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अष्टावक्र महागीता भाग-5 सन्नाटे की साधना

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :314
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7271
आईएसबीएन :81-89605-81-X

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अष्टावक्र महागीता भाग-5 सन्नाटे की साधना...

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Ashtavakra Mahageeta bhag-5 Sannate Ki Sadhna - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह जो हवा मैं तुम्हारे आसपास उठा रहा हूं, इसके लिए ज़रा तुम ऊंचे उठो।... जरा ऊंचे उठो ! मैं जहां की खबर लाया हूं, वहां की खबर लेने के लिए चीड़ बनो। थोड़े सिर को उठाओ ! थोड़े सधो !
मेरे साथ गुनगुना लो थोड़ा। जिस एक की मैं चर्चा कर रहा हूं, उस एक की गुनगुनाहट को तुम में भी गूंज जाने दो।
...और तब तुम्हें पता चलेगा कि जैसे खुल गई कोई खिड़की। और जिसे तुमने समझा था–सिर्फ एक विचार-वो विचार न था; वो ध्यान बन गया। और जिसे तुमने समझा था–सिर्फ एक सिद्धांत, एक शास्त्र-वो सिद्धांत न था, शास्त्र न था; वो सत्य बन गया।

तो थोड़े उठो ! थोड़े जगो ! थोड़े सधो !... तुम मुझे पियो। तुम मेरे पास ऐसे रहो जैसे कोई फूल के पास रहता है।
और मुझे ऐसे सुनो जिसमें प्रयोजन का कोई भाव न हो। जो मुझे प्रयोजन से सुनेगा, वो चूकेगा। जो मुझे निष्प्रयोजन, आनंद से सुनेगा... स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा... वही पा लेगा। उसके जीवन में धीरे-धीरे क्रांति घटनी शुरू हो जाती है।

अनुक्रम


४१. सहज है सत्य की उपलब्धि
४२. श्रद्धा का क्षितिज : साक्षी का सूरज ३४
४३. प्रभु का प्रथम आहट–निस्तब्धता में ६९
४४. शूल हैं प्रतिपल मुझे आगे बढ़ाते १॰७
४५. धर्म एक आग है १३६
४६. खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं १६५
४७. साक्षी आया, दुख गया १९९
४८. प्रेम, करुणा, साक्षी और उत्सव-लीला २२६
४९. सहज ज्ञान का फल है तृप्ति २५६
५॰. रसो वै सः २८७


प्रवचन : ४१

सहज है सत्य की उपलब्धि


अष्टावक्र उवाच।

श्रद्धत्स्व तात श्रद्धात्स्व नात्र मोहं कुरुत्स्व भोः।
ज्ञानस्वरुपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः।।133।।
गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचति।।134।।
देहस्तिष्ठतु कल्पांतः गच्छत्वद्यैव वा पुनः।
क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः।।135।।
त्वय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तुमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः।।136।।
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिंद जगत्।
अथः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेय कल्पना।।137।।
एकस्मिन्नव्यये शांते चिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुतः कर्म कुतोऽहंकार एव च।।138।।

अलबर्ट आइंस्टीन के पूर्व अस्तित्व को दो भागों में बांट कर देखने की परंपरा थी : काल और आकाश; टाइम और स्पेस। अलबर्ट आइंस्टीन ने एक महाक्रांति की। उसने कहा, काल और आकाश भिन्न-भिन्न नहीं, एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
एक नया शब्द गढ़ा दोनों से मिला कर : ‘स्पेसियोटाइम’; कालाकाश।

इस संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है तो ये सूत्र समझने आसान हो जाएंगे। बहुत कठिन है यह बात खयाल में ले लेनी कि समय और आकाश एक ही हैं। आइंस्टीन ने कहा कि समय आकाश का ही एक आयाम, एक दिशा है, एक डायमेंशन है। समय की तरफ से जो जगत देखेंगे उनकी दृष्टि अलग होगी और जो आकाश की तरफ से जगत को देखेंगे उनकी दृष्टि अलह होगी। समय की तरफ से जो जगत को देखेगा उसके लिए कर्म महत्वपूर्ण मालूम होगा, क्योंकि समय है गति, क्रिया है महत्वपूर्ण। जो आकाश की तरफ से जगत को देखेगा, उसके लिए कर्म इत्यादि व्यर्थ हैं। आकाश है शून्य : वहां कोई गति नहीं। जो समय की तरफ से जगत को देखेगा उसके लिए जगत द्वैत, वस्तुतः अनेक मालूम होगा।
मैं हूं, कल नहीं था, कल फिर नहीं हो जाऊंगा। मेरे मरने से तुम न मरोगे; न मेरे जन्म से तुम्हारा जन्म हुआ। निश्चित ही मैं अलग, तुम अलग। वृक्ष अलग, पहाड़-पर्वत अलग, सब अलग-अलग। समय में प्रत्येक चीज परिभाषित है, भिन्न-भिन्न है। आकाश में सभी चीजें एक हैं। आकाश एक है।

