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अष्टावक्र महागीता भाग-2 दुख का मूल...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अष्टावक्र की गीता को मैंने यूं ही नहीं चुना है। और जल्दी नहीं चुना है;
बहुत देर करके चुना है–सोच-विचार के। दिन थे जब मैं कृष्ण की
गीता पर बोला, क्योंकि भीड़-भाड़ मेरे पास थी। भीड़-भाड़ के लिए अष्टावक्र
गीता का कोई अर्थ न था।
बड़ी चेष्टा करके भीड़-भाड़ से छुटकारा पाया है। अब तो थोड़े-से विवेकानंद यहां है। अब तो उनसे बात करनी है, जिनकी बड़ी संभावना है।
उन थोड़े-से लोगों के साथ मेहनत करनी है, जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं, कंकड़-पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो, इसलिए चुनी है।
बड़ी चेष्टा करके भीड़-भाड़ से छुटकारा पाया है। अब तो थोड़े-से विवेकानंद यहां है। अब तो उनसे बात करनी है, जिनकी बड़ी संभावना है।
उन थोड़े-से लोगों के साथ मेहनत करनी है, जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं, कंकड़-पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो, इसलिए चुनी है।
अनुक्रम
११. | दुख का मूल द्वैत है |
१२. | प्रभु प्रसाद–परिपूर्ण प्रयत्न से |
१३. | जब जागो तभी सवेरा |
१४. | उद्देश्य–उसे जो भावे |
१५. | जीवन की एकमात्र दीनता : वासना |
१६. | धर्म है जीवन का गौरीशंकर |
१७. | परीक्षा के गहन सोपान |
१८. | विस्मय है द्वार प्रभु का |
१९. | संन्यास का अनुशासन : सहजता |
२॰. | क्रांति : निजी और वैयक्तिक |
प्रवचन : ११
दुख का मूल द्वैत है
जनक उवाच।
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।
अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः।।35।।
द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेषजम्।
दृश्यमेतन्मृषा सर्वमेकोऽहं चिद्रसोऽमलः।।36।।
बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया।
एवं विमृश्यतो नित्य निर्विकल्पे स्थितिर्मम।।37।।
न मे बंधोऽस्ति मोक्षो वा भ्रांतिः शांता निराश्रया।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।।38।।
सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितम्।
शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना।।39।।
शरीरं स्वर्गनरकौ बंधमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत किं मे कार्यं चिदात्मनः।।40।।
अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः।।35।।
द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेषजम्।
दृश्यमेतन्मृषा सर्वमेकोऽहं चिद्रसोऽमलः।।36।।
बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया।
एवं विमृश्यतो नित्य निर्विकल्पे स्थितिर्मम।।37।।
न मे बंधोऽस्ति मोक्षो वा भ्रांतिः शांता निराश्रया।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।।38।।
सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितम्।
शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना।।39।।
शरीरं स्वर्गनरकौ बंधमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत किं मे कार्यं चिदात्मनः।।40।।
जनक ने कहा : ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें
ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूं।
