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भीतर का वक्त

अल्पना मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 726
आईएसबीएन :81-263-1145-2

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आज के स्त्री-मन में हो रहे बड़े परिवर्तन की ओर तथा अपनी लैंगिक वर्जनाओं की सीमा को लाँघकर अपने व्यक्तित्व की खोज कर रही स्त्री की अन्तर्गाथा....

Bhitar ka Waqt

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अल्पना मिश्र की कहानियाँ जिस सघनता और सहजता के साथ सम्बन्धों और स्थितियों की बाहरी दुनिया से ‘भीतर’ को देखती हैं वह आज के स्त्री-मन में हो रहे बड़े परिवर्तन की ओर संकेत करती है। आज की स्त्री अपनी लैंगिक वर्जनाओं की सीमा को लाँघकर अपने व्यक्तित्व की खोज कर रही है और यह खोज बौद्धिक स्वावलम्बन की ओर उन्मुख है स्त्री की पालतू रस परस मुद्रा और इस्तेमाल हो जाने की विवशता पर मर्माघात करने की अदभुत क्षमता अल्पना में मौजूद है। हम अल्पना से उस गहरी,अन्तर्दृष्टि की भी अपेक्षा करते हैं जो स्त्री की जीविका और आर्थिक स्वतन्त्रता के नये संवेदन संस्कार को भी अभिव्यक्त करेगी।

उपस्थिति

इस बार मैं बहुत सावधानी से चल रही हूँ। पैर दबाकर, एकदम धीरे। मेरी आहट, इस बार वह जान नहीं पायेगी। मैंने अपने दोनों हाथ पीछे कर लिये हैं। आँखें उस पर टिका ली हैं और बहुत धीरे, सचमुच बड़ी सावधानी से आगे बढ़ रही हूँ। यह रोज होता है। रोज सुबह का अभ्यास। सुबह का घण्टा दो घण्टा बस इसी की भेंट चढ़ जाता है। न जाने कहाँ से रोज चली आती है चमकती हुई, गाती हुई। उसका गाना न जाने क्यों मुझे इतना काटता है। शरीर में लहर उठने लगती है-साँप के काटे की लहर। मैं दौड़कर अखबार उठा लेती हूँ। मोड़कर उसे मोटा-सा बेंत जैसा रूप देती हूँ। चुपके से इस कागज बेंत को पीछे छिपाते हुए सावधान, धीरे कदमों से उसकी तरफ बढ़ती हूँ। लेकिन वह है कि मुझे मेरा लक्ष्य नहीं पूरा करने देती।

मैं पहुँचती हूँ मेरा चेहरा सख्त हो जाता है । बेंत उठाता है मेरे सख्त हाथ और ‘तड़ाक’ की आवाज गूँजती है थोड़ी देर तक। मैं फेल होती हूँ। वह चकमा देती है। मैं फिर वही करती हूँ, उसके कहीं रूकने का इन्तजार।
वह सोफे के हत्थे पर बैठ जाती है। अपना एक हाथ या पैर, जो भी मान लें, उठा-उठाकर रगड़ जैसा रही है। हल्की-हल्की ध्वनि तैर रही है। मुँह ऊपर करके मेरी तरफ देखती है। चमकती आँखों में सम्मोहन है। मैं नहीं फँसने वाली । मैं अपनी मुद्रा में कायम हूँ। धीरे-धीरे उसकी आँखों से आँख चुराते हुए उसकी तरफ बढ़ती हूँ। वह हाथ नीचे कर लेती है। सरेण्डर। मेरा वह हाथ तेजी से उठता है, जिसमें अखबार की बेंत है। वार फिर खाली। शौतान कहीं की। देखती क्या हूँ महारानी बैठ गयी है पंखे के डैने पर। आवाज कर के बुला रही है मुझे। अपने पीले कुछ सुनहरे बिन्दीदार पंख झप-झप करके चिढ़ा रही है मुझे। रहने दो बच्चू ! मैं भी इन्तजार करूँगी तुम्हारे नीचे उतरने का।

