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ताओ उपनिषद भाग-2

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :399
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7261
आईएसबीएन :978-81-288-2068

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ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में से 21 (तेईस से तैतालीस) अद्भुत प्रवचनों का अपूर्व संकलन...

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Tao Upnishad bhag-2 - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सिर्फ विस्मरण है। एक मौका चाहिए स्मरण का। एक सुविधा चाहिए। उस सुविधा का नाम साधना है।
चीन की रहस्यमयी ताओ परंपरा के उद्गाता लाओत्से के वचनों पर ओशो के इन प्रस्तुत प्रवचनों के मुख्य विषय-बिंदु :
*सफलता के खतरे, अहंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार।
*एक ही सिक्के के दो पहलू सम्मान व अपमान, लोभ व भय।
*सिद्धांत व आचरण में नहीं, सहज-सरल स्वभाव में जीना।
निष्क्रियता, नियति व शास्वत नियम में वापसी।

लाओत्से यह नहीं कह रहा है कि केंद्र आपका कहां है, यह कोई तय करना है ! वह तय ही है। लेकिन जरा आप नीचे उतर आओ और एक बार उस केंद्र को देख लो। फिर कुछ तय नहीं करना पड़ेगा कि केंद्र कहां है और क्या है। और यह नीचे उतर आना एक वापसी है, जस्ट ए कमिंग बैक, बैक टु होम। घर की तरफ वापसी है। तो लाओत्से कहता है, यह कोई साधना भी क्या है ! अपने घर वापस लौट रहे हैं, जो सदा से अपना है। यह कोई क्रिया भी नहीं है।
रास्ते चलाने के लिए होते हैं, खड़े होने के लिए नहीं होते। लेकिन ताओ उसी पथ का नाम है जो चला कर नहीं पहुंचाता, रुका कर पहुंचाता है। लेकिन चूंकि रुक कर लोग पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं। चूंकि लोग रुक कर पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं और चूंकि दौड़-दौड़ कर भी लोग संसार के किसी पथ से कहीं नहीं पहुंचे हैं, इसलिए उसे पथ सिर्फ नाम मात्र को ही कहा जा सकता है। वह पथ नहीं है।

भूमिका


आज के समय में आप चारों ओर नजर घुमा कर देखें और जहां-जहां भी, जीवन के किसी भी आयाम में आपको विकृति के दर्शन हों, तो आप सुनिश्चित रूप में समझ लेना कि यहां ताओ का अभाव है, यहां से ताओ विदा हो चुका है।
जीवन जटिल है, जीवन विषादग्रस्त है, जीवन में हिंसा है, बलात्कार है, भ्रष्टाचार है, प्रदूषण है, कुशासन है, कुपोषण है, सांप्रदायिक वैमनस्य है, आतंकवाद है, पारिवारिक कलह है, घृणा है, तोड़-फोड़ है–ये सब स्थितियां इस बात की सूचक हैं कि हमारे जीवन में, हमारे समाज में, हमारी दुनिया में अब कहीं ताओ नहीं रहा है।
यह ताओ क्या है ?

ताओ है प्रकृति। ताओ है सहजता। ताओ है ऋत्। निसर्ग। जीवन का सहज स्वीकार। समग्र स्वीकार जीवन की अखंडता। अपने में स्थित होना, अपनी सत्ता से च्युत न होना। उधार न होना–स्वयं होना। अपने मौलिक रूप में होना। यह ताओ है।
संक्षेप में, बिना किसी लाग-लपेट के कहें तो ताओ हमारे जीवन की सब समस्याओं का समाधान है। इन सभी समस्याओं का मूल स्त्रोत हमारी अस्वाभाविकता है। स्वाभाविकता में पुनः स्थित हो गए, स्वस्थ हो गए, कि सभी समस्याएं तिरोहित हो गईं।

