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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


उसने भी अड़ कर प्रतिप्रश्न किया, ''कैसा काम मैं भी जानना चाहती हूं।''
''वह तुम्हारी समझ से बाहर है।''
''अगर साधारण भाषा में बताओ तो जरूर समझ जाऊंगी।''

मैं विस्मित होने लगा, सोचा शायद किसी ने सिखा पढ़ा कर भेजा है। नहीं तो यह दृढ़ता तो उसमें कभी नहीं दिखी। लेकिन बाद में यही लगा शायद पहली बार मेरे अभिसार की खबर सुन कर वह दुख से आकुल होकर सख्ती पर उतर आयी थी।
लेकिन उस वक्त तो निर्मला के क्रोध को महत्व नहीं दे पाया। निर्मला के जिरह का उत्तर भी ना दे पाया। केवल यही कहा, ''अचानक मेरे ऊपर खबरदारी करने की इच्छा क्यों। माजरा क्या है? तुम तो जैसे मेरी मास्टरनी बन बैठी हो?''
निर्मला बोली, ''मजबूरी से बनना पड़ा। इंसान जब गलत रास्ते पर कदम उठाता है तो तब उसे ठीक राह पर लाने के लिए एक मास्टर की जरूरत पड़ती है।
''ओह गुरुआनी मुझे नीति पाठ पढ़ाने आई हैं।''
मैं गलत रासते पर अपनी मर्जी से ही जा रहा हूं। मेरा जो मन चाहेगा मैं करूंगा।

निर्मला ने अचानक मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ''अपनी मर्जीनुसार काम करोगे तो मेरे ऊपर तुम्हारा कोई भी दायित्व नहीं है क्या?'' निर्मला के कंठ में एक किसी निश्चित की प्रतिध्वनि सुनाई दी।
मैं हँस पड़ा। कहा, ''इतनी अच्छी-अच्छी बातें कहां से सीखी? तुम्हारी ददिया सास के अगचूर, अचार के भंडारे में तो इन सब चीजों की आमदनी नहीं होती होगी?''
उसने मेरा हाथ छोड़ा। फिर दृढ़ कंठ से कहने लगी, ''अपमान करके तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते, तुम्हें वह सब त्यागना पड़ेगा।''
मैं भी टेढ़ी मुस्कान भर के बोला, ''छोड़ सकता हूं अगर तुम मुझे उस 'बुरी संगत' का मजा देने का वादा करो।''
वह हताश-सी दृष्टि डालकर कहने लगी और कितना दूं? और क्या करूं?

''क्यों अपने आदर्श बहू वाले कलेवर को त्यागकर मेरे साथ कलकत्ते चलो। जिन्दगी कैसी जी जाती है मैं सिखाऊंगा तुम्हें।''
निर्मला ने व्यंग्य किया, 'उपभोग' के मायने तो है होटल में जाकर गाय, सूअर का मांस खाना, शराब पीना और निर्लज्ज होकर नाचना।
निर्मला ने आज तक कभी तर्क-वितर्क ना किया था, उस रात को उसने काफी वाद-प्रतिवाद किया था तभी तो वह मुझे थोड़ी अच्छी लगी। पर उन आखिरी व्यंग्य वाणों से उसने मुझे क्रोधित कर दिया जिनमें ग्रामीणता कूट-कूट कर भरी थी।
मैंने जबाव दिया, ''तुम जैसी हो उसी के अनुरूप ही तुम्हारी सोच है। पर यह समझ लेना मैंने चरित्र अगर खराब किया है तो गलती से नहीं किया, वासना से ताड़ित होकर नहीं किया, इच्छा से समझते-बूझते हुए ही किया है। क्योंकि तुम्हारे पास अच्छे बने रहने का मोल मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। तुम्हें मैं 'पत्नी' का दर्जा ही नहीं देता।''
निर्मला खाट से उतर कर बोली, ''क्या कहा?''
निर्मला का गला कांपने लगा। समझ गया कि यह क्रन्दन का पूर्वाभास था। अब शुरू होगा रोना-धोना कसम खिलाने का प्रहसन।
मैं भी सख्ती से बोला, ''जो भी कहा है वह ठीक ही है। तुम्हारी जैसी मिट्टी की प्रतिमा के प्रति कोई रुचि नहीं। मैं तुम्हें प्यार नहीं करता।''
निर्मला ने अब कोई जबाव ना दिया और धीरे-धीरे दरवाजा खोल कर बाहर चली गई।
इसे मैंने एक औरत के मान मनोबल या नखरेबाजी का पूर्व प्रहसन माना, जो थोड़ी देर में ही वह आकर यह सब करेगी। फिर पता नहीं कब सो गया? सुबह नींद टूटी अपनी छोटी बहन की उत्तेजित चीख से, मेरे अपने कोई भाई-बहन नहीं थे। जो भी सब मामा, चाचा, फूफा आदि रिश्ते से थे। सुधा भी मेरी वैसी ही बहन थी। वह बोली, ''मझले भैया मझली भाभी कहां हैं?''
उसका अगला अध्याय तो मैं पहले ही आप लोगों के सामने खोल चुका हूं।
निर्मला ने मुझे मुक्त कर दिया। मेरा मन जो मर चुका था फिर से जी उठा।
मैं सोचने लगा, निर्मला मुझे कभी सुखी ना कर पाती। उसे अपने हिसाब से ढालने का कोई उपाय भी ना था।
दिन-ब-दिन वह मिट्टी के ढेर से एक मजबूत मिट्टी में तबदील कर दी जाती। परिवार की पृष्ठभूमि में ससुराल, सासों के प्रेम के आसन से मुझ जैसे नाबालिग की इच्छाओं को बचपना समझ कर अवहेलित करती रहती।
और मैं अपनी जीवन-संगिनी को अपने इच्छानुरूप ना बना पाने का प्रतिशोध बुरे रास्ते में चल कर चरित्रहीन बन कर लेता।
हां, उसी प्रकार की भावनाओं के सहारे मैंने अपने निराश मन को आशा के प्रदीप से जला डाला।

तभी तो यह ठीक लगा कि बुद्धू निर्मला ने एक ही बुद्धिमानी का परिचय दिया। मुझे मुक्ति देकर वह बुद्धिमान बन गई।
अब आप लोग सोचने लगे हैं इसके बाद में अधःपतन के रास्ते पर पूरी तरह चला गया, वही तो स्वाभाविक था।
लेकिन जीवन के उस मोड़ पर मुझे अपने को विश्लेषण करने का अवसर मिला तो पाया किसी भी साधारण गतानुगत वस्तु से मुझे चिढ़ थी। तभी तो पत्नी के फांसी लगाने के बाद में गलत रास्ते पर ना गया बल्कि उस रास्ते को ही त्याग डाला।
मैं जब कुछ भी नहीं छिपा रहा तो इस बात को भी नहीं छिपाऊंगा कि कलकत्ते के मकान में जाकर मैं उच्चश्रेणी के मोहल्ले में नहीं जाता था। हालांकि मेरे प्राणों से प्रिय दोस्त ने वैसे मोहल्ले के बारे में कहा था जहां लड़कियां उच्चश्रेणी के मर्दों के लिए ही बहाल की जाती हैं। देखने से तो वह उच्चतर दर्जे से सम्बन्धित लगती हैं। उनके चाल-चलन, अदब-कायदे में तो समाज के उच्चश्रेणी की छाप रहती है-पर असल उनका पेशा वहीं आदिमकालीन औरतों वाला पेशा है।

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