इन्तजार करती हूँ मैं। और वह क्षण है कि मैं सब भूल जाती हूँ। यह भी कि मैं किस जगह हूँ कि यह घर कैसा है, किस रंग से इसकी दीवारें पुती हैं, कौन-से कलेण्डर में मैं तारीखों के ऊपर हिसाब लिख देती हूँ, कौन-सी घड़ी अलार्म से मुझे जगाती है यहाँ तक कि मेरा टेलीविजन किस तरह का है आकार-प्रकार में, जिसे कि मैं देर दोपहर और देर रात तक देखा करती हूँ। यह भी कि बस इसके आने के कुछ पहले ही यह घर आवाजों से, भाग-दौड़ से भरा था।
कुछ पहले ही इस घर से काली पतलून और चार खाने की कमीज पहने, एक हाथ में छोटा सा-बैगनुमा थैला लटकाये, एक में टिफिन बॉक्स लिये एक आदमी गया है। दफ्तर की तरफ गया होगा। कैसा होगा उसका दफ्तर ? मैं बिलकुल ठीक-ठीक नहीं बता सकती। मैंने कभी देखा ही नहीं। कभी देखने की कोशिश भी नहीं की। उसने कभी ढंग से कुछ बताया भी नहीं। मैंने भी नहीं पूछा। पूछ भी सकती थी, वह बता भी सकता था। पर ऐसा हुआ नहीं। क्यों ? यह नहीं कह सकती। बस, नहीं हो पाया। जो उसने कहा था, टूटा-टूटा सा कुछ, कभी, कहीं। जो मैंने सुना था। उससे मुझे लगा था, दफ्तर की दीवारों से चूना झरता होगा, कुछ मेज होंगे, कुर्सियों के साथ, उन पर चूना गिर जाता होगा जिसे रोज हटा देना जरूरी होता होगा। यह भी मैं कह सकती हूँ कि दफ्तर के आगे की जगह सड़क या मैंदान जैसा कुछ, मिट्टी का बना होगा। बारिशों में कीचड़ हो जाता होगा। दफ्तर की फर्श जूते चप्पलों के खुरों (सोल) के अलग-अलग तरह वाले डिजाइन को भरती जाती होगी। कैसी लगती होगी ? चितकबरी या मटमैली ? कितनी परेशानी में पड़ जाते होंगे जूते-चप्पल ? कोई भी उन्हें देखकर जान सकता है। यह जानना आसान है। कुछ फाइलें होंगी ही। कोई होगा ही जो बॉस होगा। कुछ लोग होंगे, जो कुछ घरों से इसी तरह निकलते होंगे। रोज। बस इससे ज्यादा मैं उस जगह के बारे में अन्दाज नहीं लगा सकती, जहाँ के वह रोज निकलता है।

शाम पाँच बजे या साढ़े पाँच छः बजे तक जब वह लौटता है, बैगनुमा थैले में कुछ दुनियाबी चीजें भरे हुए। सब्जियाँ और थकान लादे। इतना अजनबी होता है वह कि मैं उससे कुछ बता नहीं सकती। क्या-क्या बीता आज मुझपर। लगता है वह किसी दूसरी दुनिया से लौटकर आया है। लौटकर और हारकर।
इसी घर से रोज एक बच्चा भी निकलता है। यही कोई दस बरस का। बच्चा अकसर रोते हुए निकलता है। स्कूल जाने का उसका मन नहीं करता। मेरा भी मन नहीं करता। पर स्कूल जाना जरूरी है।
बहुत सारी चीजें जरूरी होती हैं कि उन्हें टाल देने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। ये चीजें जीवन से ऊपर होती हैं। इनसे जीवन बनता है। जीवन से ये नहीं बनतीं।

