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हास्य-व्यंग्य >> शहर बंद है

शहर बंद है

अश्विनी कुमार दुबे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 752
आईएसबीएन :81-263-0373-5

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नई पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार अश्विनी कुमार दुबे ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन की अनेक विद्रूपताओं को चित्रित करने का साहस किया है।

Shahar Band Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जब हमारे जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में अनेक प्रकार की विद्रूपताएँ, मुखौटापन और हद दर्जे की बेईमानी के दर्शन हो रहे हों दूसरे शब्दों में जब सब ओर से एक आईने को धूल-धूसरित करने का षड्यंत्र चल रहा हो और बदरंग शक्ल-ओ-सूरत को जिन्दगी की सही तस्वीर बताकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा हो तो स्वच्छ एवं सरल जीवन जीने की चाह रखने वालों को अंदर-ही-अंदर एक तिलमिलाहट एक बेचैनी होगी ही-सच को न समझ पाने से, या फिर समझकर अनजान बने रहने की विवशता से।

यही तिलमिलाहट और बेचैनी किसी संवेदनशील रचनाकार को कलम उठाने को सहज ही बाध्य कर देती है। नई पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार अश्विनी कुमार दुबे ने इन रचनाओं के माध्यम से जीवन की ऐसी ही अनेक विद्रूपताओं को चित्रित करने का साहस किया है। संग्रह की कुछ रचनाएँ हितोपदेश की कथा-शैली में भी हैं, जिनके माध्यम से श्री दुबे ने हिन्दी व्यंग्य-विधा को एक नया आयाम दिया है। तमाम कृत्रिमताओं के बावजूद सत्य की तलाश करने के यदि थोड़े भी इच्छुक आप हैं तो इस संग्रह की रचनाएं आपको एक अलग तरह का अनुभव कराएँगी।

ये रचनाएँ

पिछली दो दशकों से मैं कहानियाँ, नाटक और निबन्ध लिख रहा हूं। पाठकों का कहना है, इधर मेरी रचनाओं में व्यग्य की स्प्रिट ज्यादा दिखाई देने लगी है- इसलिए ये व्यंग्य रचनाएँ हो गईं।
पिछले दिनों ऐसी ही व्यंग्य-रचनाओं के मेरे दो संकलन : ‘घूँघट के पट खोल’ और ‘अटैची संस्कृति’ प्रकाशित हुए। लोगों ने वे रचनाएं पढ़ीं और सराहीं। मित्रों को समर्पित प्रथम संकलन से सबसे ज्यादा तकलीफ मित्रों को हुई। बहुत-से मित्रों ने हाय-हाय की। (हिंदी में ऐसी परंपरा है।) कुछ लोंगों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा भी की। मुझे पाठकों पर पूरा भरोसा है और उन्हें मुझ पर।

मैं खूब पढ़ता हूँ। सोचता हूँ। उससे जो दृष्टि विकसित होती है, उसमें चीजों को देखता हूँ। मुझे प्रायः हर क्षेत्र में विद्रूपताएँ, मुखौटापन और हद दर्जे की बेईमानी के दर्शन होते हैं। इससे तिलमिलाहट होती है। फिर निकलकर आती हैं मेरी व्यंग्य-रतनाएँ।
 
जब सब ओर से आइने को धूल-धूसरित करने का षड्यंत्र चल रहा हो और बदरंग शक्ल-ओ-सूरत को जिंदगी की सही तस्वीर बताकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा हो, तब अपने लेखक से धूल को झाड़ने-पोंछने का अदना-सा प्रयास करता हूँ-आपको आपकी तसवीर दिखाने के लिए। किसी शायर ने कहा-

यह मयकदा है कदम फूँक कर रक्खों ज़ाहिद,
यहाँ तो होश के पुर्जे उड़ाए जाते हैं।

अश्वनी कुमार दुबे

शहर बंद है


मैं सुबह-सुबह पान खाने चौक की तरफ निकला तो देखा कि सारी दुकाने बंद हैं। आश्चर्यचकित हो एक व्यक्ति से मैंने पूछा, ‘‘भैया ये दुकाने आज क्यों बंद हैं ?’’
‘‘नेता जी का कुत्ता मर गया है। इसलिए शोक में आज पूरा शहर बंद है।’’ उसने आवाज दिया और आगे बढ़ गया।
मैंने एक दूसरे व्यक्ति को पकड़ा, ‘‘मियाँ यह नेता जी का कुत्ता कहाँ और कैसे मरा ?’’
‘‘दिल्ली में मर गया। आ गया मोटर के नीचे और स्वर्ग सिधार गया।’’ उसने कहा।
‘‘कुत्ता दिल्ली में मरा ! परंतु ये शहर क्यों बंद है ? ’’मैंने जिज्ञासावश पूछा।
‘‘दिल्ली में मरे या बंबई में कुत्ता तो नेता जी का है और नेताजी हमारे हैं। वे जनप्रतिनिधि हैं। उनका दुख हमारा दुख है। उनकी पार्टी के लोग यहाँ भी हैं। वे क्या अपने नेता के लिए इतना भी न करें कि उनके कुत्ते की याद में एक दिन शहर बंद करा दें !’’

