हास्य-व्यंग्य >> दबाव की राजनीति दबाव की राजनीतिअजय अनुरागी
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यह कौन-सी राजनीति है जो अपने चतुर्दिक दबावों के द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए दूसरों की सार्थकता को निरर्थकता में तथा अपनी निरर्थकता को सार्थकता में बदल देती है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दबाव की राजनीति’ अजय अनुरागी का पाँचवाँ व्यंग्य
संग्रह है, जिसमें उनकी व्यंग्य यात्रा ने विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए
एक सार्थक मुकाम तय किया है।
इस संग्रह में अनैतिक दबावों के द्वारा नैतिक सिद्धान्तों पर हावी होती राजनीति की सूक्ष्म स्थितियों-परिस्थितियों से छनकर व्यंग्य निकाला है, इसलिए इसमें समाज एवं राजनीति के अन्तःसंबंधों तथा अंतःविरोधों को समझने की व्यंग्य-दृष्टि उजागर हुई है।
आज राजनीति समाज के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा रही है तथा हस्तक्षेप कर रही है। इससे अनेक विकृतियों का जन्म हो रहा है। यह संग्रह व्यक्ति और राजनीति के रिश्तों की बखिया बखूबी उधेड़ता है। यह कौन-सी राजनीति है जो अपने चतुर्दिक दबावों के द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए दूसरों की सार्थकता को निरर्थकता में तथा अपनी निरर्थकता को सार्थकता में बदल देती है ? यह इस संग्रह से जाना जा सकता है।
ये व्यंग्य कलेवर में छोटे जरूर हैं किन्तु पठनीयता में बड़े सिद्ध होते हैं। सटीक सम्प्रेषण शैली के कारण इन व्यंग्यों में उलझाव नहीं है अपितु इन्हें पढ़ना अपने दैनिक जीवन चक्र से गुजरना है। कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर अमिट छाप छोड़ने वाली सामर्थ्य इस संग्रह के सभी वंग्यों में है।
इस संग्रह में अनैतिक दबावों के द्वारा नैतिक सिद्धान्तों पर हावी होती राजनीति की सूक्ष्म स्थितियों-परिस्थितियों से छनकर व्यंग्य निकाला है, इसलिए इसमें समाज एवं राजनीति के अन्तःसंबंधों तथा अंतःविरोधों को समझने की व्यंग्य-दृष्टि उजागर हुई है।
आज राजनीति समाज के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा रही है तथा हस्तक्षेप कर रही है। इससे अनेक विकृतियों का जन्म हो रहा है। यह संग्रह व्यक्ति और राजनीति के रिश्तों की बखिया बखूबी उधेड़ता है। यह कौन-सी राजनीति है जो अपने चतुर्दिक दबावों के द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए दूसरों की सार्थकता को निरर्थकता में तथा अपनी निरर्थकता को सार्थकता में बदल देती है ? यह इस संग्रह से जाना जा सकता है।
ये व्यंग्य कलेवर में छोटे जरूर हैं किन्तु पठनीयता में बड़े सिद्ध होते हैं। सटीक सम्प्रेषण शैली के कारण इन व्यंग्यों में उलझाव नहीं है अपितु इन्हें पढ़ना अपने दैनिक जीवन चक्र से गुजरना है। कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर अमिट छाप छोड़ने वाली सामर्थ्य इस संग्रह के सभी वंग्यों में है।
