व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> सीखें जीवन जीने की कला सीखें जीवन जीने की कलाशशिकांत सदैव
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कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इससे पहले कि जीवन चूके
इससे पहले कि सब कुछ छूटे
और जीवन लगने लगे बला
सीखें जीवन जीने की कला
इससे पहले कि सब कुछ छूटे
और जीवन लगने लगे बला
सीखें जीवन जीने की कला
जन्म लेना हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन इस जीवन को सुंदर
बनाना हमारे हाथ में है और जब सुख की यह संभावना हमारे हाथ में है तो फिर
यह दुख कैसा ? यह शिकायत कैसी ? हम क्यों भाग्य को कोसें और दूसरे को दोष
दें ? जब सपने हमारे हैं तो कोशिशें भी हमारी होनी चाहिए। जब पहुंचना हमें
है तो यात्रा भी हमारी ही होनी चाहिए। पर सच तो यह है जीवन की यह यात्रा
सीधी और सरल नहीं है इसमें दुख हैं, तकलीफें हैं, संघर्ष और परीक्षाएं भी
हैं। ऐसे में स्वयं को हर स्थिति-परिस्थिति में, माहौल-हालात में सजग एवं
संतुलित रखना वास्तव में एक कला है। इसलिए...
कैसे पाएं ? साहस, सफलता, संयम, आत्मविश्वास, संतुलन, संतुष्टि, एकाग्रता, सहनशक्ति, सकारात्मक सोच और सुख।
कैसे भगाएं ? काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या, तनाव, आलस, अहंकार, भय, नीरसता, अकेलापन, शिकायतें और दुख।
कैसे समझें ? स्वयं को, जीवन को, संबंधों-जिम्मेदारियों को, धर्म अध्यात्म और आत्मा-परमात्मा को।
आदि जानने के लिए व संपूर्ण विकास और आत्म-रूपांतरण के लिए सीखें इस पुस्तक से ‘जीवन जीने की कला।’
कैसे पाएं ? साहस, सफलता, संयम, आत्मविश्वास, संतुलन, संतुष्टि, एकाग्रता, सहनशक्ति, सकारात्मक सोच और सुख।
कैसे भगाएं ? काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या, तनाव, आलस, अहंकार, भय, नीरसता, अकेलापन, शिकायतें और दुख।
कैसे समझें ? स्वयं को, जीवन को, संबंधों-जिम्मेदारियों को, धर्म अध्यात्म और आत्मा-परमात्मा को।
आदि जानने के लिए व संपूर्ण विकास और आत्म-रूपांतरण के लिए सीखें इस पुस्तक से ‘जीवन जीने की कला।’
अनुक्रम
समझें इस जीवन को और खुद को
यह पृथ्वी भी रहस्यपूर्ण है और इंसान भी।
जितने रहस्य बाहर
पृथ्वी के तल पर घटते हैं शायद उससे भी कई ज्यादा रहस्य इंसान के अंतःस्थल
पर घटते हैं और जब यह दोनों मिलते हैं तो यह जीवन और भी रहस्यपूर्ण हो
जाता है। कहां, किसमें, क्या और कितना छिपा है इस बात का अंदाजा तक नहीं
लगाया जा सकता। जीवन के और खुद के रहस्य को समझना और आपस में दोनों तालमेल
बिठाना ही जीवन जीने की कला है और इस रहस्य को जानने के लिए जरूरी है इस
जीवन को जीना। इससे जुड़े सवालों का उत्तर खोजना, जैसे—यह जीवन
क्यों मिला है ? और जैसा मिला है, वैसा क्यों मिला है ? जब मरना ही है तो
जीवन का क्या लाभ ? जब सब कुछ छिन ही जाना है, साथ कुछ नहीं जाना तो फिर
यह जीवन इतना कुछ देता ही क्यों है ? जब सबसे बिछड़ना ही है तो इतनों से
क्यों मिलते हैं, क्यों जुड़ते हैं संबंधों से ? क्यों बसाते हैं अपना
संसार ?