‘ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।’
जो भी दिखाई पड़ रहा है, जिसे दिखाई पड़ रहा है, और इन दोनों के बीच जो
संबंध है–ज्ञान का या दर्शन का–जनक कहते हैं, आज मैं
जागा, और मैंने देखा, यह सब स्वप्न है। जो जागा है और जिसने इन तीनों को
देखा, स्वप्न की भांति तिरोहित होते, वही केवल सत्य है।
तो तुम साक्षी को द्रष्टा मत समझ लेना। भाषाकोश में तो साक्षी का अर्थ द्रष्टा ही लिखा है; लेकिन साक्षी द्रष्टा से भी गहरा है। द्रष्टा में साक्षी की पहली झलक मिलती है। साक्षी में द्रष्टा का पूरा भाव, पूरा फूल खिलता है। द्रष्टा तो अभी भी बंटा है। द्रष्टा है तो दृश्य भी होगा। और दृश्य और द्रष्टा हैं, तो दोनों के बीच का संबंध, दर्शन, ज्ञान भी होगा। तो अभी तो खंड हैं।
जहां-जहां खंड हैं, वहां-वहां स्वप्न हैं; क्योंकि अस्तित्व अखंड है। जहां-जहां हम बांट लेते हैं, सीमाएं बनाते हैं, वे सारी सीमाएं व्यावहारिक हैं, पारमार्थिक नहीं।
अपने पड़ोसी के मकान से अलग करने को तुम एक रेखा खींच लेते, एक दीवाल खड़ी कर देते, बागुड़ लगा देते, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। हिंदुस्तान पाकिस्तान को अलग करने के लिए तुम नक्शे पर सीमा खींच देते; लेकिन सीमा नक्शे पर ही होती है, पृथ्वी अखंड है।
तुम्हारे आंगन का आकाश और तुम्हारे पड़ोसी के आंगन का आकाश अलग-अलग नहीं है। तुम्हारे आंगन को बांटने वाली दीवाल आकाश को नहीं बांटती। जहां-जहां हमने बांटा है, वहां जरूरत है, इसलिए बांटा है। उपयोगिता है बांटने की, सत्य नहीं है बांटने में। सत्य तो अनबंटा है।
और जो गहरे से गहरा विभाजन है हमारे भीतर, वह है देखने वाले का, दिखाई पड़ने वाले का। जिस दिन यह विभाजन भी गिर जाता है, तो आखिरी राजनीति गिरी, आखिरी नक्शे गिरे, आखिरी सीमाएँ गिरीं। तब जो शेष रह जाता है अखंड उसे क्या कहें ? वह द्रष्टा नहीं कहा जा सकता अब, क्योंकि दृश्य तो खो गया। दृश्य के बिना द्रष्टा कैसा ? इस द्रष्टा को जो हो रहा है, वह दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दर्शन तो बिना दृश्य के न हो सकेगा। तो द्रष्टा, दर्शन और दृश्य तो एक साथ ही बंधे हैं; तीनों होंगे तो साथ होंगे, तीनों जाएंगे तो साथ जाएंगे।
तुमने देखा ! कोई भी स्वप्न जाता है तो पूरा, होता है तो पूरा। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि स्वप्न में से थोड़ा सा हिस्सा बचा लूं, या कि कर सकते हो ?
रात तुमने एक स्वप्न देखा कि तुम सम्राट हो गए, बड़ा सिंहासन है, राजमहल है, बड़ा फौज-फांटा है। सुबह जाग कर क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि सपने में से कुछ बचा लो। तुम कहो, जाए सब, यह सिंहासन बचा लूं; जाए सब, कम से कम पत्नी तो बचा लूँ; जाए सब, कम से कम अपना मुकुट तो बचा लूं। नहीं, या तो सपना पूरा रहता या पूरा जाता। अगर तुम जागे, तो यह संभव नहीं है कि तुम सपने का खंड बचा लो।
दृष्टा, दृश्य, दर्शन, एक ही स्वप्न के तीन अंग हैं। जब पूरा स्वप्न गिरता है और जागरण होता है, तो जो शेष रह जाता है, उसे तो तुमने स्वप्न में जाना ही नहीं था, वह तो स्वप्न में सम्मिलित ही नहीं हुआ था; वह तो स्वप्न से पार ही था, सदा पार था। वह अतीत था। वह स्वप्न का अतिक्रमण किए था। स्वप्न में जिसे तुमने जाना था, वह सब खो जाएगा–समग्ररूपेण सब खो जाएगा !