‘‘लेकिन इस प्रकार एक मामूली कुत्ते की याद में पूरा शहर बंद कराना ठीक नहीं है।’’
‘‘धीरे बोलो बाबू ! आपको इस शहर में रहना है कि नहीं ? कहीं शहर बंद कराने वालों ने सुन लिया तो दुकानें बाद में बंद होंगी पहले आपका मुँह सदा के लिए बंद कर दिया जाएगा। आज सुबह ही गाँधी चौक के चार दुकानदरों की जमकर ठुकाई हुई है।’’

‘‘क्यों क्या हुआ था ? क्या गलती थी उनकी ?’’
‘‘आप भी बड़े नादान हो बाबू ! ठुकाई के लिए भी  किसी कारण की जरूरत होती है ? अरे, यह कारण क्या कम है कि हमने नेता जी के परम प्रिय और राष्ट्र के गौरव उस महान कुत्ते के स्वर्गवासी हो जाने  पर, शहर बंद करने का आह्वान किया और उन दुकानदारों ने इसमें आनाकानी की। बस हो गई ठुकाई। जिस कुत्ते की याद में आज पूरा शहर बंद है। सभी छोटे-बड़े दुकानार अपनी दुकाने बंद करके उसे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। उस महान् कुत्ते को आप मामूली कह रहे हैं ! लगता है, आपके भी बुरे दिन आ गए। विनाश काले विपरीत बुद्धिः।’’ मुझे अच्छी-खासी नसीहत देकर वे सज्जन पतली गली में खिसक लिए।

मुझे पान की तलब हो रही थी। मैं पूरा बाजार घूम आया। कहीं कोई दुकनियाँ तक खुली न मिली। रास्ते में ‘गंगा पान भंडार’ वाले बनारसी बाबू मिले। मैंने पूछा का हो बनारसी, पान-वान न खिलवाओगे का ?’’
वह मायूस सा बोला, ‘‘भैया, सबरे-सबरे दुकान खोले  ही थे कि दस-ग्यारह जन आए और सब पान-सुपारी और सिगरेट के पैकेट लूट ले गये। पूछने पर बोले ज्यादा चू चपड़ न करो। उहाँ भैयाजी का कुत्ता मर गया इहाँ तुम लोगों को पान की गिलौरी खिलाओगे ! शर्म नहीं आती। फटाफट उठाओ ये ताम-झाम और बंद करो अपनी दुकान। अब का करते हम ! ज्यादा कुछ कहते तो दुकान का बाकी सामान भी लुट जाता। मार अलग से पड़ती। इसलिए हमहु दुकान की फटकिया गिरा कर चले आए। अब पान खाने की ज्यादा तलब हो तो हमारे घर चलो, भैया ! वहीं आपको चुपके से दो ठो बीरा बाँध के दे देंगे।’’

बनारसी बाबू का घर पास में ही था सब्जी मण्डी के बगल वाली गली में है। मैं उसके साथ हो लिया। रास्ते में देखा, गाँव-गाँव से लोग टोकनों में सब्जी बेचने आए थे। वे हताश से अपने टोकने सिर पर उठाए वापस गाँव जा रहे हैं। उन्हें पता नहीं कि आज शहर क्यों बंद है। कुछ लोगों ने हड़का दिया और वे मासूम-से गाँव लौटने लगे। ठेलेवाले, सब्जीवाले, पानेवाले और रोज कमाकर खाने वाले आज फिर सपरिवार भूखे सो जाएँगे। आज शहर बंद है। भैया जी का कुत्ता मर गया है।

बनारसी के घर से पान बँधवाकर निकला तो गली में स्कूली बच्चों की भीड़ दिखाई दी। सब हो-हो करके चिल्ला रहे थे, छुट्टी है। उन्हें क्या पता कि आज शहर बंद है।
मोड़ पर कॉलेज के प्रिंसपल डा. विद्याधर जी मिल गए। मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की तो हल्के से सिर हिलाकर बोले, ‘‘देख रहे हो देश का हाल। पूरा महीना हो गया एक दिन ठीक से कॉलेज नहीं लगा। रैली, दंगे, सभा और बंद। सब जगह कॉलेज के लड़कों को झोंका जा रहा है। लड़के तो कच्ची उमर के हैं। नासमझ हैं। अच्छा उपयोग हो रहा है इनका। उन्हें तो सत्ता मिलेगी और इन्हें, बेरोजगारी, बेबसी और हताशा के शिवा क्या मिलेगा !’’

