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गाँधी को फाँसी दो

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7418
आईएसबीएन :81-7028-806-1

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दक्षिण अफ्रीका गाँधी की कर्मभूमि थी जहाँ उन्होंने अपने जीवन के बीस वर्ष बिताए और वहीं पर अहिंसा और सत्याग्रह का पहला प्रयोग किया...

Gandhi Ko Phansi Do - A Hindi Book - by Giriraj Kishor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गाँधी को फाँसी दो !
‘गाँधी को फाँसी दो !’ ‘गाँधी को फाँसी दो !’ के नारों, सड़े अंडों और पत्थरों से दक्षिण अफ्रीका की अंग्रेज़ हुकूमत ने गाँधी का ‘स्वागत’ किया, जब वह 1897 में वहाँ वापस लौटे। इस रोष और गुस्से का कारण था गाँधी द्वारा राजकोट में प्रकाशित एक पुस्तिका ‘ग्रीन पेपर’, जिसमें उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की रंगभेद-नीति की कड़ी निंदा की थी और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दयनीय स्थिति के बारे में भारत की जनता को जागरूक किया था।

दक्षिण अफ्रीका गाँधी की कर्मभूमि थी जहाँ उन्होंने अपने जीवन के बीस वर्ष बिताए और वहीं पर अहिंसा और सत्याग्रह का पहला प्रयोग किया। गाँधीजी का कहना था, ‘‘मेरा जन्म’ तो भारत में हुआ, लेकिन मैं ‘तराशा’ गया दक्षिण अफ्रीका में।’’ इसी दक्षिण अफ्रीका की पृष्ठभूमि पर आधारित है यह नाटक। दक्षिण अफ्रीका की अंग्रेज़ सरकार और पड़ोसी अफ्रीकी देशों के बीच लड़ा जा रहा था ‘बोअर युद्ध’ जिसमें गाँधी ने युद्ध में घायल लोगों के इलाज के लिए ‘एम्बुलेंस कोर’ का आयोजन किया था। उस समय गाँधी के मन की क्या स्थिति थी–जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ सरकार की नीतियों के खिलाफ अपनी सत्याग्रह की लड़ाई लड़ रहे थे और दूसरी ओर उसी सरकार का साथ दे रहे थे–युद्ध में पीड़ितों को राहत देकर इन सब जज़्बातों को बखूबी पेश किया गया है इस नाटक में।

इस नाटक के लेखक हैं जाने-माने हिन्दी साहित्यकार गिरिराज किशोर, जो अब तक अनेक उपन्यास और नाटक लिख चुके हैं। अपने इस सातवें नाटक में लेखक ने एक अनोखा प्रयोग किया है–नाटक के दो अंत दिए हैं ! पाठक अपनी पसंद के अनुसार नाटक का कोई भी अंत चुन सकता है।

प्रस्तुत नाटक दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी के जीवन की घटनाओं पर आधारित है जिसमें अनेक ऐतिहासिक अनछुए तथ्यों को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस नाटक के माध्यम से लेखक ने पाठकों को गाँधीजी के जीवन की उन घटनाओं से रू-ब-रू कराने का प्रयास किया है जब वे अंग्रेज़ों की भारतीयों के प्रति दमनात्मक और भेदभावपूर्ण नीतियों से मर्माहत होकर आंतरिक अंतर्द्वन्द्व में फंस जाते हैं।

गाँधीजी द्वारा लिखी ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक के प्रकाशन के एक सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में लिखा गया यह नाटक, आम पाठकों को तो रुचिकर लगेगा ही, इतिहास और राजनीति-विज्ञान के शिक्षकों और छात्रों के लिए भी विशेष उपयोगी सिद्ध होगा।

पात्र-परिचय


गाँधी – मेडिकल अफसर
जनरल स्मट्स – पहला कैदी
ऐम्टहिल – दूसरा कैदी
हाजी हबीब – तीसरा कैदी
जनरल बोथा – कल्याण (गाँधी का क्लर्क)
टॉल्सटाय – मानिक (गाँधी का क्लर्क)
गाँधी की प्रतिच्छाया* - पहला मरीज़
मैकेंज़ी – दूसरा मरीज़
लाटन – तीसरा मरीज़
सारा (महिला चरित्र) – नर्स
एटार्नी जनरल एस्काम्ब – डॉ. गाडफ्रे
कछलिया – पोलक
मीर आलम – कैलनबाख
कस्तूर – एण्ड्रूज स्वयंसेवक
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* ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी संपादक है तो उनका दूसरा पक्ष पाठक (प्रतिच्छाया) है।

