हमारे सूखे होठों को स्पर्श करता है तो ईषत्-आरक्त-शीत-मधुर-सौरभ पर हमारे तन-मन तृप्ति और सुख से पुलक उठते हैं। हम उस संगीत से भी परिचित हैं जो अपनी लय-तान के जादू से हमारे ह्वदय को गुदगदाता है और हमें झुमा-झुमा देता है, चाहे इस जादू का स्रोत्र सैल्यूलाइड की वह नाखूनी पट्टी ही हो जिसका जाना माना काम यही है कि सहस्रों खण्ड-चित्रों और असंख्य ध्वनि-परमाणुओं को विद्युत्वेग से घुमाकर वह हमें धोखे में डाल दे। आलोक और छाया की मायावी मूर्तियों पर हमने संवेदना के कितने पुलकपुंज अर्पित किये हैं!

स्पर्श-रस गन्ध-वर्ण-नाद के ये उपर्युक्त सुख इन्द्रियों और मन की अनुभूति के सुख हैं। यदि हम ध्यानपूर्वक सोचें तो पाएँगे कि एक-दूसरे प्रकार के भी सुख हैं जिनके अनुभूति-स्रोत का विश्लेषण हमें इन्द्रियों के स्तर से ऊपर ले जाता है। गाँधी जी का व्याख्यान सुनकर जो सहस्रों व्यक्ति देश-सेवा की भावना से प्रेरित हो दनदनाती गोलियों के सामने सीना तानकर खड़े हो गये; और जो गाँधी स्वयं गोली के ह्वदय-वेधी विष को ‘हे राम!’ के अमृत में घोलकर शान्तभाव से पी गया; जो ईसा दो लुटेरों के बीच, क्रूस पर कीलित-देह यह कहता हुआ प्राणोत्सर्ग कर गया- ‘हे प्रभु! इन्हें क्षमा करों, क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं’; जो महावीर और बुद्ध अतुल वैभव-विलास छोड़कर बीहड़ वनों में क्षुधा-जर्जरित, ठिठुरते-तपते साधना साधते फिरे; इन सबको जिस आनन्द की उपलब्धि हुई वह क्या किसी इन्द्रिय-विशेष का विषय है? दूसरों को सुख पहुँचाने से, दूसरों के दु:खों का प्रतिकार करने से, पतित से पतित को भी अपरिमित करुणा देने से स्वयं को जो आनन्द होता है उस आनन्द की जाति औऱ उसकी अभिधा बिलकुल भिन्न प्रकार की है। यह सुख हमें इसलिए इसलिए प्राप्त होता है कि हम अपनी आत्मा के अनुभूतिमय प्रक्षेप और आरोप द्वारा दूसरों के सुख-दु:ख को आत्मसात् करते हैं, उनके हाथ तादात्म्य होकर सहअनुभूति करते हैं। यह अनुभूति जब ह्वदय, मन और आत्मा के स्तर पर होती है और उससे सुख प्राप्त होता है तो वह ‘आध्यात्मिक सुख’ सुख कहलाता है। उपर्युक्त दृष्टान्तों में अध्यात्म का क्रियात्मक रूप सामने आया है।
साहित्य अपनी सीमाओं के भीतर अध्यात्म के जिस रूप को विकसित करता है वह अध्यात्म का भाव पक्ष है। इस भावात्मक रूप की उपलब्धि के लिए व्यक्ति को अन्तर्मुखी होना पड़ता है। और व्यक्ति जब अन्तर्मुखी होता है तो वह अपनी प्रतिभा और प्रकृति के अनुरूप या तो वह अपनी प्रतिभा और प्रकृति के अनुरूप या तो श्रद्धा के माध्यम से आत्मा को पाता है या विवेक के। इस तरह अध्यात्म के दो रूप हो जाते हैं-एक भक्ति का और दूसरा ज्ञान का। श्रद्धा-भक्ति मानव के विकास-मार्ग की पहली मंज़िल है, ज्ञान दूसरी, और विवेक पूर्ण आचरण तीसरी मंजिल है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण के समन्वय का ही नाम सर्व-अर्थ-सिद्धि है, और यही मोक्ष है।