इसलिए बच्चा स्कूल जाता है। कन्धे पर काले और नीले रंग का बैग लादे बच्चा खच्चर होता है। हर साल खच्चर का बोझ बढ़ेगा। यह तय है। कितना बढ़ेगा। यह तय नहीं है। तय से अधिक ही होगा। यह भी तय है। गले में गहरे रंग की धारियों वाला पट्टा बँधा है, जिसे देखकर आप दूर से ही कह सकते हैं कि वह जेल की किस वाली इमारत से ‘बिलांग’ करता है। इमारत की ऊँचाई-लम्बाई-चौड़ाई और खूब सूरती से आप पट्टेवाले का क्लास भी जान सकते हैं। बिना बताए, बिना बतियाए। बच्चे के हाथ में वॉटर बॉटल लटकती रहती है। हल्के पीले रंग की कमीज और गहरे रंग का पैण्ट शरीर के अधिकतम भाग को कब्जाये रहता है। यही स्कूल का यूनीफॉर्म है। मैं अपने बचपन में कभी भी इस रंग यूनीफार्म के बारे में सोच नहीं पाती थी। लगता था सफेद शर्ट और नीली स्कर्ट या पैण्ट सारी दुनिया के स्कूल का यूनीफार्म होता होगा। मेरी इस सोच को अकेले इसी शहर ने तोड़कर रख दिया। जितने स्कूल, उतने रंग के यूनीफार्म। एक एक स्कूल के अकेले तीन-तीन, चार-चार तरह के यूनीफार्म। तो यूनीफार्म से ढका बच्चा बस के लिए खड़ा रहता है। मैं भी उसके साथ खड़ी रहती हूँ। तब तक, जब तक कि मटमैले पीले रंग का बहुत बड़ा डिब्बा आ नहीं जाता। जब तक पीले हरे रंग का यूनीफार्म मेरे पास से खिसककर उसमें बन्द नहीं हो जाता। वह हाथ हिलाता है तब भी, जब रो रहा होता है। मैं भी हाथ हिलाती हूँ तब भी, जब परेशान महसूस कर रही होती हूँ। मैं बस को देखती हूँ, तब तक, जब तक कि बस के पीछे लिखे अक्षर धुँधलाते-धुँधलाते मिट नहीं जाते। ये अक्षर मुझे याद हो गये हैं। मैं इन्हें बिना पढ़े, पढ़ लेती हूँ, रोज।

अभ्यास बड़ी चीज है।


खैर, तो मैं यह कहना चाह रही थी कि मैं उस क्षण सब कुछ भूल जाती हूँ। बस वह होती है मेरे दिमाग में, झनझनाती हुई। मैं बार-बार कोशिश करती हूँ। आँखें उसपर टिकाये रखती हूँ, पर वह, अचानक जाने कहाँ निकल जाती है। कई बार मैंने खिड़की, दरवाजे पूरे ध्यान से बन्द किये, पर ये है कि अपने निर्धारित समय पर उपस्थित। मुझे कितना भी दौड़ाया होगा इसने। कभी किचन में, तो कभी गलियारे में, कभी बेड़ रूम में, तो कभी ड्राइंगरूम में। कई बार तो मैंने यह भी चाहा कि उसे नजर अन्दाज कर दूँ। जहाँ चाहे पड़ी रहे। मगर इसकी उपस्थिति ! बैठी रहेगी गलियारे में, आवाज उसकी गिरती रहेगी किचन में। मेरा काम इतना दुश्वार। मैं नहा रही हूँ वह किस कोने से घुस आयी है, इधर उधर गाते हुए घूम रही है। मेरा नहाना दुश्वार। न जाने कब इन दुश्वारियों के बीच यह घटित होता चला गया। मैं चिल्लाने लगी-‘उधर मत जाना।’ वह नहीं गयी।’ ‘इसके आगे नहीं’। वह नहीं बढ़ी। मैं जहाँ हूँ। वहीं आस-पास मँड़राती हुई। जाने कब यह भी हुआ कि मैंने अखबार की बेंत बना कर छोड़ दिया। जाने कब उसका गाना मुझे रुचने लगा। जाने कब मैं एक खास समय में उसके इन्ताजार में होने लगी। जाने कब बतियाना शुरू हुआ। शायद साल बीत गया होगा या बीतने को होगा। कोई इतना ही वक्त हुआ होगा। मैंने कभी वक्त की गिनती पर ध्यान नहीं दिया। देने का कोई मतलब भी नहीं था।
असल में यह एक निहायत मामूली बात थी। मुझे भी ऐसा ही लगा था। बल्कि मैं तो उसे मार कर खत्म कर देना चाहती थी। शुरू में मुझे चिन्ता भी बहुत होती थी। कहीं वह खाने की चीजों पर न बैठ जाए। जहरीली हो सकती है। खूबसूरती का जहर से रिश्ता-

