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शेरशाह सूरी

विद्या भास्कर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7241
आईएसबीएन :978-81-237-2433

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शेरशाह सूरी का जीवनचरित...

Shershah Suri - A Hindi Book - by Vidya Bhaskar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किसी देश का इतिहास, बहुत अंश तक, उसके कतिपय विशिष्ट नर-नारियों का इतिहास है। उन्होंने ही उसको गढ़ा संवारा और उसका विकास किया। जन-साधारण के लिए यह आवश्यक है कि वह राष्ट्रीय निर्माण के लिए महत्वपूर्ण इन विभूतियों के बारे में जानकारी प्राप्त करे।
इसी उद्देश्य क्रम में श्री विद्या भास्कर लिखित ‘शेरशाह-सूरी’ का जीवनचरित पाठकों के सामने है। शेरशाह अपने समय का एक विशेष उल्लेखनीय राजव्यक्ति था। उसने शासन व समाज-संगठन में नई चीजें शुरू की जिनसे उसकी कल्पना शक्ति व संगठन क्षमता का परिचय मिलता है।

१. पूर्वज और बचपन


शेरशाह सूरी का भारत के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। इसके जीवनचरित के एक प्राचीन लेखक अब्बास खान ने ‘तारीख शेरशाही’ नामक पुस्तक में इसे ‘द्वितीय सिकंदर’ कहा है। यह ग्रंथ अकबर के आदेश से लिखा गया था। इसका उद्देश्य अफगानों का इतिहास अंकित करना था। वह उन थोड़े से विदेशी शासकों में से एक था जिन्होंने भारत जैसे विशाल देश को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। नागरिक सुविधाओं और यातायात के साधनों का विस्तार किया। इसने अनेक विदेशी आक्रमणकारियों का विरोध किया और इसे हिंदुस्तान के मूल निवासियों का स्नेह, सहयोग और समर्थन प्राप्त करने में सफलता मिली। इतिहासकारों का कहना है कि अपने समय में शेरशाह सूरी अत्यंत दूरदर्शी और विशिष्ट सूझबूझ का आदमी था। इसकी विशेषता इसलिए अधिक उल्लेखनीय है कि वह एक साधारण जागीरदार का उपेक्षित बालक था। उसने अपनी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर अपना कब्जा जमाया।

जिन दिनों अफगानों के साहू खेल कबीले के सरदार सुलतान बहलोल ने दिल्ली के सिंहासन पर अधिकार स्थापित कर रखा था, उन दिनों देश की हालत बहुत खराब थी। हिंदुस्तान अनेक राज्यों में बंटा हुआ था। कई स्वतंत्र सरदार राज्य कर रहे थे और उन्होंने अपने निजी सिक्के ढलवा रखे थे, खुतबा पढ़वाते थे और केंद्रीय शासक सुलतान बहलोल का विरोध भी करते थे। सुलतान बहलोल इस बात का बड़ा इच्छुक था कि अफगानिस्तान के अधिक से अधिक लोग आकर हिंदुस्तान में बसें। उसने अफगानों को नौकरी और जीविका के अनेक साधन प्रदान करने का वचन दिया। उसके स्नेह और उदारतापूर्ण निमंत्रण और आग्रह को स्वीकार कर अफगान लोग भारी संख्या में भारत में आने लगे और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार जागीरें और अन्य सुविधाएं भी मिलने लगीं। सुलतान बहलोल का शासन काल सन १४५१ से १४८८ ईस्वी तक माना गया है।

सुलतान बहलोल की इस उदारता से लाभ उठाने की इच्छा से भारत की ओर आकर्षित हुए लोगों में शेरशाह का पितामह (दादा) इब्राहीम खान सूरी भी था जो अपने पुत्र हसन खान सूरी को साथ लेकर अफगानिस्तान से हिंदुस्तान में आया था। उसके मूल निवास स्थान को अफगानों की भाषा में ‘शरगरी’ और मुलतानी भाषा में ‘रोहरी’ कहा जाता था। ‘सूर’ अफगान अपने को मोहम्मद सूर नामक सरदार का वंशज बताते थे जिसका संबंध गोरी राज्यवंश से था और जो अपने देश से अफगानिस्तान में आ गया था। मोहम्मद सूर ने अफगानिस्तान में बस जाने पर सरदार की पुत्री से विवाह कर लिया था। ‘शरगरी’ नामक स्थान गोमल नदी के किनारे सुलेमान पर्वत की लगभग १२-१४ मील (1८-२॰ किलोमीटर) लंबी एक श्रेणी पर बसा था, ये लोग सुलतान बहलोल के जागीरदार मुहब्बत खान सूर की सेवा में भरती हो गए। इस (मुहम्मद खान सूर) सरदार को बहलोल ने हरियाणा और बहकला के तत्कालीन पंजाब स्थित परगने जागीर में दे रखे थे। इब्राहीम खां सूर अपने परिवार सहित बजवाड़ा के परगने में रहने लगा।

