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2012 महाविनाश या नये युग का आरंभ

अशोक कुमार शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7413
आईएसबीएन :978-81-288-2388

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क्या अंत आने वाला है ? क्या कोई देश नहीं बचेगा ? कौन-कौन अपना अस्तित्व बचा पाएगा ? क्या भविष्यवाणियां गलत होंगी ?...

2012 Mahavinash Ya Naye Yug Ka Arambha - A Hindi Book - by Ashok Kumar Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

17 दिसम्बर, सन् 2008 में नासा ने पृथ्वी के भीतरी चुम्बकीय क्षेत्र में सौर-कणों की एक परत की खोज की और यह निष्कर्ष निकाला कि अगली उच्च सौर गतिविधि सन् 2012 में होगी। उस समय पृथ्वी इस शताब्दी का सबसे भयानक विस्फोट देखेगी। अगर सन् 2012 में पृथ्वी को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा, तो भी ऐसे बहुत से विध्वंसों से पृथ्वी के तबाह होने की पूरी आशंका है।

फ्रांस में निर्मित सर्न हैड्रॉन कोलाइडर मशीन जो दुनिया की सबसे बड़ी और आधुनिक मशीन है, अचानक ही ब्लैक होल पैदा कर देगी। यह ब्लैक होल धीरे-धीरे पृथ्वी समेत सौरमण्डल के सभी ग्रहों को निगल जाएगा।
हमारी पृथ्वी एक ऐसे धूमकेतु की ओर तेजी से बढ़ रही है जिसकी टक्कर पृथ्वी के समस्त प्राणियों और पेड़-पौधों को खत्म कर देगी।

आज इंटरनेट और वेबसाइटें जीवित बचने की तकनीकों से भरी पड़ी हैं और अकस्मात ही 21 दिसम्बर, सन् 2012 सभी के लिए चर्चा का विषय बन गया है। एक ऐसा दिन जिसे कई प्राचीन सभ्यताओं और भविष्यवाणियों में प्रलय का दिन बताया गया।
क्या सचमुच हम सभी 21 दिसम्बर, 2012 को समाप्त होने जा रहे हैं ?
क्या माया कैलेंडर मिस्र और अन्य प्राचीन सभ्यताओं में इसी प्रलय का जिक्र किया गया है ?

क्या यह सत्य है कि दिसम्बर 2012 में सूर्य आकाश गंगा के केन्द्र में होगा और महाविनाश का कारण बनेगा ?
क्या निब्रू और हरकोल्यबस ग्रह पृथ्वी की ओर बढ़ रहे हैं ?
क्या हम वैश्विक विनाश की ओर बढ़ रहे हैं ?

प्रगैतिहासिक काल से अनगिनत ऐसी भविष्यवाणियाँ की जा चुकी हैं जिसमें पृथ्वी के सम्पूर्ण विनाश की बात कही गई। क्या वह समय आ गया है ? नॉन फिक्शन लेखक अशोक कुमार शर्मा, पीएचडी, जिन्होंने पहली बार नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों की व्याख्या की और कई बेस्ट सेलर पुस्तकें, जैसे द कम्प्लीट प्रोफेसिस ऑफ नास्त्रेदमस, ‘विश्व प्रसिद्ध भविष्यवाणियां’, ‘द प्रोफेसिस फॉर द न्यू मिलेनियम’ तथा ‘द रेयर प्रीडिक्शन्स’ प्रस्तुत कीं।
इस पुस्तक में अब तक की सभी भविष्यवाणियों का विश्लेषण करके क्या निष्कर्ष निकाला गया है आप स्वयं पढ़ें।
आधुनिक दुनिया के डर और भविष्यवाणियों से संबंधित एक तथ्यपरक यात्रा।

प्रथम अध्याय

विषय-प्रवेश


यद्यपि संसाधनों और मूल ढाँचों की कमी तो प्राचीन या आदिम सभ्यताओं को रही होगी परन्तु फिर भी उनके पास ब्राह्मण्ड एवं आकाशीय घटनाओं के बारे में विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध था। उनके पास ऐसे सन्त, भविष्यवेत्ता और खगोलशास्त्रियों, ज्योतिषियों इत्यादि का समर्थन करने की एक पूरी परम्परा रही थी। लगभग सम्पूर्ण विश्व में न जाने कितनी वेधशालाएं मंदिर इत्यादि मिलते हैं जिससे ग्रह नक्षत्रों एवं अन्य आकाशीय पिण्डों का अवलोकन होता था। हम देखते हैं कि प्राचीन काल में खगोलशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र भविष्यवाणी कथन के प्रारंभिक विकास में तीन मूलभूत विशेषताएं थीं–

1. खगोलशास्त्री ग्रह नक्षत्र की चालों का सूक्ष्म अध्ययन एवं गणना तो करते थे, पर उनका उद्देश्य सिर्फ अपने शासकों के हितों की ओर ही केंद्रित था। इसलिए इस ज्ञान को गुप्त ही रखा गया।

2. राशिचक्र महीनों (Zodiac months) की खोज की संभावना बनी सूर्य के मार्ग पर दीर्घवृत्तीय चलनों के सिद्धांतों से, जिसमें पूरे वर्ष की 12 राशि-समूहों में विभाजित कर दिया गया जिससे हर भाग की माप 30॰ आए।

