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जयदोल

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 734
आईएसबीएन :81-263-0711-0

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प्रस्तुत है उत्कृष्ट कहानियों का संग्रह...

Jaidol

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अज्ञेय’ की सर्वतोमुखी प्रतिभा ने साहित्य के अनेक क्षेत्रों को समर्थ नेतृत्व दिया और उनके कृतित्व ने अनेक साहित्यिक विधाओं को नये मानदण्डों की स्थापना द्वारा समृद्ध किया। हिन्दी कहानी ने ‘अज्ञेय’ के अवदान से एक विशिष्टता प्राप्त की है। जयदोल में संगृहीत बारह कहानियाँ ‘अज्ञेय’ की विशिष्टता को रेखांकित करती हैं- जीवन के प्रति सजग और सौहार्दपूर्ण दृष्टि,चिन्तन के उत्प्रेरक आयाम,प्रौढ़ कथाशिल्प, पात्रों के अन्तरंग की सहज प्रतिच्छवि,भाषा का संयम बँधा सौन्दर्य,कथा-बोध का आकर्षण,एल्बम एवं तरंगायित मानस की दौड़ती लहरों के अनेकानेक गतिचित्र। जयदोल वही संग्रह है जिसमें ‘पठार का धीरज’ ‘हीली बोन की बतखें’,‘मेजर चौधरी की वापसी’,‘गैग्रीन’ और स्वंय ‘जयदोल’ जैसे ‘अज्ञेय’ की बहुचर्चित कहानियाँ सम्मिलित हैं। प्रत्येक सुरुचिपूर्ण,पाठक के लिए सर्वथा पठनीय। प्रस्तुत है जयदोल का नया संस्करण नये रूपाकार में।

भूमिका

प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ बिलकुल नयी हैं; कुछ पहले पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और एक कहानी पहले संग्रह में आ चुकी है। उसे यहाँ संकलित करने का कारण यह है कि अब वह पहले संग्रह से निकाल दी जाएगी। इस कहानी का नाम बदल दिया गया है; अब जो नाम है यही आरम्भ में रखा गया था और उपयुक्त भी है किन्तु अँग्रेज़ी से बचने के लिए छोड़ दिया गया था।
कहानियों के बारे में लेखक का वक्तव्य क्या हो सकता है ? उपन्यास के बारे में तो फिर भी कुछ कहने की गुंजाइश होती है, क्योंकि उस में जीवन का एक दर्शन होता है। कहानियों के सत्य में उतनी व्याप्ति नहीं होती; वह एक क्षण का, एक मनःस्थिति का सत्य है—एक दौड़ती हुई लहर का गति चित्र। वह गति-चित्र आप को दीख जाए और देखने में आप का मन भी थोड़ी देर के लिए उलझ जाय, तो लेखक को और कुछ नहीं चाहिए।
यों कुल मिलाकर, जीवन के बारे में मेरे कुछ विचार अवश्य हैं और मैं यह भी चाहता हूँ कि वे आप को रुचें; क्योंकि जीवन से, जीने की भावना से मुझे प्रेम है और मैं चाहता हूँ कि वह प्रेम आप का अनुमोदन और सम्मान पाये।