‘तारीखे खान जहान लोदी’ के अनुसार शेरशाह का जन्म हिसार फिरोजा१ में सुलतान बहलोल के शासनकाल में हुआ। उसका नाम फरीद खान रखा गया।
इब्राहीम के पौत्र और हसन के प्रथम पुत्र फरीद के जन्म की तिथि अंग्रेज इतिहासकार ने सन १४८५-१४८६ बताई है। शेरशाह सूरी पर विशेष खोज करने वाले भारतीय विद्वान श्री कालिका रंजन कानूनगो ने भी फरीद का जन्म काल सन १४८६ माना है।

कुछ समय बाद इब्राहीम खान ने मुहब्बत खान की सेवा छोड़ दी और हिसार फिरोजा के नायक जमाल खान सारंगखानी की सेवा ग्रहण कर ली। इस सरदार ने उसे नारनौल के परगने में कई एक गांव देकर चालीस घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी रखने के योग्य बनाया। फरीद खान (बाद में शेरशाह) के पिता हसन खान ने मसनदे अली उमर खान सरवानी कालकापुर की सेवा ग्रहण की। यह सरदार खाने-आजम की उपाधि से विभूषित था और सुलतान बहलोल का मंत्री और कृपापात्र दरबारी था। लाहौर के सूबे का शासन भी उमर खान के हाथ में था और उसे सरहिंद की सरकार में स्थित भटनूट, शाहाबाद और पाहलपुर की जागीरें भी दी गई थीं। उमर खान ने शाहाबाद परगने में अनेक गांव हसन खान को जागीर के रूप में दे दिए।
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१. मजखने अफगाना के अनुसार यह स्थान दिल्ली जिले में था, जिसे फिरोज़ तुगलक ने बसाया था।

फरीद खान बचपन से ही बड़े हौसले वाला इंसान था। उसने अपने पिता से आग्रह किया कि मुझे अपने मसनदेआली उमर खान के पास ले चलिए और प्रार्थना कीजिए कि वह मुझे मेरे योग्य कोई काम दें। पिता ने पुत्र की बात यह कहकर टाल दी कि अभी तुम बच्चे हो। बड़े होने पर तुम्हें ले चलूंगा। किंतु फरीद ने अपनी मां से आग्रह किया कि आप पिता को इस बात के लिए राजी कीजिए। वैसा ही हुआ और पत्नी के कहने पर हसन अपने पुत्र फरीद को उमर खान के दरबार में ले गया और फरीद की ओर से उसकी इच्छा व्यक्त की। उमर खान ने कहा कि बड़ा होने पर इसे मैं कोई न कोई काम दूंगा। किंतु अभी इसे महाबली (इसका दूसरा नाम ‘हनी’ है) ग्राम का बलहू नामक भाग जागीर के रूप में देता हूं। फरीद ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी माता को इसकी सूचना दी।

इसके कई वर्ष बाद हसन खान के पिता इब्राहीम खान की नासौल में मृत्यु हो गई। वह उस समय जमाल खान का सेवक था। हसन खान से उसके पिता की मृत्यु का समाचार पाकर उमर खान ने (हसन खान के मसनदेआली जो बहलोल की सेना में था) जमाल खान को बुलाकर कहा कि हसन खान को उसके पिता की जागीर देने के साथ ही कुछ और गांव दे दीजिए। उसने अपनी ओर से भी हसन खान को एक घोड़ा और एक खिलअत देकर विदा किया। हसन खान ने जमाल खान की खूब सेवा कर उसे प्रसन्न कर दिया।