सामान्यतः जैसा जटिल जीवन आज हम जी रहे हैं, जैसी मनोदशा अपनी आज के मनुष्य ने बना ली है, उससे पुनः स्वाभाविक हो जाना सरल नहीं लगता है, क्योंकि हम स्वयं जटिलता को इस कदर पकड़े हुए हैं जैसे कि बस वही जीवन है। हम सरलता और स्वाभाविकता का स्वाद भूल गए हैं।
ताओ उपनिषद पर अपने प्रवचनों के माध्यम से ओशो पुनः हमारे हाथों में ऐसे सूत्रों की संपदा देते हैं कि जिन्हें समझने मात्र से हमारा जीवन स्वतः सरलता की पगडंडियों पर लौटने लगता है और हम उस खो गये सहज आनंद का स्वाद लेने लगते हैं, जो आत्यंतिक रूप से हमारा अपना है लेकिन जटिलताओं के अनेक आवरणों में ढंक कर हमारी आंखों से ओझल हो गया था।

इस संबंध में और अधिक न कह कर, मैं चाहता हूं कि आप इन प्रवचनों को सीधे पढ़ें–और स्वयं अनुभूति करें कि कैसे-कैसे अनूठे सार-सूत्रों की संपदा आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। ताओ के इस विलक्षण लोक में आपको निमंत्रण है।

स्वामी चैतन्य कीर्ति

अनुक्रम


२३ सफलता के खतरे, अहंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार
२४ शरीर व आत्मा की एकता, ताओ की प्राण-साधना व अविकारी स्थिति १९
२५ उद्देश्य-मुक्त जीवन, आमंत्रण भरा भाव व नमनीय मेधा ३७
२६ ताओ की अनुपस्थिति उपस्थिति ५७
२७. अनस्तित्व और खालीपन है आधार सब का ७९
२८. ऐंद्रिक भूख की नहीं–नाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूख की फिक्र ९७
२९. ताओ की साधना–योग के संदर्भ में ११५
३॰. एक ही सिक्के के दो पहलू सम्मान व अपमान, लोभ व भय १३५
३१. अहंकार-शून्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य १५१
३२. अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शनीय ताओ १६७
३३. अक्षय व निराकार, सनातन व शून्यता की प्रतिमूर्ति १८३
३४. संत की पहचान : सजग व अनिर्णीत, अहंशून्य व लीलामय १९९
३५. विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति २२३
३६. तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विसर्जन व अनेकता में एकता २४१
३७. निष्क्रियता, नियति व शाश्वत नियम में वापसी २५९
३८. ताओ का द्वार–सहिष्णुताव निष्पक्षता २७७
३९. श्रेष्ठ शासक कौन ?–जो परमात्मा जैसा हो २९५
४॰. ताओ के पतन पर सिद्धांतों का जन्म ३११
४१. सिद्धांत व आचरण में नहीं, सरल-सहज स्वभाव में जीना ३३१
४२. आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन ३५५
४३. धर्म है–स्वयं जैसा हो जाना ३७३


सफलता के खतरे, अहंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार


जीवन एक गणित नहीं है; गणित से ज्यादा एक पहेली है। और न ही जीवन एक तर्क-व्यवस्था है; तर्क-व्यवस्था से ज्यादा एक रहस्य है।
गणित का मार्ग सीधा-साफ है। पहेली सीधी-साफ नहीं होती। और सीधी-साफ हो, तो पहेली नहीं हो पाती। और तर्क की निष्पत्तियां बीज में ही छिपी रहती हैं। तर्क किसी नई चीज को कभी उपलब्ध नहीं होता। रहस्य सदा ही अपने पार चला जाता है।

लाओत्से इन सूत्रों में जीवन के इस रहस्य की विवेचना कर रहा है। इसे हम दो तरह से समझें।
एक तो हम कल्पना करें कि एक व्यक्ति एक सीधी रेखा पर ही चलता चला जाए, तो अपनी जगह कभी वापस नहीं लौटेगा। जिस जगह से यात्रा शुरू होगी, वहां कभी वापस नहीं आएगा, अगर रेखा उसकी यात्रा की सीधी है। लेकिन अगर वर्तुलाकार है, तो वह जहां से चला है, वहीं वापस लौट आएगा। अगर हम यात्रा सीधी कर रहे हैं, तो हम जिस जगह से चले हैं, वहां हम कभी भी नहीं आएंगे। लेकिन अगर यात्रा का पथ वर्तुल है, सरकुलर है, तो हम जहां से चले हैं, वहीं वापस लौट आएंगे।