पठार का धीरज

ऊँचे-नीचे टीले, खँडहर, मटमैली-भूरी हरियाली; धुँधले छोटे झोंप, अँधेरी खोहें; बिखरे हुए पत्थर, कुछ गोल, कुछ चपटे, कुछ उभरे, चुभन-से तीखे; दूर पर चपटी लम्बी इमारत की बत्तियाँ, मानो रेलगाड़ी खड़ी हो।
ये सब यथार्थ हैं।
फिर पठार का धीरज-भरा फैलाव, दुराव-भरा सन्नाटा, झनझनाती तेज़ हवा, चपटे पत्थरों पर मीने के-से हरे-चिट्टे-ललौंहे काही के तारा-फूल, उड़ते-उड़ते बे-भरोसे बादल, तीतरों की चौंकी-सी पुकार ‘त-तीत्तिरि-त-तीत्तिरि-त-तु:’, दूर पर गीदड़ के रोने और भूँकने के बीच का-सा सुर।
ये भी यथार्थ हैं।
लेकिन यथार्थता के स्तर हैं। स्थूल वास्तव, फिर सूक्ष्म वास्तव जिस में हमारे भाव का भी आरोप है, फिर-क्या और भी कोटियाँ नहीं हैं, जिन में भाव ही प्रधान हो, जिनमें तथ्य वहीं पहचाना जाए, जहाँ वह व्यक्ति-जीवन के प्रसार में गहरी लींके काट गया हो, नहीं तो और पहचानने का कोई उपाय न हो, क्योंकि व्यक्ति-जीवन, व्यक्ति-जीवन के क्षण का स्पन्दन इतना तीव्र हो कि सब-कुछ उसी से गूँज रहा हो, दूसरी कोई ध्वनि न सुनी जा सके 

उस चट्टानों और खँडहरों से भरे पठार की खुली, फैली, लचीली, प्रवहमान व्यापकता से अभिभूत किशोर अगर सहसा सुनता है कि तीतर की बोली त-तीत्तिरि-त-तीत्तिरि न हो और कुछ है—क्या है वह ठीक-ठीक सुन लेता है—और उस रेलगाड़ी-नुमा इमारत की बत्तियाँ टिमटिमा कर उसे कुछ बहुत जरूरी सन्देश कह रही हैं जो उसे चाँद निकलने से पहले सुन लेना है, क्योंकि फीके हुए दिग्बिन्दु से अगर चाँद उभर आया और खँडहर की अधूरी मेहराब पर उसकी जुन्हाई पड़ गयी, तो न जाने उनकी कौन-सी पोल खुल जाएगी—अगर वह यह सब सुनता है, तो क्या उस का सुनना धोखा ही है, क्या वह भी वास्तविकता का नया स्तर नहीं है ? और क्या हमेशा ही हमारा जीवन एकाधिक स्तर पर नहीं चलता; हमारा अधिक तीव्रता के साथ जीना, क्या एक ही स्तर पर अधिक गति या विस्तार की अपेक्षा अधिक या नये स्तरों का हठात्, जागा हुआ बोध ही नहीं है ? तीव्र जीवन के क्षण, नयी दृष्टि, नये बोध के क्षण, अनेक स्तरों पर जीवन के स्पन्दन की द्रुत अनुभूति—ये विरल ही होते हैं, जैसे कि तीसरा नेत्र कभी-कभी ही खुलता है....

किशोर ने धीरे से कहा, ‘‘सुनती हो, यह पक्षी क्या पुकार रहा है ? वह कहता है, प्र-मीला, प्र-मीला !’’
प्रमीला निःशब्द हँस दी।
‘‘सच, तुम सुन कर देखो-वह देखो-प्र-मीला, प्र-मीला--’’
प्रमीला ने मानो कान देकर सुना। अब की वह ज़रा ज़ोर से हँस दी,...हाँ ठीक तो, अगर मानकर अनुकूलता से सुनें तो सचमुच तीतर उसी का नाम पुकार रहे हैं, ‘‘प्रमीला, प्रमीला ’’
उसने धीरे से किशोर का हाथ अपने हाथ में लेकर दबा दिया।
‘‘और अभी जब चाँद निकलेगा, तब तुम देखना, वह जो धुँधली-सी मेहराब दीखती है न टूटी हुई, उसका आकर भी ठीक ‘प्र’ जैसा बन जाएगा, मानो चाँदनी तुम्हारा नाम लिख रही हो।’’

