विविध >> विवाह में बाधा कारण और निवारण विवाह में बाधा कारण और निवारणकमल राधाकृष्ण श्रीमाली
|
7 पाठकों को प्रिय 188 पाठक हैं |
इस पुस्तक में विवाह से संबंधित अनेकों समस्याओं का समाधान सरल व कारगर ढंग से किया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विवाह की चर्चा चलते ही हर युवक/युवती के चेहरे पर शर्म की
लालिमा छा जाती है। दिल में तरह-तरह के अरमान सजने लगते हैं। हर
युवक/युवती का यही सपना होता है कि उसे खूबसूरत, शिक्षित व कुलीन
पति/पत्नी के साथ ही अच्छा घर-परिवार मिले। साथ ही ज्यादातर युवतियों की
इच्छा होती है कि उनकी शादी किसी बड़े घर और अच्छी फैमिली में हो जहाँ पर
उन्हें हर प्रकार का सुख मिले और मायके की याद न आये। लेकिन इधर शादी में
देरी हुई नहीं कि उन पर उंगलियां उठनी शुरू हो जाती हैं। कही लड़का/लड़की
मंगली तो नहीं ? स्वभाव ल रंग-रूप में कोई कसर तो नहीं, जरूर चाल-चलन
अच्छा नहीं होगा आदि ढेर सारी बातें उठनी शुरू हो जाती हैं, जितने मुंब
उतनी बातें। पर क्या वैवाहिक समस्याओं के लिए लड़का-लड़की दोषी हैं ? नहीं ! हर महत्त्वपूर्ण कार्य को अंजाम देने में कई तरह की कठिनाइयां आती हैं,
पर इंसान सभी मुश्किलों से लड़का हुआ अपनी मंजिल को प्राप्त कर ही लेता
है। ठीक उसी प्रकार शादी में लाख रुकावट आती हो पर अंततः विवाह हो ही जाता
है, अतः इन कठिनाइयों के दौरान लड़के-लड़कियों को कोसना या उनके भाग्य का
रोना रोना, कोई अकलमंदी की बात नहीं है। आपको सिर्फ उपाय करना है और यह
उपाय और समाधान लेकर आई है पं. कमल श्रीमालीजी द्वारा रचित पुस्तक
‘‘विवाह में बाधा’’ कारण और निवारण। इस पुस्तक
में विवाह से संबंधित अनेकों समस्याओं का समाधान सरल व कारगर ढंग से किया
गया है। जिन्हें आप देख व मनन कर अपने बच्चों के विवाह में आने वाली
परेशानियों से काफी हद तक बच जायेंगे।
महत्त्वपूर्ण है विवाह संस्कार
मनुष्य जीवन में इस संस्कार का अत्यधिक महत्व
है। आज भी
प्रत्येक परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम अत्यधिक हर्षोल्लास एवं अपनी-अपनी
सामर्थ्य के अनुसार अधिकतम व्यय के साथ सम्पन्न कराया जाता है। वैदिक
वाग्मय में आश्रम चतुष्टय के सिद्धांत को अधिक सराहा गया है। इस
परिप्रेक्ष्य में भी विवाह संस्कार की महत्ता सर्वविदित है। हमारे धर्म
शास्त्रों में सोलह प्रकार के संस्कार बताये गये हैं जिन्हें धर्मानुसार
मानना आवश्यक है। हमारे कर्म इन्हीं संस्कारों के अनुरूप होने चाहिये।
इन्हीं सोलह संस्कारों में एक संस्कार है ‘विवाह
संस्कार’।
विवाह संस्कार किस प्रकार पूर्ण किया जाना चाहिये, इसकी धार्मिक व्याख्या
पाठकों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत की जा रही है। आशा है आप पाठकों करे इस
संस्कार का ज्ञान होने पर आप भी विवाह संस्कार को धार्मिक रीति से पूर्णता
देंगे। आइए देखें किस प्रकार सम्पन्न होगा यह ‘विवाह
संस्कार’।
षोडश संस्कारों का भारतीय धर्म परम्परा में अपना विशेष महत्व है। वेदों में जीवन निर्माण को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक की क्रिया का विशद विवेचन है। ‘संस्कार’ शब्द का मतलब है–‘स्पर्श द्वारा आकार,’’ अर्थात् एक बीज को स्पर्श देकर उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही संस्कार है। संस्कार का तात्पर्य है ‘शुद्ध आकार’ अर्थात पूरे जीवन में अशुद्धता की स्थिति न बने, उच्च विचार, उच्च ज्ञान के साथ वह अपनी यात्रा प्रारम्भ करे। ‘संस्कार’ शब्द से ही ‘संस्कृत’ शब्द बना है।