तर्क मानता है कि जीवन सीधी रेखा की भांति है। और रहस्य मानता है कि जीवन वर्तुलाकार है, सरकुलर है। इसलिए पश्चिम, जहां कि तर्क ने मनुष्य की चेतना को गहरे से गहरा प्रभावित किया है, जीवन को वर्तुल के आकार में नहीं देखता। और पूरब जहां जीवन के रहस्य को समझने की कोशिश की गई है–चाहे लाओत्से, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध–वहां हमने जीवन को एक वर्तुल में देखा है। वर्तुल का अर्थ है कि हम जहां से चलेंगे, वहीं वापस पहुंच जाएंगे। इसलिए संसार को हमने एक चक्र कहा है, दि व्हील। संसार का अर्थ ही चक्र होता है। यहां कोई भी चीज सीधी नहीं चलती, चाहे मौसम हो, चाहे आदमी का जीवन हो। जहां से बच्चा यात्रा शुरू करता है जीवन की, वहीं जीवन का अंत होता है। बच्चा पैदा होता है, तो पहला जीवन का जो चरण है, वह है श्वास। बच्चा श्वास लेता पैदा नहीं होता, पैदा होने के बाद श्वास लेता है। कोई आदमी श्वास लेता हुआ नहीं मरता, श्वास छोड़ कर मरता है। जिस बिंदु से जन्म शुरू होता है, जीवन की यात्रा शुरू होती है, वहीं मृत्यु उपलब्ध होती है। जीवन एक वर्तुल है। इसका अगर ठीक अर्थ समझें, तो लाओत्से की बात समझ में आ सकेगी।
लाओत्से कहता है, सफलता को पूरी सीमा तक मत ले जाना, अन्यथा वह असफलता हो जाएगी। अगर सफलता को तुम पूरा ले गए, तो तुम अपने ही हाथों उसे असफलता बना लोगे। और अगर यश के वर्तुल को तुमने पूरा खींचा, तो यश ही अपयश बन जाएगा।

यदि जीवन एक रेखा की भांति है, तो लाओत्से गलत है। और अगर जीवन एक वर्तुल है, तो लाओत्से सही है। इस बात पर निर्भर करेगा कि जीवन क्या है, एक सीधी रेखा ?
इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा। पश्चिम ने इतिहास लिखा है। क्योंकि पश्चिम मानता है कि जो घटना एक बार घटी है, वह दुबारा नहीं घटेगी, अनरिपीटेबल है। प्रत्येक घटना अद्वितीय है। इसलिए जीसस का जन्म अद्वितीय है, दुबारा नहीं होगा। और जीसस पुनरुक्त नहीं होंगे। इसलिए सारा इतिहास जीसस से हिसाब रखता है। जीसस के पहले और जीसस के बाद, सारी दुनिया में इतिहास को हम नापते हैं। ऐसा हम राम के साथ नहीं नाप सकते। हम ऐसा नहीं कह सकते कि राम के पूर्व और राम के बाद। क्योंकि पहली तो बात यह है कि हमें यह भी पक्का नहीं कि राम कब पैदा हुए। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम, जो राम का पूरा जीवन बचा सकते थे, वे उनके जन्म की तिथि नहीं बचा सकते थे। यह बहुत समझने जैसी बात है। पूरब ने कभी इतिहास लिखना नहीं चाहा, क्योंकि पूरब की दृष्टि यह है कि कोई भी चीज अद्वितीय नहीं है, सभी चीजें वर्तुल में वापस-वापस लौट आती है। राम हर युग में होते रहे और हर युग में होते रहेंगे। नाम बदल जाए, रूप बदल जाए, लेकिन वह जो मौलिक घटना है, वह नहीं बदलती। वह पुनरुक्त होती रहती है।

इसलिए एक बहुत मीठी कथा है और वह यह कि वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले कथा लिखी; पीछे राम हुए। ऐसा दुनिया में कहीं भी सोचा भी नहीं जा सकता। राम हुए बाद में, वाल्मीकि ने कथा लिखी पहले। क्योंकि राम का होना, पूरब की दृष्टि में, एक वर्तुलाकार घटना है। जैसे एक चाक घूमता है, तो उस चाक में जो हिस्सा अभी ऊपर था, अभी नीचे चला गया, फिर ऊपर आ जाएगा, फिर ऊपर आता रहेगा। जैन कहते हैं कि हर कल्प में उनके चौबीस तीर्थंकर होते रहेंगे। नाम बदलेगा, रूप बदलेगा, लेकिन तीर्थंकर के होने की घटना पुनरुक्त होती रहेगी।

इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा; पूरब ने पुराण लिखा। पुराण का अर्थ है : वह जो सारभूत है, जो सदा होता रहेगा, बार-बार होता रहेगा। इतिहास का अर्थ है जो दुबारा कभी नहीं होगा। अगर जीवन एक वर्तुल में घूम रहा है, तो फिर यह बार बार हिसाब रखने की जरूरत नहीं कि राम कब पैदा होते हैं और कब मर जाते हैं। राम के होने का क्या अर्थ है, इतना ही याद रखना काफी है। राम का सारभूत व्यक्तित्व क्या है, इतना ही याद रखना काफी है। फिर ये बातें गौण हैं कि शरीर कब श्वास लेना शुरू करता है और कब बंद कर देता है। ये बातें अर्थपूर्ण नहीं हैं। हम उन्हीं चीजों को याद रखने की कोशिश करते हैं, जो दुबारा नहीं दुहरती हैं। जो रोज ही दुहरने वाली हैं, उनको याद रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
तो पूरब की समझ जीवन को एक वर्तुलाकार देखने की है। और यह समझ महत्वपूर्ण भी है। क्योंकि इस जगत में जितनी गतियां हैं, सभी वर्तुलाकार हैं। गति मात्र वर्तुल में है–चाहे चांद-तारे घूम रहे हों, चाहे पृथ्वी घूम रही हो, चाहे मौसम घूम रहा हो, चाहे व्यक्ति का जीवन घूम रहा हो–इस जगत में ऐसी कोई भी गति नहीं है, जो सीधी हो। इस जगत में जहां भी गति है, वहां वर्तुल अनिवार्य है। तो अकेला जीवन के संबंध में अपवाद नहीं होगा।

लेकिन वर्तुल का अपना तर्क है; और वर्तुल का अपना रहस्य है। और वह यह है कि जहां से हम शुरू करते हैं, वहीं हम वापस पहुंच जाते हैं। और जब हमारा मन होता है कि हम और जोर से आगे बढ़े चले जाएं, तो हमें पता नहीं होता कि हमारे आगे बढ़े जाने में एक जगह से हमने पीछे लौटना शुरू कर दिया है। एक लिहाज से जवानी बुढ़ापे के बहुत विपरीत है। लेकिन एक अर्थ में बहुत विपरीत नहीं है, क्योंकि जवानी सिर्फ बुढ़ापे में ही पहुंचती है, और कहीं पहुंचती नहीं। तो जितना आदमी जवान होता जा रहा है, उतना बूढ़ा होता जा रहा है।

और यह बात लाओत्से कहता है, किसी भरे हुए पात्र को ढोने की कोशिश करने की बजाय उसे अधभरा ही छोड़ देना श्रेयस्कर है।’
क्योंकि जब भी कोई चीज भर जाती है, तो अंत आ जाता है। वह कुछ भी हो, अकेला पात्र ही नहीं, पात्र तो केवल विचार के लिए है। कोई भी चीज जब भर जाती है, तो अंत आ जाता है। अगर प्रेम भी भर जाए, तो प्रेम का अंत आ जाता है। जो चीज भर जाती है, वह मर जाती है। असल में, भर जाना मर जाने का लक्षण है। पक जाना गिर जाने की सूचना है। फल जब पक जाएगा, तो गिरेगा ही। तो जब भी हम किसी चीज को पूरा कर लेते हैं, तभी समाप्त हो जाती है।
तो लाओत्से कहता है कि जीवन के सत्य को अगर समझना हो, तो ध्यान रखना, किसी पात्र को भरने की बजाय अधभरा रखना ही श्रेयस्कर है।

