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विविध उपन्यास >> आत्मरक्षा का अधिकार

आत्मरक्षा का अधिकार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7556
आईएसबीएन :9789380146515

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यदि मैंने बंदूक खरीदी तो वह उसे अपने मायके भेज देगी...

Atmraksha Ka Adhikar - A Hindi Book - by Narendra Kohli

हमारा देश विकट परिस्थितियों में से गुज़र रहा है। शासक कहते हैं कि देश के सामने कोई समस्या ही नहीं है और देश देख रहा है कि समस्याएँ ही समस्याएँ हैं।
जो देख सकता है, वह देख रहा है कि देशद्रोह पुरस्कृत हो रहा है। जो भी देश और शासन से द्रोह करता है, उसे पुरस्कार देकर शांत करने का प्रयत्न किया जाता है। परिणामतः देश-प्रेम निरंतर वंचित होता चलता है।

सरकार देश को बाँट रही है और देश का संविधान देश को बाँटने का उपकरण बन गया है। उसे वह रूप दे दिया गया है कि वह चाहे भी तो देश की रक्षा नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि देश की जनता समझ रही है कि न शासक उसके प्रतिनिधि हैं, न देश का संविधान। सब उसके विरोधी हैं और उन नीतियों पर चल रहा हैं, जो देश के लिए कल्याणकारी नहीं हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए देश के भविष्य की हत्या करने पर तुले हुए हैं। जनता स्वयं को असहाय पाती है, जैसे अपने देश को किसी माफिया की जकड़न में अनुभव कर रही हो।

नरेन्द्र कोहली देश और समाज की समस्याओं से मुँह नहीं मोड़ते। वे पाठकों के मनोरंजन का दावा भी नहीं करते। वे व्यंग्यकार हैं, अतः अपने धर्म का निर्वाह करते हैं। वे देश को जगाने का प्रयत्न करते हैं–अपनी लेखनी से उसे खरोंच लगाकर, कुछ चीरकर, कुछ चुभोकर। वे मानते हैं कि साहित्यकार का काम अपने धर्म का निर्वाह है, अपने स्वार्थ की पूर्ति नहीं। लोभ और त्रास लेखक के लिए नहीं है।

अंतर


रामलुभाया उदास था।
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘पिछली बार जब घर में मिस्तरी का कुछ काम कराया था तो कुछ ईंटें जानबूझकर बचा ली थीं और छत पर सँभलवा दी थीं।’’
‘‘हाँ, फिर कोई टूट-फूट ठीक करानी हो तो दो-चार ईंटें माँगने कोई कहाँ जाए।’’ मैंने कहा।

‘‘अरे नहीं, वे तो रखी थीं कि मुहल्ले में कोई दंगा हो जाए, तो दंगाइयों को अपने घर से दूर रखने के लिए काम आएँगी।’’ वह बोला, ‘‘अब तुम जानो, घर में कोई बंदूक-तलवार तो है नहीं।’’
‘‘हाँ, ठीक तो है।’’ मैंने उसके सुर में सुर मिला दिया, ‘‘बाहर की रक्षा तो पुलिस करेगी, किंतु घर के भीतर तो हमें स्वयं ही कुछ करना पड़ेगा न।’’

‘‘आज देखा तो वे ईंटें वहाँ नहीं थीं।’’ रामलुभाया ने बताया, ‘‘पड़ोसियों ने उठा लीं। कह रहे थे, उन्हें अपनी छत से हमारी छत पर आने में बड़ी असुविधा थी। ईंटें पड़ी देखीं तो सीमेंट मँगाकर, अपनी दीवार के साथ सीढ़ी बनवा ली। अब उन्हें हमारी छत पर आने में कोई असुविधा नहीं है। उनके अतिथि लोग तो रात को हमारी ही छत पर सोने लगे हैं।’’
‘‘तुम उन्हें मना नहीं कर सकते ?’’
‘‘अरे, पड़ोसी हैं। कैसे मना कर दूँ।’’