इंसान सीधे-सीधे क्यों नहीं मर जाता, इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों ? इंसान सरलता से क्यों नहीं मर जाता, इतनी परीक्षाएं क्यों ? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा ? यह सब पहले से ही निर्धारित है। इंसान बस उसको भोगता है, उससे गुजरता है। जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों ? गीता कहती है ‘यहां हमारा कुछ नहीं, हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे।’ यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते हैं कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ ? यह सब सोचने जैसे है।
सुनकर, सोचकर लगता है कि यह ‘जीवन’ कितना उलझा हुआ है, यह दो-दो बातें करता है। न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है। हमें बांटकर, कशमकश में छोड़ देता है। सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं ? उलझने हैं या पैदा करते हैं ? कमी जीवन में है या इसमें ? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते ? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए ? यह सवाल सोचने जैसे हैं।
कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं ? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं ? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से। सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है ? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है ? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी ? यह सब सोचने जैसे है।
देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता, क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता। हां जीवन में, जीवन के पास सब कुछ है। वह देता कुछ नहीं है, उससे इंसान को लेना पड़ता है। यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होता या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते, मगर ऐसा नहीं होता। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है। आदमी जीवन को सुख-दुख में बांट लेता है। यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए, कि आदमी होना गलत है ? यानी इस जीवन में आना, जन्म लेना गलत है ? एख तौर पर यह निष्कर्ष ठीक भी है न आदमी जन्म लेगा, न जीवन से रू-ब-रू होगा न ही सुख-दुख भोगेगा। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।
मगर सच तो यह हम स्वयं को जन्म लेने से नहीं रोक सकते। जैसे मृत्यु आदमी के हाथ में नहीं है वैसे ही जन्म भी आदमी के हाथ में नहीं है। अब क्या करें ? कैसे बचें इस जीवन के खेल से ? क्या है हमारे हाथ में ? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता, लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का। पर कौन है आदमी में इतना चालाक, चंचल, जी जीवन को दो भागों में बांटने में माहिर है ? जो अच्छे भले जीवन को दुख, दर्द, तकलीफ, कष्ट, क्रोध, ईर्ष्या, बदला, भय आदि में बांट देता है।
शायद मन या फिर निश्चित ही मन। क्योंकि जहां मन है वहां कुछ भी या सब कुछ संभव है। संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया। सभी रास्ते मन के हैं, सभी परिणाम मन के हैं, वरना इस जन्म में, इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं। अपने अंदर की कमी को, मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है, एक मात्र उपाय है। इसलिए इस जीवन को कौसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं, बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे। और वह भी इतना अच्छा कि किसी मोक्ष या निर्वाण मिले मरने के बाद नहीं। ऐसे जीना या इस स्थिति एवं स्तर पर जीवन को जीना वास्तव में एक कला है और कोई भी कला साधना के, तप के नहीं सधती। तभी तो अनुभवियों ने कहा यह जीवन एक साधना है। अन्य अर्थ में कह सकते हैं कि यह जीवन जीना एक कला है जिसके लिए जरूरी है इस जीवन को और खुद को समझना।
इंसान सीधे-सीधे क्यों नहीं मर जाता, इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों ? इंसान सरलता से क्यों नहीं मर जाता, इतनी परीक्षाएं क्यों ? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा ? यह सब पहले से ही निर्धारित है। इंसान बस उसको भोगता है, उससे गुजरता है। जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों ? गीता कहती है ‘यहां हमारा कुछ नहीं, हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे।’ यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते हैं कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ ? यह सब सोचने जैसे है।