पुरखों ने कहा । हमने मान लिया। साँप हमारे आगे था। हड्डा और भौंरा हमारे आगे थे। गिरगिट भी था और विषखोपड़ा भी...
औरत भी थी ही।
राह में जो आये, वह काँटा।
राह में जो आये, खूबसूरत भी जहरीला।
पुरानी मान्यता का ध्यान मुझे भी था और मैंने भरसक मारने की कोशिश भी की थी, पर वही निकली अपराजेय। उसी ने मिलाया मुझे अपने में। उसी ने मुझे छेड़ा।
मैंने ऐसी मक्खी कभी नहीं देखी। घरेलू सामान्य मक्खी यह नहीं। मक्खियों के न जाने किस प्रकार में आती होगी ? मैंने सोचा था कि किसी जीव विज्ञान वाले से पूछूँगी। आखिर इसे क्या कहा जाए ? कीड़ा या पतंगा कहना उसके लिए अपमानजनक लगता है। डिमोशन होता है उसका। वह इससे ज्यादा है। उसके छोटे-छोटे पीले डैने हैं। ततैया नहीं है वह। पीले डैनों पर काली-काली बिन्दियाँ हैं-खूबसूरत। हरे शीशे जैसी चमकती गोल आँखें हैं। बिल्ली की आँख है उसमें। बिल्ली नहीं है वह। कौन कहता है वह भिनभिनाती है। गाती है वह। स्वर के उतार-चढ़ाव के साथ। मक्खियों के पास भी गीत होते हैं, उनकी आन्तरिक लय में गुँथे। हृदय जैसा कोई तन्तु होता है उनके भी पास। सुख-दुःख को महसूस करता हुआ। भाषा होती है उनके पास। प्राण-वायु से भरी।

बतियाते हैं हम।

जो मैं नहीं कह पायी थी, उससे कहा। जो मैं बचा ले गयी थी, उसके सामने खोला।
सिमरन नाम है मेरा। सिमरन नाम नहीं है मेरा। सिमरन बुलाओ तो लगता है किसी और को आवाज दे रहे हैं। कई बार मैंने खुद को बुलाकर देखा है। ‘सिमरन’ ‘सिमरन’ कहकर, आवाज देकर कई बार अकेले में मैंने अभ्यास किया है। इसे कागज पर लिखकर पानी के साथ निगला भी था, फिर भी यह भीतर नहीं गया। भीतर का दरवाजा सँकरा है। यह नाम उससे टकराकर बाहर गिर जाता है।
काबेरी नाम था, है। माँ-बाप का दिया। शादी के बाद पूजा करवाकर मेरा नाम बदल दिया गया। सिमरन। मेरी सर्टिफिकट नहीं बदली गयी। मेरा कोई सामान नहीं बदला गया। सोफा को कुछ और नहीं कहा गया। पलंग, चादरें, साड़ी...सब कुछ का नाम वही रहा है मेरा नहीं रहा।