दृश्य-1


(बैक ड्राप–जनरल बोथा और जनरल स्मट्स एक सुइट में, एक बड़े सोफे के दो कोनों पर यूनिफ़ार्म में, पैर आगे की तरफ़ फैलाए बैठे हैं। सामने दो कुर्सियों पर गाँधी, हाजी हबीब और एक ऊँची कुर्सी पर लार्ड ऐम्टहिल बैठे हैं। गाँधी विलायती पोशाक में हैं। हाजी हबीब अरबी पोशाक पहने हैं।)

स्मट्स : लुक हियर मिस्टर गाँधी, यू बोथ हैव कम टू प्रेस योर प्वाइंट बिफ़ोर ब्रिटिश गवर्मेंट आफ्टर ट्रेवलिंग सच ए लांग डिस्टेन्स। वी मे एग्री टू योर फ़ियू डिमांड्स। इट इज़ नॉट एटाल पॉसिबल टु विड्रॉ इमीग्रेशन रेजिस्ट्रेशन एक्ट एटसेट्रा। वी आलसो केन नॉट ओवर लुक लॉर्ड ऐम्टहिल्स रिकमेण्डेशन्स हैन्स दीज़ कनशेसन्स...।

(देखिए मिस्टर गाँधी, आप दोनों इतना लम्बा सफ़र करके अपनी बात ब्रिटिश सरकार के सामने रखने के लिए आए हैं। हम आपकी कुछ बातें मान सकते हैं, लेकिन यह बिलकुल सम्भव नहीं है कि हम इमिग्रेशन कानून आदि वापस ले लें। हम लार्ड ऐम्टहिल की सिफारिशों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते)
(स्मट्स ने जनरल बोथा की तरफ देखा उन्होंने गर्दन हिला दी)

ऐम्टहिल : (गाँधी और हबीब की तरफ देखते हुए)
आप दोनों जनरल के प्रस्तावों के बारे में क्या सोचते हैं ?
हबीब : मैं तैयार हूँ लार्ड एम्टहिल।
(गाँधी ने हाजी हबीब की बात काअंग्रेज़ी में अनुवाद किया)

एम्टहिल : मैं भी समझता हूँ कि जनरल स्मट्स और जनरल बोथा का प्रस्ताव हमें मान लेना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर अपनी लड़ाई जारी रखी जा सकती है।
(गाँधी के हाव-भाव से लग रहा था कि उन्हें प्रस्ताव मंजूर नहीं)

हबीब : ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन भारतीयों का सबसे बड़ा एसोसिएशन है। मैं उसका नुमाइन्दा हूँ। वही सबसे मजबूत और रिच एसोसिएशन भी है। जनरल बोथा की बात मुझे वाजिब लगती है। बक़ौल लार्ड एम्टहिल दूसरे मसाइल को लेकर हम अपनी लड़ाई लड़ते रह सकते हैं।
(गाँधी अभी तक खामोश और संजीदा थे। उन्हें लगा अब बोलना ज़रूरी है।)

गाँधी : इसमें कोई शक नहीं कि हबीब साहब भारतीयों के सबसे बड़े और धनी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जहां तक मेरा सवाल है मैं तो ग़रीब, बेसहारा और बेज़बान मज़दूरों की आवाज़ बनकर आया हूँ। उनके पास न पैसा है और न ताक़त। बस एक ही बात है वे मरते मर जाएँगे पर अपनी मुहिम पर डटे रहेंगे। उनकी लड़ाई सविधा और सुरक्षा की लड़ाई नहीं। अपनी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई है। हम लोग जनरल बोथा की दमनात्मक शक्ति को भी समझते हैं। लेकिन इनकी ताक़त से डरने की जगह अपनी क़सम को तरजीह देना पसंद करते हैं।

(गाँधी की बात समझने के साथ-साथ जनरल बोथा और जनरल स्मट्स के चेहरे तनावग्रस्त हो गए। हाजी हबीब दूसरी तरफ़ देखने लगे। एम्टहिल गाँधी की तरफ़ एकटक देख रहे थे। गाँधी ने अपनी बात जारी रखी।)
वे लोग इसीलिए मुसीबतें उठाते रहे हैं और अब वे पीछे नहीं हटेंगे। जनरल इन छोटी-छोटी रियायतों से न उनके पेट भर सकते हैं और न उनकी अस्मिता की रक्षा हो सकती है। उनके आँसू भी नहीं पुछेंगे। अगर हाजी साहब समझते हैं कि वे इन रियायतों से उन मज़लूमों के जख्मों पर मरहम लगा सकते हैं तो यह उनकी ख़ामख्याली है। वे और गहरे हो जाएँगे।
(गाँधी पूरी तरह शान्त थे। एम्टहिल गाँधी के कंधे पर हाथ रखकर बोले)

