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नाटक-एकाँकी >> क्रौंचवध

क्रौंचवध

विजेन्द्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 737
आईएसबीएन :81-263-1152-5

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इसमें क्रौंचवध की घटना से विह्रल आदिकवि वाल्मिकी के उन्मथित मन का रूपकीय कथानक के विस्तृत फलक पर चित्रांकन है....

Krounch-vadh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विजेन्द्र का ‘क्रौंचवध’ एक मिथकीय काव्य-नाटक है। इसमें क्रौंच वध की घटना से विह्ववल आदिकवि वाल्मीकि के उन्मथित मन का रूपकीय कथानक के विस्तृत फलक पर चित्रांकन है। कथानायक के बहुस्तरीय समाज से भी है। नाट्य रूपक में क्रौंचवध की घटना अति संक्षिप्त और सूक्ष्म है,प्रमुख पात्र वाल्मीकि के आन्तरिक द्वन्द्व की ही यहाँ प्रमुखता है। भारतीय कविता की रचना प्रक्रिया का प्रथम अंकुरण भी यहाँ है। न केवल वाल्मीकि बल्कि भारद्वाज आदि अन्य पात्र प्राचीन होते हुए भी आज के जीवन्त प्रश्नों को उठाते से लगते हैं। यह सहज रूपान्तरण उनमें बाह्म और आन्तरिक जीवन-लय की टकराहटों से होता है। यही कारण है कि उनमें मानवीय गति,ऊष्मा क्रिया और चित्त का कम्पन बराबर महसूस किया जा सकता है। विजेन्द्र का यह काव्य-नाटक सहज सरल-भाषा में विन्यस्त होने से साधारण पाठक भी इस काव्य-कृति का भरपूर आनन्द ले सकता है।

पूर्व कथन

क्रौंचवध की मर्मघाती घटना से आदिकवि वाल्मीकि के मन में त्रिआयामी द्वन्द्व जन्मा। एक तो रतिक्रीड़ा-लीन नर क्रौंच की निषाद द्वारा अहेतुक हत्या। यह बात आदिकवि को निसर्ग की विराट लय और उसकी सृजनशीलता का भंग होना था। दूसरे, निषाद को दिये गये शाप-कथन से अनपेक्षित उपजे काव्य के कारण कवि का उल्लसित होना। तीसरे, निषाद को शाप देने के अनौचित्य पर कवि को गहरी आन्तरिक वेदना तथा अपनी भूल का तीखा एहसास। इस बहुआयामी त्रासद द्वन्द्व से वाल्मीकि न केवल बहुत क्षुब्ध हुए वरन् शंकाकुल और अन्दर तक विचलित भी हुए। नाटक के केन्द्र में इसी आन्तरिक वेदना को कवि द्वारा सहने और उससे उबरने की भिन्न-भिन्न मानवीय स्थितियों का सहेतुक आख्यान है। इस पूरे सांग रूपक या प्रतीक कथा में भारतीय काव्य-प्रक्रिया के बीज भी छिटके हैं।

वाल्मीकि का यह सोच कि काव्य के केन्द्र में कोई देवता नहीं वरन् आदर्श पुरुष ही हो, उस समय के ऐसे सोच का संकेत है जो हमें आज भी बहुत प्रासंगिक है। देखें तो यह समय एक प्रकार से अन्धविश्वासों को त्याग दार्शनिक तर्क से सत्यान्वेषण को सक्रिय लगता है। अतः नाटक में अनेक दार्शनिक विवाद भी हैं।
नारद और वाल्मीकि संवाद एक प्रकार से कवि का सृजन पूर्व की स्थिति में काल से साक्षात् है। इसी प्रकार ब्रह्मा से कवि का संवाद कवि के अपने ही अन्दर दमित इतिहास-बोध को पहचानना है।