प्रथा है यह।

मैं जानती थी, सुना था मैंने।
कोई लड़की जो ‘रंजना’ है, ‘रंजू’ जिसे घर पर बुलाते हैं। अचानक एक दिन सुलोचना बना दी जाएगी। कविता, सविता या जिस अक्षर का नाम मान्य होगा वहाँ। उसे यकीन हो जाएगा ? वह मान लेगी ? मान लेती होंगी लड़कियाँ । मानना ही होता होगा। फिर अचानक एक दिन उनके बचपन की सहेली पुकार देगी-‘रंजू’। अचानक एक दिन माँ का खत आएगा। ‘प्यारी रंजू...’ से शुरू होता हुआ... और...कोई कीड़ा पड़ जाएगा आँख में, लाल हो जाएँगी आँखें, कहीं से मन-भर उठेगा। कि अपनी ही अँगुली से खुदा जाएँगी आँखें...कुछ ऐसा ही कह पाएगी वह ? कुछ ऐसा ही समझ पाएँगे लोग !
अचानक एक दिन, कोई काम आ पड़ेगा। अपना सर्टिफिकेट निकालेगी लड़की और भौचक रह जाएगी कि वहाँ अभी तक उसका आप धड़क रहा है-एक नाम, जो अब तक उसकी नसों में बहता चला जा रहा है। एक नाम, जो मर ही नहीं सकता।
स्त्री नाम नहीं हो सकती ? कभी भी, किसी भी क्षण उसे बदल देना होता है अपना आप। पुराना पड़ जाता है नाम। इतना पुराना की जीवन में उसका प्रवेश वर्जित हो जाए। यानी चोला उतार कर आना है, जैसे आत्मा चोला उतार कर आती है।
शादी के विज्ञापनों में लिखा जाना चाहिए।

नहीं लिखा जाता।

अण्डरस्टुड होता है बहुत कुछ।
बस उसी क्षण मैंने अपने आप से पूछा था कि इसका नाम क्या है ? क्या हो सकता है ? किसी ने कभी तो किसी नाम से इसे पुकारा ही होगा। वह कहाँ है ? जीव विज्ञान का कोई मिले तो पूछूँगी।
बस इसीलिए बहुत सारे प्यार नाम सोचते हुए भी मैं उसे नहीं दे पायी। मेरे साथ उसे किसी अलग नाम से आना हो, यह जरूरी नहीं। यह कोई शर्त नहीं है। जब भी मिलेगा, उसका असली नाम ही मिलेगा, मैं इसके लिए इन्तजार करूँगी। हाँ, लाड़ में आकर मैं कोई भी नाम पुकार लेती हूँ –रानी, मिठ्ठू, गुड्डी... कुछ भी। लाड़ भर जाने पर वे नाम नहीं रह जाते, विशेषण हो जाते हैं। उन सबका एक ही अर्थ रह जाता है, प्यार, मिठास, अपना पन।
मैं उस आदमी से डरती थी, जिसने मेरे साथ अग्नि को साक्षी मानकर कुछ कहा था, बुदबुदाहट जैसा। मैं साफ कुछ सुन-समझ नहीं पायी थी। खाली बाप दादों का नाम ही स्पष्ट मेरे कानों में पड़ा था। मैं उसके घर में थी। डरती थी, इसलिए कितनी बातें सोचती थी, कह नहीं पाती थी। जो कभी-कभी कह डाला गया था, वह इतने दिनों का संचित था कि कहते समय जो शब्द फूटे थे, वे संयम से नहीं बने थे। इतने इतने उग्र अर्थ न जाने कहाँ से साधारण शब्दों में घुस गये थे। ‘लड़ाके शब्द’ जैसा कुछ कहा जा सकता था उन्हें। ‘लड़ाके शब्दों’ को गम्भीरता से लिये जाने की कोई सम्भावना नहीं थी। लड़ने के बाद उनका अस्तित्व खत्म मान लिया जाता था। उन्हें कोई नहीं सुनता था। फिर धीरे-धीरे ये शब्द गायब होने लगे। सचमुच अस्तित्व हीन। मैं अपने भीतर होती गयी। वे न जाने किस जगह।

