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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


सिर्फ अपने दबंग स्वभाव के कारण इन लोगों पर मेरी बीवी के हावी हो जाने की एक घटना बहुत रोचक थी।

अयोध्या में शाम तक बाबरी मस्जिद पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी। भारतीय प्रसार माध्यम उस वक्त कहीं विदेश में खेले जा रहे किसी क्रिकेट मैच का प्रसारण कर रहे थे। हमें मस्जिद ध्वस्त होने की खबर ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन से मिली। औरों को भी वहां से खबर मिली होगी।

हमारे मकान से थोड़े ही फासले पर एक मकान में किसी ने 'सत्संग भवन' की बड़ी-सी तख्ती लगाकर धार्मिक उपदेशों का आयोजन शुरू कर दिया था। सुबह-शाम लाउडस्पीकर बहुत तेज आवाज में खोलकर बेहद बेसुरी आवाज में कीर्तन गाए जाते थे या फिर अशुद्ध उच्चारण करते हुए बड़े उत्साह से धर्मग्रंथों का पाठ होता था।

बाबरी मस्जिद टूटने पर वहां कीर्तन बंद हो गया और वे सारे लोग सड़क पर निकलकर देर तक नारे लगाते रहे थे।

इसी बीच लगातार कई फोन आए। फोन पर कुछ लोग लंबी बातचीत करने की कोशिश कर रहे थे। मेरी उलझन बढ़ती जा रही थी। एक तरह की हताशा भी। तभी मैंने सुना, मेरी बीवी बाहर किसी से ऊंची आवाज में बोल रही थी।

पिछली घटनाओं से आशंकाएँ बढ़ चुकी थीं। फोन बीच में ही रखकर मैं बाहर की तरफ लपका।

बाहर की चहारदीवारी पर चढ़े दो लड़के हाथों में पीली झंडियाँ लिए हुए थे। एक नीचे खड़ा था। मैं तुरंत समझ गया। वे हाथ बढ़ाकर दीवार के कोने पर लगी पीतल की उस छड़ी पर झंडी बांधना चाहते थे, जिसमें बिजली का बल्ब लगा हुआ था।

बीवी जोर-जोर से बोल रही थी, 'नीचे उतरो। चलो, नीचे आओ। किससे पूछकर वहां चढ़े? इसी तरह घर में चोरी होती है। उस दिन तुम लोग केले का गुच्छा चुपचाप काट ले गए। कितनी चीजें घर में पड़ी रहती हैं। एक हथौड़ी गायब है। कहां चली गई आखिर?'

धर्मांधता के उस उन्माद को ऐसा विचित्र दांव लगाकर मैं भी पटखनी नहीं दे सकता था।

सकते में आए लड़के कुछ भुनभुनाए। नीचे खड़े लड़के ने कहा, 'उतर आओ।'

वे दोनों नीचे उतरे और पलट-पलटकर हमें घूरते हुए कुछ भुनभुनाते एक तरफ चले गए।

बीवी ने विचित्र हथियार का इस्तेमाल किया था-चोरी, वह भी केले के गुच्छे की और एक अदद मामूली-सी हथौड़ी की। शायद चोरी के उस टुच्चे-से आरोप से ही वे निरुत्तर हुए होंगे। डकैती के आरोप से वे उत्तेजित होते, शायद प्रत्युत्तर भी देते।

गहरे तनाव के बावजूद मुझे हँसी आ गई, 'यार, ये घटिया-सी हथौड़ी की चोरी!'

