| नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
      हम लोग ऐसे रहते जैसे दीर्घ काल से विवाहित पति-पत्नी वास कर रहे हों। जहां
      हमारा दिन वाला भाग ही महत्वपूर्ण था, रात्रि गौण।
      रात क्या बिल्कुल नहीं थी। दाम्पत्य जीवन का एक कर्त्तव्य भी तो है। उसका
      पालन बिना किसी आवेग या आस्वाद से किया जाता। माधवी भी इससे अधिक नहीं चाहती।
      उसके प्रति मैं कृतज्ञ था, वह प्रभा की तरह नहीं थी यही अच्छी बात थी।
      सुबह ना जाने कब उठ जाती पता नहीं। कभी पता ना चलता। मैं अपने हिसाब से उठता।
      मुंह धोता, दाढ़ी बनाता, पेपर पढ़ता।
      पेपर अपने शौकीन सोफे पर नहीं बल्कि बगीचे के किनारे मोल बरामदे में बेंत की
      कुर्सी पर बैठकर। माधवी तब शायद स्नान करती। फूल तोड़ती, तुलसी को पानी देती,
      लक्ष्मी जी की पूजा करती। फिर मेरा नाश्ता लेकर आती। माधवी सफेद साड़ी के
      अलावा और किसी रंग की साड़ी नहीं पहनती थी। उसका कहना था काफी समय तक टीचर थी,
      उसी पोशाक की आदत पड़ गई है। 
      मुझे ये भी बुरा नहीं लगता था।
      मेरी मां, ताई जी भी ऐसी ही थोड़ी रंगीन किनारी वाली साड़ी पहना करतीं थीं।
      फिर रंग तो बहुत देखे-रंग की चकाचौंध, रंग से खुमारी-रंग से दहन-अब रंग में
      मेरी रुचि नहीं है।
      
      यही शुचि, शुभ्र कितना पवित्र है। नाश्ता हाथ में लिये सफेद मूरत मुझे भाती।
      प्यार से पास वाली कुर्सी की ओर इशारा कर उसे बैठने को कहता। माधवी कभी-कभी
      बैठती। माधवी उस प्यार की भाषा को नहीं समझती। वह घर गृहस्थी के काम करने के
      लिए व्याकुल रहती। शायद बैठती थी तो मन उसका काम में लगा रहता। मेरे साथ बात
      करने में उसका मन ना रहता। 
      अजीब बात है। इसने तो पढ़ाई भी की थी, और स्कूल में अध्यापन भी किया। पर कभी
      उसको पेपर के पन्ने उलटते भी नहीं देखा। किताब तो दूर की बात थी।
      गृहस्थी में जैसे उसे एक प्रकार का मोह लग गया था या नशा हो गया था। सुबह की
      सुनहरी धूप में बगीचे के बरामदे में बैठ कर पति के साथ प्यार भरी बातें करने
      से ज्यादा उसे छत पर मंगोड़ी देना अधिक भाता। शाम को गाड़ी से घूमने के बदले
      उसे अगले दिन की सब्जी काट कर रखने में अधिक आनन्द मिलता था।
      मेरे पास बैठकर उसे जम्हाई आती, उधर नौकर महरी के साथ वह घण्टों गप-शप करती।
      यह सब मैं पसन्द नहीं करता। जानने के बाद वह डर कर बोली-अब नहीं करूंगी। अगर
      वह यह जवाब देती कि बात करती हूं तो क्या यह लोग क्या इंसान नहीं हैं, तब
      मुझे ज्यादा खुशी मिलती।
      ''पर वह तो डर से यही कहती ठीक है अब ऐसा नहीं होगा।''
      मैंने उसके भयभीत वाले रूप में निर्मला की परछाई खोजने की चेष्टा की तो मुझे
      निराशा हाथ लगी। मैंने इस गृहस्थी के प्रति समर्पित औरत के भीतर निर्मला का
      आविष्कार किया पर-ना यह तो वैसी ना थी। निर्मला सेवा-परायणा, विनीत,
      आज्ञाकारिणी थी। पर उसका मन हीनता से परे था। उसके भीतर लोभ ना था। वह प्यार
      की प्यासी नहीं थी बल्कि अपने प्यार से सबको पूर्ण कर सकती थी। 
      