प्रमीला की आँखें चमक उठीं। उस ने कहा, ‘‘हाँ, और जब मोर पुकारेगा तो मैं सुनूँगी, वह कह रहा है, ‘‘किशोर, किशोर !...’’ और जब चाँद निकलेगा और बादलों में रुपहली झालर लग जाएगी--’’
‘‘हँसी करती हो ?’’
‘‘नहीं, हँसी क्यों करूँगी भला ? मैं सच कह रही हूँ—ये जो दूर-दूर तक पलाश के झुरमुट हैं, इनकी काँपती पत्तियाँ न जाने किस-किस के नामों पर ताल देकर नाचती हैं, और वह कुण्ड के पानी में चक्कर काटती टिटिहरी चौंक कर न जाने किसे बुलाती है—हम सारा इतिहास थोड़े ही जानते हैं ? केवल अपने नाम सुन चुके, वह भी इस लिए कि-इस लिए कि-’’
‘‘कहो न !’’
‘‘इस लिए कि—मैं नहीं कहती। कहना नहीं चाहिए।’’
‘‘कहो भी न !’’
इस लिए कि मैं—कि तुम-तुम मुझे--’’ और प्रमीला ने पास आकर अपनी आवाज़ को किशोर के कन्धे की ओट करते हुए कहा, ‘‘तुम मुझे प्यार करते हो।’’
किशोर का हाथ घेरा हुआ-सा बढ़ गया, पर प्रमीला के आस-पास शून्य में ही वृत्त बना कर खड़ा रहा।
‘‘और इसी तरह कुँवर राजकुमारी को प्यार करता होगा, और कुण्ड के किनारे मिलने आता होगा, और उसी की बातें पलाशों ने सुन रखी हैं और हवा को सुनाते हैं...’’

दूर गीदड़ फिर भूँका। किशोर तनिक-सा चौंका; प्रमीला ने पूछा, ‘‘कौन है ’’ किशोर ने भी अचकचाए स्वर में कहा, ‘‘कौन है ?’’
थोड़ी दूर पर एक स्त्री-स्वर बोला, ‘‘तुम लोग वास्तव से भागना क्यों चाहते हो ? कुँवर राजकुमारी को प्यार नहीं करता था।’’
‘‘फिर किस को करता था ? हाथी पर सवार हो कर रोज राजकुमारी से मिलने आता था तो--’’
‘‘अपनी छाया को। चन्द्रोदय होते ही वह कुण्ड पर आता था, हाथी पर सवार उसकी अपनी छाया कुण्ड के एक ओर से बढ़कर दूसरे किनारे नहाती हुई राजकुमारी की जुन्हाई-सी देह को घेर लेती थी। उसी लम्बी बढ़ने वाली छाया से कुँवर को प्रेम था, राजकुमारी तो यों ही उस की लपेट में आ जाती थी।’’
‘‘ऐसा ! तो वह रोज़ आता क्यों था ? हाथी को पानी में बढ़ाकर जब वह दोनों बाँहें राजकुमारी की ओर फैलाता--’’
‘‘तुम नहीं मानते ? मैं कुँवर से ही पुछवा दूँ ? अच्छा, ठहरो, वह आता ही होगा—देखो--’’
किशोर ने देखा। एक बड़ी-सी छाया कुण्ड के आर-पार पड़ रही थी—नीचे गोल-सी, मानो हाथी की पीठ; ऊपर सुघड़, लम्बी और नोकदार मानो टोपी पहने राजकुमार।
हाथी धीरे-धीरे पानी में बढ़ रहा था। जब गहरे में उसकी पीठ का पिछला हिस्सा पानी में डूब गया, तब वह खड़ा होकर पानी में सूँड़ हिलाने लगा। कुँवर ने एक बार नज़र चारों ओर दौड़ायी; राजकुमारी को न देखकर वह हाथी की पीठ पर खड़ा हो गया। दोनों हाथों को मुँह के आस-पास रखकर उसने दो बार मोर के पुकारने का-सा शब्द किया--‘‘मैं-तु ! मैं-तु: !’’ और फिर धीरे-से पुकारा, ‘‘राजकुमारी ! राजकुमारी हेमा ’’

