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स्वामी

रणजीत देसाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :355
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 744
आईएसबीएन :81-263-1089-8

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श्रीमन्त माधवाराय पेशवा के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास...

Swami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘स्वामी’ मराठी के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री रणजीत देसाई की एक श्रेष्ठ कृति है। इस ऐतिहासिक उपन्यास के नायक हैं-बाजीराव पेशवा के पौत्र थोरले माधवराव। पेशवा के रूप में उन्हें भाग्य ने केवल सत्ताईस वर्ष का जीवनकाल दिया किन्तु वे अपने जीवन और कृतित्व से इस अल्पकाल को इतिहास में अमरत्व दे गये। यह उपन्यास मराठी में इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत इस कृति ने निश्चय ही हिन्दी पाठकों को बहुत आकर्षित किया है। विशेषकर, नैतिक मूल्यों के ह्रास के इस युग में इतिहास की यह कथा अजस्त्र प्रेरणास्तोत्र बनी है। ‘स्वामी’ का सुस्पष्ट एवं मुग्धकर शैली में किया गया हिन्दी का यह रूपान्तर, अपनी नयी साज-सज्जा के साथ पाठकों को समर्पित है।

परिचय

प्रस्तुत उपन्यास श्रीमन्त माधवराव पेशवा के जीवन पर लिखा गया है। हिन्दी के पाठकों को इसका परिचय देना उपयोगी नहीं, आवश्यक भी है।
क्षत्रिय-कुलावतंस छत्रपति शिवाजी महाराज ने संस्कृति ग्रन्थों में वर्णित अष्ट प्रधानों की योजना की थी। वे अष्ट प्रधान इस प्रकार थे- 1.पन्तप्रधान, 2. पन्त अमात्य, 3. पन्त सचिव 4., मन्त्री 5 सेनापति 6. सुमन्त 7. न्यायाधीश और 8. पण्डितराव। पन्त प्रधान को उर्दू में ‘पेशवा’ कहते हैं। पन्तप्रधान मुख्य प्रधान थे तथा छत्रपति की अनुपस्थिति में मुख्याधिकारी होते थे। न्यायाधीश और पण्डितराव युद्घनिपुण नहीं होते थे, शेष सबको अवसर आने पर लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ता था। छत्रपति शिवाजी के दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र सम्भाजी था। सम्भाजी की माता सईबाई थी। छोटा पुत्र राजाराम था। राजा की माता का नाम सोयराबाई था। जिस समय रायगढ़ पर शिवाजी की मृत्यु हुई थी उस समय सम्भाजी पन्हालगढ़ पर था। सम्भाजी एक  मुगलों से जाकर मिल गया था इसलिए कुछ मराठा सरदारों ने सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बैठाने का षड़यन्त्र रचा। उस षड्यंत्र में राजाराम की माता सोयराबाई का भी हाथ। वह षड्यंत्र सफल नहीं हुआ, इसलिए सोयराबाई ने आत्महत्या कर ली सम्भाजी ने रायगढ़ की गद्दी पर अधिकार कर लिया तथा विरोधियों को दण्ड देना प्रारम्भ किया।

ई. सन् 1689 में औरंगजेब ने सम्भाजी का क्रूरतापूर्वक वध करवा दिया। उस समय सम्भाजी का लड़का साहू नौ वर्ष का था। इसलिए सम्भाजी की पत्नी ये सुबाई ने राजाराम को गद्दी पर बैठाया। राजाराम ने राजधानी रायगढ़ से हटाकर सातारा कर दी। ई. सन् 1700 में राजाराम की मृत्यु हो गयी। राजाराम की मृत्यु के बाद राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी सम्भाजी का लड़का साहू गद्दी पर बैठना चाहिए था। किन्तु वह औरंगजेब की कैद में था। इधर राजाराम की स्त्री ताराबाई अपने दस वर्षीय पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को गद्दी पर बैठाना चाहती थी, इसलिए वही राजा हुआ। ई. सन् 1689 में सम्भाजी के वध के बाद औरंगजेब ने उसकी पत्नी येसूबाई तथा लड़का शाहू को कैद कर लिया था। औरंगजैब की मत्यु के बाद उसका लड़का मुअज्जम उर्फ शाहआलम बहादुरशाह नाम धारण कर गद्दी पर बैठा। उसने सम्भाजी की पत्नी तथा पुत्र शाहू को कैद से छोड़ दिया-यह सोचकर कि उसके मराठाओं में राज्य के लिए संघर्ष उत्पन्न होगा। शाहू नर्मदा नदी पार कर दक्षिण में सातारा की ओर चला।