एक उदीयमान नेता
एक उदीयमान नेता में अपार राजनीतिक संभावनाएँ होती हैं। जब वह राजनीतिक
धरा पर उदित होने के लिए हाथ-पैर मार रहा होता है, तब उसकी प्रतिभा के
प्रकटीकरण का वह स्वर्ण काल होता है। जैसे ही वह उदित होता है उसकी
संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। प्रतिभा ‘बैड रूम’ में
चली जाती है।
उदित होने के बाद उसकी गति अस्त होने की दिशा की तरफ ही बढ़ती है। उदित हो लिया, मुदित हो लिया। अब क्या करें करने का काम उदित होने से पहले था। उदित होने के बाद रजिस्टर्ड हुआ और काम बंद। नाम चालू। दाम चालू। सलाम चालू। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह उदित नहीं होता तो ही ठीक था, इसकी गति अधोमुखी तो न होती। हमेशा अच्छा सोचता था। अच्छा करता था। पर यह सब उदित होने के लिए ही था। उदित होते ही उसकी सोच बदल गयी। कर्म बदल गया। धर्म बदल गया।
इस बात पर विचार किया जा सकता है कि उसके उदित होने के कारण क्या थे ? जैसे सूर्य के उदय होने के पीछे कुछ ठोस और वैज्ञानिक कारण होते हैं वैसे ही उसके उदय होने के पीछे भी ठोस और वैज्ञानिक कारण थे। ये दो कारण ऐसे हैं, जिसके पीछे भी लग जाते हैं उसे उदित करके ही छोड़ते हैं। उस उदीयमान के पीछे भी लग गये और उदय सुनिश्चित हुआ।
ठोस कारण तो यह था कि इलाके में ऐसा कोई विश्वसनीय मध्यस्थ नहीं था जो इलाके की जनता के अटके हुए काम कराने के लिए जनता द्वारा दी जा रही रिश्वत को सीधे मंत्री तक पहुँचा दे। जैसे चिकित्सा विभाग के किसी कर्मी का अटका हुआ काम चिकित्सा मंत्री से निकलवाना है। ऐसा मध्यस्थ इलाके में नहीं था। काफी कमी खल रही थी। लोग दूसरे इलाकों के मध्यस्थों से अपना काम कराते थे। दूसरा वैज्ञानिक कारण था क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करना। इस इलाके में प्रथम तो किसी प्रकार की क्रिया होती ही नहीं थी। किसी प्रकार ही भी जाए तो उसकी प्रतिक्रिया नगण्य हुआ करती थी। इन दोनों कारणों से किसी-न-किसी नेता का उदय निश्चित था। यदा-यदा ही निष्क्रिय ग्लानिर्भवति भारतः तदा-तदा ही किसीन-न-किसी नेता का उदय हो जाता है। सो हुआ। एक उदीयमान ने अपने पंख फैलाकर फड़फड़ाहट करते हुए उड़ान भरी।
इलाके की जनता को काफी लाफ हुआ। घूस, रिश्वत आदि देने के लिए दूर नहीं जाना पड़ता था। काम वहीं-का-वहीं सुलट जाता था। लोगों की परेशानी कम हुई। आवागमन कम हुआ। उदीयमान पर विश्वास बढ़ा। साख जमी। उदीयमान में चमक आयी। इलाके के उदीयमान से लाभ यह भी हुआ कि कम कीमत में काम होने लगे। वर्षों से रुके हुए काम सफल होते गये।
उदीयमान भी पूर्ण जुझारु था। लड़ जाता था, अड़ जाता था, तन जाता था परंतु काम कराके लाता था। उसकी इस प्रवृत्ति को देखकर इलाके के लोग उसमें कई संभावनाएँ देखने लगे। संभावनाएँ भी घनघोर। घटाटोप। जबकि ये सब संभावनाएँ उसकी उदीयमानी के कारण थीं। जैसे ही वह एक दिन पूर्ण उदित हो गया, बेचारा आराम में आ गया। जुझारूपन विश्राम करने लगा।
