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संध्या का सीक्रेट

शोभा डे

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7560
आईएसबीएन :9788170288763

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लोकप्रिय लेखिका शोभा डे की बच्चों के लिए पहली किताब...

Sandhya Ka Secret - A Hindi Book - by Shobha De

क्या है संध्या का सीक्रेट

संध्या 14 बरस की है और ज़िंदगी उसके लिए रोलर-कॉस्टर में बैठने की तरह है। पहली बार किसी से आँखें चार होने की वेदना और सुख, दुनिया से बेसुध और बेखबर होकर स्कूल के ‘सोशल’ की तैयारी, कई बेनाम और अनसुनी चीज़ों की चाह, अपने प्यारे लेकिन कठोर माँ-बाप के खिलाफ पैदा होनेवाली बगावत और दबाए न दबनेवाली ज़िद। और इन सबके बीच है संध्या का रहस्य, जो दूर क्षितिज पर घने, काले और धुंधले बादल की तरह मंडराता है। एक ऐसा रहस्य जो वह किसी से नहीं कह सकती, अपनी सबसे नज़दीकी और ख़ास सहेली असावरी से भी नहीं।
इस रहस्य को खोलने के बाद क्या उसकी ज़िंदगी फिर वैसी रह पाएगी जैसी पहले थी ?

परेशानी की आहट

‘‘क्या तुमने मॉम को बता दिया?’’ पिया की आवाज़ धीमी और चिंतित लग रही थी। संध्या ने ‘नहीं’ में अपना सिर हिलाया और साफ-सुथरे किचन में मैदे और मक्खन का चिपचिपा मिश्रण हिलाती रही। यह किचन ही मेहता परिवार का केन्द्र था।

‘‘तुम जानती हो कि मॉम नाराज़ होंगी, फिर भी तुम केक क्यों बना रही हो ? या तुम इस बारे में उन्हें कुछ भी न बताने की सोच रही हो ?’’ पिया तो जैसे पीछे ही पड़ गई।

संध्या ने अपनी छोटी बहन को तीखी नजरों से देखा और अपने होंठों पर उँगली रख ली। ‘‘श....श...श...भैया सुन लेगा। चुप रहो...प्लीज़, प्लीज़, भैया के जाने तक कुछ मत कहो...उसे कॉलेज के लिए फिर देर हो गयी है...’’

बस तभी, एक लम्बा, गठीले शरीर का 18 वर्षीय लड़का सिद्धार्थ किचन में भागता हुआ आया। ‘‘मेरा स्किम्ड मिल्क कहाँ है ?...बाप रे !...मैं इको के लिए लेट हो रहा हूँ...और टोस्ट हमेशा की तरह जला हुआ है। संध्या...वहाँ उधर ऐसे बेवकूफों की तरह मत खड़ी रहो...मेरे लिए सैंडविच बनाओ...जल्दी...मॉम को बता देना, मैं बाद में ट्यूशन के लिए सीधे सूबी के घर जाऊँगा। और तुम...छोटी बन्दर...जाओ और अपने हाथ धोकर आओ...हमेशा की तरह गंदी...’’

दोनों लड़कियों ने पहले अपने भाई की ओर देखा, फिर एक-दूसरे की ओर। ‘‘भैया, तुम समय पर क्यों नहीं उठते हो ? अब यह मत कहना कि तुमने फिर से अलार्म क्लॉक तोड़ दी है ?’’

सिड ने फ्रिज खोला और मुँह बनाते हुए कहा, ‘‘सब्ज़ियाँ, सब्ज़ियाँ, सब्ज़ियाँ। कौन यह बेकार की चीजें खाता है ? हुं ! कौन ? देखो तो ज़रा...भिंडी, करेला, पालक, कद्दू। अरे ! मोटू तुम उन चिप्स से थोड़ा दूर ही रहो...मॉम को बोलो कि अच्छा-सा डिनर तैयार करें...ज़रा सूबी के यहाँ देखो, क्या मस्त खाना बनता है...मज़ेदार पाव-भाजी, नाचोस...हमारे यहाँ यह सब चीज़ें क्यों नहीं बनतीं ? उसकी मॉम इस संसार की सबसे अच्छी कुक हैं। उनकी बनायी क्रैब करी ! हे भगवान ! संध्या...ये बकवास केक बनाने बंद करो, कोई ढंग का अच्छा खाना बनाओ, कोई शानदार डिश बनाना सीखे...ओके...कुछ भी बढ़िया-सा, ओके, मैं चलता हूँ। बाद में मेरे टेनिस के कपड़े क्लब भिजवा देना...मॉम के घर आने तक, ढंग से रहो।’’