सुनकर, सोचकर लगता है कि यह ‘जीवन’ कितना उलझा हुआ है, यह दो-दो बातें करता है। न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है। हमें बांटकर, कशमकश में छोड़ देता है। सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं ? उलझने हैं या पैदा करते हैं ? कमी जीवन में है या इसमें ? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते ? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए ? यह सवाल सोचने जैसे हैं।
कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं ? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं ? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से। सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है ? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है ? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी ? यह सब सोचने जैसे है।
देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता, क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता। हां जीवन में, जीवन के पास सब कुछ है। वह देता कुछ नहीं है, उससे इंसान को लेना पड़ता है। यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होता या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते, मगर ऐसा नहीं होता। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है। आदमी जीवन को सुख-दुख में बांट लेता है। यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए, कि आदमी होना गलत है ? यानी इस जीवन में आना, जन्म लेना गलत है ? एख तौर पर यह निष्कर्ष ठीक भी है न आदमी जन्म लेगा, न जीवन से रू-ब-रू होगा न ही सुख-दुख भोगेगा। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।
मगर सच तो यह हम स्वयं को जन्म लेने से नहीं रोक सकते। जैसे मृत्यु आदमी के हाथ में नहीं है वैसे ही जन्म भी आदमी के हाथ में नहीं है। अब क्या करें ? कैसे बचें इस जीवन के खेल से ? क्या है हमारे हाथ में ? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता, लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का। पर कौन है आदमी में इतना चालाक, चंचल, जी जीवन को दो भागों में बांटने में माहिर है ? जो अच्छे भले जीवन को दुख, दर्द, तकलीफ, कष्ट, क्रोध, ईर्ष्या, बदला, भय आदि में बांट देता है।
शायद मन या फिर निश्चित ही मन। क्योंकि जहां मन है वहां कुछ भी या सब कुछ संभव है। संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया। सभी रास्ते मन के हैं, सभी परिणाम मन के हैं, वरना इस जन्म में, इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं। अपने अंदर की कमी को, मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है, एक मात्र उपाय है। इसलिए इस जीवन को कौसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं, बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे। और वह भी इतना अच्छा कि किसी मोक्ष या निर्वाण मिले मरने के बाद नहीं। ऐसे जीना या इस स्थिति एवं स्तर पर जीवन को जीना वास्तव में एक कला है और कोई भी कला साधना के, तप के नहीं सधती। तभी तो अनुभवियों ने कहा यह जीवन एक साधना है। अन्य अर्थ में कह सकते हैं कि यह जीवन जीना एक कला है जिसके लिए जरूरी है इस जीवन को और खुद को समझना।
जीवन नजरिए का खेल है
जीवन और कुछ नहीं आधा गिलास पानी भर है। जी
हां सुख-दुख से
भरा यह जीवन हमारे नजरिए पर टिका है। गिलास एक ही है परंतु किसी के लिए
आधा खाली है तो किसी के लिए आधा भरा हुआ है। ऐसे ही यह जीवन है किसी के
लिए दुखों का अम्बार है तो किसी के लिए खुशियों का खजाना। कोई अपने इस
जन्म को, इस जीवन में आने को सौभाग्य समझता है तो कोई दुर्भाग्य। किसी का
जीवन शिकायतों से भरा है तो किसी का धन्यवाद से। किसी को मरने की जल्दी है
तो किसी को यह जीवन छोटा लगता है। एक ही जीवन है, एक ही अवसर है परंतु फिर
भी अलग-अलग सोच है, भिन्न-भिन्न परिणाम हैं। सब कुछ हमारे नजरिए पर टिका
है, मारी समझ से जुड़ा है। इसीलिए एक कहावत भी है (जाकि रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन वैसी) जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसे ही परिणाम
मिलते हैं।