हमारे यहाँ के साहित्य में अध्यात्म का भक्तिमूलक भावपक्ष आदिकाल से लेकर अब तक जिन प्रमुख रूपों में व्यक्त हुआ है, वे हैं- ऋचाएँ, पाठ, स्तोम, स्तोत्र, स्तवन, स्तुति, थुति, पद, भजन, कीर्तन आदि। हिन्दी में अब तक सूर, तुलसी, मीरा, नरसी आदि महान भक्त कवियों के जो मधुर पद प्रकाशित हैं उनमें भक्ति का बड़ा मोहक रूप चित्रित है। इन भक्तों ने अपने आप को भगवान के प्रति सभी रूपों में अर्पित किया है- दास रूप में, सखा रूप में, सखी रूप में, वधू रूप में- आदि।
प्रस्तुत ‘अध्यात्म-पदावली’ में प्रो. राजकुमार जैन ने कुछ ऐसे पदों का संकलन किया है और उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है जिनमें भक्ति का एक दूसरा रूप उभरा है- वह रूप जिसमें भक्त ने भगवान के प्रति आत्म-निवेदन विनीत भाव से किया तो है, पर उसने जीवन की उपलब्धि और लक्ष्य जन्म-जन्मान्तर की चरण-सेवा न मानकर जन्म मृत्यु के बन्धनों से मुक्ति माना है। भक्त स्वावलम्बी होना चाहता है। भक्ति के इस रूप का तुलनात्मक अध्ययन बड़ा रोचक है। अब तक की परिचित भक्ति-भावना का रूप जो अन्य कवियों में मिलता है, वह इस प्रकार है: मुकुन्दमाला का एक श्लोक है:

नास्था धर्मे न वसु-निचये नैव कामोपभोगे
यद्भाव्यं तद् भवतु भगवन् पूर्व कर्मानुरूपम्।
एतत्प्रार्थ्यं मम बहुमतं जन्मजन्मान्तरेऽपि
त्वत्पादाम्भोरुहयुगगता निश्चला भक्तिरस्तु।।

हे भगवान्! मेरी न तो धर्म में आस्था है, न धन-संग्रह में और न कामभोग में । यह सब तो मेरे पूर्व कर्मों के अनुसार जिस तरह होने हों, हों। मेरी तो एक बड़ी मनचाही प्रार्थना यही है कि जन्म-जन्मान्तरों में भी आपके युगल-चरण-कमलों में मेरी अटूट-अचल भक्ति बनी रहे।

हिन्दी काव्य में भक्ति की यही परम्परा मुख्य रूप से प्रकट हुई है। तुलसीदास जी कहते हैं:

यह विनती रघुवीर गुसाँई।
चहों न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि सिधि विपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग रामपद बढ़ै अनुदिन अधिकाई।।
सूरदासजी की भक्ति का लक्ष्य है-

जैसे राखहु वैसे हि रहौं।
कमल-नयन घनश्याम मनोहर, अनुचर भयो रहौं।
सूरदास प्रभु भक्त कृपानिधि, तुम्हरे चरन गहौं।।

जनम-जनम की दासी मीरा की भक्ति-गाथा और उसकी प्रेम-व्यथा तो जन-जन के मन में पैठ गयी है:

आली रे मेरे नैणां बाण पड़ी।
कैसे प्राण पिया बिनु राखूँ, जीवन मूल जड़ी ।
मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहैं बिगड़ी।।
नरसी का एक भजन है-
हरि को जन तो मुक्ति न माँगे, माँगे जनम-जनम अवतार रे,
नित सेवा नित कीर्तन उच्छव, निरखे नन्दकुमार रे।

अब ‘अध्यात्म-पदावली’ में संकलित भक्ति रस के कुछ पदों की प्रेरणा का तत्त्व परखिए।

कवि दौलतराम का पद है-
सुधि लीजौ जी म्हारी, मोहि भव दुख दुखिया जान के।।
जो विधि अरी करी हमरी गति, सो तुम जानत सारी।
याद किए दुख होय किए ज्यों, लागत कोटि कटारी।।
यद्यपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगट करतारी।
ज्यों रवि-किरन सहज मगदर्शक, यह निमित्त अनिवारी।।

