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हास्य-व्यंग्य >> राम भरोसे

राम भरोसे

विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7237
आईएसबीएन :81-88796-28-5

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विवेक रंजन श्रीवास्तव के कुछ छंटे हुए व्यंग्य लेखों का संकलन...

Ram Bharose - A Hindi Book - by Vivek Ranjan Srivastava

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है....

व्यंग्य वह चाबुक है, जो बिगड़े समाज को सही राह पर ला सकता है, जो बात सीधे कहने में संकोच होता है, वह व्यंग्य के माध्यम से सहज ही अभिव्यक्त हो जाती है पर इधर देखने में आ रहा है कि हमारा समाज इतना भ्रष्ट होता जा रहा है कि इस व्यंग्य को हास्य में लेने लगा है, और व्यंग्य का रचनात्मक प्रभाव जो समाज पर पड़ना चाहिए वह नहीं दिख रहा है। यह स्थिति किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंताजनक है, ढिठाई और उदण्डता की पराकाष्ठा समाज के उस अवयव में दिखाई देती है जिसे व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट अपना विषय बना रहे हैं एवं उनके ढ़के हुये घिनौने रूप को जनता के सम्मुख ला रहे हैं। सकारात्मक प्रभाव तो यह होना चाहिए कि व्यंग्य के इन प्रसंगों को समझकर लोग अपने चरित्र, आचार एवं व्यवहार में स्वयं सुधार लायें यही रचनाकार का ध्येय भी होता है पर इसका सर्वत्र अभाव दिखता है।

इसका कारण खोजना आवश्यक है। क्या हमारी चमड़ी इतनी मोटी हो चली है कि हमें सच समझ नहीं आता ? क्या हम व्यंग्यकार के विलाप को उसकी भड़ास निकालना ही समझते हैं ? क्या व्यंग्य रचनायें केवल गुदगुदाहट पैदा करने के लिये हैं ? इन बिंदुओं पर गहन विचार ही व्यंग्य के रचनात्मक प्रभावों को सही दिशा दे सकेगा। व्यंग्य लेख केवल पढ़कर मनोरंजन कर भुला देने हेतु नहीं लिखे जाने चाहिए, उनका उद्देश्य पूर्ण होना भी लेखकीय एवं पाठकीय जिम्मेदारी है। इसी दुराशा से प्रस्तुत है– मेरे कुछ छंटे हुए व्यंग्य लेखों का यह संकलन।

आज हम भ्रष्ट व्यवस्था के एक अवयव बन चुके हैं, हमने एक समझौता सा कर लिया लगता है, जो बोलता है, उसे लोग शंका की निगाहों से देखते हैं, ईमानदार को अपनी ईमानदारी का कारण लोगों को समझाना पड़ता है। हम सब उन की सुनने को विवश हैं, जो व्यवस्था को खोखला बनाकर, नैतिकता के नाम पर, अपने स्वार्थों में उसका दोहन करे रहे हैं। आशा की किरण यही है कि अब भी हमारे आदर्श जिंदा हैं, इसलिये जब हम सब एक साथ बोलेंगे तो सुनना और करना पड़ेगा, आइये सच को पढ़ें, समझें और बोलें।

श्रीमती जी की किटी पार्टी


पुराने जमाने में महिलाओं की परस्पर गोष्ठियां पनघट पर होती थी। घर परिवार की चर्चायें, ननद, सास की बुराई, वगैरह एक दूसरे से कह लेने से, मनोचिकित्सकों की भाषा में, दिल हल्का हो जाता है, और नई ऊर्जा के साथ, दिन भर काटने को, पारिवारिक उन्नति हेतु स्वयं को होम कर देने की हमारी सांस्कृतिक विरासत वाली ‘नारी’ मानसिक रूप से तैयार हो लेती थी। समय के साथ बदलाव आये हैं। अब नल-जल व्यवस्था के चलते पनघट इतिहास में विलीन हो चुके हैं। स्त्री समानता का युग है। पुरुषों के क्लबों के समकक्ष महिला क्लबों की संस्कृति गांव-कस्बों तक फैल रही है। सामान्यतः इन क्लबों को किटी-पार्टी का स्वरूप दिया गया है। प्रायः ये किटी पार्टियां दोपहर में होती है, जब पतिदेव ऑफिस, और बच्चे स्कूल गये होते हैं। महिलायें स्वयं अपने लिये समय निकाल लेती हैं। और मेरी पत्नी इस दौरान सोना, टी.वी. धारावाहिक देखना, पत्रिकायें-पुस्तकें पढ़ना, संगीत सुनना और कुछ समय बचाकर लिखना जैसे शौक पाले हुए थी। पत्र-पत्रिकाओं में उसके लेख पढ़कर, मित्र अधिकारियों की पत्नियां मेरी श्रीमती जी को अपनी किटी पार्टी में शामिल करने की कई पेशकश कर चुकी थी, जिन्हें अंत्तोगत्वा उसे तब स्वीकार करना ही पड़ा जब स्वयं जिलाधीश महोदय की श्रीमती जी ने उसे क्लब मैंबर घोषित ही कर दिया। और इस तरह श्रीमती जी को भी किटी पार्टी का रोग लग ही गया।