इसे यूं एक कथा समझें। तीन मजदूर एक ही काम में संलग्न थे। इनका काम दिन भर सिर्फ पत्थर तोड़ना ही था। जब एक से पूछा गया कि आप क्या कर रहे हो ? तो उसने गुस्से से, शिकायत भरी नजर उठाकर कहा ‘दिख नहीं रहा अपनी किस्मत तोड़ रहा हूं, पसीना बहा रहा हूं और क्या’। दूसरे मजदूर से भी यही सवाल किया गया। उसके उत्तर में गुस्सा नहीं दर्द था, आंखों में शिकायत नहीं नमी थी। कुम्हलाते स्वर में उसने कहा ‘पापी पेट के लिए रोटी जुटा रहा हूं, जिंदा रहने का जुगाड़ कर रहा हूं।’ जब यही प्रश्न तीसरे मजदूर से किया गया तो उसका उत्तर कुछ अलग ही था। न तो उसके लहजे में कोई शिकायत की बू थी न ही कोई दर्द। आंखों में न गुस्सा था न ही कोई नमी। उसके उत्तर में एक संगीत था, एक आभार था। आंखों में तेज और प्रेम था। उसने आनंदित स्वर में कहा ‘मैं पूजा कर रहा हूं, यहां भगवान का मंदिर बनने जा रहा है, मैं उसमें सहयोग दे रहा हूं। मैं भाग्यशाली हूं, आभारी हूं उस परमात्मा का उसने एक नेक कार्य के लिए मुझे चुना। यह शुभ कार्य मेरे हाथों से हुआ। भगवान मेरे हाथों द्वारा बनाए गए मंदिर में विहार करेंगे। प्रभु ने मेरी सेवा को स्वीकारा, मैं धन्य हो गया। मुझे और क्या चाहिए, मुझे कार्य करने में आनन्द आ रहा है, मैं आनंदित हूं यह मेरे लिए भतेरा है।
ऐसे ही जीवन है। दृष्टिकोण के कारण ही सब कुछ, सुख-दुख, लाभ-हानि, धन्यवाद-शिकायत आदि में बंट जाता है। सुख-दुख का कोई परिमाप नहीं है सब हमारी सोच पर, हमारे नजरिए पर निर्भर है। किसी के लिए कोई तारीख या वर्ष अच्छा है तो किसी के लिए वही तारीख वही वर्ष अशुभ हो जाता है। यह सब हम उनके परिणाम को देखकर तय करते हैं। और परिणाम कुछ और नहीं, हमारा नजरिया है। किसी को इस बात की चिंता है कि यह वर्ष इतनी जल्दी बीते जा रहा है तो किसी को इस बात की खुशी है कि अच्छा हुआ यह वर्ष बीत गया, अब नया वर्ष आएगा। किसी को इस वर्ष के अंत का इंतजार है तो किसी को नए वर्ष का इंतजार है। कोई तो ऐसे भी हैं जो दुखी हैं और इस वर्ष से, वर्ष की यादों से चिपके बैठे हैं। किसी को गम है कि वह एक वर्ष और बूढ़े हो गए तो किसी को खुशी है कि वह एक वर्ष और भी अनुभवी और प्रौढ़ हो गए हैं। इसलिए सब कुछ आप पर टिका है। आप चाहें तो गिलास को पूरा देखें या आधा सब आप पर निर्भर है।
इसे यूं एक कथा समझें। तीन मजदूर एक ही काम में संलग्न थे। इनका काम दिन भर सिर्फ पत्थर तोड़ना ही था। जब एक से पूछा गया कि आप क्या कर रहे हो ? तो उसने गुस्से से, शिकायत भरी नजर उठाकर कहा ‘दिख नहीं रहा अपनी किस्मत तोड़ रहा हूं, पसीना बहा रहा हूं और क्या’। दूसरे मजदूर से भी यही सवाल किया गया। उसके उत्तर में गुस्सा नहीं दर्द था, आंखों में शिकायत नहीं नमी थी। कुम्हलाते स्वर में उसने कहा ‘पापी पेट के लिए रोटी जुटा रहा हूं, जिंदा रहने का जुगाड़ कर रहा हूं।’ जब यही प्रश्न तीसरे मजदूर से किया गया तो उसका उत्तर कुछ अलग ही था। न तो उसके लहजे में कोई शिकायत की बू थी न ही कोई दर्द। आंखों में न गुस्सा था न ही कोई नमी। उसके उत्तर में एक संगीत था, एक आभार था। आंखों में तेज और प्रेम था। उसने आनंदित स्वर में कहा ‘मैं पूजा कर रहा हूं, यहां भगवान का मंदिर बनने जा रहा है, मैं उसमें सहयोग दे रहा हूं। मैं भाग्यशाली हूं, आभारी हूं उस परमात्मा का उसने एक नेक कार्य के लिए मुझे चुना। यह शुभ कार्य मेरे हाथों से हुआ। भगवान मेरे हाथों द्वारा बनाए गए मंदिर में विहार करेंगे। प्रभु ने मेरी सेवा को स्वीकारा, मैं धन्य हो गया। मुझे और क्या चाहिए, मुझे कार्य करने में आनन्द आ रहा है, मैं आनंदित हूं यह मेरे लिए भतेरा है।
ऐसे ही जीवन है। दृष्टिकोण के कारण ही सब कुछ, सुख-दुख, लाभ-हानि, धन्यवाद-शिकायत आदि में बंट जाता है। सुख-दुख का कोई परिमाप नहीं है सब हमारी सोच पर, हमारे नजरिए पर निर्भर है। किसी के लिए कोई तारीख या वर्ष अच्छा है तो किसी के लिए वही तारीख वही वर्ष अशुभ हो जाता है। यह सब हम उनके परिणाम को देखकर तय करते हैं। और परिणाम कुछ और नहीं, हमारा नजरिया है। किसी को इस बात की चिंता है कि यह वर्ष इतनी जल्दी बीते जा रहा है तो किसी को इस बात की खुशी है कि अच्छा हुआ यह वर्ष बीत गया, अब नया वर्ष आएगा। किसी को इस वर्ष के अंत का इंतजार है तो किसी को नए वर्ष का इंतजार है। कोई तो ऐसे भी हैं जो दुखी हैं और इस वर्ष से, वर्ष की यादों से चिपके बैठे हैं। किसी को गम है कि वह एक वर्ष और बूढ़े हो गए तो किसी को खुशी है कि वह एक वर्ष और भी अनुभवी और प्रौढ़ हो गए हैं। इसलिए सब कुछ आप पर टिका है। आप चाहें तो गिलास को पूरा देखें या आधा सब आप पर निर्भर है।
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लोगों की राय
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