इस पद की पृष्ठभूमि नितान्त दार्शनिक है। कवि भगवान से प्रार्थी है कि वह उसकी सुधि लें क्योंकि कवि दु:खी है। उसका दु:ख यह है कि उसका बार-बार जन्म-मरण होता है और उसे भव के दु:ख उठाने पड़ते हैं। अरि विधि (कर्म-शत्रु) ने उसकी जो दुर्गति की है, उसे भगवान जानते ही हैं, क्योंकि वह ज्ञान रूप हैं। कर्म-जन्य आवागमन का दु:ख इतना गहरा है कि उसको याद करने से कलेजे में करोड़ों कटारियों के चुभन की वेदना होती है। भक्त कवि प्रार्थना तो करता है, पर जानता है कि जिस प्रभु से वह प्रार्थना कर रहा है वह वीतराग हैं, स्वयं मुक्त हैं। वह प्रभु संसार के मायाजाल का नियन्त्रण नहीं करता है कि पहले तो किसी को दु:ख में डाले और फिर उसे दु:ख से उभारता फिरे। इसीलिए अपनी प्रार्थना का हेतु कवि यों निवेदन करता है कि भगवान, यद्यपि आप स्वयं वीतराग हैं, फिर भी आपके भव्य व्यक्तित्व का मनन-चिन्तन ऐसा है कि वह स्वयं ही मोक्ष के मार्ग को उद्भासित कर देता है। सूर्य की किरन जब प्रकट होती है तो रास्ता अपने आप नजर आने लगता है। सूर्य-किरन मार्गदर्शन कराती नहीं है, हाँ, उसका अनिवार्य निमित्त-कारण अवश्य है। इसी भाव को उन्होंने अपने एक दूसरे पद्य में स्पष्ट किया है-
हे जिन, मेरी ऐसी बुधि कीजै।
कर्म कर्मफल मांहि न राचै, ज्ञान सुधारस पीजै।
मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज ‘दौल’ की लीजै।।