तो जिस घर में मैं रहती थी, जो उसका था। उसमें एक लम्बा दालान जैसा बरामदा था, तीन कमरे थे, जिसके दरवाजे बरामदे में खुलते थे। घर पक्का था, बल्कि फर्श पर मुजैक भी था। जमाने पहले लगा हुआ होगा। यह कहने के लिए था कि कमरों के दरवाजे बरामदे में खुलते थे। कमरों के चौखट बरामदे में खुलते थे। दरवाजा नहीं था, उसमें भी जो बीच वाला मुझे दिया गया था, न उसमें, जिसमें देवर रहते थे, न ही उसमें, जिसमें सास और मौसी रहती थीं, केवल दो दरवाजे थे। एक बाहर खुलता था दूसरा पीछे। गनीमत थी कि लैट्रीन-बाथरूम में दरवाजे थे। एक लम्बे समय से सबके मन में था। कि दरवाजे लग जाएँ, पर नहीं लग पाये थे। काम चल रहा था। चलता ही जा रहा था। पहला कमरा जिसे कुछ भी कहा जा सकता था, ड्राइंगरूम, बेडरूम, लीविंगरूम, गेस्टरूम कुछ भी। इसमें तीन देवर रहते थे और आने वाले मेहमान भी बैठ रह लेते थे। दूसरे के बाद जो तीसरा और आखिरी था, उसमें मौसी रहती थीं और मौसी को पूरा कब्जा करने से रोकते हुए सास भी। मौसी बाल विधवा थीं। इन्हीं लोगों के सहारे यहाँ रह गयी थीं। इससे भी बड़ी बात यह थी कि मौसी नौकरी करती थीं, और उनकी ससुराल से लाया हुआ अक्सा-बक्सा बीचवाले कमरे के ठीक सामने बने स्टोर जैसे कमरे में बन्द रहता था। मौसी कुछ चिड़चिड़ी थीं। सब मौसी पर चिड़चिड़ाते थे, वे सब पर।

दरवाजे की जगह पर्दे थे। पीछे के दरवाजे और खिड़कियों से आती हुई हवा पर्दे को कभी पर्दा नहीं बने रहने देती। पर्दे के पीछे मैं हरदम चौकन्नी रहती। मुझे बड़ा डर लगता। पर्दा कभी भी, कोई भी शक्ल बना लेता। कभी मोटा, कभी पतला, कभी लम्बा, कभी उड़नछू। रात को बरामदे में सास जी अपनी खटिया बिछाकर सोतीं। ठीक बीच के कमरे के सामने। मैं रात-भर सो न पाती। रात को जब सोने के लिए वह आते तो मैं डर से काँपने लगती। डरते-डरते कई बार मैंने कहना भी चाहा, पर वे सुनने के मूड़ में नहीं होते। ‘थका हूँ, बाद में बताना’ वे कहते। वह बाद नहीं आता। मैं तब और घबड़ाती जब उनका हाथ मेरी देह पर होता। वे मुझमें कुछ ढूँढ़ रहे होते और मेरी आँखे पर्दे पर लगी रहतीं। मैंने पर्दे को इतना देखा, इतना ज्यादा कि मैं उसकी एक एक लकीर बता सकती हूँ। कितने फूल थे, किस जगह कौन-सा रंग था, कितनी दूरी पर कौन-सी पत्ती। यह सब अब भी मेरी अगुलियों पर है। अब, जबकि वहाँ नहीं हूँ।

पूरा नंगा होना कौन बर्दाश्त करेगा ? मुझसे भी नहीं होता। मन करता खुद पर्दा बन जाऊँ। पर्दा पकड़कर खड़ी हो जाऊँ। क्या करूँ की पर्दा, पर्दा हो जाये। बड़े देवर हैं, किसी भी वक्त इधर से निकल सकते हैं। हे प्रभु ! ऐसा कोई भी वक्त आने के पहले मैं मर क्यों न जाऊँ। लगता है कि यह घड़ी-भर का वक्त कैसे बड़ा होता जाता है। यह कब बीते। ढंग से उन्हें देख भी न पाती। उन्हें रोक भी न पाती। मेरा बरजना बहुत मरियल बरजाना होता। कहीं दर्द होता, कहीं कुछ चुभता, खिंचता...तो मुँह बन्द करके सह लेती। पर्दे के पीछे सास की खाट दिख जाती। खाट उस वक्त इतनी डरावनी लगती, लगता कि उसके पाये चल पड़ेंगे। वह-खुद-ब-खुद मेरे कमरे में दाखिल हो जाएगी। मुझे देख लेगी। मुझे इस रूप में...यह खाट मेरी दुश्मन।