सिड चला गया। पिया अपने भाई के कमरे की ओर भागी। ‘‘मुझे मालूम था !’’ वह विजयी मुद्रा में ज़ोर-सा चिल्लायी। ‘‘बस, अब डैड के घर आने का इंतज़ार करो।’’ पिया की चीख सुनकर संध्या देखने आ गई कि ऐसा क्या हुआ है जो पिया इतना चिल्ला रही है ? हालाँकि उसे थोड़ा अंदाज़ा हो गया था।
‘‘टूट गयी क्या ?’’ उसने पूछा।

पिया खिलखिला उठा। ‘‘हाँ...और वो भी बीस टुकड़ों में, यह छठी बार है...अगले टर्म तक तो भैया दस घड़ियाँ दीवार पर फेंक चुके होंगे।

मॉम बहुत गुस्सा होंगी...पहले तुम्हारी...तुम्हारी...समस्या...फिर भैया की घड़ी। हे भगवान ! मुझे तो दूर ही रखना, कहीं इन सब चक्करों में मेरी गर्दन न फँस जाए।’’

संध्या ने अपनी छोटी बहन को गुस्से से देखा। ‘‘सुनो छोटी शैतान...मेरी दादी माँ बनने की कोशिश मत करो। यह मत भूलो कि तुम अभी बस नौ साल की ही हो...मुझसे पांच साल छोटी, और भैया से नौ साल, समझी ? अपने काम से काम रखो। मॉम से मैं बात कर लूँगी।’’
पिया फिर से चहकी। ‘‘और डैड ?’’

‘‘वो मॉम सम्हाल लेंगी...बस तुम इस सबसे दूर रहो, समझी।’’ संध्या ने पलट कर जवाब दिया।
‘‘ओके, दीदी, लेकिन याद रखना कि तुम मुझसे बहुत रुखाई से पेश आयी, बहुत ज़्यादा–जबकि मैं तो बस तुम्हारी थोड़ी-सी मदद करने की कोशिश कर रही थी। अगली बार तुम परेशानी में होगी तब मेरे पास मत आना...’’

पिया सुबक रही थी। संध्या पहले की ही तरह निर्विकार भाव से मैदे और अंडे का मिश्रण फेंटती रही। उसकी भौंहें जुड़ी हुई थीं। उसके माथे पर पहले से भी ज़्यादा बल पड़े हुए थे। वह सोच रही थी कि मॉम नाराज़ तो ज़रूर होंगी लेकिन वो अपनी तरफ से उन्हें मनाने की पूरी कोशिश करेगी। जब वो खुद से ही बातें कर रही थी, तभी किचन में उनकी काम वाली बाई गौरी, हाथ में धुले कपड़ों की बाल्टी लेकर आई। ‘‘बेबी...’’ वह कुछ कहने ही जा रही थी कि संध्या की आँखें खौंफ से बड़ी हो गईं।

‘‘ओह नो, गौरीबाई, तुमने फिर से वही किया। यह मेरी सबसे प्यारी टीशर्ट थी, मुझे अपनी बैडमिंटन क्लासेस में हमेशा यही पहननी होती है। यह तुमने क्या कर दिया ?’’

गौरी उस गुलाबी बाटिक टॉप जैसे दिख रहे कुपड़े को दोनों हाथों से ऊपर पकड़े हुए थी। ‘‘पिया के शॉर्टस...वो लाल वाले...उसका रंग इसको लग गया। मेरी गलती नहीं है बेबी, मैंने तो पिया को हज़ार बार बोला है कि रंगवाले कपड़े मत मिलाया करो !’’