लेकिन बड़ा कठिन है, अति कठिन है, क्योंकि जीवन की सभी प्रक्रियाएं भरने के लिए आतुर हैं। जब आप अपनी तिजोरी भरना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। तिजोरी तो दूर है, जब आप अपने पेट में भोजन डालना शुरू करते हैं, तब भी आधे पर रुकना मुश्किल है। जब आप किसी को प्रेम करना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। जब आप सफल होना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। महत्वाकांक्षा आधे पर कैसे रुक सकती है ? सच तो यह है, जब महत्वाकांक्षा आधे पर पहुंचती है, तभी प्राणवान होती है। और तभी आशा बंधती है कि अब जल्दी ही सब पूरा हो जाएगा। और जितनी तीव्रता से हम पूरा करना शुरू करते हैं, उतनी ही तीव्रता से नष्ट होना शुरू हो जाता है। तो जिस बात को भी पूरा कर लेंगे, वह नष्ट हो जाएगी।

लाओत्से कहता है, आधे पर रुक जाना।
आधे पर रुक जाना संयम है। और संयम अति कठिन है। जीवन के समस्त नियमों पर आधे पर रुक जाना संयम है। पर आधे पर रुकना बहुत कठिन है, बड़ा तप है। क्योंकि जब हम आधे पर होते हैं, तभी पहली दफा आश्वासन आता है मन में कि अब पूरा हो सकता है। अब रुकने की कोई भी जरूरत नहीं है। जब आप बिलकुल सिंहासन पर पैर रखने के करीब पहुंच गए हों सारी सीढ़ियां पार करके–सीढ़ियों के नीचे रुक जाना बहुत आसान था, पहला कदम ही न उठाना बहुत आसान था। क्योंकि आदमी अपने मन में समझा ले सकता है कि अंगूर खट्टे हैं। और लंबी यात्रा का कष्ट उठाने से भी बच सकता है। आलस्य भी सहयोगी हो सकता है। प्रमाद भी रोक सकता है। संघर्ष की संभावना और संघर्ष के साहस की कमी भी रुकावट बन सकती है। आदमी पहला कदम उठाने से रुक सकता है। लेकिन जब सिंहासन पर आधा कदम उठ जाए और पूरी आशा बन जाए कि अब सिंहासन पर पैर रख सकता हूं, तब लाओत्से कहता है, पैर को रोक लेना। क्योंकि सिंहासन पर पहुंचना सिंहासन से गिरने के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जाता। सिंहासन पर पहुंचने के बाद करिएगा भी क्या ? फल पक जाएगा और गिरेगा। सफलता पूरी होगी और असफलता बन जाएगी। प्रेम पूरा होगा और मृत्यु घट जाएगी। जवानी पूरी होगी और बुढ़ापा उतर आएगा।

जैसे ही कोई चीज पूरी होती है, वर्तुल पुरानी जगह वापस लौट आता है। हम वहीं आ जाते हैं, जहां से हमने शुरू किया था। बूढ़ा आदमी उतना ही असहाय हो जाता है, जितना असहाय पहले दिन का बच्चा होता है। और जीवन भर की सफलता की यात्रा पुनः बच्चे की असफलता में छोड़ जाती है। एक अर्थ में शायद बच्चे से भी ज्यादा असहाय होता है। क्योंकि बच्चे को तो सम्हालने को उसके मां-बाप भी होते हैं और बच्चे को असहाय होने का पता भी नहीं होता। लेकिन बूढ़े के लिए सहारा भी नहीं रह जाता और असहाय होने का बोध भारी हो जाता है। और यह सारे जीवन की सफलता है ! और सारे जीवन आदमी यही कोशिश कर रहा है कि मैं किसी तरह अपने को सुरक्षित कैसे कर लूं ! सारे जीवन की सुरक्षा का उपाय और अंत में आदमी इतना असुरक्षित हो जाता है जितना कि बच्चा भी नहीं है, तो जरूर हम किसी वर्तुल में घूमते हैं, जिसका हमें खयाल नहीं है।

‘तलवार की धार को बार-बार महसूस करते रहें, तो ज्यादा समय तक उसकी तीक्ष्णता नहीं टिक सकती।’
यह भी उसी पहेली का दूसरा हिस्सा है। पहली बात कि किसी भी चीज को उसकी पूर्णता पर मत ले जाना, अन्यथा आप उसी बात की हत्या कर रहे हैं। जिसको आप पूर्ण करना चाहते हैं, आप उसके हत्यारे हैं। रुक जाना।

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