स्त्री स्वर ने कहा, ‘‘मैं जा रही हूँ वहाँ...कुँवर के पास। लेकिन वह मुझे नहीं, अपनी छाया को प्यार करता था।’’
गोरोचन एक पतली-सी कुण्ड की सीढ़ियाँ एक-एक करके उतरने लगी। निचली सीढ़ी पर पहुँचकर वह थोड़ी देर रुकी, देह पर ओढ़ी हुई चादर उतारी और फिर एक पैर पानी की ओर बढ़ाया। पानी में चाँदनी की लहरें-सी खेल गयीं।
हाथी की पीठ पर खड़े राजकुमार ने शरीर को साधा, फिर एक सुन्दर गोल रेखाकार बनाता हुआ पानी में कूद गया, क्षण-भर में तैर कर पार जा पहुँचा। दोनों साथ-साथ तैरने लगे।
‘‘हेमा, तुम आज उदास क्यों हो ? तुम्हारा अंग-चालन शिथिल क्यों है ?’’
‘‘नहीं तो ! क्या मैं बराबर साथ-साथ नहीं तैर रही हूँ ?’’
‘‘हाँ पर..वह स्फूर्ति नहीं है—तुम जरूर उदास हो--’’
‘‘नहीं-नहीं, मैं तो बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी तो आज सगाई हो गयी है--’’
‘‘क्या ? राजकुमारी हेमा—क्या कहती हो तुम ? ठट्ठा मत करो--’’ कुँवर तैरता हुआ रुक गया।
हेमा ने रुक कर उसे भरपूर देखते हुए कहा, ‘‘हाँ, आज तिलक हो गया।’’

‘‘कौन—किस के साथ ? तुम कैसे मान सकीं ?’’
हेमा ने धीरे कहा, ‘‘मैं राजकुमारी हूँ। ऐसी बातों में राजकुमारियों की राय नहीं पूछी जाती। साधारण कन्याएँ राय देती होंगी, पर हमारा जीवन राज्य के कल्याण के पीछे चलता है।’’
‘‘और हमारा कल्याण--’’
‘‘वह उसी में पाना होगा। अपना अलग-हानि लाभ सोचना क्षत्रिय-वृत्ति नहीं है, वैसा तो बनिए--’’
‘‘यह सब तुम्हें किस ने कहा है ?’’
‘‘मेरी शिक्षा यही है--’’
दोनों किनारे की ओर बढ़ रहे थे। कुँवर ने लपककर सीढ़ी को जा पकड़ा, और बाहर निकल कर उस पर जा बैठा। हेमा भी निकल कर पास खड़ी हो गयी। शरीर से चिपकते गीले कपड़ों के कारण वह और भी पुतली-सी दीख रही थी, गोरोचन का रंग और चमक आया था।

दोनों देर तक चुप रहे। फिर कुँवर ने कहा, ‘‘तो—यह क्या विदा है ?’’
हेमा ने अचकचा कर कहा, ‘‘नहीं, नहीं ’’
‘‘सुनो हेमा, राजकुमारी, तुम—अभी मेरे साथ चलो। हाथी पर सवार होकर यहाँ से निकलेंगे, फिर घोड़े ले कर--’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘हाथ में वल्गा, पार्श्व में हेमा राजकुमारी—तो सारा देश खुला पड़ा है..उधर कामरूप-मणिपुर तक, उधर विन्ध्य के पार कन्याकुमारी तक, नहीं तो उत्तराखण्ड के पहाड़ों..’’