मनुष्य को सोलह बार संस्कारित करने की अति प्रभावी संस्कार प्रक्रिया से प्राचीन तत्वदर्शी भली प्रकार अवगत थे अतएव उनसे ऐसे निर्धारण किए कि संचित कुसंस्कारों की निवृत्ति करने की विशेष उपचाय प्रक्रिया काम में लाई जाय। इन प्रयोजनों के लिए निर्धारित वेदमन्त्र, अग्नि-होत्र, देवाह्मन, कर्मकाण्ड, साथ-साथ प्रशिक्षण की समन्वित प्रक्रिया को संस्कार कृत्य कहते हैं। यह मात्र चिन्ह पूजा नहीं है। यदि उसे सही शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न किया जा सके तो उस व्यक्ति पर आशाजनक प्रभाव पड़ता है जिसका कि संस्कार कराया गया।
वेदों में मनुष्य की आयु को चार भागों में विभाजित किया गया है–ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य-आश्रम के संस्कारों में प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण संस्कार पाणिग्रहण संस्कार है। यह संस्कार न केवल समस्त आश्रमों और वर्णों का अपितु समस्त सृष्टि का मूल कारण है। जगत के छोटे से छोटे अणु से लेकर बड़े से बड़े पदार्थ का उद्भव इसी संयोग प्रक्रिया द्वारा होता है, चाहे वह मानव हो, पशु हो, पक्षी हो, लता, वनस्पति या कुछ भी हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे आचार्यों ने विवाह संस्कार को भी षोडश संस्कारों में सम्मिलित किया और इस कर्म को मनुष्यों के लिए अनिवार्य कहा गया।
आज के युग में जिन लोगों का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक बीत रहा है वे सौभाग्यशाली हैं। आज स्थिति यह हो गई है कि 90 प्रतिशत विवाह असफल रहते हैं, घर के स्वर्ग की जो कल्पना की गई है, उसके विपरीत एक तनावपूर्ण कलह और दुःखभरी जिंदगी बनकर ही रह गया है आज का सामान्य गृहस्थ जीवन। इस सबका मूल कारण होता है, एक दूसरे को भली-भांति न समझ पाना और ऐसा तभी होता है, जब दोनों में संस्कारों का अभाव होता है।
विवाह की तो अनेक रस्में होती हैं, कर्मकाण्ड होता है, रीति परंपरागत तौर-तरीके होते हैं, वे एक प्रकार से दो अंजान व्यक्तियों के एकीकरण की सामाजिक स्वीकृति मात्र के लिए ही किए जाते हैं। परंतु जिस संस्कार की बात यहां हो रही है, वह आत्मा के स्तर का संस्कार होता है, अर्थात् पति एवं पत्नी का आत्मिक रूप से सामंजस्य, जो कि नितांत आवश्यक होता है। तभी विवाह सुदृढ़ एवं सफल हो सकता है, इसके लिए दोनों पक्षों की न्यूनताओं को दूर करने के लिए प्राचीन समय में दैवीय सहायता का उपयोग किया जाता था, देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे वर-वधू को आशीष प्रदान कर उन्हें जीवन में सुख, सौभाग्य, होनहार संतान, यश, सम्मान, वैभव, सुख-सुविधा, धर्म, साधुसेवा, दान आदि सुकृत्यों से धन्य करें। आजकल ऐसा प्रायः देखने में नहीं आता।