जिनेन्द्र भगवान! मेरी ऐसी सुबुद्धि हो कि मैं कर्म और कर्मफल में अपनी राग-द्वेष बुद्धि न रखूँ। मेरी यह अर्ज आप सुन लें, इसलिए कि आप मेरे कारज (कार्य-उद्देश्य) के कारण रूप हैं। अर्थात आप कर्त्ता के रूप में मुझे इच्छित फल की प्राप्ति नहीं करवाते; हाँ, आप कारण रूप अवश्य हैं क्योंकि आपके परमात्मपद का चिन्तन स्वयमेव विवेक जगाता है और मोक्ष की उपलब्धि करवाता है।
इन पदों में भजन-पूजन का उद्देश्य बार-बार स्पष्ट किया गया है। यहाँ भक्ति का अन्तिम लक्ष्य चरण-सेवा नहीं है। लक्ष्य है, वीतराग अवस्था की प्राप्ति , वैराग्य दशा की उपलब्धि और उसके द्वारा भव-मुक्ति।
कवि द्यानतराय की याचना है-
मेरी बेर कहा ढील करी जी।
सांप कियो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरो जी,
द्यानत मैं कछु जाचत नाहीं, कर वैराग्य-दशा हमरी जी।
यद्यपि यह पद दार्शनिक पृष्ठभूमि पर भगवान के प्रति निवेदित है, फिर भी इसमें अनुभूति और निवेदन का वैयक्तिक आधार स्पष्ट है, इसीलिए यह पद सरस और प्रभावपूर्ण है। देखिए, वैयक्तिक निवेदन किस विनोदपूर्ण ढंग से इन्हीं द्यानतराय ने व्यक्त किया है-
तु प्रभु कहियत दीन दयाल।
आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल।
भले बुरे हम भगत तिहारे जानत हो हम चाल।।
तो फिर कवि चाहते क्या हैं ?
और कछू नहिं, यह चाहत हैं, राग-दोष कौं टाल,
तुम प्रभु कहियत दीन दयाल।।
भजनोपासना के उद्देश्य और लक्ष्य में ही यह दार्शनिक तत्त्व व्यक्त नहीं किया गया है, उपास्य की मूर्ति पर उपासना की विधि में भी दार्शनिक प्रतीकों का आरोप है। तुलसी, सूर और मीरा जब भगवान कृष्ण या राम का रूप चित्रित करते हैं, तो ‘शिर मुकुट कुण्डल तिलक चार उदार अंग विभूषणम्’ (तुलसी) या ‘केसरतिलक मोतिन की माला वृन्दावन को वासी’ (सूर) अथवा ‘मोरमुकुट पीताम्बर सोहे, गल बैजन्ती माला’ (मीरा) का वर्णन करते हैं। इधर जब द्यानतराय भगवान की मूर्ति का चित्र खींचते हैं तो उन्हें ध्यान-मग्न मुद्रा ही आकर्षित करती है-
देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है।
कर-ऊपर-कर सुभग बिराजे, आसन थिर ठहराया है।
जगत विभूति भूति सम तज कर, निजानन्द पद ध्याया है।।
शुद्धयुपयोग-हुताशन में जिन, वसु विधि समिध जलाया है।
श्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है।।
हथेली पर हथेली रखे, स्थिर आसन से बैठी भगवान की यह ध्यानमग्न सौम्य मूर्ति है। इन्होंने संसार की विभूति को चुटकी-भर भभूत (राख) की तरह त्याग दिया और अब आत्मा की उस स्थिति का ध्यान कर रहे हैं जो परम-आनन्द-मय है। उनके सिर पर यह जो श्यामल लटें लहरा रही हैं, यह मानों उस धुएँ की लपटें हैं,जो शुद्ध-उपयोग (आत्मध्यान) की अग्नि से उठ रही हैं क्योंकि इस अग्नि में ज्ञानावरण –आदि अष्ट कर्मो की समिधा (हवन द्रव्य) जला दी गयी है।
ऐसी मूर्ति को नमस्कार करना स्वाभाविक ही है। फिर भी इसका एक कारण भूधरदास इस प्रकार देते हैं-
इक चित ध्यावत, वांछित पावत, आवत मंगल, विघन टरै,
मोहनि धूल परी माथै चिर, सिर नावत तत्काल झरै।
जिन राज चरण मन! मत विसरै।।
चिरकाल से हमारे माथे पर मोहनीय कर्म की धूल पड़ी हुई है, भगवान के चरणों के आगे सिर झुकाते ही वह धूल झड़ जाएगी। हे मन! जिनेन्द्र भगवान के चरणों का ध्यान मत भूल। मत भूल, क्योंकि-
को जानै किहि बार काल की धार अचानक आन परै,
जिन राज चरन मन! मत बिसरै।।
कितने सीधे शब्दों में कितनी गहरी बात, किस प्रभावपूर्ण ढंग से कह दी है। कितना प्रसाद है इन पक्तियों में। ‘‘कौन जानता है कि काल का दुधारा किस समय अचानक ही गर्दन पर आ गिरै।’’ भक्ति-भावना के अतिरिक्त प्रस्तुत पदावली का प्राय: तीन चौथाई भाग ऐसे आध्यात्मिक पदों का है। जिसमें व्यक्ति को आत्मज्ञान, विवेक और वीतराग-अवस्थाप्राप्त करने को प्रेरित किया गया है। यह उपदेश अवश्य है, पर ऐसा उपदेश जिसके पीछे कवियों का अनुभूत जीवन-दर्शन है। इन पदों की प्रेरणा का प्रभाव इस बात में है कि इनके कवि अडिग विश्वास और श्रद्धा से स्वयं प्रेरित हैं। किस-किस ढंग से, किन-किन तर्कों से, किन-किन संबोधनों से- दुलारकर, समझाकर, लताड़कर, लानत भेजकर, सब तरह से- वे श्रोता के ह्वदय में अध्यात्म-तत्त्व जगाना चाहते हैं। कितनी करुणा है इन कवियों के उर में।