‘‘और यहाँ पीछे-विग्रह और मार-काट, और लोहे के साँकलों में बँधे हुए बन्दी, और--’’
‘‘प्यार पीछे नहीं देखता, हेमा  उस की दृष्टि आगे रहती है। मैं देखता हूँ वह सुन्दर भविष्य जिस में हम दोनों--’’
‘‘मैं भी देखती हूँ कुँवर, मगर वह भविष्य वर्तमान से कटकर नहीं, उसी का फूल है—जैसे बिना पत्ती के भी मधूक में नया बौर...जैसे पलाश की फुनगी को चूमती हुई आग--’’
‘‘नहीं राजकुमारी, मैं सम्पूर्ण जलना चाहता हूँ। धू-धू कर के धधक उठना, बेबस, पागल, जैसे चैत्र में पलाश का समूचा वन-’’
‘‘कुँवर ’’
‘‘कहो, तुम मेरे साथ चलोगी-अभी ?’’
राजकुमारी चुप रही। फिर उस ने धीरे-धीरे कहा, ‘‘सगाई तो हुई है, क्योंकि नयी सन्धि भी हुई है। विवाह की तो अभी कोई बात नहीं है; क्योंकि विवाह के बाद शायद सन्धि में वह बल नहीं रहेगा—मैं उधर की जो हो जाऊँगी। इस प्रकार मैं देश की शान्ति की धरोहर हूँ...इधर की कुमारी, उधर की वाग्दत्ता—मैं कैसे भाग जाऊँ ’’
‘‘तो क्या कहती हो ?’’
‘‘कुछ नहीं कहती, कुँवर। मैं रोज यहाँ आती हूँ, आती रहूँगी। तुम-तुम भी आते हो। यह कुण्ड हमारा अपना राज्य है..नहीं, राज्य नहीं, हमारा घर है जहाँ हम अपनी इच्छा के स्वामी हैं, धरती के दास नहीं। यहीं हम रहते रहेंगे, चाँदनी और तारों भरा अन्धकार हमें घेरे रहेगा—कुँवर, क्या तुम मुझे ऐसे ही नहीं प्यार कर सकते ?’’

‘‘और भविष्य ?’’
‘‘वह किसी का जाना नहीं है। और उतावली कर के उसको नष्ट करना--’’
‘‘धीरज धीरज, हेमा  मैं तुम्हें चाँदनी की तरह नहीं चाहता जो आवे और चली जावे, मैं तुम्हें—मैं तुम्हें—अपनी छाया की तरह चाहता हूँ, हर समय मेरे साथ, जब भी चाँदनी निकले तभी उभर कर मुझे घेर लेने वाली--’’
‘‘और जब चाँदनी न हो तब क्या अन्धकार मुझे लील लेगा—मैं खो जाऊँगी ?’’ राजकुमारी का शरीर सिहर उठा।
‘‘तब तुम मुझी में बसी रहोगी, राजकुमारी !’’
दूर कहीं पर चौंक कर तीतर पुकार उठे। पहले एक, फिर दूसरी ओर से और एक। राजकुमारी ने सचेत होकर कहा, ‘‘अच्छा कुँवर, मैं चली। कल फिर आऊँगी। तुम चिन्ता मत करना।’’
कुँवर ने कहा, ‘‘राजकुमारी !’’ फिर कुछ भर्राए स्वर में कहा,’’ हेमा ’’
हेमा ने धीरे से कहा, ‘‘अपने चाँद को तुम्हें सौंप जाती हूँ। देवता तुम्हारी रक्षा करें, कुँवर--’’
उसने जल्दी से चादर ओढ़ी और निःशब्द लचीली गति से सीढ़ियाँ चढ़ चली।