अब इलाकों वालों को उस उदीयमान से काम कराने के लिए किसी अन्य की तलाश है। जो भूतपूर्व उदीयमान से मिलकर अटके काम निकलवा सके।
उदित होने के बाद उसकी गति अस्त होने की दिशा की तरफ ही बढ़ती है। उदित हो लिया, मुदित हो लिया। अब क्या करें करने का काम उदित होने से पहले था। उदित होने के बाद रजिस्टर्ड हुआ और काम बंद। नाम चालू। दाम चालू। सलाम चालू। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह उदित नहीं होता तो ही ठीक था, इसकी गति अधोमुखी तो न होती। हमेशा अच्छा सोचता था। अच्छा करता था। पर यह सब उदित होने के लिए ही था। उदित होते ही उसकी सोच बदल गयी। कर्म बदल गया। धर्म बदल गया।
इस बात पर विचार किया जा सकता है कि उसके उदित होने के कारण क्या थे ? जैसे सूर्य के उदय होने के पीछे कुछ ठोस और वैज्ञानिक कारण होते हैं वैसे ही उसके उदय होने के पीछे भी ठोस और वैज्ञानिक कारण थे। ये दो कारण ऐसे हैं, जिसके पीछे भी लग जाते हैं उसे उदित करके ही छोड़ते हैं। उस उदीयमान के पीछे भी लग गये और उदय सुनिश्चित हुआ।
ठोस कारण तो यह था कि इलाके में ऐसा कोई विश्वसनीय मध्यस्थ नहीं था जो इलाके की जनता के अटके हुए काम कराने के लिए जनता द्वारा दी जा रही रिश्वत को सीधे मंत्री तक पहुँचा दे। जैसे चिकित्सा विभाग के किसी कर्मी का अटका हुआ काम चिकित्सा मंत्री से निकलवाना है। ऐसा मध्यस्थ इलाके में नहीं था। काफी कमी खल रही थी। लोग दूसरे इलाकों के मध्यस्थों से अपना काम कराते थे। दूसरा वैज्ञानिक कारण था क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करना। इस इलाके में प्रथम तो किसी प्रकार की क्रिया होती ही नहीं थी। किसी प्रकार ही भी जाए तो उसकी प्रतिक्रिया नगण्य हुआ करती थी। इन दोनों कारणों से किसी-न-किसी नेता का उदय निश्चित था। यदा-यदा ही निष्क्रिय ग्लानिर्भवति भारतः तदा-तदा ही किसीन-न-किसी नेता का उदय हो जाता है। सो हुआ। एक उदीयमान ने अपने पंख फैलाकर फड़फड़ाहट करते हुए उड़ान भरी।
इलाके की जनता को काफी लाफ हुआ। घूस, रिश्वत आदि देने के लिए दूर नहीं जाना पड़ता था। काम वहीं-का-वहीं सुलट जाता था। लोगों की परेशानी कम हुई। आवागमन कम हुआ। उदीयमान पर विश्वास बढ़ा। साख जमी। उदीयमान में चमक आयी। इलाके के उदीयमान से लाभ यह भी हुआ कि कम कीमत में काम होने लगे। वर्षों से रुके हुए काम सफल होते गये।
उदीयमान भी पूर्ण जुझारु था। लड़ जाता था, अड़ जाता था, तन जाता था परंतु काम कराके लाता था। उसकी इस प्रवृत्ति को देखकर इलाके के लोग उसमें कई संभावनाएँ देखने लगे। संभावनाएँ भी घनघोर। घटाटोप। जबकि ये सब संभावनाएँ उसकी उदीयमानी के कारण थीं। जैसे ही वह एक दिन पूर्ण उदित हो गया, बेचारा आराम में आ गया। जुझारूपन विश्राम करने लगा।
अब इलाकों वालों को उस उदीयमान से काम कराने के लिए किसी अन्य की तलाश है। जो भूतपूर्व उदीयमान से मिलकर अटके काम निकलवा सके।