'आप नहीं जानते, ये चोर होते हैं। और फिर हथौड़ी काम के समय न मिले तो कितनी पेरशानी होती है।' कहकर वह अंदर आ गई। मेरे मकान पर विजयध्वज नहीं फहराया जा सका तो सिर्फ इसलिए कि एक अदद हथौड़ी कहीं गुम हो गई थी।

लेकिन इस बार स्थिति वैसी नहीं थी। मैं जानता हूं कि इस बार हमला करने वालों को न तो केले और हथौड़ी की चोरी हतप्रभ कर सकती थी, न मेरे अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होने की घोषणा।

अत्यधिक क्रोध में वह किस सीमा तक आगे जा सकती है, मैं इसकी कल्पना करने लगा। क्या किसी चीज से उसने हमला किया होगा? मगर किस चीज से? हमारे सोने के कमरे में ऐसी कोई चीज मुश्किल से ही मिलती, जिससे चोट की जा सके। हथियार के नाम पर हमारे यहां सिर्फ रसोई का सामान ही था।

बहुत पहले अपने पिता की यादगार के लिए मैं उनके कुछ औजार उठा लाया था। शस्त्रों के नाम पर वे खासे ही मध्ययुगीन थे। मसलन दो भाले, एक जंग-लगी कटार, एक खांडानमा हथियार और तबले। तबले एक बार मढ़वाने के लिए दिए और भूल गया था। बाकी औजार सजाने लायक थे नहीं, इसलिए इधर-उधर पड़े जंग खाते रहे और मकान की हर पुताई के बाद उनमें से कोई न कोई गायब होता रहा। यहां तक कि हमारे यहां कोई डंडे जैसी चीज भी नहीं बची। भाले काफी दिन सावधानी से लपेटे रखे रहे, फिर वे भी जाने कहां गायब हो गए।

औजार होते तो भी उनका कोई इस्तेमाल हम लोग कर पाते, इसकी कल्पना मुश्किल थी। औजारों के बारें में अपने पिता की जानकारी और कुशलता से थोड़ा-बहुत परिचय मेरा भी था, पर उनकी तरह हथियारों के इस्तेमाल में उद्यत कभी नहीं हो पाया। वे तो शिवाजी वाले बघनखे से लेकर लखनऊ के बांके उस्तादों वाली बांक तक सभी का इस्तेमाल जानते थे। कुछ दिन, जब मैं बहुत छोटा था, उन्होंने मुहल्ले के कुछ युवकों को हथियार चलाना सिखाया भी था। वे बाकायदा पूरे व्याकरण के साथ हथियारों का इस्तेमाल सिखाते थे और सिखाते वक्त एक-दो-तीन-चार बोलते जाते थे। मुझे भी चाकू, भाला, लाठी और तलवार चलाना कुछ दिन सिखाया था, लेकिन बाद में वह छोड़ दिया था, क्योंकि वे चाहते थे कि मैं काफी पढ़कर विश्वविद्यालय की उपाधियाँ लूँ और वकील या जज बन जाऊं।

यह भी चकित करने वाली बात है कि उन दिनों और आज के हालात में काफी कुछ समानता थी। यही नहीं, अगर आज मेरे पिता जीवित होते तो निश्चय ही हॉकी नहीं, शायद बघनखा लेकर मुसलमानों और हम जैसे लोगों के दरवाजे पर आतंक पैदा कर रहे होते।

पिता के औजार घर से गायब हो जाने के बाद हम अक्सर चिंतित रहा करते थे कि अगर सहसा चोर आ गए तो हम क्या करेंगे?

एक बार पड़ोस में चोरी हो जाने के बाद हमें लगा था कि अपनी सुरक्षा का कोई इंतज़ाम जरूर करना चाहिए। चोरों से सुरक्षा का प्रबंध एक शाम हमने बहुत ही अद्भुत तरीके से किया। पूरे बरामदे में फर्श से कोई तीन फीट ऊंचाई पर हमने ताँबे का एक तार जड़ दिया। मैं सोते वक्त उस तार में बिजली प्रवाहित कर देता था। मेरा विचार था कि चोर उस तार से चिपककर मर जाएगा।

दो रात वह तार वहां लगा रहा था। उसके बाद मैंने हटा दिया था, क्योंकि उस तार से ऐसी स्थिति में मुझे भी जबर्दस्त खतरा था, जब मैं बिजली का प्रवाह बंद किए बिना खुद उससे टकारा जाऊं।

मैं बहुत देर तक लेटे-लेटे यह सोचता रहा कि मेरी बीवी ने उस हमले के वक्त क्या किया होगा?

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