इसलिए तुमने परमात्मा की जो भी धारणा बना रखी है, जब तुम्हें परमात्मा का अनुभव होगा, तो तुम चकित होओगे, तुम्हारी कोई धारणा काम न आएगी; तुम्हारी सब धारणाएँ खो जाएंगी। जो तुम जानोगे, उसे स्वप्न में सोए-सोए जानने का कोई उपाय नहीं; धारणा बनाने का भी कोई उपाय नहीं।
इसलिए तो कहते हैं, परमात्मा की तरफ जिसे जाना हो उसे सब धारणाएं छोड़ देनी चाहिए। उसे सब सिद्धांत कचरे-घर में डाल देना चाहिए। उसे शब्दों को नमस्कार कर लेना चाहिए; विदा दे देनी चाहिए कि तुमने खूब काम किया संसार में, उपयोगी थे तुम, लेकिन पारमार्थिक नहीं हो।
इसे भी समझ लें सूत्र के भीतर प्रवेश करने के पहले।
व्यावहारिक सत्य पारमार्थिक सत्य नहीं है। व्यावहारिक सत्य की उपयोगिता है, वास्तविकता नहीं। पारमार्थिक सत्य की कोई उपयोगिता नहीं है, सिर्फ वास्तविकता है।
अगर तुम पूछो कि परमात्मा का उपयोग क्या है, तो कठिनाई हो जाएगी। क्या उपयोग हो सकता है परमात्मा का ? क्या करोगे परमात्मा से ? न तो पेट भरेगा, न प्यास बुझेगी। करोगे क्या परमात्मा का ? कौन से लोभ की तृप्ति होगी ? कौन सी वासना भरेगी ? कौन सी तृष्णा पूरी होगी ? परमात्मा का कोई उपयोग नहीं। परमात्मा के कारण तुम महत्वपूर्ण न हो जाओगे। परमात्मा के कारण तुम शक्तिशाली न हो जाओगे। परमात्मा के कारण इस संसार में तुम्हारी प्रतिष्ठा न बढ़ जाएगी। परमात्मा का कोई भी तो उपयोग नहीं है। इसलिए तो जो लोग उपयोग के दीवाने हैं, वे परमात्मा की तरफ नहीं जाते। परमात्मा का आनंद है, उपयोग बिलकुल नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं : ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा ?’ लाभ ! तुम बात ही अजीब सी कर रहे हो। तो तुम समझे ही नहीं कि ध्यान तो वही करता है जिसने लाभ-लोभ छोड़ा; जिसके मन में अब लाभ व्यर्थ हुआ, जिसने बहुत लाभ करके देख लिए और पाया कि लाभ कुछ भी नहीं होता। धन मिल जाता है, निर्धनता नहीं कटती। पद मिल जाता है, दीनता नहीं मिटती। सम्मान-सत्कार मिल जाता है, भीतर सब खाली का खाली रह जाता है। नाम जगत भर में फैल जाता है, भीतर सिर्फ दुर्गंध उठती है, कोई सुगंध नहीं उठती है, कोई फूल नहीं खिलते। भीतर कांटे ही कांटे, पीड़ा और चुभन, संताप और असंतोष, चिंता ही चिंता घनी होती चली जाती है। भीतर तो चिता सज रही है, बाहर महल खड़े हो जाते हैं। बाहर जीवन का फैलाव बढ़ता जाता है, भीतर मौत रोज करीब आती चली जाती है।
जिसको यह दिखाई पड़ा कि लाभ में कुछ लाभ नहीं, वही ध्यान करता है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो सोचते हैं शायद ध्यान में भी लाभ हो, तो चलो ध्यान करें। वे पूछते हैं : ध्यान से लाभ क्या ? इससे क्या फायदा होगा ? सुख-समृद्धि आएगी ? पद-प्रतिष्ठा मिलेगी ? धन-वैभव मिलेगा ? हार जीत में परिणत हो जाएगी ? यह जीवन का विषाद, यह जीवन की पराजय, यह जीवन में जो खाली-खालीपन है–यह बदलेगा ? हम भरे-भरे हो जाएंगे ?