समय की धारा चीजों को खंडों में बांट देती है। समय विभाजन का स्त्रोत है। इसलिए जिसने समय की तरफ से अस्तित्व को देखा, वह देखेगा अनेक; जिसने आकाश की तरफ से देखा, वह देखेगा एक। जिसने समय की तरफ से देखा वह सोचेगा भाषा में–साधना की, सिद्धि की। चलना है, पहुंचना है, गंतव्य है कहीं; श्रम करना है, संकल्प करना है, चेष्टा करनी है, प्रयास करना है–तब कहीं पहुंच पाएंगे। जो आकाश की तरफ से देखेगा उसके लिए कहीं कोई गंतव्य नहीं।
सिद्धि मनुष्य का स्वभाव है। आकाश तो यहां है, कहीं और नहीं। जाने को कहां है ! तुम जहां हो वहीं आकाश है। आकाश तो बाहर-भीतर सबमें व्याप्त है !

आकाश तो सदा से हैं; एक क्षण को भी खोया नहीं। समय में चलना हो सकता है, आकाश में कैसा चलना ! कहीं भी रहो, उसी आकाश में हो। तो आकाश में यात्रा का कोई उपाय नहीं; समय में यात्रा हो सकती है। इस बात को खयाल में लेना।
महावीर की परंपरा कहलाती है श्रमण। ‘श्रमण’ का अर्थ होता है : श्रम। श्रम करोगे तो पा सकोगे। बिना श्रम के परमात्मा नहीं पाया जा सकता, न सत्य पाया जा सकता है। हिंदू परंपरा कहलाती है ब्राह्मण। उसका अर्थ है कि ब्रह्म तुम हो, पाने की कोई बात नहीं। जागना है, जानना है। हो तो तुम हो ही, स्वभाव से हो। ब्रह्म तो तुम्हारे भीतर बैठा ही हुआ है। यह आकाश की तरफ से देखना है। तुम चकित होओगे, महावीर ने तो आत्मा को भी जो नाम दिया है वह है समय। इसलिए महावीर की समाधि का नाम है सामायिक।

मैं तो एक जैन घर में पैदा हुआ। उस संप्रदाय का नाम है ‘समैया’। वह समय से बना शब्द है। महावीर तो कहते हैं : समय में लीन हो जाओ तो ध्यान लग गया, सामायिक हो गई, समय में ठहर जाओ तो पहुंच गए। हिंदू परंपरा समय को मूल्य नहीं देती, इसलिए श्रम को भी मूल्य नहीं देती। आकाश का मूल्य है।

ये सारे अष्टावक्र के सूत्र आकाश के सूत्र हैं। और जैसा अलबर्ट आइंस्टीन कहता है, आकाश और समय एक ही अस्तित्व के दो पहलू हैं, दोनों तरफ से पहुंचना हो सकता है। जो समय को मान कर चलेगा, उसके लिए समर्पण संभव नहीं–संघर्ष, संकल्प। जो आकाश को मान कर चलेगा, वह अभी झुक जाए, यहीं झुक जाए–समर्पण संभव है। श्रद्धा ! श्रम की कोई बात नहीं। बोध मात्र काफी है। कुछ करना नहीं है। जो समय को मान कर चलेगा, उसे शुभ अशुभ से संघर्ष है। अशुभ को हटाना है, शुभ को लाना है। बुरे को मिटाना है, भले को लाना है। इसलिए जैन विचार बहुत नैतिक हो गया–होना ही पड़ेगा। अंधेरे को काटना है, प्रकाश को लाना है तो योद्धा बनना होगा। इसलिए तो वर्द्धमान का नाम महावीर हो गया। वे योद्घा थे। उन्होंने जीता, विजय की। ‘जैन’ शब्द का अर्थ होता है : जिसने जीता। अगर भक्त से पूछो तो वह कहेगा, यह बात ही गलत; जीतने से कहीं परमात्मा मिलता है, हारने से मिलता है ! हारो ! उसके सामने समर्पित हो जाओ। ! छोड़ो संघर्ष ! हारते ही मिल जाता है।

