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एनीथिंग फॉर यू मैम

तुषार रहेजा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7288
आईएसबीएन :978-81-288-1241

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आई.आई.टी. छात्र की प्रेम कहानी...

Anything For You, Ma’am - A Hindi Book - by Tushar Raheja

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अक्टूबर, इसी साल

अब जबकि मैं अपनी भावनाओं से प्रेरित होकर, अपनी असाधारण यात्रा का ब्यौरा तैयार करने बैठा हूँ तो बार-बार दिमाग में एक ही बात आती है कि इससे जुड़े प्रोफेसर सिद्धू, रजित और डॉ. प्रभाकर, उस पल क्या कर रहे थे ? जिस पल से मैंने इस कहानी की शुरुआत की, वह मुझे कुछ-कुछ याद है। अक्टूबर की सुहानी शाम थी, हल्की हवा चल रही थी और सूरज मद्धिम था। दिल्ली के हिसाब से काफी बेहतर मौसम था।

मैं आँखें बंद कर बेफिक्री से पीठ के बल लेटा था, अक्टूबर की मदमस्त हवा मुझे लोरी सुना रही थी, पर तभी मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मैंने आँखें खोले बिना ही बटन दबाया। उधर से नालायक खोसला की आवाज सुनाई दी। ये महापुरुष हमारी कक्षा के प्रतिनिधि हैं। डिपार्टमेंट के कई काम संभालते हैं, पर मेरा जरूरत से ज्यादा ही ध्यान रखते हैं। खैर इससे पहले आप यह जान लें कि मैं आई.आई.टी. दिल्ली के औद्योगिक व उत्पादन विभाग के थर्ड ईयर का छात्र हूँ।
‘‘हैलो !!’’ मैंने उबासी लेते हुए कहा।

‘‘तेजस, तुम सो रहे थे क्या ? उठो यार, मैं तुम्हारी टिकट नहीं ले सका। टाइम थोड़ा था और लाइन काफी लंबी थी। जो भी करना हो, जल्दी करो। शायद पचास टिकटें ही बची हैं।’’ यह सुनते ही मेरी नींद उड़ गई।
‘‘सिर्फ पचास ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘खैर, कोई बात नहीं यार, मैं अपनी टिकट बुक करवा लूँगा। तुम्हारी सीट नंबर क्या हैं ?’’
‘‘बोगी-एस-9; पहली सत्ताईस सीटें हमारी हैं।’’

मैं तेजी से उठा। मुझे फौरन किसी ट्रेवल एजेंट के पास पहुँचना था। बुकिंग दस दिन पहले से चल रही थी और इस बेअक्ल को अब टिकट बुक करवाने का टाइम मिला था। अगर मुझे सीट न मिली तो... ? मैंने जरूरी सामान उठाया, स्कूटी स्टार्ट की; जो कि थोड़ा खाँसने-कराहने के बाद, फरीदाबाद की सैक्टर-15 की मार्केट की ओर चल पड़ी। फरीदाबाद, दिल्ली से सटा शांत इलाका है, जहाँ मैं अपने पापा, मम्मी, दादी माँ, बाबाजी (दादाजी) और प्यारी-सी बहन स्नेहा के साथ रहता हूँ।
ऑफिस काफी बड़ा था। एक बड़े से रंग-बिरंगे बैनर पर लिखा था ‘जे.एफ.के. ट्रेवल्स–अंदर बैठा आदमी शक्ल से ही पक्का बिजनेसमैन लग रहा था।

‘‘मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ, सर ?’’
‘‘ट्रेन की रिजर्वेशन ?’’ मैंने पूछा। उसने ‘हाँ’ तक कहने की जहमत नहीं उठाई और उस बोर्ड पर उँगली उठा दी, जहाँ लिखा था–रेल आरक्षण-3 ! बाकी सारे एयर ट्रेवल के लिए थे। मैं इतना अमीर नहीं था। मैंने अपनी सीट ली और एक भी पल गँवाए बिना पूछा–‘‘क्या कहीं से कहीं तक की भी टिकटें बुक हो जाएँगी ?’’
‘‘जरूर सर।’’