प्रत्येक मंगलवार को मैं महावीर मंदिर जाता हूं, अब श्रीमती जी इस दिन किटी पार्टी में जाने लगी है। कल क्या पहनना है, ज्वेलरी, साड़ी से लेकर चप्पलें और पर्स तक इसकी मैंचिंग की तैयारियां सोमवार से ही प्रारंभ हो जाती हैं। कहना न होगा इन तैयारियों का आर्थिक भार मेरे बटुये पर भी पड़ रहा है। जिसकी भरपाई मेरा जेब खर्च कम करके की जाने लगी है। ब्यूटी कांशेस श्रीमती जी, नई सखियों से नये नये ब्यूटी टिप्स लेकर, महंगी हर्बल क्रीम, फेस पैक वगैरह के नुस्खे अपनाने लगी है। किटी पार्टी कुछ के लिये आत्म-वैभव के प्रदर्शन हेतु, कुछ के लिए पति के बॉस की पत्नी की बटरिंग के द्वारा उनकी गुडबुक्स में पहुँचने का माध्यम, कुछ के लिए नये फैशन को पकड़ने की अंधी दौड़ तो कुछ के लिये अपना प्रभुत्व स्थापित करने का एक प्रयास कुछ के लिये इसकी-उसकी बुराई भलाई करने का मंच, कुछ के लिये क्लब सदस्यों से परिचय द्वारा अपरोक्ष लाभ उठाने का माध्यम तो कुछ के लिये सचमुच विशुद्ध मनोरंजन होती है। कुछ इसे नेटवर्क मार्केटिंग का मंच बना लेती हैं।

मंगल की दोपहर जब श्रीमती जी तैयार हो लेती है, तो मेरे आफिस की फोन की घंटी खनखना उठती है, और मुझे उन्हें क्लब छोड़ने जाना होता है, लौटते वक्त जरूर वे अपनी किसी सखी से लिफ्ट ले लेती है, जो उन्हें अपनी सरकारी जीप, या पर्सनल ड्राइवर वाली कार से ड्राप कर उपकृत कर देती हैं। उतरते वक्त ‘आइये ना !’ की औपचारिकता होती है, जिससे बोर होकर आजकल श्रीमती जी मुझसे एक ड्राइवर रख लेने हेतु सिफारिश करने लगी हैं। क्लब में हाउजी का पारंपरिक गेम होता है, जिस किसी की टर्न होती है, उसकी रूचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरुप सुस्वादु नमकीन-मीठा नाश्ता होता है। चर्चायें होती हैं। गेम आफ द वीक होता है, जिसमें विनर को पुरस्कार मिलता है। मेरी इटेलैक्चुअल पत्नी जब जाती है, ज्यादातर कुछ न कुछ जीत लाती है। आंख बंद कर अनाज पहचानना, एक मिनट में अधिकाधिक मोमबत्तियां जलाना, जिंगल पढ़कर विज्ञापन के प्राडक्ट का नाम बताना, एक रस्सी में एक मिनट में अधिक से अधिक गठाने लगाना, जैसे कई मनोरंजक खेलों से, किटी पार्टी के जरिये हम वाकिफ हुये हैं। मेरा लेखक मन तो विचार बना रहा है एक किताब लिखने का– गेम्स आफ किटी पार्टीज मुझे भरोसा है, यह बेस्ट सैलर होगी। क्योंकि हर हफ्ते एक नया गेम तलाशने में हमारी महिलायें काफी श्रम कर रही है।

