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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


जीवन राय ने अस्थिर होकर बाकी आकृतियों की तरफ देखा। आकृतियों में सहसा कुछ आंखें-सी झांकने लगीं। जैसे वहां दुबके कुछ लोग बीडियां पी रहे हों, थोड़ी सुलगती-सी राख-भरी आंखें। अब तक वे वहां नहीं थीं।

जीवन राय सन्नाटे में आए उन्हें देखते रह गए। तुरन्त ही उन्होंने भांप लिया कि वे बारी-बारी से इसी तरह नोट ले लेंगी और बेआवाज लौट जाएंगी। वे धीरे से दयाल की तरफ लौट आए। महादेव भाई उनकी ओर देखने लगे, प्रश्नातुर नहीं, हतप्रभ। दयाल ने कैमरे में नई रील डाल ली थी लेकिन तस्वीरें खीचने को उत्सुक नहीं हुआ।

शंकरलाल को लगा, वहां खामोशी अब कुछ ज्यादा ही लम्बी और गहरी हो गई है। समतल के बाद एकाएक एक खड़ा ढाल-सा आ गया है। बोले, "हास्यास्पद...हम लोग हास्यास्पद हो गए।"

"वे कुछ भी नहीं बताएंगे, क्या खयाल है?" महादेव भाई ने गर्दन के पीछे कलम के छोर से खुजाते हुए कहा, "क्या खयाल है, इस वन अधिकारी ने पहले से इन्हें धमका दिया?"

"धमकाया होता तो ये लोग आकर रोते ही क्यों?" कनु दा ने सोचते हुए से कहा।

"लेकिन फिर हो क्या?" जीवन राय इधर-उधर देखने लगे।

"हम कोशिश करेंगे। एक बार फिर कोशिश करेंगे।" कनु दा बोले, "जरा इस गांव की स्थिति देखें।"

कनु दा के इशारे पर वे लोग उन औरतों को छोड़कर गांव के अन्दर की तरफ उतरने लगे। उन्हें लगा शायद पीछे से एक बार फिर रोने की आवाज आई, लेकिन सन्नाटा वैसा ही बना रहा।

पहले घरों की जो आकृतियां मिली थीं, उनके आगे जाने पर वैसी शक्लें भी गायब हो गई। पत्रकारों को लगा, यहां गांव समाप्त होता है। मगर तभी कुछ झाड़ियों की आड़ से वैसे ही दो घर प्रकट हो गए।

सौ कदम आगे वे घर भी गायब हो गए और दो दूसरे प्रकट हो गए। पीछे छूटे दोनों मकानों का निशान भी नहीं था। यह किसी जादूगर के करिश्मे की तरह होता ही चला गया। झाड़ियों, दरख्तों से ढकी वहां की जमीन बहुत असमतल थी। जहां उन्हें लगता था अगला मकान होगा वहां ऊंचे दूह पर पतली टांगों पर बैठी झाड़ियां होती थीं और जहां मिट्टी के दूह की उम्मीद होती थी वहां घुटनों के बल झुका घर सामने आ जाता था। उन घरों में दिखाई कोई नहीं दे रहा था लेकिन यह रहस्यजनक अनुभूति बराबर हो रही थी कि उन घरों के अंधेरे से कहीं लोग उन्हें घूर रहे हैं।

"लेकिन हमें उन जगहों का पता कैसे लगेगा?" दयाल ने कहा।

यह सभी का सम्मिलित सन्देह था लेकिन घटना के बारे में स्वतंत्र जांच-पड़ताल का फैसला इतनी आसानी से कोई बदलना नहीं चाहता था। आगे दरख्त और ज्यादा ऊंचे और घने थे। शीशम और चिलबिल के एक-दूसरे से सटे कन्धों पर लतरों की रस्सियां लापरवाही से डाले। यहां से शायद जंगल शुरू होता है।

किसी ने कहा या सबने सोचा या फिर जानबूझकर यह फैसला कर लिया।

"हमलावर इधर से ही आए होंगे।" शंकरलाल ने कहा।

"शायद।" वे लोग ठिठककर वहां कुछ देखने लगे।

जमीन पर खड़ी सूखी झाड़ियों और उदासीन पेड़ों ने अपने को ऐसा मासूम बना लिया था कि हमले का कोई निशान अगर रहा भी होगा तो अब वहां नहीं था। सब बिल्कुल सहज था, झाड़ियों से लतर तक पड़ा मकड़ी का जाला भी।

"अगर आप लोग इजाजत दें तो..."

वे लोग चौंककर घूमे। वहां सब इतना बेआवाज क्यों घट रहा था? पीछे वन अधिकारी था। उतना ही संकुचित और विनीत।

"माफ कीजिएगा, चाय इन्तजार कर रही है।"

पत्रकार बोले नहीं। इस बार उन्होंने एतराज भी नहीं किया। साथ चल पड़े।

ठीक घरों की तरह ही एकाएक उनके सामने सिर्फ कुछ कदम पर फूस और चटाइयों से बना एक साफ-सुथरा सायबान प्रकट हो गया। अन्दर जगह काफी थी और कुछ चारपाइयों के अलावा बांस की कुर्सियां थीं। दो कुर्सियों पर ही चाय का सामान रखा था, एक साफ केतली, कुछ प्याले और तश्तरियों में मिठाई।

"ये हम लोग यहां अपने मेहमानों के लिए रख छोड़ते हैं।" वन अधिकारी ने क्षमा मांगते हुए कहा।

शंकरलाल ने चाय पीते हुए बलात् अपना प्रतिरोध तोड़ दिया। वन अधिकारी से बोले, "हमें वह जगह दिखाओ, जहां बाईस लोगों को गोली मारी गई थी।"

"तेईस, तेईस को गोली मारी गई थी, एक बच गया था। बाईस मरे थे। आप चाय पी लें, फिर मैं वह जगह दिखा दूंगा।"

"वो तेईसवां आदमी जो बच गया है..."

"वो अभी अस्पताल में है। मुख्यमंत्री गांववालों को राहत देकर उसी को देखने गए थे।"

“गांववालों को अब खतरा..."

"अब कोई खतरे की बात नहीं है। विरोधी दलवालों के आने के तुरन्त बाद कलेक्टर साहब ने दौरा किया था। डी.आई.जी. भी साथ थे।"

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