‘‘मेरा मतलब है, जैसे फरीदाबाद में बैठे-बैठे आप टिंवकटू से होलोलुलू की टिकट भी बुक कर सकते हैं ?’’
‘‘हाँ, अगर कोई ऐसी ट्रेन है तो जरूर कर सकते हैं।’’
‘‘बढ़िया।’’ मैंने उसे गाड़ी का नंबर, नाम और समय दिखाया।
‘मुझे 10 दिसंबर को दिल्ली से पुणे की एक टिकट चाहिए। ट्रेन 11 को पुणे पहुँचती है। मुझे 11 की रात को पुणे से चेन्नई की टिकट चाहिए जो 12 को रात आठ बजे चेन्नई पहुँचती है।’’
उसने पूछा कि क्या एक ही टिकट चाहिए ?

मैंने ‘हाँ’ में जवाब देकर पूछा–‘‘टिकट मिल जाएगी, न ? मुझे किसी ने कहा था कि सिर्फ पचास ही सीटें बची हैं’’ मैंने कहा।
उसने कंप्यूटर पर टिक-टिक के बाद बताया कि करीब एक सौ पचास सीटें हैं। मैं कम्बख्त खोसला को कोसने लगा। मुझे यूँ नींद से अचानक उठाए जाना सख्त नापसंद है।
‘‘सर, नाम ?’’ उसने पूछा।
मैंने इस बारे में पहले ही सोच लिया था कि मैं अपना असली नाम नहीं बताऊँगा।

हालांकि मेरे नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन सरनेम से गड़बड़ हो सकती है। अगर वह मेरे पापा का मरीज निकला तो ? आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरे मम्मी-पापा दोनों ही डॉक्टर हैं। जिसके माँ-बाप दोनों ही डॉक्टर हों, वह बंदा कभी चैन से नहीं रह सकता। डॉक्टर के पास हर तरह के लोगों का जमघट रहता है। दुखती आँख या मुहाँसे दिखाते समय वह ऐसी बातें भी बक जाते हैं, जो उन्हें नहीं बतानी चाहिए। सालों से, पापा के मरीजों का बड़ा नेटवर्क बन गया है। मैंने इस दायरे से बड़े दुःख पाए हैं। भगवान का शुक्र है कि अब मैं कालेज में हूँ और इस नेटवर्क से बाहर हूँ।
‘‘रोहित वर्मा’’, मैंने कहा और अपनी कलात्मकता पर गर्व महसूस करना आरंभ ही किया था कि उसने अगला तीर छोड़ दिया।

‘‘आपका पता ?’’
इस बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं था, मैं कुछ देर चुप रहा।
‘‘क्या देना ही पड़ेगा ?’’ मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।
‘‘हाँ।’’
‘‘असल में... मैं यहाँ नहीं रहता। दशहरे की छुट्टियों में एक दोस्त के पास आया हुआ हूँ। मैं दिल्ली में रहता हूँ। वहाँ का पता दे दूँ ?’’
‘‘जी सर।’’

‘‘ठीक है, डी.-24, कराकोरम हाउस, आई.आई.टी, दिल्ली।’’
‘‘संपर्क नंबर ?’’
मैंने आराम से अपना मोबाइल नंबर दे दिया।
‘‘मैं दिल्ली से पुणे के लिए एस.9 बोगी में सीट चाहता हूँ पर तभी, जब सीटर नंबर 50 के बाद का हो, नहीं तो मेरी सीट एस. 8 या एस. 10 में बुक करवा दें। उम्मीद है आपको समझ आ गया होगा ?’’
‘‘सर, मैं पिछले दस सालों से यही काम कर रहा हूँ’’, उसने कहा। अगर मैंने उसी समय बड़ी चतुराई से ‘बहुत बढ़िया’ बोलकर उससे हाथ न मिलाया होता तो शायद वह अपनी पूरी बायोग्राफी कुछ सुना जाता। मैंने अपनी सारी हिदायतें फिर से दोहराईं। मैं चाहता था कि उनमें से कुछ भी छूटे नहीं। मुझे खास तौर से वही सीट नंबर चाहिए थे।