इस हफ्ते मेरी श्रीमती जी ‘लेडी आफ दि वीक’ बनाई गई हैं। यानी इस बार टर्न उनकी है। चलती भाषा में कहें तो उन्हें मुर्गा बनाया गया है– नहीं शायद मुर्गी। श्रीमती जी ने सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति देने के अंदाज में मेरे सारे मातहत स्टाफ को तैनात कर रखा है, चाट वाले को मय ठेले के क्लब बुलवाया जाना है, आर्डर पर रसगुल्ले बन रहे हैं, एस्प्रेसों काफी प्लांट की बुकिंग कराई जा चुकी है, हरेक को रिटर्न गिफ्ट की शैली में कुछ न कुछ देने के लिये मेरी किताबों के गिफ्ट पैकेट बनाये गये हैं– ये और बात है कि इस तरह श्रीमती जी लाफ्ट पर लदी मेरी किताबों का बोझ हल्का करने का एक और असफल प्रयास कर रही हैं, क्योंकि जल्दी ही मेरी नई किताब छपकर आने को है। क्या गेम करवाया जावे इस पर बच्चों से, सहेलियों से, बहनों से, एस.टी.डी. पर लम्बे-लम्बे डिस्कशंस हो रहे हैं– मेरा फोन का बिल सीमायें लांघ रहा है। फोन पर कर्टसी काल करके व्यैक्तित आमंत्रण भी श्रीमती जी अपने क्लब मेंम्बर्स को दे रही है। श्रीमती जी की सक्रियता से प्रभावित होकर लोग उन्हें क्लब सेक्रेटरी बनाना चाह रहे हैं। मैं चितिंत मुद्रा में श्रीमती जी की प्रगति का मूक प्रशंसक बना बैठा हूं। उन्हें चाहकर भी रोक नहीं सकता क्योंकि क्लब से लौटकर जब चहकते हुये वे, वहां के किस्से सुनाती है, तो उनकी उत्फुल्लता देखकर मैं भी किटी पार्टी में रंग जमाने वाली वाली सुंदर, सुशील, सुगढ़ पत्नी पाने हेतु स्वयं पर गर्व करने का भ्रम पाल लेता हूं। अब कुछ प्रस्ताव किटी पार्टी को आर्थिक लाभों से जोड़ने के भी चल रहे हैं, जिनमें 1,000 रुपये मासिक की बीसी, नेटवर्क मार्केटिंग, सहकारी खरीद, पारिवारिक पिकनिक वगैरह के हैं। आर्थिक सामंजस्य बिठाते हुये, श्रीमती जी की प्रसन्नता के लिये उनकी पार्टी में हमारा पारिवारिक सहयोग बदस्तूर जारी है। क्योंकि परिवार की प्रसन्नता के लिये पत्नी की प्रसन्नता सर्वोपरि है।

भोजन-भजन


बच्चे का जन्म हो, तो दावत, लोग इकट्ठे होते हैं, छक कर जीमतें हैं। बच्चे की वर्षगांठ हो, तो लोग इकट्ठे होते हैं–आशीष देते हैं– खाते हैं, खुशी मनाते हैं। बच्चा परीक्षा में पास हो, तो मिठाई, खाई-खिलाई जाती है। नौकरी लगे तो पार्टी-जश्न और डिनर। शादी हो तो भोजन। और तो और मृत्यु तक पर भोज होता है। आजीवन सभी भोजन के भजन में लगे रहते हैं।
कहावत भी है–‘पीठ पर मार लो पर पेट पर मत मारो।’ कुछ लोग जीने के लिये खाते हैं, पर ऐसा लगता है कि ज्यादा लोग खाने के लिये ही जीते हैं। सबके पेट के अपने अपने आकार हैं। नेता जी बड़े घोटाले गुटक जाते हैं, और डकार भी नहीं लेते। वे कई-कई पीढ़ियों के पेट का इंतजाम कर डालना चाहते हैं। महिलाओं के पेट में कुछ पचता नहीं है इधर कुछ पता चला, और उधर, उन्होंने नमक मिर्च लगाकर, संचार क्रांति का लाभ उठाते हुए, उस खबर को मोबाइल तंरगों पर, संचारित किया, सबके अपने-अपने स्वाद, अपनी-अपनी पंसद होती है। मथुरा के पंडित जी मीठे पेड़े खाने के लिए प्रसिद्ध है। बगुला जिस एकाग्रता से मछली पकड़ने के लिये तन्मय होकर ध्यानस्थ रहता है, वह उसकी पेट पूजा, उसी पसंद की अभिव्यंजना ही तो है। भोजन के आधार पर शाकाहारी, मांसाहारी का वर्गीकरण किया गया है। सारे विश्व में अब विभिन्न देशों के व्यंजन सुलभ हो चले हैं। लंदन में दिल्ली के छोले भटूरे और पराठे मिल जाते हैं, तो दिल्ली में ही क्या अब तो घर-घर चाईनीज व्यंजन लोकप्रिय हो रहे हैं।...

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