वे प्रश्न ही गलत पूछते हैं। अभी उनका संसार चुका नहीं। वे जरा जल्दी आ गए। अभी फल पका नहीं। अभी मौसम नहीं आया। अभी उनके दिन नहीं आए।
ध्यान तो वही करता है, या ध्यान की तरफ वही चल सकता है, जिसे एक बात दिखाई पड़ गई कि इस संसार में मिलता तो बहुत कुछ और मिलता कुछ भी नहीं। सब मिल जाता है और सब खाली रह जाता है। जिसे यह विरोधाभास दिखाई पड़ गया फिर वह यह न पूछेगा कि ध्यान में लाभ क्या है ? क्योंकि लाभ होता है व्यावहारिक बातों में। ध्यान पारमार्थिक है।
आनंद है ध्यान में, लाभ बिलकुल नहीं। तुम ध्यान को तिजोड़ी में न रख सकोगे। ध्यान से बैंक-बैलेंस न बना सकोगे। ध्यान से सुरक्षा, सिक्योरिटी न बनेगी।
ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अज्ञात में। ध्यान में तो तुम्हारी जो सुरक्षा थी वह भी चली जाएगी। ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अपरिचित लोक में। उस अभियान पर भेज देगा, जहां तुम धीरे-धीरे गलोगे, पिघलोगे, बह जाओगे। ध्यान से लाभ कैसे होगा ? ध्यान से तो हानि होगी–और हानि यह कि तुम न बचोगे। ध्यान तो मृत्यु है। लेकिन तब, जब तुम मर जाते हो–शरीर से ही नहीं शरीर से तो तुम बहुत बार मरे हो; उस मरने से कोई मरता नहीं; वह मरना तो वस्त्र बदलने जैसा है। पुराने वस्त्रों की जगह नये वस्त्र मिल जाते हैं, बूढ़ा बच्चा होकर आ जाता है। उस मरने से कोई कभी मरा नहीं। मरे तो हैं कुछ थोड़े से लोग–कोई अष्टावक्र, कोई बुद्ध, कोई महावीर–वे मरे। उनकी मृत्यु पूरी है; फिर वे वापस नहीं लौटते।
ध्यान मृत्यु है। ध्यान में तुम तो मरोगे, तुम तो मिटोगे, तुम्हारी तो छाया भी न रह जाएगी। तुम्हारी तो छाया भी अपवित्र करती है। तुम तो रंचमात्र न बचोगे, तुम ही न बचोगे, तुम्हारे लाभ का कहां सवाल ?
तुम स्वयं एक व्यावहारिक सत्य हो। तुम सिर्फ एक मान्यता हो, तुम हो नहीं।
तुम सिर्फ एक धारणा हो, तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारी धारणा तो बिखर जाएगी। सब धारणाएं बिखर जाएंगी तुम्हारे बिखरते ही। क्योंकि जब मालिक ही न रहा, तो जो सब साज-सामान इकट्ठा कर लिया था, वह सब बिखर जाएगा। जब संगीतज्ञ ही न रहा, तो वीणा क्या बजेगी ? कहते हैं : ‘न रहा बांस न बजेगी बांसुरी।’ तुम ही गए तो बांस ही गया, अब बांसुरी का कोई उपाय न रहा। तब जो शेष रह जाएगा, वही समाधि है–वह है पारमार्थिक !