 अनेक मराठा सरदार ताराबाई का पक्ष छोड़कर शाहू के साथ हो गये। शाहू की सब प्रकार सहायता करके उसको विजय दिलानेवाला व्यक्ति था। बालाजी विश्वनाथ भट। शाहू ने बालाजी विश्वनाथ भट का  कर्तव्य देखकर उसको ई. सन 1713 में पेशवा का पद प्रदान किया। ई. सन् 1720 में बालाजी की मृत्यु हो गई। पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू के लड़के बाजीराव को पेशवाई का पद दिया। बाजीराव के छोटे भाई का नाम चिमाजी अप्पा था। बाजीराव पेशवा का कर्तृत्व इतिहास प्रसिद्ध है। ई. सन् 1740 में बाजीराव की मृत्यु हो गयी। बाजीराव के चार लड़के थे- बालाजी उर्फ नाना साहेब, रघुनाथ, जनार्दन और मुसलमान स्त्री मस्तानी से एक समशेर बहादुर। चिमाजी अप्पा के पुत्र का नाम सदाशिवराव भाऊ था पूना के शनिवार-भवन का निर्माण बाजीराव ने ही करवाया था तथा उसके उत्तरी द्वार का नाम उसने दल्ली-दरवाजा रखा। बाजीराव की मत्यु के उपरान्त बाजीराव के बड़े पुत्र नाना साहब को पेशवा पद प्राप्त हुआ।

शाहू अब वृद्ध हो गया था। किसी समय सातारा और कोल्हापुर-इन दोनों स्थानों की गद्दियों को एक करने का प्रयत्न बालाजी ने किया था। शाहू ने बालाजी को एक पत्र लिखा। उस पत्र में लिखा था- (1)  कोल्हापुर के सम्बन्ध में प्रयत्न मत करो। (2) पेशवा समस्त राजमण्डल में वरिण्ड बनकर राजकार्य देखें। (3) शाहू के बाद आने वाला छात्रपति रमराजा भी पेशवाओं का ऐसा ही सम्मान करेगा। आज तक पेशवा छात्रपति के अनेक सरदारों-दाभाडे प्रतिनिधि, भोंसले-की तरह ही एक सरदार था, इस पत्र के बाद पेशवा सब सरदारों में श्रेष्ठ हो गये। ई. सन् 1749 में शाहू की मत्यु हो गयी।

ई. सन् 1761 में पानीपत के युद्ध में सदाशिवराव भाऊ की मत्यु हो गई तथा मराठों की पराजय हुई। सदाशिवराव भाऊ की मत्यु का तीव्र आघात नाना साहब सहन न कर सके। उनकी भी मत्यु हो गयी। नाना साहब की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र माधवराव को पेशवा का पद प्राप्त हो गया माधव राव के छोटे भाई का नाम नारायणराव था। जिस समय पेशवाई के वस्त्र माधवराव को प्राप्त हुए उस समय उनकी अवस्था केवल सोलह वर्ष की थी।


ओम शिवराज


उस तरुण पेशवा की अकाल मृत्यु से
मराठी साम्राज्य के मर्मस्थल पर
ऐसा अघात लगा, जिसके सामने
पानीपत का आघात भी कुछ नहीं था।

And the plains of Panipat
Were not more fatal
 To the Maratha Empire
Than the early end of
This excellent prince.