एम्टहिल : मिस्टर गाँधी, अगर तुम्हारा और तुम्हारे लोगों का इतना पक्का इरादा है तो मैं तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊँगा। मैं बधाई देता हूँ क्योंकि तुम्हारे उद्देश्य भी सच्चा है और तुम्हारी लड़ाई के औज़ार भी सच्चे हैं। जनरल, आपने गाँधी का मत जान लिया। मैं समझता हूँ गाँधी का जज़्बा अपने लोगों को उनकी कठिनाइयों से पूरी तरह मुक्ति दिलाने वाले इन्सान का है। आप इस पर ग़ौर कीजिएगा।

(जनरल बोथा पहली बार बोले)
जनरल बोथा : लार्ड एम्टहिल, हम आपका सम्मान करते हैं। हमारी ज़िम्मेदारी तथा कम्युनिटी के प्रति भी है। हम इन गंदे लोगों के लिए उनको निराश नहीं कर सकते। वी रूल, नाट दे... (रुक कर) वी विड्रॉ...।
(दोनों जनरल फ़ौजी अंदाज़ में उठकर चल दिए। जाते हुए उन्होंने सिर्फ़ लार्ड एम्टहिल से हाथ मिलाया। बाक़ी दोनों की तरफ़ देखा तक नहीं। वे दोनों एम्टहिल को उनके वाहन तक छोड़ने गए। एम्टहिल ने बिना कुछ कहे गाँधी की पीठ थपथपाई।

उनके चले जाने के बाद कुछ देर तक गाँधी और हाजी के बीच चुप्पी की डोर तनी रही। गाँधी ने ही शुरुआत की।)
गाँधी : हाजी साहब, मैं जातना हूँ आपको मेरी बात नागवार गुज़री होगी। लेकिन असलियत से वाकिफ़ कराना ज़रूरी था। हमारे सामने दक्षिण अफ्रीका के लोग ही नहीं हैं, हिन्दुस्तान के हालात भी हैं। अपने मुल्क में लोगों के द्वारा लड़ी जा रही आज़ादी की लड़ाई को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। भले ही हम आसमान में परवाज़ भरें, रिश्ता जो ज़मीन से ही रहेगा।

हबीब : एक गहरी धुंध है। हम वहाँ जाकर क्या जवाब देंगे ? क्या इसीलिए हमें भेजा गया था ?
गाँधी : सफ़लता पर नज़र रहना ज़रूरी है लेकिन असफलता स्वीकार कर लेना शर्म की बात नहीं। वह अगली लड़ाई की तरफ़ इशारा भी करती है। हमारी लड़ाई अपनी तरह की अलग है। यदि हम हार को दोनों हाथ फैलाकर स्वीकार नहीं कर सकते तो जीत को संशयविहीन होकर कैसे स्वीकार करेंगे ?

हबीब : मेरा और आपका नज़रिया अलग है। वे ताक़तवर हैं, हाकिम हैं, हम शर्तें रखने की हालत में नहीं हैं।
गाँधी : हो सकता है आज न हों पर कल हो सकते हैं।
हबीब : ख़ैर, उस बात पर आज क्या सोचना। जब होगा तब देखा जाएगा। हमारे लोगों का हौसला गिरेगा। कुछ लेकर जाते तो उनकी हिम्मत बुलंद होती।

गाँधी : पाना उतनी हिम्मत नहीं देता जितना पाने के लिए की जाने वाली जद्दोजहद...!
(हाजी हबीब ने कोई जवाब नहीं दिया। उठते हुए बोले।)
हबीब : अब यहाँ क्या रखा है। कूच की तैयारी करनी चाहिए।
गाँधी : आप ऐसा न सोचिए। यह आख़िरी मुहिम नहीं है। ईश्वर ने चाहा तो जल्दी हम किसी नतीजे पर पहुँचेंगे।
(दोनों बाहर आ गए। बाहर भले ही खुलापन था लेकिन सन्नाटे का अहसास दोनों के साथ चल रहा था।)


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