संध्या ने केक का मिक्चर प्लेटफॉर्म पर रखा और आँखों में आँसू लिये वहाँ से चल दी। ‘‘यह ठीक नहीं है ...ठीक नहीं है...आज बहुत बुरा दिन है। पहले...पहले...स्कूल में वो समस्या...और...अब ये। मॉम आज मेरी जान ही ले लेंगी।’’ संध्या सीधे पिया और उसके बेडरूम की ओर भागी और अंदर जाकर उसने दरवाजा बंद कर लिया। उसे मालूम था कि पिया जल्दी ही दरवाज़ा खटखटाएगी और कुछ भी बेसिर-पैर का बहाना, जैसे हेयर बैंड चाहिए, कहकर कमरे में घुसेगी। जबकि वास्तविकता तो ये है कि वह अपनी बड़ी बहन को रोते हुए देखना चाहती है और क्या पता अगर भाग्य अच्छा हुआ तो छुप-छुप कर टेलीफोन पर उसकी बातें भी सुनने को मिल जाएँ। कुछ अवसर ऐसे होते हैं जब वो अपनी छोटी बहन से बहुत नफरत करती है। और यह एक ऐसा ही अवसर था।

‘‘चली जाओ।’’ संध्या सुबक रही थी, जब वही जानी-पहचानी खटखटाहट दरवाज़े पर होने लगी। ‘‘मैं अकेली रहना चाहती हूँ...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो...जाओ...अपनी उन गंदी गुड़ियों के साथ खेलो...’’ लेकिन खटखटाहट बंद नहीं हुई। संध्या चिल्लाई, ‘‘बंद करो...सुना तुमने ? चली जाओ...!’’
‘‘संध्या बेटी...मैं हूँ...मॉम ! ...क्या बात है ? जल्दी दरवाजा खोलो...’’

संध्या जैसे जड़ हो गई। हे भगवान ! मॉम घर पर क्या कर रही हैं ? वो तो 4 बजे हॉस्पीटल के ओ.पी.डी. (ऑउट पेशेंट्स डिपार्टमेंट) में होती हैं। और वे इस वक्त यहाँ हैं और अभी भी दरवाज़ा खटखटा रही हैं। संध्या घबरा कर अपनी डेस्क की ओर भागती है। जल्दी से अपना स्कूल बैग उठा कर पलंग की बड़ी ऊपर की ओर उभरी हुई चादर के नीचे छिपा देती है, जहाँ पहले से ही पिया की बिना धुली जीन्स मॉम के डर से छुपाई गई थी।

‘‘एक सेकंड, मॉम...बस कपड़े बदल रही हूँ।’’ चारों तरफ बेतरतीब सामान पर सरसरी निगाह डालते हुए संध्या ने झूठ बोला। उसने अपने चेहरे के हाव-भाव ठीक किए, आँखों से आँसू पोंछे, शीशे में अपने चेहरे को ध्यान से देखा कि कहीं कुछ पता तो नहीं चल रहा है और फिर दरवाजा़ खोला।

‘‘आहा...! आप तो बेहद खूबसूरत लग रही हैं।’’ उसने मॉम की चमकदार नारंगी साड़ी को देखकर कहा, जिस पर उन्होंने मैच करती कोरल ज्यूलरी भी पहनी थी। ‘‘मॉम, मुझे लगता है कि आपको साड़ी ही ज़्यादा पहननी चाहिए...।’’

अनुराधा, संध्या की मॉम, बच्चों के कमरे में आई और उसने खुद को आदमकद शीशे में देखा ‘‘याद है ? तुम्हारे डैड ने मुझे यह साड़ी पिछले साल दी थी जब वे चेन्नई से लौटे थे। हाँ, यह बहुत सुन्दर है, लेकिन तुम्हें पता है संध्या, ओ.पी.डी. ड्यूटी में साड़ियाँ मेरे लिए थोड़ी परेशानी बन जाती हैं...’’
संध्या अभी भी मॉम को निहार रही थी।

‘‘आप जब भी साडी पहनती हैं तो सचमुच की देवी लगती हैं, मॉम ! आपको साड़ियाँ ही पहननी चाहिए। आप उनमें बहुत खूबसूरत लगती हैं, डैड भी यही कहते हैं...मेरा कहने का मतलब ये नहीं है कि आप सलवार-कमीज में अच्छी नहीं दिखती हैं...लेकिन...साड़ी में तो आप कमाल की लगती हैं।’’

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