वाल्मीकि और निषाद संवाद नाटक में इस बात का संकेत है कि कुलीन सामाजिक व्यवस्था के समानान्तर निषादों आदि जैसी अति सामान्य जन-जातियों का भी अपना संसार है। दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं। अन्तर्विरोधी भी।
सूत्रधार और विदूषक सामयिक जीवन के विभिन्न स्तरों और पहलुओं को प्रतिबिम्बित कर अपनी विडम्बनापूर्ण टिप्पणियों से अतीत को वर्तमान से जोड़ते हैं। वे हमें मनुष्य की नियति पर सोचने का भी सूत्र देते हैं।
भरद्वाज पात्र कवि का अन्तःकरण रक्षक (कान्शेंस कीपर) है। वह आगे आनेवाले समय का सांकेतिक सूचक भी है।
ज्ञानपीठ से यह काव्य-नाटक प्रकाशित हो रहा है, इससे बड़ा रचनात्मक परितोष मेरे लिए और क्या होगा !

दृश्य : एक

[चारों तरफ घने वृक्ष हैं। उनसे घिरा वाल्मीकि का आश्रम। महर्षि चिन्ता में डूबे हैं। बेचैन इधर-उधर घूमते हैं। एकाएक चिन्तन की मुद्रा में आसन पर बैठकर सोचते हैं-एकान्त में।]
वाल्मीकि : क्यों हूँ इतना बेचैन अन्दर से खाता है कौन-सा दुस्स्वप्न मुझे ओह, कैसी विडम्बना है...
(आत्मालोचन करते हुए)
पढ़ डाले सब शास्त्र
घोट डाला व्याकरण
कहाँ काम आया वेदान्त
दर्शन और तर्कशास्त्र....
अन्त नहीं चिन्ताओं का
शान्त नहीं होता-
जिज्ञासाओं का अटूट ज्वार
कहना चाहता जीवन-सत्य
कहा नहीं जाता
ओ विधाता..कहूँ किससे
कौन है यहाँ
सघन शून्य के सिवा
साँस लेने को धुआँ
पीने को अग्नि-कण, ज्वाला !
(शिष्य भरद्वाज आता है। महर्षि उधर ध्यान नहीं देते। वह प्रतीक्षा करता है। सहसा महर्षि का जब ध्यान टूटा...थोड़ा चौंककर)
अरे, भरद्वाज...तुम...!
कहो वत्स,क्या है ?
भरद्वाज: ऋषिवर आया हूँ
शुभ प्रभात कहने

(प्रणाम की मुद्रा में)
वाल्मीकि : आयुष्मान् भव !
करो ज्ञानार्जन श्रम से-सतत
रहो सजग और क्रियाशील-
जानने को
जीवन के अतल रहस्य।
भरद्वाज : हाँ ऋषिवर,
लगता है जीवन विचित्र
और असीम

(बीच में ही)
वाल्मीकि : हाँ...विचित्र, रहस्यमय
और कितना सुन्दर भी-
नहीं जान पाया इसे अभी तक
जितना जाना
है वही कणभर
(स्वगत) बिन्दु से आगे बढ़ नहीं पाता
क्यों कहते हैं सभी मुझे
कवि और कोविद
ऐसा थोथा ज्ञान किस काम का
जो नहीं आये काम
मनुष्य के
क्या करूँ इस भार का !
भरद्वाज : प्रभात के नित्यकर्म ऋषिवर-
वाल्मीकि : पहले जाकर कहो अन्य शिष्यों से
करें स्वाध्याय एकाग्र हो
आज नहीं होगा प्रवचन
मेरा !...
भरद्वाज : जैसी आज्ञा ऋषिदेव
(स्वगत) लगते हैं महर्षि कुछ विचलित अन्दर से
क्या कोई भूल हुई
मुझसे...!
वाल्मीकि : (भरद्वाज को सावधान करके)
कहना, लाएँ सुष्ठु समिधा
सद्यःप्रभात कुश
और गन्धवान खिले पुष्प
तुम आना मेरे पास
लौटकर...।
(जाता है। महर्षि पुनः सोच में डूबते हैं। स्वगत)
देखा है। सुना है। छुआ है। सूँघा है
और चखा है जितना जीवन-जगत
कड़वा, कषाय
और मीठा है।