3. प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने सूर्य व चन्द्र की गतियों के अध्ययन हेतु कुछ नियम भी बनाए। सितारों के प्रमुख समूहों में जानवरों की आकृतियों के साथ सादृश्य खोजा गया और इस प्रकार खगोलशास्त्र में कुछ नई चीजों का समावेश हुआ। खगोलशास्त्र के कई स्कूल पैदा हो गए और कई सिद्धांत या पद्धतियाँ पैदा हुई। इस ज्ञान को मिट्टी के आकारों तथा चित्रात्मक पाठ के साथ सहेजा गया। धीरे-धीरे हर विकासशील सभ्यता के पास आकाशीय गतियों के आधार पर भविष्यवाणी करने का एक खास तरीका आ गया।

भविष्य कथन के बारे में ऐसा दावा किया जाता है कि खगोलशास्त्र में दस्तावेजों की बहुलता के साथ कई संहिताएं, कई देशों में आज से लगभग 2500 वर्ष पहले तैयार की गई थीं।
इसका विवरण भारत में सर्वप्रथम वेदों में मिलता है जिसमें कई खगोलशास्त्रीय धारणाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में ब्रह्मण्ड के उद्भव और बनावट के बारे में कई मेधावी उक्तियाँ मिलती हैं जैसे पृथ्वी गोलाकार होने के कारण स्वयं समर्पित रहती है तथा वर्ष के 360 दिवसों को बारह से भाग करने पर 30 दिनों का एक महीना बन जाता है। प्रागैतिहासिक काव्य-ग्रन्थों, यथा रामायण एवं महाभारत में भी खगोलशास्त्र के बड़े तर्क-सम्मत संदर्भ हैं तथा भविष्यवाणी की कला का भी उल्लेख है।

प्राची भारतीय खगोलशास्त्रियों जैसे लगधा, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर, ब्रह्मगुप्त, लल्ला, श्रीपति एवं वटेश्वर ने कई पुस्तकों का भी प्रणयन किया। प्राचीन युग में खगोलशास्त्रीय उपकरणों एवं गणित के आधार पर सूर्य माप और काल-गणना बड़ी चतुरता से की गई।

कई विदेशी यात्रियों ने प्राचीन भारत में इस कला के विकास पर काफी विशुद्धता से वर्णन किया है। उनके अनुसार यहाँ वाचनालयों में बड़ी दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध थीं जिनको बाद में मंगोल एवम् रोमन लुटेरों ने लूटा और बचा भी लिया।
शीघ्र ही ज्ञान और अनुभव के आधार पर भारत, मिस्र और यूनान के आने वाले समय को पहले से जानने के लिए रुचि पैदा होने लगी। खगोलशास्त्रीगण ग्रहण, भूकम्प, बाढ़, सूखा, अकाल इत्यादि के बारे में भविष्यवाणी कर और शासकों को आगाह करने लगे। कुछ एक राज्यों में तो राज-ज्योतिषी का पद भी बना दिया। इस प्रकार जन्मकुंडली-ज्योतिष का कई भारतीय राज्यों में विकास होने लगा। मिस्र और रोम में भी ज्योतिष लोकप्रिय होने लगी। किसी जातक की जन्म कुंडली बनाना और ग्रहों की स्थिति के अनुसार उसके आगामी जीवन के बारे में बताने की पद्धति का निर्माण शासक प्राचीन एवं यूनानी विद्वानों की महत्ती उपलब्धि है।

यूनानी खगोलशास्त्रीय हिप्पारकूस को श्रेय जाता है कि उसने अयनों (प्रिसेशन ऑफ दी इक्वेनॉक्सेस) का सिद्धांत विकसित किया जिससे किसी व्यक्ति के भाग्य पर ग्रहों का प्रभाव स्पष्ट होता है। प्रारंभ के ज्योतिष विस्तृत विवरण के साथ आकाशीय पिण्डों की चाल का अध्ययन करने में सक्षम हो चुके थे। उन्होंने पाया कि अयनों (इक्विनॉक्स) की प्रक्रिया साल में दो बार होती है जब पृथ्वी अपने अयन से सूर्य की ओर या उससे परे नहीं झुकी प्रतीत होती है। अयन या इक्विनॉक्स शब्द उन तिथियों का प्रतीक है जब ऐसा होता है। शब्द ‘इक्विनॉक्स’ लैटिन के शब्द ‘एक्यूस’ (बराबर) से निकला है और ‘नॉक्स’ का अर्थ रात्रि होता है क्योंकि इक्विनॉक्स के आस-पास रात और दिन की अवधि लगभग बराबर ही रहती है।

मध्यकाल में ज्योतिषी (एस्ट्रोलॉजर्स) को गणितज्ञ कहा जाता था। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रारंभ में मैथमैटिक्स शब्द का प्रयोग उन विद्वानों के लिए होता था जो ज्योतिष शास्त्र, खगोलशास्त्र और गणित में माहिर होते थे। चूंकि औषधि-विज्ञान भी थोड़ा-बहुत ज्योतिष पर निर्भर करता है इसलिए चिकित्सक लोग भी गणित और ज्योतिष का अध्ययन करने लगे। लेकिन मध्ययुग तथा पुनर्जागरणकालीन ज्योतिषियों ने ग्रहचाल अध्ययन की ताकत मोल नहीं ली और चेहरा देखकर ही भविष्यवाणी करने में लिप्त रहे। इन लोगों में कीरोमैन्सी (पामिस्ट्री या हस्तरेखा शास्त्र) भी पढ़ना प्रारम्भ किया और उसी आधार पर जन्मकुण्डलियां भी बनाने लगे।

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