त्याग, क्षमा, धैर्य, संतोष--ये सभी मनुष्य जीवन के अलंकार है। इन्हीं गुणों का संग्रह तथा अभ्यास भी विवाह का एक उद्देश्य है। गृहस्थ में रहते हुए दंपत्ति को एक दूसरे के हित के स्वार्थ त्याग, अनुचित व्यवहार में भी क्षमा, अत्यंत कष्ट में भी धैर्य आदि गुणों का प्रयोग करना अनिवार्य हो जाता है। यही गुण विकसित होकर मनुष्य को सामाजिक क्षेत्र में विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। गृहस्थ की इस पाठशाला में त्याग, प्रेम आदि का पूर्ण अभ्यास कर जब दंपत्ति इन दैव गुणों का प्रयोग ईश्वर प्राप्ति एवं अध्यात्म मार्ग में करते हैं, तो वे भगवत्प्राप्ति के अत्यंत सन्निकट पहुंच जाते हैं, जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
षोडश संस्कारों का भारतीय धर्म परम्परा में अपना विशेष महत्व है। वेदों में जीवन निर्माण को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक की क्रिया का विशद विवेचन है। ‘संस्कार’ शब्द का मतलब है–‘स्पर्श द्वारा आकार,’’ अर्थात् एक बीज को स्पर्श देकर उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही संस्कार है। संस्कार का तात्पर्य है ‘शुद्ध आकार’ अर्थात पूरे जीवन में अशुद्धता की स्थिति न बने, उच्च विचार, उच्च ज्ञान के साथ वह अपनी यात्रा प्रारम्भ करे। ‘संस्कार’ शब्द से ही ‘संस्कृत’ शब्द बना है।
मनुष्य को सोलह बार संस्कारित करने की अति प्रभावी संस्कार प्रक्रिया से प्राचीन तत्वदर्शी भली प्रकार अवगत थे अतएव उनसे ऐसे निर्धारण किए कि संचित कुसंस्कारों की निवृत्ति करने की विशेष उपचाय प्रक्रिया काम में लाई जाय। इन प्रयोजनों के लिए निर्धारित वेदमन्त्र, अग्नि-होत्र, देवाह्मन, कर्मकाण्ड, साथ-साथ प्रशिक्षण की समन्वित प्रक्रिया को संस्कार कृत्य कहते हैं। यह मात्र चिन्ह पूजा नहीं है। यदि उसे सही शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न किया जा सके तो उस व्यक्ति पर आशाजनक प्रभाव पड़ता है जिसका कि संस्कार कराया गया।
वेदों में मनुष्य की आयु को चार भागों में विभाजित किया गया है–ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य-आश्रम के संस्कारों में प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण संस्कार पाणिग्रहण संस्कार है। यह संस्कार न केवल समस्त आश्रमों और वर्णों का अपितु समस्त सृष्टि का मूल कारण है। जगत के छोटे से छोटे अणु से लेकर बड़े से बड़े पदार्थ का उद्भव इसी संयोग प्रक्रिया द्वारा होता है, चाहे वह मानव हो, पशु हो, पक्षी हो, लता, वनस्पति या कुछ भी हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे आचार्यों ने विवाह संस्कार को भी षोडश संस्कारों में सम्मिलित किया और इस कर्म को मनुष्यों के लिए अनिवार्य कहा गया।
आज के युग में जिन लोगों का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक बीत रहा है वे सौभाग्यशाली हैं। आज स्थिति यह हो गई है कि 90 प्रतिशत विवाह असफल रहते हैं, घर के स्वर्ग की जो कल्पना की गई है, उसके विपरीत एक तनावपूर्ण कलह और दुःखभरी जिंदगी बनकर ही रह गया है आज का सामान्य गृहस्थ जीवन। इस सबका मूल कारण होता है, एक दूसरे को भली-भांति न समझ पाना और ऐसा तभी होता है, जब दोनों में संस्कारों का अभाव होता है।
