लेख-निबंध >> सांप्रदायिक समस्या सांप्रदायिक समस्यादिवाकर
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सन् 1933 में कानपुर दंगा जांच समिति की रिपोर्ट के प्रकाशन पर तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने रोक लगा दी थी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 1933 में कानपुर दंगा जांच समिति की रिपोर्ट के
प्रकाशन पर तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने रोक लगा दी थी। सन् 1931 में भयंकर
सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा था। दंगे के कारणों की जांच के लिए अखिल भारतीय
कांग्रेस समिति ने छह सदस्यों का जांच दल नियुक्त किया था। इस दल की
रिपोर्ट में आधुनिक भारत में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में आई कड़वाहट और
इसके निदान के उपाय सुझाए गए थे। इस समिति के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती आम
लोगों में व्याप्त इस बात तो तथ्यहीन सिद्ध करना था कि हिंदुओं और
मुसलमानों के आपसी रिश्ते स्वाभाविक और ऐतिहासिक रूप से कटु रहे हैं।
व्यापक ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस रिपोर्ट में बताया गया है कि
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये
दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते रहे हैं। रिपोर्ट में
यह भी बताया गया है कि औपनिवेशिक शासकों और प्रशासकों ने किस तरह इस तथ्य
को विकृत रूप में प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट का यह संक्षिप्त संस्करण, जो
कि आज भी प्रासंगिक है, सात दशकों बाद पहली बार आम पाठकों को प्रस्तुत
किया जा रहा है।
कानपुर में 24 मार्च, 1931 को हिंदू-मुस्लिम दंगे भयानक क्रूरता के साथ भड़क उठे और कई दिनों तक होते रहे। प्रसिद्ध पत्रकार और उ.प्र. प्रादेशिक कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गई जब वह सांप्रदायिक आग को बुझाने और खतरे में पड़े लोगों को बचाने की कोशिश कर रहे थे।
मार्च, 1931 के अंत में अपने कराची सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कानपुर दंगों की जांच करने, सांप्रदायिक तनाव के कारणों की खोज करने और अन्य क्षेत्रों में सांप्रदायिकता तथा सांप्रदायिक शत्रुता के फैलाव को रोकने के लिए जरूरी उपायों पर सलाह देने के लिए छह सदस्यों वाली समिति का गठन किया। समिति ने अक्टूबर, 1931 में कांग्रेस कार्यसमिति के सामने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसने इसे तत्काल प्रकाशित करने का निर्णय किया। रिपोर्ट सन् 1933 में प्रकाशित की गई। छह सदस्यीय समिति ने आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के जन्म या उत्पत्ति और फैलाव के सबसे बढ़िया उपलब्ध विश्लेषण के साथ-साथ इस पर नियंत्रण और इसे जड़ से उखाड़ने के लिए जरूरी उपायों को प्रस्तुत किया। लेकिन औपनिवेशिक शासन ने इस पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया। तब से यह आसानी से उपलब्ध नहीं रही है। चूंकि सांप्रदायिकता भारतीय जनता और राज्य शासन विधि के लिए अब भी एक प्रमुख खतरा बना हुआ है, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया ने इसे संक्षिप्त रूप से सामने लाने का निर्णय किया है। सिवाय उन अंशों के जिनमें दंगे के प्रसंग और घटनाओं के वर्णन, समिति के सदस्यों द्वारा जांच किए गए गवाहों की सूची, दंगे के कारण हुए विनाश की तस्वीरें और वे सार्वजनिक अपीलें जो समिति और इसके सदस्यों ने हिंदी तथा उर्दू में जारी कीं, इसमें रिपोर्ट के सभी हिस्से अब भी रखे गए हैं। भगवान दास द्वारा प्रस्तुत कार्य के ज्ञापन का एक हिस्सा भी टिप्पणी में शामिल किया गया है।
कानपुर में 24 मार्च, 1931 को हिंदू-मुस्लिम दंगे भयानक क्रूरता के साथ भड़क उठे और कई दिनों तक होते रहे। प्रसिद्ध पत्रकार और उ.प्र. प्रादेशिक कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गई जब वह सांप्रदायिक आग को बुझाने और खतरे में पड़े लोगों को बचाने की कोशिश कर रहे थे।
मार्च, 1931 के अंत में अपने कराची सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कानपुर दंगों की जांच करने, सांप्रदायिक तनाव के कारणों की खोज करने और अन्य क्षेत्रों में सांप्रदायिकता तथा सांप्रदायिक शत्रुता के फैलाव को रोकने के लिए जरूरी उपायों पर सलाह देने के लिए छह सदस्यों वाली समिति का गठन किया। समिति ने अक्टूबर, 1931 में कांग्रेस कार्यसमिति के सामने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसने इसे तत्काल प्रकाशित करने का निर्णय किया। रिपोर्ट सन् 1933 में प्रकाशित की गई। छह सदस्यीय समिति ने आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के जन्म या उत्पत्ति और फैलाव के सबसे बढ़िया उपलब्ध विश्लेषण के साथ-साथ इस पर नियंत्रण और इसे जड़ से उखाड़ने के लिए जरूरी उपायों को प्रस्तुत किया। लेकिन औपनिवेशिक शासन ने इस पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया। तब से यह आसानी से उपलब्ध नहीं रही है। चूंकि सांप्रदायिकता भारतीय जनता और राज्य शासन विधि के लिए अब भी एक प्रमुख खतरा बना हुआ है, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया ने इसे संक्षिप्त रूप से सामने लाने का निर्णय किया है। सिवाय उन अंशों के जिनमें दंगे के प्रसंग और घटनाओं के वर्णन, समिति के सदस्यों द्वारा जांच किए गए गवाहों की सूची, दंगे के कारण हुए विनाश की तस्वीरें और वे सार्वजनिक अपीलें जो समिति और इसके सदस्यों ने हिंदी तथा उर्दू में जारी कीं, इसमें रिपोर्ट के सभी हिस्से अब भी रखे गए हैं। भगवान दास द्वारा प्रस्तुत कार्य के ज्ञापन का एक हिस्सा भी टिप्पणी में शामिल किया गया है।
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