‘‘पड़ोसी कैसे ?’’ मैंने कहा, ‘‘वे तो चोर हैं।’’
‘‘वह तो मैं भी जानता हूँ।’’ वह बोला, ‘‘किंतु यह कह तो नहीं सकता न। कह दूँ, तो वे आज ही अपने संबंधियों को बुलाकर हमारे घर डकैती करा दें। हत्या भी करवा दें तो कोई आश्चर्य नहीं। भई, डरकर रहना पड़ता है। अपने यहाँ तो इसी को समझदारी माना जाता है।’’

‘‘तो डरो।’’ मैंने रोष से कहा, ‘‘पर अब छत के कपाट बंद ही रखना कि कहीं छत से तुम्हारे घर में ही न उतर आएँ।’’
‘‘मैं तो बंद ही रखता हूँ।’’ रामलुभाया रुआँसा हो गया था, ‘‘पर हमारे नौकर को कपाट खुले छोड़ देने की आदत है।’’
‘‘कौन है तुम्हारा नौकर ? कहाँ का है ? मारो साले को दो झाँपड़, अपने आप कपाट बंद करना सीख जाएगा।’’
‘‘पड़ोसियों के गाँव का ही है।’’ रामलुभाया ने बताया, ‘‘उन्होंने ही उसे हमारे यहाँ रखवाया हे। न उसे हम डाँट सकते हैं, न निकाल सकते हैं। पड़ोसी रुष्ट हो जाएँगे।’’

‘‘ओह ! यह तो चिंता का विषय है।’’ मैं मौन रह गया।
‘‘और वह जो दूसरी ओर का पड़ोसी है, वह एक बड़ा बिल्डर है।’’ रामलुभाया बोला, ‘‘दिन-रात शराब पीकर गालियाँ बकता रहता है। धमकियाँ देता रहता है।’’
‘‘मेरा विचार है कि तुम पुलिस में एक रपट लिखा ही दो। कल को कुछ हो-हवा गया तो।’’ मैंने परामर्श दिया।

‘‘पुलिस।’’ उसने नाक सिकोड़ी, ‘‘थानेदार तो जब देखो, उसके घर में बैठा रहता है। कितने ही पुलिस वाले रात को नशे में उसके यहाँ रास रचा रहे होते हैं।’’
‘‘ओह ! तो कम से कम एक बंदूक का लाइसेंस तो ले ही लो।’’ मैंने कहा, ‘‘तुम तो तनिक भी सुरक्षित नहीं हो।’’
‘‘लाइसेंस तो है मेरे पास।’’ वह बोला।

‘‘तो एक बंदूक तो खरीद ही लो।’’
‘‘मेरी पत्नी भी यही कह रही है।’’
‘‘तो फिर बाधा क्या है ?’’
‘‘यदि मैंने बंदूक खरीदी तो वह उसे अपने मायके भेज देगी।’’ वह बोला।

‘‘क्यों, वहाँ डाकू हैं क्या ?’’
‘‘पता नहीं।’’ वह बोला, ‘‘बात यह है कि मैंने पहले भी एक बंदूक खरीदी थी, वह मेरी बहू ने उठाकर अपने भाई को दे दी।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘ताकि वह हमसे अपनी बहन की रक्षा करा सके।’’
‘‘तुम लोग अपनी बहू को मारते-पीटते थे क्या ?’’