विवाह की तो अनेक रस्में होती हैं, कर्मकाण्ड होता है, रीति परंपरागत तौर-तरीके होते हैं, वे एक प्रकार से दो अंजान व्यक्तियों के एकीकरण की सामाजिक स्वीकृति मात्र के लिए ही किए जाते हैं। परंतु जिस संस्कार की बात यहां हो रही है, वह आत्मा के स्तर का संस्कार होता है, अर्थात् पति एवं पत्नी का आत्मिक रूप से सामंजस्य, जो कि नितांत आवश्यक होता है। तभी विवाह सुदृढ़ एवं सफल हो सकता है, इसके लिए दोनों पक्षों की न्यूनताओं को दूर करने के लिए प्राचीन समय में दैवीय सहायता का उपयोग किया जाता था, देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे वर-वधू को आशीष प्रदान कर उन्हें जीवन में सुख, सौभाग्य, होनहार संतान, यश, सम्मान, वैभव, सुख-सुविधा, धर्म, साधुसेवा, दान आदि सुकृत्यों से धन्य करें। आजकल ऐसा प्रायः देखने में नहीं आता।
त्याग, क्षमा, धैर्य, संतोष--ये सभी मनुष्य जीवन के अलंकार है। इन्हीं गुणों का संग्रह तथा अभ्यास भी विवाह का एक उद्देश्य है। गृहस्थ में रहते हुए दंपत्ति को एक दूसरे के हित के स्वार्थ त्याग, अनुचित व्यवहार में भी क्षमा, अत्यंत कष्ट में भी धैर्य आदि गुणों का प्रयोग करना अनिवार्य हो जाता है। यही गुण विकसित होकर मनुष्य को सामाजिक क्षेत्र में विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। गृहस्थ की इस पाठशाला में त्याग, प्रेम आदि का पूर्ण अभ्यास कर जब दंपत्ति इन दैव गुणों का प्रयोग ईश्वर प्राप्ति एवं अध्यात्म मार्ग में करते हैं, तो वे भगवत्प्राप्ति के अत्यंत सन्निकट पहुंच जाते हैं, जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
विवाह संस्कार कर्म
समावर्तन संस्कार के द्वारा बालक अपना
ब्रह्मचर्याश्रम
पूर्ण करता है। इसके पश्चात् उसे स्नातक की उपाधि दी जाती है। संस्कारों
में विवाह संस्कार महत्वपूर्ण है। इससे व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट
होता है।
‘‘न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते।’’ इस वचन के आधार पर गृहस्थाश्रम के अंगरूप विवाह संस्कार की महत्ती आवश्यकता है। विवाह शब्द ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक ‘वह्’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय करने पर बना है। जिसका अर्थ विशेष रूप से वहना है।
‘‘न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते।’’ इस वचन के आधार पर गृहस्थाश्रम के अंगरूप विवाह संस्कार की महत्ती आवश्यकता है। विवाह शब्द ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक ‘वह्’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय करने पर बना है। जिसका अर्थ विशेष रूप से वहना है।
‘‘विशेष रूपेण वहते कन्याभारं इति
विवाहः।’’
जीभूतवाहन के अनुसार विवाह का लक्षण–
‘‘युक्ति वरण विधानं अग्निद्विज साक्षिकं च पाणिग्रहण
विवाहः।’’
विवाह संस्कार के तीन उद्देश्य देखे जा सकते हैं–
1. गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए।
2. धर्म प्राप्ति के लिए।
3. वंश रक्षा एवं काम की प्राप्ति के लिए।
‘‘जायसमानों वै पुरुषः त्रिभिःऋणैः जायते’’ वचन के आधार से वेदाध्ययन के द्वारा ऋषि ऋण से पुत्र उत्पति एवं श्राद्ध प्रदान करने से पितृ ऋण से मुक्ति, द्रव्य एवं यज्ञ के द्वारा देव ऋण से मुक्ति प्राप्त होती है। इसीलिए विवाह संस्कार की आवश्यकता महत्वपूर्ण बताई गई है।
विवाह में सपिण्ड, कन्या, मनोनयानानंदकारिणीस, सुलक्षण, यवीयसी, आरोगिणी कन्या से विवाह करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ने कहा है कि–
1. गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए।
2. धर्म प्राप्ति के लिए।
3. वंश रक्षा एवं काम की प्राप्ति के लिए।
‘‘जायसमानों वै पुरुषः त्रिभिःऋणैः जायते’’ वचन के आधार से वेदाध्ययन के द्वारा ऋषि ऋण से पुत्र उत्पति एवं श्राद्ध प्रदान करने से पितृ ऋण से मुक्ति, द्रव्य एवं यज्ञ के द्वारा देव ऋण से मुक्ति प्राप्त होती है। इसीलिए विवाह संस्कार की आवश्यकता महत्वपूर्ण बताई गई है।
विवाह में सपिण्ड, कन्या, मनोनयानानंदकारिणीस, सुलक्षण, यवीयसी, आरोगिणी कन्या से विवाह करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ने कहा है कि–
अविप्लुत ब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्।
अनन्य पूर्विकां कान्तामसपिण्डा यवीयसीम्।।
अरोगिणीं भ्रातृयतीं असमानार्ष गोत्रणाम्।।
अनन्य पूर्विकां कान्तामसपिण्डा यवीयसीम्।।
अरोगिणीं भ्रातृयतीं असमानार्ष गोत्रणाम्।।
मनु के अनुसार
असपिण्डा च या मातृ असगोत्रा च या पितृः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।
कन्या ग्रहण के विषय में मनु ने कहा है कि वह कन्या अधिक अंग वाली, वाचाल,
पिंगल, वर्णवाली रोगिणी नहीं होनी चाहिए।
विवाह में सपिण्ड, विचार, गोत्र, प्रवर विचार करना चाहिए। विवाह में स्त्रियों के लिए गुरुबल तथा पुरुषों के लिए रविबल देख लेना चाहिए। कन्या एवं वर को चन्द्रबल श्रेष्ठ अर्थात् चौथा, आठवां, बारहवां, चन्द्रमा नहीं लेना चाहिए। गुरु तथा रवि भी चौथे, आठवें एवं बारहवें नहीं लेने चाहिए।
विवाह में मास ग्रहण के लिए व्यास ने कहा है कि माघ, फाल्गुन, वैशाख, मार्गशीर्ष, ज्येष्ठ, अषाढ़ महिनों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है।
रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, मूल, स्वाति, मृगशिरा, मघा, अनुराधा, हस्त ये नक्षत्र विवाह में शुभ हैं। विवाह में सौरमास ग्रहण करना चाहिए। जैसे ज्योतिषशास्त्र में कहा है–
विवाह में सपिण्ड, विचार, गोत्र, प्रवर विचार करना चाहिए। विवाह में स्त्रियों के लिए गुरुबल तथा पुरुषों के लिए रविबल देख लेना चाहिए। कन्या एवं वर को चन्द्रबल श्रेष्ठ अर्थात् चौथा, आठवां, बारहवां, चन्द्रमा नहीं लेना चाहिए। गुरु तथा रवि भी चौथे, आठवें एवं बारहवें नहीं लेने चाहिए।
विवाह में मास ग्रहण के लिए व्यास ने कहा है कि माघ, फाल्गुन, वैशाख, मार्गशीर्ष, ज्येष्ठ, अषाढ़ महिनों में विवाह करने से कन्या सौभाग्यवती होती है।
रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, मूल, स्वाति, मृगशिरा, मघा, अनुराधा, हस्त ये नक्षत्र विवाह में शुभ हैं। विवाह में सौरमास ग्रहण करना चाहिए। जैसे ज्योतिषशास्त्र में कहा है–
सौरो मासो विवाहादौ यज्ञादौ सावनः स्मतः।
आब्दिके पितृकार्ये च चान्द्रो मासः प्रशस्यते।।
आब्दिके पितृकार्ये च चान्द्रो मासः प्रशस्यते।।
बृहस्पति, शुक्र, बुद्ध और सोम इन वारों में
विवाह करने से
कन्या सौभाग्यवती होती है। विवाह में चतुर्दशी, नवमी इन तिथियों को त्याग
देना चाहिए।
इस प्रकार आपको भी धार्मिक रीति से ही विवाह संस्कार को पूर्ण करना चाहिये।
इस प्रकार आपको भी धार्मिक रीति से ही विवाह संस्कार को पूर्ण करना चाहिये।
|
लोगों की राय
No reviews for this book