-Grant Duff

एक


दोपहर का समय बीत चुका था। सूर्य देव तेजी से पश्चिमी क्षितिज की ओर झुक रहे थे। शनिवार–भवन  के दिल्ली-दरवाजे पर स्थिति नक्कारखाने पर भगवा झण्डा बड़ी शान से फहरा रहा था। दोनों ओर पत्थर की बनी हुई प्राचीर द्वारा रक्षित बुलन्द दिल्ली दरवाजा पूरा खुला हुआ था। दरवाजे में कील ठुकी हुई थीं। शनिवार भवन के उस उत्तराभिमुख प्रवेश-द्वार पर रात में पहरा देनेवाले घुड़सवारों के दल के सिपाही मुस्तैदी से खड़े थे।

गंगोबा तात्या शनिवार-भवन की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए जा रहे थे। दुबली-पतली देह के, भेदक आँखों वाले तात्या शनिवार-भवन के सामने आये, सिर उठाकर उन्होंने एक बार दृष्टि नक्कारखाने पर फहराते हुए भगवा झण्डे पर डाली और वे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे।

गंगोबा तात्या बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। होलकरों के  सरदार तथा विश्वास-पात्र के रूप में वे प्रसिद्ध थे। राघोबा दादा की गंगोबा तात्या पर जो कृपा थी, वह सर्वविदित थी। सीढ़ियाँ चढ़कर आते हुए गंगोबा को देखते ही दिल्दी-दरवाजे के भीतर खड़े हुए व्यक्तिगत सचिव दत्तोपन्त आगे बड़े। सिर पर पगड़ी, शरीर पर मलमल का अंगरखा, धोती और पैरों में जूतियाँ धारण किये हुए गंगोबा जैसे ही पास आये वैसे ही दत्तोपन्त ने बड़े आदर से उनको नमस्कार किया। उस नमस्कार को स्वीकार कर गंगोबा ने पूछा, ‘‘दरबार शुरू हो गया ?’’
‘‘नहीं’’ दत्तोपन्त बोले, ‘‘परन्तु दरबार भर गया है। श्रीमन्त अभी दरबार में नहीं आये हैं।
गंगोबा हँसते हुए बोले, ‘‘दन्तोपन्त ! तुम लोग नये हो, तुम लोग कल्पना नहीं कर सकते ।’’
‘‘किस बात की ?’’

‘‘काश तुम लोग नाना साहब के समय में होते ! कैसा था वह ठाट ! वैभव के दिन बीत गये, केवल उनकी स्मृति रह गयी है- ऐसी दशा हो गयी है। अब वह रौब तो चला ही गया, उसके साथ अनुशासन भी गया !’’
दत्तोपन्त कुछ नहीं बोले। क्षण-भर रुककर गंगोबा अपना कलाबत्तू की का दुपट्टा ठीक करते हुए बोले, ‘‘समय हो गया। जाना चाहिए। नहीं तो श्रीमन्त दरबार में हाजिर हो जाएंगे। उनके बाद हम दरबार पहुँचेंगे तो सारा दरबार हमें घूरने लगा।’’ अपने किये  हुए परिहास पर प्रसन्न होकर गंगोबा तात्या खुद ही हँसे, परन्तु दत्तोपन्त के चेहरे की एक रेखा भी नहीं हिली। गंगोबा जी ने एक बार अपनी भेदक दृष्टि से दत्तोपन्त की ओर देखा, फिर वे दिल्ली-दरवाजे की ओर मुड़े। दत्तोपन्त पहले खाँसे फिर उनको पुकारा ‘‘तात्या !’’
गंगोबा मुड़े, ‘‘क्या है ?’’
‘‘तात्या, आप इस दरवाजे से नहीं जा सकेंगे।’’ दत्तोपन्त एकदम बोले।
‘‘क्या मतलब ?’’


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