कुँवर ने एक बार दक्षिण आकाश में उभरे वृश्चिक को देखा, फिर झुक कर पानी में हो लिया और क्षण-भर में हाथी की पीठ पर पहुँच गया। अँधेरे का एक पुंज-सा पानी में से उठा और कुण्ड के छोर पर अँधेरे की एक बड़ी-सी कन्दरा में खो गया। हेमा का स्वर फिर पास कहीं बोला, ‘‘समझे ?’’
किशोर ने कहा, ‘‘राजकुमारी, तुम तो कहती हो वह प्यार नहीं करता ? वह तो-’’
‘‘कब कहती हूँ नहीं करता था ? पर मुझे नहीं, अपनी प्रलम्बित छाया को। तभी तो मुझे छोड़ कर चला गया-’’
‘‘चला गया ’’
‘‘हाँ, दूसरे दिन वह नहीं आया। मैं देर रात तक कुण्ड पर बैठी रही। तीसरे दिन भी नहीं आया। फिर पता लगा जहाँ मेरी सगाई हुई थी वहाँ-वहाँ उस ने आक्रमण कर दिया है एक अश्वारोही टुकड़ी के साथ-’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर ! इतिहास बाँचना मेरा काम नहीं है, अपरिचित ! वह सब तुम ने पढ़ा होगा- कितने राज्य, कितने राजकुल विग्रहों से घुल गये, इस का लेखा-जोखा रखना तो तुम्हारी शिक्षा का मुख्य अंग है  हम तो स्वयं जीने वाले हैं, जीवन के प्रति समर्पित हो कर, क्योंकि जीवन का एक अपना तर्क है जो इतिहास के तर्क से-’’
‘‘पर कुँवर ?... राजकुमारी, कुँवर का क्या हुआ ?’’

‘‘वह नहीं आया। दूसरे दिन नहीं, तीसरे दिन नहीं, सप्ताह नहीं, पखवाड़े नहीं । महीने और वर्ष बीत गये। विग्रह फैला और फैलता ही गया। वह नहीं आया फिर। और-आज भी मैं नहीं जानती कि मैं-कि मैं केवल वाग्दत्ता हूँ, कि विधवा, कि-कि केवल इस कुण्ड की विवाहिता वधू, जिस की लहरियों से खेलते मैं ने वर्ष बिता दिये।’’
‘‘पर यह तो कुछ समझ में नहीं आया। बात कुछ बनी नहीं !’’
‘‘बात का न बनना ही उस का सार है, अपरिचित ! प्यार में अधैर्य होता है, तो वह प्रिय के आस-पास एक छायाकृति गढ़ लेता है, और वह छाया ही इतनी उज्ज्वल होती है कि वही प्रेय हो जाती है, और भीतर की वास्तविकता-न जाने कब उस में घुल जाती है। तुम मुझे देख रहे हो, क्योंकि मेरे साथ तुम्हारा कोई रागात्मक सम्बन्ध नहीं हैं। मैं खँडहर की जमी हुई चाँदनी हूँ... कुण्ड की एक विजड़ित लहर हूँ। पर मुझे देखो, देर तक देखो लालसा से देखो-तब देखोगे, मेरे आस-पास कितनी घनी दुर्भेद्य छाया तुम ने गढ़ ली है-क्यों भद्रे, तुम क्या कहती हो ?’’

प्रमीला इस सम्बोधन से अचकचा गयी। तनिक-सा किशोर की ओर हटते हुए कहा, ‘‘मैं-मैं-कुछ नहीं राजकुमारी, मैं तो-’’
राजकुमारी ईषत् स्मित-भाव से बोली, ‘‘मैं तो जो कहूँगी इस पार्श्ववर्ती अपरिचित से कहूँगी, यही न ?’’ फिर कुछ गम्भीर हो कर, ‘‘लेकिन भद्रे, वही ठीक है। यह फैला पठार देखो-आकाश, आँधी, पानी, शीतातप, सब के प्रति यह समर्पित है, किसी के आस-पास छायाएँ नहीं गढ़ता, और सब की वास्तविकता देखता है। तुम तो जानती हो, तुम मेरी बहन हो। तुम्हें कुछ कहना ही हो, ऐसा क्यों आवश्यक है ? यह पठार भी तो कुछ नहीं पूछता ! अपरिचित, क्या यह पठार वास्तव है, तुम्हें लगता है ?’’