पारमार्थिक का अर्थ है : जो है ! परम आनंदमय ! परम विभामय ! बरसेगा आशीष, अमृत का अनुभव होगा; लेकिन लाभ ! कुछ भी नहीं। व्यावहारिक अर्थो में कोई लाभ नहीं। उससे तुम किसी तरह की संपदा निर्मित न कर पाओगे।
वही व्यक्ति ध्यान की तरफ आना शुरू होता है, जिसे संसार स्वप्नवत हो गया; जो इस संसार में से अब कुछ भी नहीं बचाना चाहता; जो कहता है यह पूरा सपना है, जाए पूरा; अब तो मैं उसे जानना चाहता हूं जो सपना नहीं है।
ये सूत्र उसी खोजी के लिए हैं।
जनक ने कहा : ‘ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूँ।’
जिसके ऊपर यह सपना चलता संसार का...। रात तुम सोते हो, तुम सपना देखते हो। सपना सत्य नहीं है, लेकिन जिसके ऊपर सपने की तरंगे चलती हैं, वह तो निश्चित सच है। सपना जब खो जाएगा तब भी सुबह तुम तो रहोगे। तुम कहोगे, रात सपना देखा, बड़ा झूठा सपना था। एक बात तय है, जो देखा, वह तो झूठ था, लेकिन जिसके ऊपर बहा, उसे तो झूठ नहीं कह सकते। अगर देखने वाला भी झूठ हो, तब तो सपना बन ही नहीं सकता। सपने के बनने के लिए भी कम से कम एक तो सत्य चाहिए–वह सत्य है तुम्हारा होना। और सुबह जाग कर जब तुम पाते हो कि सपना झूठा था, तो तुम जरा खयाल करना : जिसने सपने को देखा, और जो सपने में भरमाया, जो सपने का द्रष्टा बना था वह भी झूठा था।
रात तुमने सपना देखा कि एक सांप, बड़ा सांप चला आ रहा है, फुफकारें मारता तुम्हारी ओर। जिसने देखा सपने में, वह कंप गया, वह घबड़ा गया। वह पसीने-पसीने हो भागने लगा। पहाड़-पर्वत पार करने लगा, और सांप पीछा कर रहा है। और तुम भागते हो, और उसकी फुफकार तुम्हें सुनाई पड़ रही है। वह जब तुम सुबह जागोगे, तो सांप तो झूठा हो गया। और जिसने सांप को देखा था, जो देख कर भागा था, जो भाग-भाग कर घबड़ाया, पसीने से लथपथ होकर गिर पड़ा था–क्या वह सच था ? वह भी झूठ हो गया। सपना भी झूठ हो गया, सपने का द्रष्टा भी झूठ हो गया।
तो तुम साक्षी को द्रष्टा मत समझ लेना। भाषाकोश में तो साक्षी का अर्थ द्रष्टा ही लिखा है; लेकिन साक्षी द्रष्टा से भी गहरा है। द्रष्टा में साक्षी की पहली झलक मिलती है। साक्षी में द्रष्टा का पूरा भाव, पूरा फूल खिलता है। द्रष्टा तो अभी भी बंटा है। द्रष्टा है तो दृश्य भी होगा। और दृश्य और द्रष्टा हैं, तो दोनों के बीच का संबंध, दर्शन, ज्ञान भी होगा। तो अभी तो खंड हैं।
जहां-जहां खंड हैं, वहां-वहां स्वप्न हैं; क्योंकि अस्तित्व अखंड है। जहां-जहां हम बांट लेते हैं, सीमाएं बनाते हैं, वे सारी सीमाएं व्यावहारिक हैं, पारमार्थिक नहीं।
अपने पड़ोसी के मकान से अलग करने को तुम एक रेखा खींच लेते, एक दीवाल खड़ी कर देते, बागुड़ लगा देते, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। हिंदुस्तान पाकिस्तान को अलग करने के लिए तुम नक्शे पर सीमा खींच देते; लेकिन सीमा नक्शे पर ही होती है, पृथ्वी अखंड है।
तुम्हारे आंगन का आकाश और तुम्हारे पड़ोसी के आंगन का आकाश अलग-अलग नहीं है। तुम्हारे आंगन को बांटने वाली दीवाल आकाश को नहीं बांटती। जहां-जहां हमने बांटा है, वहां जरूरत है, इसलिए बांटा है। उपयोगिता है बांटने की, सत्य नहीं है बांटने में। सत्य तो अनबंटा है।
और जो गहरे से गहरा विभाजन है हमारे भीतर, वह है देखने वाले का, दिखाई पड़ने वाले का। जिस दिन यह विभाजन भी गिर जाता है, तो आखिरी राजनीति गिरी, आखिरी नक्शे गिरे, आखिरी सीमाएँ गिरीं। तब जो शेष रह जाता है अखंड उसे क्या कहें ? वह द्रष्टा नहीं कहा जा सकता अब, क्योंकि दृश्य तो खो गया। दृश्य के बिना द्रष्टा कैसा ? इस द्रष्टा को जो हो रहा है, वह दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दर्शन तो बिना दृश्य के न हो सकेगा। तो द्रष्टा, दर्शन और दृश्य तो एक साथ ही बंधे हैं; तीनों होंगे तो साथ होंगे, तीनों जाएंगे तो साथ जाएंगे।
तुमने देखा ! कोई भी स्वप्न जाता है तो पूरा, होता है तो पूरा। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि स्वप्न में से थोड़ा सा हिस्सा बचा लूं, या कि कर सकते हो ?