कैसी मिसरी-सी मीठी और कैसी तीर-सी सीधी हैं इनकी बातें। और आत्मीयता इतनी कि जैसे सारा पद आपके लिए, केवल आपके लिए, रचा गया हो। अनेक पदों की प्रथम पक्ति में ही यह मनुहार और दुलार देखिए-
मान ले या सिख मेरी।
छाँड़ि दे या बुधि भोरी।
रे मन! कर सदा सन्तोष।
ऐसा काज़ न करना हो।
विपत्ति में धर धीर रे नर!
देखो भाई! महा विकल संसार।
देखिए, यह खीज और झुँझलाहट, लेकिन कितनी आत्मीय-
तोहि समझायो सौ सौ बार।
तू तो समझ समझ रे भाई!
चेतन तोहि न नेक सँभार।
और, इस करुणा और स्नेह का क्या ठिकाना-
भोंदू भाई! समुझ सबद यह मेरा।
भोंदू भाई! ते हिरदै की आँखैं।
और जब व्यक्ति इस दुलार, खीज और करुणा से भी न समझे तो फिर-
रे मन! तेरी को कुटेव यह।
चेतन! उलटीचाल चले।
जीव! तू मूढ़ पना कित पायो।
बिरथा जनम गवायो मूरख।
पर क्या ये सब संबोधन, ये दुलार-पुचकार, यह खीज और यह लानत-मलामत, सब श्रोताओं के लिए हैं ? नहीं। वास्तव में कवि अपने ही मन को हर तरह से समझा-बुझा रहा है और अपने अन्दर के चैतन्य को जागृत करना चाहता है।

इन पदों में अध्यात्म का वह ज्ञान-पक्ष पूर्णरूप से विकसित अवस्था में मिलता है जिसका आभास-मात्र कबीर, दादू और नानक के पदों में झलकता है। यों इस अध्यात्म को किसी धर्म-विशेष और दर्शन-विशेष से इसलिए संबंधित कर लेते हैं कि उस धर्म में इसकी परम्परा प्रधान रूप से रही है और उसी दर्शन में यह ज्ञान खुलकर फूला-फला है। पर इस विचारधारा का प्रभाव प्राय: सभी निर्गुण-पंथियों और ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों में अच्छी तरह प्रतिबिम्बित है।
उदाहरण के लिए कबीर की वाणी-
साधो सहज समाध भली।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कह ‘कबीर’ यह उन मुनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परम पद, तेहि पद रहा समाई।।
और गुरुनानक का यह उपदेश-
साधो, मन का मान त्यागों।
सुख दुख दोनों सम करि जानौ, और मान अपमाना।
हर्ष शोक तें रहै अतीता, तिन जग तत्व पिछाना।।
अस्तुति निन्दा दोऊ त्यागे। खोजै पद निरवाना।
जन ‘नानक’ यह खेल कठिन है, कोऊ गुरुमुख जाना।।
दोनों पदों की आध्यात्मिकता का वही रूप है जो प्रस्तुत संकलन के पदों में परिपक्व हुआ है।
इस संग्रह के ज्ञान-मूलक उद्बोधन-कारी पदों की एक विशेषता यह है कि इसमें वस्तु-तत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए जो उपमाएँ, अलंकार और प्रतीक लिये गये हैं उनमें व्यावहारिक्ता का पुट है। समस्त साहित्यिकता और सरसता को अक्षुण्ण बनाये रखकर भी कवियों ने प्रयत्न किया है कि इन पदों की आध्यात्मिकता सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो। इसलिए इनकी शैली, अभिव्यंजना और उपमाएँ बड़ी सीधी और ह्वदयग्राही हैं। प्राय: प्रत्येक दार्शनिक स्थापना के समर्थन में व्यावहारिक हेतु और उजागर दृष्टान्त प्रस्तुत किये गये हैं।