बहलोल की मृत्यु हो जाने पर सिकंदर लोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसने अपने भाई बैबक खान (बरबक खान) से जौनपुर का सूबा जीत लिया। उसने जमाल खान को जौनपुर का शासक नियुक्त किया और उसे आदेश दिया कि वह १२ हजार घुड़सवारों की व्यवस्था करके उनमें जौनपुर के सूबे को जागीरों के रूप में बांट दे। जमाल खान, हसन खान को जिसकी सेवा से वह बहुत प्रसन्न था, जौनपुर ले आया और उसे ५00 घुड़सवारों की सेना की व्यवस्था के लिए बनारस के समीप सहसराम, हाजीपुर और टांडा की जागीरें प्रदान कर दीं।

हसन खान के आठ लड़के थे। फरीद खान और निजाम खान एक ही अफगान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक मां से। खुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी खान एक अन्य मां से और सुलेमान और अहमद चौथी मां से उत्पन्न हुए थे। फरीद की मां बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फरीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फरीद और निजाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन खान, फरीद और निजाम की मां से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद खान की मां के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद खान की मां) फरीद और निजाम की मां से जलती थी क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फरीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फरीद का दुखी होना स्वाभाविक। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा। पिता-पुत्र के आपसी संबंध कटु हो गए। इसका एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फरीद शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुंचकर तथा वहां बड़ी जागीर पा जाने से हसन खान का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फरीद और निजाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बार-बेटे का संबंध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फरीद रुष्ट होकर जौनपुर चला गया और स्वयं जमाल खान की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन खान को पता चला कि फरीद जौनपुर चला गया है तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल खान से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल खान को पत्र लिखा कि फरीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें।

जमाल खान ने फरीद खान को बुलवाकर हर संभव विधि से उसे समझाने की चेष्टा की कि वह अपने पिता के पास वापस लौट जाए, परंतु उसने घर जाने से इनकार करते हुए उत्तर दिया–‘‘यदि मेरे पिता मुझे घर बुलवाकर मेरे अध्ययन की व्यवस्था करने के लिए चिंतित हैं तो मेरे लिए जौनपुर में रहकर ही विद्याध्ययन करना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि यहां पर बड़े बड़े विद्वान और योग्य व्यक्ति हैं।’’१ जमाल खान ने जब देखा कि फरीद खान जौनपुर में रहकर पढ़ना चाहता है तब उसने कोई आपत्ति नहीं की।

फरीद खान ने जौनपुर में रहते हुए अरबी भाषा काजी शाहबुद्दीन की टीका सहित काफिया (व्याकरण का ग्रंथ) और अनेक प्राचीन राजाओं की जीवनियों को दत्तचित्त होकर पढ़ना शुरू कर दिया। उसने कई दार्शनिकों के ग्रंथ पढ़े। उसने सिकंदरनामा, गुलिस्तां और बोस्तां आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया। सम्राट बन जाने के बाद भी जब कोई विद्वान उसके पास जीविका की याचना के लिए आता था तो वह उससे हाशियाये-हिंदिया के संबंध में पूछताछ किया करता था। यह पुस्तक उसे बहुत प्रिय थी। सम्राट बन जाने पर भी उसकी दिलचस्पी इतिहास के ग्रंथों और प्राचीन शासकों के जीवनचरितों के प्रति बराबर बनी रही। जिस ग्रंथ के बारे में भी वह दूसरों से प्रशंसा सुनता उसे वह बड़े थ्यान से पढ़ता। बड़ा होने पर वह राज्य विस्तार के लिए युद्ध करता या शासन प्रबंध की देखभाल करता तब भी पुस्तकों का अध्ययन किया करता था। पुस्तकों में लिखी बातों को वह जीवन में उतारने का सफलतापूर्वक प्रयास करता। इसीलिए वह पुराने योद्धाओं और विजेताओं की कहानियां विशेष रूप में पढ़ा करता था। श्री कालिकारंजन कानूनगो ने शेरशाह (फरीद खान) के विद्या व्यसन की प्रशंसा में लिखा है कि ‘‘बचपन में उसने साहित्य का जो अध्ययन किया उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया जिसपर शिवाजी, हैदरअली और रणजीतसिंह जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊंचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। भारत के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।’’
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१. तारीखे-शेरशाही–अब्बास सरवानी

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