स्वतः ही उमड़ते हैं
भाव अनुभाव चित्तभूमि तोड़कर
पर कह नहीं पाता
जो चाहता हूँ कहना
लगता है-
पक नहीं पाये बिम्ब
दिशाहीन हूँ अँधेरे में
कहाँ हैं सुगठित विचार मेरे !
(गहरे अवसाद में डूबते हैं)
व्यर्थ ही शिष्यों को करता चकित
अपनी वक्तृता से
कैसे कर पाऊँगा उन्हें ज्ञानदीप्त
स्वयं ही भटकता हूँ गहन तमस में।
(शिष्य कुमारिल को आता देखकर)
आओ वत्स, आओ-
देखता हूँ तुम्हारी बाट
भरद्वाज पहुँचा या नहीं ?
आओ बैठो

(आसन पर बैठने का संकेत करते हैं।)
कुमारिल : ऋषिवर बताया है निर्देश आपका
भरद्वाज ने सभी को-
वाल्मीकि : कहो कैसे हो-
तुम्हारा स्वाध्याय..?
कुमारिल : ऋषिवर, अनुकम्पा आपकी बनी रहे अन्त तक
कृतज्ञ रहूँ सदा आपके प्रति
वाल्मीकि : देखो...प्रकृति है कितनी प्रचुर और सुन्दर
जीवन है अथाह समुद्र
सोचा है कभी...

(स्वगत) ओह क्यों-
उत्तप्त है चित्त मेरा
ऊपर से दिखता मन्द-मन्द शान्त
अन्दर से दावानल वेगवान...क्यों...!
कुमारिल : ऋषिदेव,
मेरे लिए है कठिन विषय यह
जो बताया है आपने
यत्न करता हूँ
धारण करूँ उसे चित्त में
दिया है जो शास्त्र में
कठिन है चरितार्थ करना जीवन में।
वाल्मीकि : उचित ही है वत्स,
वे शास्त्र निर्जीव हैं
जिनमें नहीं है ऊष्मा जीवन की
दीप्ति मनुष्य नेह की
जो नहीं बन पाते आसंग
जीवन-क्रियाओं का
व्यर्थ है उपदेश
बिना जीवन-व्यवहार संज्ञान के
(स्वगत) नहीं होता शान्त चित्त मेरा
शब्दाडम्बर और थोथी वाग्मिता से क्या करूँ...
किससे कहूँ...
यह असह्य त्रास
अपने चित्त का...।
(लौटकर भरद्वाज आता है)
भरद्वाज : गुरुवर,..आपने कहा था
उस दिन बताने को...
वाल्मीकि : (बीच में ही) हाँ स्मरण है मुझे
चाहता हूँ बताना तुम्हें
अपने अनुभव....
जिज्ञासाएँ अनन्त है-जैसे वनस्पति सघन
और वनघासें-
उठती हैं हृदय में वे तभी
जब विकल्प हो सामने
हम सोचें उनके समाधान
क्यों न सुझाएँ जीवन के सुन्दर आलोक-पथ !
भरद्वाज : गुरुवर, आज्ञा दें, देखूँ-
व्यवस्था आश्रम की
आपको भी करना है स्वाध्याय
स्वकर्म...।

वाल्मीकि : अच्छा तो फिर कभी..
मुझे हैं याद वे सूत्र
जहाँ छोड़े थे

(दोनों शिष्य चलते हुए परस्पर बातें करते हैं-)
भरद्वाज : तुमने लक्ष्य किया, कुमारिल
महर्षि लगते-
आहत हैं अन्दर से, क्या नहीं- ?
कुमारिल : हाँ अत्यन्त व्याकुल, अशान्त...और उद्विग्न भी
कभी देखा नहीं ऐसा
क्या हुई ऐसी अनहोनी
जो अन्दर तक हिला दिया-ज्ञात नहीं।