कुछ उदाहरण लीजिए-
कवि बुधजन समझाना चाहते हैं कि मनुष्य पर्याय पाकर इसे विषयभोग में बिता देना बहुत बड़ी मूर्खता है। कैसा चुभता हुआ उदाहरण दिया है-
यों भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईंधन ढोना हो।
इस चित्र को आँखों के आगे खड़ा कीजिए। कैसा मूर्ख होगा वह पुरुष जो राजसी हाथी को ईंधन ढोने के काम में प्रयुक्त करे। इसी प्रकार का एक दूसरा व्यंग्य कवि भूधर ने कसा है-
चेतन नाम, भयो जड़ काहे, अपनो नाम गमायो।
तीन लोक को राज छाँड़ि के, भीख माँग न लजायो।
भगवान का दर्शन करते हुए भी आदमी का मन भटक जाता है। ‘मनवा फिरे बजार में’ वाली युक्ति को बिल्कुल विशिष्ट और वैयक्तिक बनाकर उन्होंने लिखा है-
वीतराग के दरसन ही तैं, उदासीनता आवै।
तू तौ जिन के सन्मुख ठाड़ा, सुत को ख्याल खिलावै।।
इसके व्यंग्य पर लक्ष्य दीजिए। आदमी उन वीतराग भगवान के दर्शन करने पहुँचा है, जिनके दर्शन मोहवृत्ति से छुटकारा दिलाते हैं। मूर्ति के सामने खड़ा है और घर में पालने में पड़े अपने बेटे का ध्यान कर रहा है- नहीं , ध्यान ही नहीं, ‘ख्याल खिलावै’ सुत के ध्यान को साक्षात् सुत की तरह मन में खिला रहा है। भाई, ऐसे देवदर्शन से क्या लाभ? भगवान को मान्यता देने का भूधर का यह तर्क देखिए। भगवान भी दंग रह जाएँ कि किसी ने फन की दाद दी है-
सुन ठगनी माया, तैं सब जग ठगि खाया।
‘भूधर’ ठगत फिरत यह सबकौ, भौंदू करि जग पाया।
जो इस ठगिनी को ठग बैठे, मैं तिस को सिर नाया।
कवि द्यानतराय का निम्नलिखित तर्क देखिए। यह मन में क्यों न घर न घर करेगा-
अब हम अमर भये न मरैंगे।
तन-कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरैंगे ?
उपजै-मरै काल तै प्राणी तातै काल हरैंगे,
राग-दोष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करैंगे।
कवि आनन्दघन के तात्त्विक विवेचन में तो अध्यात्म का चरमोत्कर्ष ही है-
राम कहो रहमान कहो कोऊ, कान्ह कहो, महादेव री।
पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री।।
निज पद रमे राम सो कहिए, रहम करे रहिमान री।
कर्षे करम कान्ह सो कहिए, महादेव निर्वाण री।।
परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिह्ने सो ब्रह्म री।
इह बिधि साधो आप आनन्द घन, चेतन मय निष्कर्ष री।
इस प्रकार यह शुद्ध अध्यात्म तत्त्व-नाम-रूप जाति-धर्म वर्ण-संस्कार सबसे ऊपर है। क्रिया-काण्ड,पीत या गैरिक वस्त्र का परिधान,परिधान का परित्याग,तप-ध्यान ये सब आडम्बर हैं। ये आत्म-बोध-रहित दैहिक-क्रिया मात्र हैं। इसे कितने परिमित शब्दों में दौलतराम ने मृदुतापूर्वक समझाया है-
आपा नहीं जाना तू ने, कैसा ज्ञानधारी रे?
देहाश्रित कर क्रिया, आप को मानत शिव-मग-चारी रे।
इसी भाव को भूधरदास ने उदाहरण देकर खोला-
अन्तर उज्ज्वल करना रे।
जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक, आगम अर्थ उचरना रे।
विषय कषाय कीच नहिं धोयौ, यों ही पचि पचि मरना रे।।
बाहिर भेष क्रिया उर-शुचि सों, कीये पार उतारना रे।
नाहीं है सब लोक-रंजना, ऐसे वेदन वरना रे।
संकलित पदों की विशिष्ट आध्यात्मिकता तथा इनके भाव और विचार तत्व को समझने के लिए उपर्युक्त कथन पर्याप्त होगा। इन पदों का कवित्व पक्ष भी परिपुष्ट है,इसका अनुमान उक्त उद्धरणों से लग गया होगा।

दार्शनिक तत्त्व को समझाने के लिए हमारे कवियों ने जो पदों और भजनों का माध्यम अंगीकार किया उसके अनेक कारण हैं। एक तो यह कि पद में कविता के साथ गेय तत्त्व सम्मिलित रहता है। यह संगीत पदों को राग-लय और तान की अपरिमित सम्भावनाएँ प्रदान करता है। दूसरे यह कि पद का विस्तार सीमित है, अत संक्षेप में सब कुछ आ जाता है। तीसरे यह कि उपर्युक्त विशेषता के कारण पद आसानी से याद हो जाता है, अतः अध्यात्म तत्त्व के चिन्तन और मनन में सहायता मिलती है।