ये दो अलग भाषायें हैं। दोनो सही हैं, याद रखना। दोनों तरफ से लोग पहुंच गए है। तुम्हें जो रुच जाए, बस वही तुम्हारे लिए सही है। हालांकि यह मन में वृत्ति होती है कि जो एक धारणा को मानता है, दूसरे को गलत कहने की वृत्ति स्वाभाविक है। जो मानता है संकल्प से मिलेगा, वह कैसे मान सकता है कि समर्पण से मिल सकता है ! अगर वह मान ले कि समर्पण से मिल सकता है तो फिर संकल्प की जरूरत क्या रही ? और जो मानता है समर्पण से ही मिलता है, वह अगर मान ले कि संकल्प से भी मिल सकता है तो फिर समर्पण का क्या मूल्य रह गया ? इसलिए दोनों एक दूसरे का खंडन करते रहेंगे, एक-दूसरे का विरोध करते रहेंगे।

तुम चकित होओगे यह बात जान कर : हिंदू और मुसलमान में उतना विरोध नहीं है, उनकी पद्धति तो एक ही है; जैन और हिंदू में बहुत विरोध है, उनकी पद्धति मौलिक रूप में भिन्न है। मुसलमान भी, ईसाई भी, हिंदू भी–वे सब, अगर गौर से समझो, तो आकाश की धारणा को मान कर चलते हैं। थोड़े-बहुत भाषा के भेद होंगे, लेकिन मौलिक अंतर नहीं है। लेकिन बुद्ध-महावीर आकाश की भाषा को मान कर नहीं चलते, समय की भाषा को मान कर चलते हैं।

सारे जगत के धर्मों को श्रमण और ब्राह्मण में बाटा जा सकता है। और इस बात को मैं फिर से दोहरा दूं दोनों तरफ से लोग पहुंच गए हैं। इसलिए तुम इस चिंता में मत पड़ना कि दूसरा गलत है; तुम तो इतना ही देख लेना, तुम्हारा किससे संबंध बैठ जाता है। तुम्हारे भीतर का ‘स्व’ किसके साथ छंदोबद्ध हो जाता है, बस इतना काफी है; इससे ज्यादा विचारणीय नहीं है।

हिंदू परंपरा की आत्यंतिक पराकाष्ठा पहुंची अद्धैत पर; लेकिन महावीर अद्धैत पर नहीं जा सकते, क्योंकि अद्धैत का तो मतलब हो जायेगा, फिर पाने को कुछ नहीं बचता। दूसरा तो चाहिए ही। संघर्ष करने को भी कुछ नहीं बचता, अगर दूसरा न हो। हराने को भी कुछ नहीं बचता, अगर दूसरा न हो। योद्धा के लिए अकेले होने में क्या प्रयोजन रह जाएगा। लिए तलवार कमरे में नाच रहे, कूद रहे–युद्ध नहीं रह जाएगा, नाच हो जाएगा। योद्धा को तो दूसरा चाहिए। जिसकी चुनौती में जूझ सके। तो महावीर कहते हैं : संसार अलग, परमात्मा अलग; और दोनों में संघर्ष है; चेतना और पदार्थ में संघर्ष है। इसलिए महावीर अद्वैतवादी नहीं हैं, द्वैतवादी हैं। जीवन और चेतना एक लोक; पदार्थ, जड़ अलग दूसरा लोक। और दोनों में कभी कोई मिलना नहीं होता। दोनों भिन्न हैं।

महावीर की ये धारणाएं तुम्हें अष्टावक्र को समझने में सहयोगी हो सकती हैं। उनकी पृष्ठभूमि में अष्टावक्र साफ हो सकेंगे।
अष्टावक्र की धारणा है अद्वैत की; एक ही है, आकाश जैसा ! उसी का सब खेल है। वही एक अनेक-अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है। वही तुम्हारे भीतर सदा से मौजूद है; तुम झपती ले रहे हो, सो रहे हो–एक बात। आंख खोलते ही तुम उसे पा लोगे। उसके पाने में और तुम्हारी स्थिति में इंच भर का फासला नहीं है, जिसे यात्रा करनी हो। ऐसा ही समझो कि सूरज निकला है तुम आंख बंद किए बैठे हो। रोशनी चारों तरफ झर रही है, लेकिन तुम अंधेरे में हो। तुमने पलक खोली, रोशनी से भर गए। कहीं जाना न था। रोशनी पलक पर ही विराजी थी; तुम्हारी पलक पर ही दस्तक दे रही थी। पलक खुली कि सब खुल गया। प्रकाश ही प्रकाश हो गया। सहज है सत्य की उपलब्धि। और समाधि श्रम-साध्य नहीं है; समाधि समर्पण-साध्य है, श्रद्धा से है।