‘‘हाँ, और नहीं। मैं नहीं जानता। इस समय मैं मानो इस से आत्मसात् हूँ, अलग उस को जोखने की दूरी मुझ में नहीं ।’’
‘‘वह तो जानती हूँ। पठार से, कुण्ड से आत्मसात् न होते, तो क्या मुझे देखते ? मेरी बात सुनते ? क्योंकि मैं-’’
‘‘राजकुमारी, तुम कौन हो ? क्या तुम वास्तव नहीं हो ?’’
‘‘वास्तव !’’ राजकुमारी हँसी। तारे मानो कुछ और चमक उठे, और हवा कुछ तेज़ हो गयी। ‘‘वास्तव तो हूँ, शायद; जो कुछ है सभी वास्तव है। लेकिन वास्तविकता के स्तर हैं। धीरज हमें एक साथ ही अनेक स्तरों की चेतना देता है, अधैर्य एक प्रकार का चेतना का धुँआ है जिस से बोध का एक-एक स्तर मिटता जाता है और अन्त में हमारी आँखे कड़ुवा जाती हैं, हमें कुछ दिखता नहीं-’’
फिर वही तीतर बोले, ‘‘त-तीत्तिरि, त-तीत्तिरि !’’

राजकुमारी ने कहा, ‘‘कभी इस पठार के तीतर और मोर दूसरे नाम पुकारा करते थे। मैं ने अपना नाम अनेक बार सुना था। पर अब-’’ उस ने फिर मुसकरा कर अर्थ-भरी दृष्टि से दोनों को देखा, ‘‘अब कदाचित् वह और नाम पुकारते हैं-है न ?’’
तीतर फिर बोले, ‘‘त-तीत्तिरि, त-तीत्तिरि।’’
प्रमीला कुछ लजा गयी। किशोर ने अचम्भे में आ कर कहा,‘‘राजकुमारी तुम कौन हो ?’’
‘‘मैं कोई नहीं हूँ। मैं पठार का धीरज हूँ। वह दृष्टि देता है। लेकिन मैं चली-’’
एक ज़ोर का झोंका आया। कुण्ड पर अठखेलियाँ करती चाँदनी लहरा कर चक्कर खाकर मूर्छित हो गयी, अदृश्य टिटिहरी उड़ता वृत बना चीख़ उठी, बादल का एक चिथड़ा चाँद का मुँह पोंछ गया, पलाश के झोंप सनसना उठे, कहीं गीदड़ भूँका, प्रमीला किशोर के और निकट सरक आयी, और, उसे मग्न-सा देख कर बड़े हलके स्पर्श से उसे छू कर स्वयं ठिठक गयी; किशोर ने अचकचाये निःशब्द स्वर से मानो कहा, ‘‘कौन-कहाँ-’’ और फिर सचेत हो कर चारों ओर आँखे दौड़ायीं।
कहीं कोई नहीं था, केवल पठार का सन्नाटा।

तीतर एक साथ ज़ोर से पुकार उठे, ‘‘त-तीत्तिरि, त-तीत्तिरि।’’
किशोर और प्रमीला की आँखें मिलीं, स्थिर हो कर मिलीं और मिली रह गयीं।
नहीं, यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि तीतर किसी का भी नाम पुकारे। पठार की अपनी एक वास्तविकता है, उन की अपनी एक वास्तविकता है। दोनों समानान्तर हैं, सहजीवी संयुक्त हैं; यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि वास्तविकता के अलग-अलग स्तर कहीं भी एक-दूसरे को काटें। जो बोध हो स्वयं ही हो; चेतना स्वतः उभर कर फैल कर जिस स्तर को भी छू जावे; चेतना स्वच्छन्द रहे, क्योंकि धीरज उन में है, उन में रहेगा –
किशोर नें हाथ बढ़ा कर प्रमीला के दोनों शीतल हाथ थाम लिये।
तीतर फिर बोला, ‘‘त-तीत्तिरि !’’
आँखों में बड़ी हलकी मुसकान लिये दोनों ने एक-दूसरे को सिर से पैर तक देखा।
और स्थिर धीरज-भरे विश्वास से जान लिया कि छाया किसी के आस-पास नहीं है, दोनों वास्तव में आमने-सामने हैं।
तब चाँद गोरोचन के बहुत बड़े टीके-सा बड़ा हो आया।

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