(दोनों आश्रम में प्रवेश करते हैं। वाल्मीकि एकाग्र मन, सोच की मुद्रा में, स्वगत)
वाल्मीकि : कहना है बहुत-
जो अनकहा अभी
यह द्वन्द्व है सतत
बेधती है विवक्षा मुझे रह-रह
पल-पल अथिर है चित्त
खाता है त्रास मुझे-
सोचता हूँ...क्या कहूँ, किससे कहूँ-
कैसे कहूँ
वाणी नहीं देती साथ
सुनता कौन है
सुनकर धारण करे
ऐसा मनुष्य है कहाँ !
(सहसा नारद का आगमन देखकर सजग होते हैं। नारद से)

प्रणाम देवर्षि !
आप पधारें...स्वागत है, अहोभाग्य-
आश्रम में आपके दर्शन से
कृतार्थ हुए हम सभी
नारद : आता हूँ विकल होकर
संसार की आँच से देखा
भटकते-
भूखे मनुष्य को पृथ्वी पर
दिशाहीन, क्लान्त और आहत-ओह,
क्या नियति है
डूबा आकण्ठ वह
दुःख, अभाव और पीड़ा में
(थोड़ा गम्भीर होकर, स्वगत)

देखता हूँ अन्तर-
कुलीनों की भव्यता
और पृथ्वी के जन-जीवन में।
वाल्मीकि : देवर्षि....ठीक कहा आपने।
(स्वगत) कहीं झाँका है नारद ने
छिपे मेरे चित्त में।
यही सालता है मुझे भी..क्यों प्रभु,
क्या पीड़ा हम दोनों की एक नहीं, क्यों...?

नारद : नहीं, ऐसा नहीं कविवर,
सहज सरल मन सदा देखता परखता
पीड़ा मनुष्य की
जो तुम समझते हो मैं नहीं-
एक ही घटना को हम देखते हैं
अलग-अलग भिन्न-भिन्न पर
फिर भी बहुत व्याकुल हूँ देखकर
मनुष्य जाति की दुर्दशा पर क्या करूँ-क्या-
समाधान कोई दिखाई नहीं देता

वाल्मीकि : खोजना तो होगा समाधान देवर्षि,
आप कहें
आप हैं समर्थ, क्रान्तदर्शी
भविष्य-वक्ता भी

नारद : प्रश्न करते हैं व्याकुल हमें
कहाँ हैं बड़े संकल्प
व्यापक दृष्टि...बड़े प्रयोजन-कहाँ हैं...
वाल्मीकि : वे सब हैं आप पर...
(स्वगत)
लगता है परीक्षा ले रहा है काल मेरी
पर क्या करूँ
हूँ घने अन्धकार में।

नारद : वह सब प्रसंग है दूसरा
पर कहो-
क्यों देखता हूँ-ओ कविवर,
तुम्हारे दमकते ललाट पर खिंची
वक्र रेखाएँ...क्यों ऐसा क्यों !
(स्वगत)
मनुष्य की आँखों में झलकती है
त्रासदी चित्त की
मुख पर मलिनता गहरे दुःख की
वाल्मीकि : (स्वगत)
ओह लगता है-
नारद की आँखें भेदती हैं
मेरा छिपा अन्तरंग
(उजागर)
नहीं देवर्षि,
आहत किया है अनजाने दुःख ने
खण्ड-खण्ड लगता है चित्त मेरा
अन्दर तक हुआ हूँ रिक्त-सा
मुख हुआ मलिन...सूर्यताप से
घूमते फिरते वन में
(अपने हाथों को दिखाते हैं)

ये भुजाएँ हैं असित
हथेलियों पर गाँठें खुरदुरी
ये सब चिह्न हैं कठोर श्रम के
(स्वगत)
ओह...ओह...क्यों छिपाता हूँ सत्य मैं
जानबूझकर
ओ मेरे छद्मवेशी मन,
कहाँ छिपाएगा सत्य यह-
कब तक रहेगा बहुरूपिया तू !

नारद : नहीं, ऐसा नहीं-
शब्द बताते हैं
घुमड़ता है धूम्र तुम्हारे चित्त में
बेचैन हो विवक्षा से
चाहते हो कहना
कह नहीं पाते
यही होती है त्रासदी कवि की-
(नारद और वाल्मीकि आश्रम में इधर-उधर घूमते हैं)

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