मैं कुछ बोल पाता कि जाने कहाँ से एक छात्र नेता वहाँ प्रकट हो गया। उसने प्रिंसिपल साहब को आड़े हाथों लिया, ‘‘आप कौन होते हैं हमें नासमझ कहने वाले ! हम अपना भला-बुरा अच्छी तरह जानते हैं। हमें पता है कि आप विरोधी ग्रुप वाले नेता की मेहरबानी से इस कॉलेज में टिके हुए हैं। आज हमारे नेता के घर दुख पड़ा है तो आप हाय-तौबा करने लगे। पिछले हफ्ते जब उस ग्रुप वालों ने शहर बंद कराया था तब आप कुछ नहीं बोले। वे जब दंगा  करें शहर बंद कराएँ तो अच्छा है और आज हम लोगों ने करा दिया तो बुरा हो गया ! प्रिंसिपल साहब का तो शक्ति-परीक्षण है। उन्होंने जब शहर बन्द कराया था तब आधे से ज्यादा दुकाने खुली रहीं और आज देखिए कैसा मातमी सन्नाटा छाया हुआ है शहर में ! इसे कहते है बंद !’’

प्रिंसिपल साहब अब क्या बोलते ! उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया और फुल एक्सीलेटर दबाते हुए जल्द ही बहुत दूर निकल गए।

पिछले एक महीने से शहर में यही चल रहा है। कभी हरी पार्टी के कार्यकर्ताओं शहर बंद कराते हैं। दो दिन बाद लाल पार्टी के लोग उससे ज्यादा जोश-खऱोश के साथ शहर बंद करा देते हैं। फिर हरी पार्टी वाले उनसे ज्यादा प्रभावी ढंग से शहर बंद कराने के लिए बहाना ढूँढने लगते हैं। वैसे, इस शहर के आम नागरिक बहुत शांत हैं। हिंदू, मुस्लिम और शेष धर्मों के सभी लोग आपस में मिल-जुलकर अपने काम-धन्धे करते हैं। सब एक-दूसरे पर निर्भर है। प्रेम से रहते हैं।

 परंतु कभी सांप्रदायिकदता के नाम पर सब कभी दूसरे नगरों में हुए दंगों के नाम पर, कभी इस वजह से, कभी उस कारण से और कभी बिलकुल अकारण से आए दिन शहर बंद कराया जाता है। फिर समीक्षाएँ होती हैं : ‘‘हमारे द्वारा आयोजित शहर बंद पूरी तरह सफल रहा।’’ दूसरे ग्रुप वाले गर्व से कहते हैं, ‘‘हुँह, उन्होंने क्या शहर बंद कराया ! शहर तो हम बंद कराते हैं। हमने चार बसें, दस दुकानें और बीस मकान जला दिए। उन्होंने क्या किया ? बस हाथ जोड़कर लोगों से बाजार बंद करने का आग्रह करते रहे। कुछ लोगों ने संकोचवश दुकानों के शटर नीचे गिरा लिए। थोड़ी देर बाद फिर शटर ऊपर हो गए। आज का बंद देखों। ये देखने लायक है। दूर-दूर तक कोई परिंदा तक पर मारता हुआ दिखाई नहीं देता !’’

सचमुच यह बंद बहुत सफल रहा। पाठशालाएँ, स्कूल और कॉलेज पूरी तरह बंद रहे। सब्जीवाले, दूधवाले, चायवाले, पानवाले और ठेकेवालों से लेकर बड़े-बड़े शोरूम वाले व्यापारी आराम से घरों में चद्दर तानकर सोते रहे। बसें नहीं चलीं, चलती तो जलाई जातीं। बीमारों की दवा नहीं मिल पाई। गृहणियों ने घर में जो चीजें थीं, उन्हीं से रसोई बनाई। बच्चों ने हुड़दंग की। युवकों ने रैली निकाली और बुड्ढे अपनी आराम कुर्सी में धंसे कुड़मुड़ाते रहे।

शाम को रेडियो ने लंबा समाचार दिया। दूरदर्शन पर वीरान गालियाँ और सुनसान चौराहे दिखाए गए। अखबारों ने लिखा कि बंद अत्यन्त सफल रहा।
दूसरी पार्टी के लोग उदास हैं। उनके सामने यह बंद एक चुनौती है। रात देर तक कार्यकर्ताओं की आपातकालीन बैठक चली। राजधानी तक फोन खड़खड़ाए गए। अगले दिन बंद की रूपरेखा तय की गयी। कार्यक्रम निर्धारित हुआ। ऊपर से आवश्यक निर्देश लिए गए बस अब अदद किसी बहाने की जरूरत है, जिसके लिए यह शहर फिर बंद होने के लिए अभिशप्त है। समय रहते बंद के लिए कोई ऊटपटाँग कारण मिल जाए तो ठीक, न मिले तो ठीक किसी भी दिन शहर बंद होना तय है। अबकी यह बंद कितना भयानक होगा, सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। किसी कवि की पंक्तियाँ याद हो आती हैं-

सोच शहर की हो गई, फिर से मिट्टी धूल।
सडकों पर हँसने लगे, जलते हुए बबूल।।

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