वैसे मैं आपको अपनी सारी प्लानिंग बाद में बताऊँगा, इस समय तो आपको थोड़ा धीरज रखना पड़ेगा। यहाँ इतना ही कहना काफी होगा कि मैं कॉलेज ग्रुप के ज्यादा पास नहीं रहना चाहता था क्योंकि उनमें एक ऐसे प्रोफेसर भी थे, जिनसे दूर रहने में ही मेरी भलाई थी। मुझे बस उन दो दोस्तों का साथ चाहिए था, जो सब कुछ जानते थे। मेरा डिपार्टमेंट एक इंडस्ट्रियल टूर पर पुणे जा रहा था।
एजेंट ने बताया कि टिकटें परसों तक मिल जाएँगी। मैंने संतुष्टि भरी अंगड़ाई लेकर उससे विदा ली।

बाहर ठंडी हवा ने मेरा स्वागत किया और मेरे भीतर खूबसूरत भावनाओं ने जन्म लिया। मेरी चाल उस सिपाही की तरह थी जो दस साल तक युद्ध में लड़ने के बाद अपनी प्रिया से मिलने जा रहा हो। वैसे ये बात दूसरी है कि मेरा मामला भी लगभग यही था। मेरे होंठो पर गीत था। हर मौके के लिए गीत होता है, चाहे खुशी हो या गम। गीत तो याद नहीं पर इतना तो शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि ये खुशनुमा था। प्लान की पहली स्टेज पूरी हुई। मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पा रहा था। मुझे उसे ये खबर देनी थी और उसी समय देनी थी। कहीं ये पल हाथ से न निकल जाए। मैंने उसका नंबर डायल किया,
‘‘श्रेया ! मैं आ रहा हूँ...।’’

सितंबर, इसी साल


बेहतर होगा कि मैं अपनी टेप थोड़ी पीछे कर दूँ मतलब आपको बीती बातें बता दूँ। तकरीबन एक महीना पहले, सितंबर आधा बीत चुका था। मैं पिछले तीन घंटों से श्रेया का नंबर मिलाने की कोशिश कर रहा था पर नंबर नहीं लग रहा था। हमने सुबह से बात नहीं की थी। हाल ही में हमारी जिंदगी ने कुछ झटके खाए थे और ये कोई अच्छे संकेत नहीं थे। जब फोन न मिलता तो मेरा दिल और भी तेजी से धड़कने लगता। आखिर में बैल बजी। मैंने भगवान का धन्यवाद किया !
‘‘हैलो !’’ मैंने कहा।
‘‘हैलो !’’ उसने कहा

‘‘तुम सारा दिन कहाँ थीं ?’’ मेरी आवाज में तनाव के साथ-साथ गुस्से का भी पुट था।
‘‘नेटवर्क नहीं था। मैं घर से भी फोन नहीं कर सकी।’’
‘‘क्यों ?’’ मैं गरजा।
‘‘मम्मी-पापा आसपास ही थे।’’
‘‘पूरा दिन ? तुम्हें फोन करने के लिए एक मिनट नहीं मिला ?’’

मुझे उसकी हालत समझनी चाहिए थी पर मेरा पारा चढ़ता जा रहा था। ‘‘कितनी गलत बात है, तुम्हें पता ही कि मैं परेशान हो जाता हूँ। पर तुम्हें क्या पड़ी है ? तुम तो कभी परवाह नहीं करतीं।’’
‘‘हाँ, ठीक है, मैं कभी परवाह नहीं करती’’, उसने खीझकर कहा।
‘‘शट अप !’’
‘‘नहीं, तुम ठीक कह रहे हो ! मैं परवाह नहीं करती और करूँ भी क्यों ?’’

‘‘अच्छा, अब बात मत बढ़ाओ, बताओ सब ठीक है, न ?’’
‘‘ठीक हो, न हो; क्या फर्क पड़ता है ? मुझे भी कोई चिंता नहीं है और तुम्हें भी नहीं होनी चाहिए।’’
‘‘श्रेया, प्लीज बताओ, सब ठीक है ?’’ मैं थोड़ा घबरा गया था।
‘‘अभी नहीं बता सकती, मैं रात को फोन करूँगी, करीब साढ़े ग्यारह’’, उसने रुँधी आवाज में कहा। जरूर कोई गड़बड़ थी।

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