‘‘नहीं, मारते तो नहीं थे। बस, पड़ोसी के लड़के से नैन-मटक्का करने से रोकते थे। अब नहीं रोकते।’’ रामलुभाया एक प्रकार से रो पड़ा, ‘‘वह कहती है कि यदि हमेने टोका-टांकी की तो उसका भाई हमारी बंदूक से हमको गोली मारकर, अपने गड़ासे से हमारी लाशों के टुकड़े कर गिद्धों को खिला देगा।’’
‘‘यार, तब तो तुमको बंदूक नहीं, तोप की आवश्यकता है।’’ मैंने कहा, ‘‘किंतु उसका लाइसेंस सरकार देती नहीं।’’

‘‘दे भी दे तो क्या।’’ वह बोला, ‘‘उसे मेरी पत्नी अपने मायके भेज देगी। उसकी बड़ी इच्छा है कि उसके मायके वाले मेरे भाइयों को तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दें।’’
‘‘यार, तेरा घर तो अपना भारतवर्ष हो रहा है, जहाँ हर प्रकार के बाहरी आक्रमणकारियों के सहायक घर के भीतर ही बैठे हैं।’’ मैंने कहा।

‘‘ऐसा कह सकते हो।’’ वह बोला, ‘‘फिर भी कुछ अंतर है।’’
‘‘वह क्या ?’’
‘‘मैं अपने घर को सुरक्षित नहीं मानता, जैसा कि भारत के बहुसंख्यक अपने देश को मानते हैं, और...।’’
‘‘और क्या ?’’
‘‘मेरे मन में अपने घर को सुरक्षित करने की इच्छा है, जो भारत सरकार में एकदम ही नहीं है।’’

अधिकार


‘‘देखो कंप्यूटर फिर काम नहीं कर रहा है।’’ रामलुभाया ने कहा।
‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा, ‘‘मैं इंजीनियर को फोन कर देता हूँ। आकर देख लेगा।’’
‘‘नहीं ! गुप्ता को नहीं बुलाना है। बल्कि इस बार उससे ठीक ही नहीं कराना है। किसी और को बुलाओ।’’
मैं कुछ परेशान हुआ। गुप्ता जी हमारे वर्षों के परखे हुए व्यक्ति थे। अब अचानक क्या हो गया कि यह रामलुभाया उन्हें बुलाना ही नहीं चाहता।

‘‘क्यों ? उसे क्यों नहीं बुलाना है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘वह आएगा और कहेगा, यह बदल दो, वह बदल दो।’’ रामलुभाया ने कहा, ‘‘यहाँ कोई भी पुर्ज़ा खराब नहीं है। हमको कुछ नहीं बदलवाना, इसीलिए गुप्ता को नहीं बुलाना। किसी और को बुलाओ।’’
‘‘तुम्हें कंप्यूटर के विषय में कुछ मालूम भी है ?’’

‘‘नहीं।’’
‘‘दोष क्या है, मालूम है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तुम्हें कैसे पता है कि गुप्ता जी क्या कहेंगे–तुम भविष्यवक्ता हो या उनके मन में बैठे हो ?’’
‘‘नहीं।’’

‘‘तो तुमने कैसे निर्णय ले लिया कि गुप्ता जी को नहीं बुलाना है, चाहे और किसी भी काले चोर को बुला लें ?’’ मैंने उसे डाँट दिया और प्रसन्न हो गया कि मैंने उसकी अकल ठिकाने लगा दी है।
उसने मुझे घूरा, ‘‘तुम्हारी पार्टी के अध्यक्ष संस्कृत जानते हैं ?’’
‘‘नहीं !’’ मैंने उत्तर दिया; किंतु समझ नहीं पाया कि वह कंप्यूटर से हमारी पार्टी के अध्यक्ष तक कैसे पहुँच गया।
‘‘वे हिंदी जानते हैं ?’’

‘‘नहीं, पर उससे इसका क्या संबंध ?’’
‘‘उन्होंने ‘रामायण’ को मूल में कभी पढ़ा है ?’’
‘‘नहीं ! पर...’’
‘‘वे उसका शब्द-शब्द गहराई से समझते हैं ?’’

‘‘नहीं ! पर...
‘‘पर-पर क्या।’’ उसने मुझे डाँट दिया, ‘‘जब वे बिना जाने, बिना पढ़े, बिना समझे, उसका संपादन करने की मांग कर सकते हैं, तो मैं कंप्यूटर के इंजीनियर को बदलने की माँग क्यों नहीं कर सकता ?’’

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