अढ़ाई गिलास व्याख्यान
बुद्धिजीवी की बौद्धिकता नापने के लिए गिलास को पैमाने के रूप में लिया जा
सकता है; क्योंकि उसको नापने के दूसरे सभी पैमाने अपर्याप्त रहते हैं।
बुद्धिजीवी आखिर बुद्धिजीवी होता है और गिलास आखिर गिलास होता है। उसकी बौद्धिकता गिलास देखर आँकी जा सकती है। गिलास से भी हम अनुमान ही लगा पाते हैं कि अमुक में इतने गिलास बैद्धिकता का समावेश है। पूर्ण सत्य का पता तो गिलास से भी नहीं लग पाता है।
किस बुद्धिजीवी में कितने गिलास बौद्धिकता है, यह जान लेना गैर बुद्धिजीवियों के लिए जरूरी है। हम देखते हैं कि कुछ बुद्धिजीवियों में बौद्धिकता चम्मच भर ही होती है लेकिन वे प्रदर्शन गिलास भर करते हैं। कटोरी भर बौद्धिकता से युक्त भगौना या देगची भर बौद्धिकता का प्रदर्शन कर लेते हैं। मैं बुद्धिजीवियों की श्रेणी में नहीं हूँ फिर भी मुझे भ्रम है कि मुझमें लोटा भर बौद्धिकता मौजूद है। देखने वाला दंग रह जाता है। उसे दंग रहना ही है; क्योंकि वह देखने वाला है। मैं एक बुद्धिजीवी से मिला जिसने मेरे अनुमान को बदल डाला। मैं सोचता था कि यह एक बाल्टी बौद्धिकता का स्वामी है परंतु मिलने के बाद मुझे लगा कि यह एक देग भर बौद्धिकता का नायक हो सकता है।
परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि वे मानव की बौद्धिकता को प्रभावित कर देती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में बौद्धिकता का विकास होता है। ऐसे काल में चम्मच भर बौद्धिकता भी लोटा भर बौद्धिकता हो जाती है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों तो गिलास भर बौद्धिकता को बढ़ाया भी नहीं जा सकता है। बढ़ने के समस्त दरवाजे बंद हो जाते हैं। यह बौद्धिक सिकुड़न का समय होता है।
समाज में बौद्धिकता की बाढ़ आयी हुई है। सभी बौद्धिक नजर आते हैं। अपने-अपने बुद्धिवाद से बौद्धिक मंडल बना रखा है सबने। उसी में चमकते हैं। उसके बाहर उनकी चमक नहीं बिखरती। एक अपरिचित ने परिचय में पूछा, ‘‘आप कितने गिलास बुद्धिजीवी हैं ?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं गिलास वाला बुद्धिजीवी नहीं हूँ। कप वाला बुद्धिजीवी हूँ।’’ वे प्रत्युत्तर से संतुष्ट नहीं हुए बोले, ‘‘बुद्धिजीवी तो गिलास वाले ही होते हैं। गैर गिलासी बुद्धिजीवियों को समाज मान्यता ही नहीं देता है। आप पता नहीं कप के आधार पर कैसे बुद्धिजीवी बन गए ?’’ मैं गिलासवादी और कपवादी की बहस में नहीं पड़ना चाहता था। हाथ जोड़कर विदा ली।
एक व्याख्यान में बुद्धिजीवी ने ढाई गिलास पानी मँगवाकर लैक्चर स्टैंड पर रखा और बीच-बीच में पानी पीकर गला तर किया। गिलास पूरे हो गये तो व्याख्यान भी पूरा हो गया। लोगों ने गिलास देखकर ही व्याख्यान का अनुमान लगा लिया। बौद्धिकता को गिलास में नापना बुरा नहीं है। कारण कि बुद्धिजीवी का प्रेम गिलास के प्रति होते ही है।