यह सब भी मैं किससे कह पायी। उसी से। वही, जो चमकती, गुनगुनाती चक्कर लगाती रहती है यहाँ-वहाँ।
सोचा था इस शहर में आने पर उनका अजनबीपन कुछ हद तक दूर हो जाएगा। पर हुआ उल्टा। कुछ साल पहले जब हम इस शहर में आये थे तब से वे और अजनबी होते गये। होते ही चले गये। मैं रोक नहीं पायी। रोकते कैसे हैं ? मैंने बहुत बार सोचा भी। मुझे जो तरीके आये मैंने इस्तेमाल भी किये, पर वे नहीं खुले। वे बन्द दरवाजा थे। मुख्य दरवाजा। मैं भीतर से घुमड़कर उन तक जाती थी, सिर पटकती और लौट आती।

घर, जिसमें अब हम थे, किसी ने अपने बड़े से अहाते में बनवाया था। दो कमरा, किचन और लैट्रीन-बाथरूम। जल्दी में बना लगता था यह या लपारवाही में। अधूरा-सा। दोनों कमरे कमरे, कमरों के अन्दाज से बहुत ज्यादा बड़े थे। क्या पता ये कमरे, कमरे न होकर स्टोर के लिए बनाये गये हों और फिलहाल रखवाली के लिए एक किरायेदार की याद ने इसमें किचन और बाथरूम जोड़ दिया हो। यह भी हो सकता है कि इसका जो कमरा किचन के साथ लगा है, अहाते में फैक्ट्री लगने के बाद चौकीदार के काम आये। स्टोर कम चौकीदार रूम। और पीछे वाला कमरा, जिसे हम फिलहाल बेड़रूम मानकर चल रहे हैं, साहब का गैराज बन जाए। या दोनों सिर्फ गैराज हों। क्या पता ? जो भी हो। बरसात में इसकी छत कहीं-कहीं से टपकने का आभास देती। जैसे किचन के उस ओर वाले कोने की दीवार से पानी रिसता-सा लगता है। रिसकर नीचे नहीं आता। जाने कहाँ चला जाता। धरती के भीतर तक या उससे भी होता हुआ समुद्र तक। कहीं तक तो जाता ही होगा।
वे कई बार मकान मालिक तक पहुँचा चुके थे कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो किचन के उस ओर वाली दीवार ढह जाएगी। दीवार ढह गयी तो किचन और अहाते के बीच कुछ नहीं रह जाएगा। हम किचन में खाना बना रहे होंगे और लगेगा कि अहाते में बना रहे हैं। अहाते के उस हिस्से में खड़े होंगे तो लगेगा किचन में हैं। यही हाल बाथरूम का था। बेडरूम, जिसे हमने मान लिया था, बेहतर था। कमरों के बड़ेपन में बच्चे के सारे खेल समा जाते। अहाते से लेकर कमरों तक हमारे लिए पूरा एक संसार था। साँप, बिच्छू, गिरगिट, मेढकों, झिंगुरों, बरसाती कीड़ों- मकोड़ों-कभी-कभी झुण्ड में चले आये लंगूरों, कुत्तों, बिल्लियों..भटक आयी गायों..प्राणियों से हमारी भेंट इसी में हो जाया करती। हम इसी में घूम लेते या घूम-घूमकर इसी में होते।
किसे सुनाते ?
यही कि चीजों को समय-समय पर रिपेयर की जरूरत पड़ती है।
आदमी को भी।

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