एक बात और। इन पदों का दैनिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान था, इनका स्पष्ट प्रयोजन था। हमारे आध्यात्मिक जीवन की यह परम्परा रही है कि प्रायः प्रत्येक धर्म और पंथ के व्यक्ति अपने-अपने धर्म-स्थानों में प्रातः- सायं एकत्रित होते थे, वहाँ गुरु का प्रवचन सुनते थे और अन्त में स्तुति-पदों का गान होता था। धर्म का यह कितना सुन्दर, सरस और ग्राह्म रूप था। आज भी जिन-मन्दिरों में शास्त्र-सभाएँ होती हैं, ये पद या इसी प्रकार का भजन-गान गाँधीजी की प्रार्थना-सभाओं का भी मुख्य अंग था। इस संग्रह के एक पद में दौलतराम जी ने धार्मिक संगम और धार्मिक प्रवचन का ऐसा सुन्दर चित्र खींचा है कि मन मुग्ध हो जाता है। साधर्मी जन मिलते हैं; प्रवचन की अमृत झड़ी लगती है- ऐसी कि सहस्र-सहस्र पावस फीके पड़ जाएँ-
धन-धन साधर्मी-जन मिलन की घरी।
बरसत भ्रम-ताप हरन ज्ञान-घन-झरी।।
जाके बिन पाये भव-विपति अति भरी।
निज-परहित-अहित की कछू न सुधि परी।।
जाके परभाव चित्त सुथिरता करी।
संशय-भ्रम-मोह की सो वासना टरी।।
धन-धन साधर्मी-जन मिलन की घरी!
सम्यक्त्व का जो सावन-रूपक दौलतराम ने बाँधा है; और भूधरदास ने सद्गुरु का रूप दर्शाकर उनकी परीषहों को जो बारहमासा उपस्थित किया है, वह हिन्दी साहित्य में निश्चय रूप से अद्भुत है। बारहमासा जब सधे स्वर में गाया जाता है, तो आनन्दाश्रु उमड़ आते हैं। आश्चर्य होता है आध्यात्मिक कविता की रसदायिनी क्षमता पर। दोनों कविताओं में से एक-एक छन्द उद्धरित है।
सम्यक्त्व-सावन का रूपक है-
अब मेरे समकित सावन आयो।
बीति कुरीति-मिथ्यामति-ग्रीषम पावस सहज सुहायो।
अनुभव दामिनी दमकन लागी, सुरति-घटा घन छायो।।
बोले विमल विवेक-पपीहा, सुमति-सुहागिन भायो।।
मुनिराज के बारहमासे का एक छन्द है-
ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव-जलधि-जिहाज।
आप तिरैं पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषि राज।।
ते गुरु मेरे मन बसो...
जेठ तपै रवि-आकरो, सूखै सरवर नीर।
शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दाझैं नगन शरीर।।
पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार।
तरु तल निवसैं साहसी, बाजै झंझावार।।
वे गुर चरण जहाँ धरैं, जग में तीरथ जेह।।
सो रज मम मस्तक चढ़ौ, भूधर मांगे येह।।
ते गुरु मेरे मन बसो।
ऐसे आध्यात्मिक साहित्य के आगे आज के वे सब साहित्यिक विवाद हवा हो जाते हैं, जिनमें प्रश्न उठाये जाते हैं कि ‘साहित्य का प्रयोजन क्या है? ‘साहित्य में रस का क्या स्थान है?’ अन्तर्मुखी व्यक्ति-निष्ठ कविता प्रयोजनीय है या नहीं?...आदि। आचार्यों ने काव्य का प्रयोजन बताया है-
काव्यं य़शसेऽर्थकृते, व्यवहारविदे, शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृतये, कान्तासम्मितयोपदेशयुजे।।
अर्थात् काव्य यशोपार्जन के लिए, व्यवहार ज्ञान के लिए, शिवेतर अर्थात् जो शिव (मंगल) से इतर (भिन्न है) उसकी क्षति के लिए, शीघ्र मुक्ति के लिए और प्रणयिनी के-से मधुर उपदेश के लिए रचा जाता है।