बुद्धिजीवी आखिर बुद्धिजीवी होता है और गिलास आखिर गिलास होता है। उसकी बौद्धिकता गिलास देखर आँकी जा सकती है। गिलास से भी हम अनुमान ही लगा पाते हैं कि अमुक में इतने गिलास बैद्धिकता का समावेश है। पूर्ण सत्य का पता तो गिलास से भी नहीं लग पाता है।
किस बुद्धिजीवी में कितने गिलास बौद्धिकता है, यह जान लेना गैर बुद्धिजीवियों के लिए जरूरी है। हम देखते हैं कि कुछ बुद्धिजीवियों में बौद्धिकता चम्मच भर ही होती है लेकिन वे प्रदर्शन गिलास भर करते हैं। कटोरी भर बौद्धिकता से युक्त भगौना या देगची भर बौद्धिकता का प्रदर्शन कर लेते हैं। मैं बुद्धिजीवियों की श्रेणी में नहीं हूँ फिर भी मुझे भ्रम है कि मुझमें लोटा भर बौद्धिकता मौजूद है। देखने वाला दंग रह जाता है। उसे दंग रहना ही है; क्योंकि वह देखने वाला है। मैं एक बुद्धिजीवी से मिला जिसने मेरे अनुमान को बदल डाला। मैं सोचता था कि यह एक बाल्टी बौद्धिकता का स्वामी है परंतु मिलने के बाद मुझे लगा कि यह एक देग भर बौद्धिकता का नायक हो सकता है।
परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि वे मानव की बौद्धिकता को प्रभावित कर देती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में बौद्धिकता का विकास होता है। ऐसे काल में चम्मच भर बौद्धिकता भी लोटा भर बौद्धिकता हो जाती है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों तो गिलास भर बौद्धिकता को बढ़ाया भी नहीं जा सकता है। बढ़ने के समस्त दरवाजे बंद हो जाते हैं। यह बौद्धिक सिकुड़न का समय होता है।
समाज में बौद्धिकता की बाढ़ आयी हुई है। सभी बौद्धिक नजर आते हैं। अपने-अपने बुद्धिवाद से बौद्धिक मंडल बना रखा है सबने। उसी में चमकते हैं। उसके बाहर उनकी चमक नहीं बिखरती। एक अपरिचित ने परिचय में पूछा, ‘‘आप कितने गिलास बुद्धिजीवी हैं ?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं गिलास वाला बुद्धिजीवी नहीं हूँ। कप वाला बुद्धिजीवी हूँ।’’ वे प्रत्युत्तर से संतुष्ट नहीं हुए बोले, ‘‘बुद्धिजीवी तो गिलास वाले ही होते हैं। गैर गिलासी बुद्धिजीवियों को समाज मान्यता ही नहीं देता है। आप पता नहीं कप के आधार पर कैसे बुद्धिजीवी बन गए ?’’ मैं गिलासवादी और कपवादी की बहस में नहीं पड़ना चाहता था। हाथ जोड़कर विदा ली।
एक व्याख्यान में बुद्धिजीवी ने ढाई गिलास पानी मँगवाकर लैक्चर स्टैंड पर रखा और बीच-बीच में पानी पीकर गला तर किया। गिलास पूरे हो गये तो व्याख्यान भी पूरा हो गया। लोगों ने गिलास देखकर ही व्याख्यान का अनुमान लगा लिया। बौद्धिकता को गिलास में नापना बुरा नहीं है। कारण कि बुद्धिजीवी का प्रेम गिलास के प्रति होते ही है।
चकाचक दे इंडिया
इंडिया हमारा है। हमारे बाप का है। इसका हर माल हमारा है। इसकी बोटी-बोटी
पर हमारा अधिकार है। इंडिया ने हमारे बाप को बहुत कुछ दिया। दादा को सब
कुछ दिया। अब हमें क्यों न देगा इंडिया ? देना पड़ेगा उसे। इंडिया में
रहकर इंडिया की दादागिरी नहीं चलने देंगे। यह अन्याय हमारे साथ ही क्यों ?