महावीर और बुद्ध में तुम्हें बहुत तर्क मिलेगा, बारीक तर्क मिलेगा। महावीर में ऐसी कोई धारणा नहीं है जो तर्क से सिद्ध न होती हो। महावीर कोई ऐसी बात नहीं कहते जिसे तार्किक रूप से प्रमाणित न किया जा सके। इसलिए महावीर परमात्मा की बात ही नहीं करते, न बुद्ध करते हैं। बुद्ध तो और एक कदम आगे गए–वे आत्मा की बात भी नहीं करते, क्योंकि उसे भी तर्क से सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक लुड़विग विडगिंस्टीन ने इस सदी की एक बहुत महत्वपूर्ण किताब लिखी है। उस किताब का एक सूत्र है : ‘जो कहा न जा सके उसे भूल कर कहना नहीं है। जो वाणी में न आ सके, उसे लाने की कोशिश भी मत करना। अन्यथा अन्याय होता है, अत्याचार होता है।’
विडगिंस्टीन ठीक महावीर और बुद्ध की परंपरा में पड़ता है–वही तर्क-दृष्टि। महावीर ऐसी कोई बात नहीं कहते जिसको तर्क से सिद्ध न किया जा सके।

इसलिए महावीर में काव्य बिलकुल नहीं है क्योंकि कविता को कैसे सिद्ध करोगे ! कविता सिद्ध थोड़े ही होती है। कोई उसकी मस्ती में आ जाए, आ जाए; न आए तो सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। और सिद्ध करने कविता को चलो तो मर जाती है कविता। अगर कोई तुमसे पूछ ले इस कविता का अर्थ क्या, तो भूल कर अर्थ मत बताना। क्योंकि अर्थ अगर बताने में लगे और विश्लेषण किया, उसी में तो कविता मर जाती है। पकड़ में आ जाए, झलक में आ जाए, तो ठीक, न आए तो बात गई। फिर उसे पकड़ में लाने का उपाय नहीं।

महावीर साफ-सुथरे हैं, तर्कयुक्त है; बुद्ध भी। श्रद्धा की कोई बात नहीं है। मानने का कोई सवाल नहीं है। जो भी है वह जाना जा सकता है। इसलिए बुद्धि की, मेधा की पूरी चेष्टा आवश्यक है। ब्राह्मण-विचार में बुद्धि की चेष्टा ही बाधा है। तुम जब तक बुद्धि से चेष्टा करते रहोगे तब तक तुम्हारी चेष्टा ही तुम्हारा कारागृह बनी रहेगी। क्योंकि कुछ है जो बुद्धि से जाना जा सकता है, कुछ है जो बुद्धि से जाना नहीं जा सकता; क्योंकि कुछ बुद्धि के आगे है और कुछ बुद्धि के पीछे है। एक बात तो तय है कि तुम बुद्धि के पीछे हो। तुम बुद्धि के आगे नहीं हो। तुम्हारे ही पीछे खड़े होने के कारण तो बुद्धि चलती है। तो तुम्हें तो बुद्धि नहीं समझ सकती; पीछे लौट कर तुम्हें कैसे समझेगी ? तुम्हारे सहारे ही समझती है, तो तुम्हारे बिना तो चल ही नहीं सकती।

जैसे कि मैं हाथ में एक चमीटा ले लूं तो चमीटे से मैं कोई भी चीज पकड़ सकता हूं; लेकिन उसी चमीटे से, जिस हाथ ने चमीटे को पकड़ा है, उसे थोड़े ही पकड़ सकूंगा। उसको पकड़ने की कोशिश में तो चमीटा भी गिर जाएगा, और मेरे हाथ में न रहा तो चमीटा तो कुछ नहीं पकड़ सकता।
बुद्धि भी तुम्हारी है, तुम्हारे चैतन्य का हिस्सा है–चैतन्य के हाथ में चमीटा है। उससे तुम सब पकड़ लो, चैतन्य छूट जाएगा। चैतन्य को पकड़ना हो तो चमीटा छोड़ देना पड़े। चमीटे का अगर ज्यादा मोह रखा तो मुश्किल में पड़ोगे। फिर तुम सब समझ लोगे, अपने को नहीं समझ पाओगे।
इसलिए विज्ञान सब समझे ले रहा है, सिर्फ स्वयं, मनुष्य की स्वयंता को भूले जा रहा है। मनुष्य की अंतस चेतना भर पकड़ में नहीं आ रही; और सब पकड़ में आया जा रहा है।

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