रात तुमने एक स्वप्न देखा कि तुम सम्राट हो गए, बड़ा सिंहासन है, राजमहल है, बड़ा फौज-फांटा है। सुबह जाग कर क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि सपने में से कुछ बचा लो। तुम कहो, जाए सब, यह सिंहासन बचा लूं; जाए सब, कम से कम पत्नी तो बचा लूँ; जाए सब, कम से कम अपना मुकुट तो बचा लूं। नहीं, या तो सपना पूरा रहता या पूरा जाता। अगर तुम जागे, तो यह संभव नहीं है कि तुम सपने का खंड बचा लो।
दृष्टा, दृश्य, दर्शन, एक ही स्वप्न के तीन अंग हैं। जब पूरा स्वप्न गिरता है और जागरण होता है, तो जो शेष रह जाता है, उसे तो तुमने स्वप्न में जाना ही नहीं था, वह तो स्वप्न में सम्मिलित ही नहीं हुआ था; वह तो स्वप्न से पार ही था, सदा पार था। वह अतीत था। वह स्वप्न का अतिक्रमण किए था। स्वप्न में जिसे तुमने जाना था, वह सब खो जाएगा–समग्ररूपेण सब खो जाएगा !
इसलिए तुमने परमात्मा की जो भी धारणा बना रखी है, जब तुम्हें परमात्मा का अनुभव होगा, तो तुम चकित होओगे, तुम्हारी कोई धारणा काम न आएगी; तुम्हारी सब धारणाएँ खो जाएंगी। जो तुम जानोगे, उसे स्वप्न में सोए-सोए जानने का कोई उपाय नहीं; धारणा बनाने का भी कोई उपाय नहीं।
इसलिए तो कहते हैं, परमात्मा की तरफ जिसे जाना हो उसे सब धारणाएं छोड़ देनी चाहिए। उसे सब सिद्धांत कचरे-घर में डाल देना चाहिए। उसे शब्दों को नमस्कार कर लेना चाहिए; विदा दे देनी चाहिए कि तुमने खूब काम किया संसार में, उपयोगी थे तुम, लेकिन पारमार्थिक नहीं हो।
इसे भी समझ लें सूत्र के भीतर प्रवेश करने के पहले।
व्यावहारिक सत्य पारमार्थिक सत्य नहीं है। व्यावहारिक सत्य की उपयोगिता है, वास्तविकता नहीं। पारमार्थिक सत्य की कोई उपयोगिता नहीं है, सिर्फ वास्तविकता है।
अगर तुम पूछो कि परमात्मा का उपयोग क्या है, तो कठिनाई हो जाएगी। क्या उपयोग हो सकता है परमात्मा का ? क्या करोगे परमात्मा से ? न तो पेट भरेगा, न प्यास बुझेगी। करोगे क्या परमात्मा का ? कौन से लोभ की तृप्ति होगी ? कौन सी वासना भरेगी ? कौन सी तृष्णा पूरी होगी ? परमात्मा का कोई उपयोग नहीं। परमात्मा के कारण तुम महत्वपूर्ण न हो जाओगे। परमात्मा के कारण तुम शक्तिशाली न हो जाओगे। परमात्मा के कारण इस संसार में तुम्हारी प्रतिष्ठा न बढ़ जाएगी। परमात्मा का कोई भी तो उपयोग नहीं है। इसलिए तो जो लोग उपयोग के दीवाने हैं, वे परमात्मा की तरफ नहीं जाते। परमात्मा का आनंद है, उपयोग बिलकुल नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं : ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा ?’ लाभ ! तुम बात ही अजीब सी कर रहे हो। तो तुम समझे ही नहीं कि ध्यान तो वही करता है जिसने लाभ-लोभ छोड़ा; जिसके मन में अब लाभ व्यर्थ हुआ, जिसने बहुत लाभ करके देख लिए और पाया कि लाभ कुछ भी नहीं होता। धन मिल जाता है, निर्धनता नहीं कटती। पद मिल जाता है, दीनता नहीं मिटती। सम्मान-सत्कार मिल जाता है, भीतर सब खाली का खाली रह जाता है। नाम जगत भर में फैल जाता है, भीतर सिर्फ दुर्गंध उठती है, कोई सुगंध नहीं उठती है, कोई फूल नहीं खिलते। भीतर कांटे ही कांटे, पीड़ा और चुभन, संताप और असंतोष, चिंता ही चिंता घनी होती चली जाती है। भीतर तो चिता सज रही है, बाहर महल खड़े हो जाते हैं। बाहर जीवन का फैलाव बढ़ता जाता है, भीतर मौत रोज करीब आती चली जाती है।
जिसको यह दिखाई पड़ा कि लाभ में कुछ लाभ नहीं, वही ध्यान करता है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो सोचते हैं शायद ध्यान में भी लाभ हो, तो चलो ध्यान करें। वे पूछते हैं : ध्यान से लाभ क्या ? इससे क्या फायदा होगा ? सुख-समृद्धि आएगी ? पद-प्रतिष्ठा मिलेगी ? धन-वैभव मिलेगा ? हार जीत में परिणत हो जाएगी ? यह जीवन का विषाद, यह जीवन की पराजय, यह जीवन में जो खाली-खालीपन है–यह बदलेगा ? हम भरे-भरे हो जाएंगे ?
वे प्रश्न ही गलत पूछते हैं। अभी उनका संसार चुका नहीं। वे जरा जल्दी आ गए। अभी फल पका नहीं। अभी मौसम नहीं आया। अभी उनके दिन नहीं आए।
ध्यान तो वही करता है, या ध्यान की तरफ वही चल सकता है, जिसे एक बात दिखाई पड़ गई कि इस संसार में मिलता तो बहुत कुछ और मिलता कुछ भी नहीं। सब मिल जाता है और सब खाली रह जाता है। जिसे यह विरोधाभास दिखाई पड़ गया फिर वह यह न पूछेगा कि ध्यान में लाभ क्या है ? क्योंकि लाभ होता है व्यावहारिक बातों में। ध्यान पारमार्थिक है।
आनंद है ध्यान में, लाभ बिलकुल नहीं। तुम ध्यान को तिजोड़ी में न रख सकोगे। ध्यान से बैंक-बैलेंस न बना सकोगे। ध्यान से सुरक्षा, सिक्योरिटी न बनेगी।
ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अज्ञात में। ध्यान में तो तुम्हारी जो सुरक्षा थी वह भी चली जाएगी। ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अपरिचित लोक में। उस अभियान पर भेज देगा, जहां तुम धीरे-धीरे गलोगे, पिघलोगे, बह जाओगे। ध्यान से लाभ कैसे होगा ? ध्यान से तो हानि होगी–और हानि यह कि तुम न बचोगे। ध्यान तो मृत्यु है। लेकिन तब, जब तुम मर जाते हो–शरीर से ही नहीं शरीर से तो तुम बहुत बार मरे हो; उस मरने से कोई मरता नहीं; वह मरना तो वस्त्र बदलने जैसा है। पुराने वस्त्रों की जगह नये वस्त्र मिल जाते हैं, बूढ़ा बच्चा होकर आ जाता है। उस मरने से कोई कभी मरा नहीं। मरे तो हैं कुछ थोड़े से लोग–कोई अष्टावक्र, कोई बुद्ध, कोई महावीर–वे मरे। उनकी मृत्यु पूरी है; फिर वे वापस नहीं लौटते।
ध्यान मृत्यु है। ध्यान में तुम तो मरोगे, तुम तो मिटोगे, तुम्हारी तो छाया भी न रह जाएगी। तुम्हारी तो छाया भी अपवित्र करती है। तुम तो रंचमात्र न बचोगे, तुम ही न बचोगे, तुम्हारे लाभ का कहां सवाल ?