सबके दिया, हमें भी दे इंडिया। सबने खाया इंडिया को, हम भी खाएँगे। सबने
तोड़ा, हम भी तोड़ेंगे इंडिया।
इंडिया दे रहा है तो सबको दे। खिला रहा है तो सबको खिलाए। बाँट रहा है तो सबको बाँटे। बराबर-बराबर। हमको कम दूसरों को ज्यादा देगा तो इसकी ईंट-से-ईंट बजा देंगे। इंडिया पड़ौसी को खिलाता रहे, हम देखते रहें। क्यों ? वे लूटें और हम देखें ? इंडिया देने लायक है तो देता क्यों नहीं ? हम उसके वासी हैं। हमें न देगा तो किसे देगा ? किसी दूसरे देशवासी को देगा, तो देख लेंगे इंडिया को। हमारे सामने हमें छोड़कर दूसरों को देगा क्या ? नहीं देने देंगे। हमारा इंडिया है तो हमें ही देगा। नहीं देगा तो छीन लेंगे। लूट लेंगे। चकाचक दे इंडिया ! देता क्यों नहीं है रे ?
जिसे भी देता है इंडिया, उसे छप्पर फाड़कर देता है। जेबें, तिजोरी, घर सब भर देता है। खूब खाओ। मौज उड़ाओ। इंडिया जो दे रहा है। देखो, यह माल इंडिया का है। इंडिया के लोंगों के लिए है। इंडिया में ही खाया जा रहा है। यह हमारा इंडिया है। इसकी तरफ दूसरा आँख उठाएगा तो आँख फोड़ देंगे। हाथ उठाएगा तो हाथ तोड़ देंगे। लात उठाएगा तो लात तोड़ देंगे। यह हमारा इंडिया है, इस पर हम हाथ उठाएँ या टाँग उठाएँ, यह हमारा निजी मामला है। जातीय मामला भी है। हम अपने जातीय गौरव की गूदड़ी में दूसरे को नहीं घुसने देंगे। इसमें हमीं घुसेंगे और हम ही फाड़ेंगे। फाड़ने के लिए भी हम ही अधिकृत हैं।
इंडिया दे रहा है तो सबको दे। खिला रहा है तो सबको खिलाए। बाँट रहा है तो सबको बाँटे। बराबर-बराबर। हमको कम दूसरों को ज्यादा देगा तो इसकी ईंट-से-ईंट बजा देंगे। इंडिया पड़ौसी को खिलाता रहे, हम देखते रहें। क्यों ? वे लूटें और हम देखें ? इंडिया देने लायक है तो देता क्यों नहीं ? हम उसके वासी हैं। हमें न देगा तो किसे देगा ? किसी दूसरे देशवासी को देगा, तो देख लेंगे इंडिया को। हमारे सामने हमें छोड़कर दूसरों को देगा क्या ? नहीं देने देंगे। हमारा इंडिया है तो हमें ही देगा। नहीं देगा तो छीन लेंगे। लूट लेंगे। चकाचक दे इंडिया ! देता क्यों नहीं है रे ?
जिसे भी देता है इंडिया, उसे छप्पर फाड़कर देता है। जेबें, तिजोरी, घर सब भर देता है। खूब खाओ। मौज उड़ाओ। इंडिया जो दे रहा है। देखो, यह माल इंडिया का है। इंडिया के लोंगों के लिए है। इंडिया में ही खाया जा रहा है। यह हमारा इंडिया है। इसकी तरफ दूसरा आँख उठाएगा तो आँख फोड़ देंगे। हाथ उठाएगा तो हाथ तोड़ देंगे। लात उठाएगा तो लात तोड़ देंगे। यह हमारा इंडिया है, इस पर हम हाथ उठाएँ या टाँग उठाएँ, यह हमारा निजी मामला है। जातीय मामला भी है। हम अपने जातीय गौरव की गूदड़ी में दूसरे को नहीं घुसने देंगे। इसमें हमीं घुसेंगे और हम ही फाड़ेंगे। फाड़ने के लिए भी हम ही अधिकृत हैं।
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लोगों की राय
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