      तब मैंने निर्मला को समझा नहीं। माधवीकुंज में सुख-शान्ति की सीमा भी अधिक ना
      थी। मेरे भाग्य में माधवीकुंज में सुख-शान्ति से रहने का सपना फलीफूत ना हो
      पाया। धीरे-धीरे मुझे माधवी का असल रूप नजर आने लगा था। वैसे तो उसका परिचय
      अध्यापिका के रूप में मिला था पर मुझे लग रहा था मैंने एक कंजूस दासी मार्का
      बूढ़ी से ब्याह किया है। माधवी नामक लड़की को फूलों जैसा सुन्दर होना चाहिए। यह
      तो कंजूस, लाज-लज्जा-विहीन औरत, जो रोजमर्रा के खर्चों से एक-एक पैसा बचाकर
      मुझसे छुपा कर बैंक में नया खाता खोल कर जमा करने लगी थी।
      आप कभी सोच सकते हैं अतनू बोस की ब्याहता जो उसकी पूरी सम्पत्ति की हकदार है,
      उसको क्या आवश्यकता थी मुझसे छुपाकर बैंक में खाता खोलकर पैसा जमा करने की।
      इसका मतलब था अमीरी उसे रास नहीं आ रही थी। 
      हालांकि उसे पीली के हाथ खर्च और उसके घर खर्च के बारे में अन्दाजा ही नहीं
      था। और अगर जाने भी तब भी उसे विश्वास के धरातल पर रख कर सोचना उसके लिए
      असम्भव है।
      उसने जो पैसा जमाया था (उसकी असावधानी से भेद खुला) जानकर मैं एक तीखी हँसी
      हँसा। और सोचा एकदिन उसे अपन बैंक का पास बुक और घर के किराये के चेकों का
      हिसाब उसे दिखाऊं-पर मुझे इतना सब करने की इच्छा ही नहीं हुई। उसकी कोशिश और
      पद्धति जिस प्रकार जाहिर होती गई कि वह पैसा बचा रही है, यह एक अजीब बात थी।
      क्योंकि मैं एक तो ज्यादा वक्त घर में रहता ही नहीं था दूसरा मैं इन सबसे
      उदासीन रहता था।
      जब मेरी नजरों में यह सब आया तो मैं ना केवल विस्मित बल्कि जड़वत हो गया था।
      
      माधवी व्यय संकुचन में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती थी। उसे व्यय संकुचन
      परियोजना का कर्यान्वत सर्वप्रथम दो नौकरों को निकाल कर किया। एक को नहीं
      निकाला क्योंकि वह मेरा खास था। उस पर अपनी उस्तादी ना दिखा पाई। दो दासियों
      का खाना भी बन्द करवा दिया। (हां, इस घर में पांच दास-दासी थे। जितना भी
      साधारण जीवन जीऊं पर यह मुझे आवश्यक लगे थे।) 
      चूंकि ये दासियां मालिक की लापरवाही का अवसर लेकर दोनों टाइम खाना खाती थीं
      इसीलिए उनकी तनख्वाह में कटौती कर दी।
      सिर्फ यही नहीं।
      शहर से दूर गाय पालने का शौक लगा था। माधवी दो गायों के दूध से आधा दूध
      छिपाकर पड़ौसियों को बेच देती थी। गायों के गोबर से अपने हाथों से चुपके-चुपके
      रसोई की पिछली दीवर पर पर कंडों से माधवी चूल्हा जलाती थी। गैस, स्टोव, हीटर
      सब उठा कर।
      एक दिन मुझे धूआ नजर आया तो मैंने पूछा घर में कही धूआ हो रहा है? पता चला था
      यह धूआ कंडे कोयले जलाने का था। माधवी ने प्रश्न के उत्तर में यही कहा
      था-गैस, विद्युत से मुझे डर लगता है।
      
      मैंने विश्वास भी कर लिया था। मुझे यह भी लगा कि शायद माधवी को पौली की
      मृत्यु के इतिहास का पता लग गया है। सिर्फ मैंने अधिक कुख नहीं कहा था। सिर्फ
      कहा-इन सबसे भय पाना तो शर्म की बात है। सीख लो। 
      माधवी ने उसे सीखने से ज्यादा जरूरी समझा था कंडे थापने की विधि या कला
      सीखना। या वह अपने बारासात वाले मैके से ही सीख कर आई थी। 
      
      इस प्रकार माधवी ने इस घर को भी धीरे-धीरे अपने मैं जैसा ही बना लिया। जब वह
      नौकर से बाजार का पाई पैसा का हिसाब लेती, हर पल भंडारे की चाबी को सम्हालने
      के लिए आतुर, इस डर से व्याकुल कहीं नौकर-चाकर चावल, दाल चोरी ना कर लें,
      मछली मंगा कर उसे तराजू से तौल कर माप जोख भी करती कि कहीं नौकर ने पैसे तो
      नहीं मारे तब मुझे लगता यह उसी अतनू बोस का ही घर है। जिस घर में नौकरों के
      गांव के रिश्तेदार आकर महीनों रह जाते और उनका खाना-पीना सब यहीं मुफ्त में
      चलता। कोई पूछने वाला ही ना था। किसी को पता ही नहीं लगता था। निचली मंजिल पर
      किसी नये चेहरे को देख कर लगता कि शायद वह नया आया है। तब कोई नौकर हँसी से
      चेहरा खिला कर बताता, ''साहब यह मेरा भतीजा है कलकत्ता कभी नहीं देखा तभी
      देखने आया है।''
      बस! हो गया इसके बाद किसी को क्या पड़ी थी कि अपने को उस बारे में परेशान
      करता।
      			
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