तुम स्वयं एक व्यावहारिक सत्य हो। तुम सिर्फ एक मान्यता हो, तुम हो नहीं।
तुम सिर्फ एक धारणा हो, तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारी धारणा तो बिखर जाएगी। सब धारणाएं बिखर जाएंगी तुम्हारे बिखरते ही। क्योंकि जब मालिक ही न रहा, तो जो सब साज-सामान इकट्ठा कर लिया था, वह सब बिखर जाएगा। जब संगीतज्ञ ही न रहा, तो वीणा क्या बजेगी ? कहते हैं : ‘न रहा बांस न बजेगी बांसुरी।’ तुम ही गए तो बांस ही गया, अब बांसुरी का कोई उपाय न रहा। तब जो शेष रह जाएगा, वही समाधि है–वह है पारमार्थिक !
पारमार्थिक का अर्थ है : जो है ! परम आनंदमय ! परम विभामय ! बरसेगा आशीष, अमृत का अनुभव होगा; लेकिन लाभ ! कुछ भी नहीं। व्यावहारिक अर्थो में कोई लाभ नहीं। उससे तुम किसी तरह की संपदा निर्मित न कर पाओगे।
वही व्यक्ति ध्यान की तरफ आना शुरू होता है, जिसे संसार स्वप्नवत हो गया; जो इस संसार में से अब कुछ भी नहीं बचाना चाहता; जो कहता है यह पूरा सपना है, जाए पूरा; अब तो मैं उसे जानना चाहता हूं जो सपना नहीं है।
ये सूत्र उसी खोजी के लिए हैं।
जनक ने कहा : ‘ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूँ।’
जिसके ऊपर यह सपना चलता संसार का...। रात तुम सोते हो, तुम सपना देखते हो। सपना सत्य नहीं है, लेकिन जिसके ऊपर सपने की तरंगे चलती हैं, वह तो निश्चित सच है। सपना जब खो जाएगा तब भी सुबह तुम तो रहोगे। तुम कहोगे, रात सपना देखा, बड़ा झूठा सपना था। एक बात तय है, जो देखा, वह तो झूठ था, लेकिन जिसके ऊपर बहा, उसे तो झूठ नहीं कह सकते। अगर देखने वाला भी झूठ हो, तब तो सपना बन ही नहीं सकता। सपने के बनने के लिए भी कम से कम एक तो सत्य चाहिए–वह सत्य है तुम्हारा होना। और सुबह जाग कर जब तुम पाते हो कि सपना झूठा था, तो तुम जरा खयाल करना : जिसने सपने को देखा, और जो सपने में भरमाया, जो सपने का द्रष्टा बना था वह भी झूठा था।
रात तुमने सपना देखा कि एक सांप, बड़ा सांप चला आ रहा है, फुफकारें मारता तुम्हारी ओर। जिसने देखा सपने में, वह कंप गया, वह घबड़ा गया। वह पसीने-पसीने हो भागने लगा। पहाड़-पर्वत पार करने लगा, और सांप पीछा कर रहा है। और तुम भागते हो, और उसकी फुफकार तुम्हें सुनाई पड़ रही है। वह जब तुम सुबह जागोगे, तो सांप तो झूठा हो गया। और जिसने सांप को देखा था, जो देख कर भागा था, जो भाग-भाग कर घबड़ाया, पसीने से लथपथ होकर गिर पड़ा था–क्या वह सच था ? वह भी झूठ हो गया। सपना भी झूठ हो गया, सपने का द्रष्टा भी झूठ हो गया।
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