आध्यात्मिक काव्य-रचना में कवि को विपुल यश तो अयाचित ही मिल जाता है, और व्यवहार-ज्ञान उस सीमा पर पहुँच जाता है जहाँ उसकी प्रतिक्रिया जीवन-तत्त्व के निष्कर्ष के रूप में उसे अध्यात्म की ओर ले जाती है। शेष तीन प्रयोजन, अर्थात् अमंगल की क्षति, मोक्ष-मार्ग की निकट प्राप्ति और मधुर उपदेश यदि आध्यात्मिक काव्य से पूरे नहीं होते तो संसार के और किसी भी काव्य से कभी पूरे न होंगे। इस तरह ‘अध्यात्म-पदावली’ के 67 पदों में भक्ति और ज्ञान का जो भव्य रूप अंकित किया गया है, हिन्दी साहित्य में वह अद्भुत है। श्रद्धा और विवेक का ऐसा सामंजस्य भी अन्यत्र दुर्लभ है। इन पदों की भावात्मक पृष्ठभूमि, विचारों की सात्त्विकता, आत्मनिष्ठ अनुभूति की गहराई, अभिव्यक्ति की सुघराई; इनकी सरलता, शालीनता और सरस गेयता सब भव्य हैं। इन सब तत्त्वों का समन्वय ही विचारशील पाठक के मन में लोकोत्तर आनन्द की सृष्टि करता है।

समय आ गया है कि हिन्दी साहित्य के अध्येता अपने इन अध्यात्मस्रष्टा कवि कलाकारों के साहित्य से परिचय प्राप्त करें। यह परिताप का विषय है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थ कविवर बनारसीदास, द्यानतराय, दौलतराम, भूधरदास, बुधजन, भागचन्द्र आदि के विषय में मौन हैं। इनमें से कई का तो नामोल्लेख भी नहीं। ‘अध्यात्म-पदावली’ इन कवियों की पीयूष-वर्षिणी वाणी से आपके ह्वदय को हुलसित करेगी।
पंडित राजकुमार जी साहित्याचार्य ने यह संकलन प्रस्तुत कर हिन्दी साहित्य की बड़ी सेवा की है। इन पदों का विशद अर्थ देकर और इन्हें व्याख्या से समलंकृत कर उन्होंने अध्यात्मरसिक पाठकों के लिए उपादेय सामग्री जुटायी है। इस रूप में इन्हें अमूल्य प्रवचन ही समझना चाहिए। पुस्तक की योजना में जो कमी दृष्टिगोचर हो, उसकी ओर यदि विद्वान पाठकों ने ध्यान दिलाया तो अगले संस्करण में सुधार कर दिया जाएगा। कुछ कमियों का ज्ञान हमें स्वयं है ही।
यदि पाठकों ने इस पुस्तक के प्रकाशन को अपनी कृपा से सार्थक किया तो हम संस्कृत –हिन्दी के अन्य कवियों की भी आध्यात्मिक रचनाएँ व्याख्या सहित प्रस्तुत करेंगे।

रे मन, तेरी को कुटेव यह संसार की दृष्टि में मनुष्य के लिए उसका मन एक अजीब पहेली है। वह अपने मन की उन निगूढ. वृत्तियों का जो अप्रत्याशित रूप में उदित होकर अपनी रूप राशि से प्रतिक्षण उसे आश्चर्यचकित करती रहती है, कोई ठीक बोध नहीं करा पाता है। एक क्षण उनका सहज मन सुंदर सूर बालाओं के सात विहार करना चाहता है तो दूसरे ही क्षण उसका नेत्रहारी नृत्य देखना चाहता है। किसी क्षण वह नन्दनकानन के कुसुमित पारिजातों के प्रसूनों की सुगंध से अपनी घ्राणेन्द्रिय को तृप्त करना चाहता है, द्वितीय क्षण श्रुतिमधुर स्वर्गीय संगीत की स्वर लहरी में अपने को भूल जाना चाहता है। इस प्रकार की एक नहीं, अनेक भावनाएँ उसके मन में नवीन-नवीन रूप लेकर प्रतिक्षण आती रहती हैं। पर

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book