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कगार की आग

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 758
आईएसबीएन :9788126319794

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प्रस्तुत है हिमांशु जोशी का उत्कृष्ट उपन्यास...

kagar ki Aag

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

घास-फूस के टूटे कच्चे घर ! आकाश की झीनी छत ! धरती पर कच्ची मिट्टी की चादर ! दो जून रूखी-सूखी मिल पाना भी मुश्किल…! मर-मरकर जीने वालों की यह व्यथा-कथा आज का युग सत्य भी है, कहीं। ये रंगहीन/रंगीन चित्र किसी के रक्त से खिंची यन्त्रणा की रेखाएँ हैं। नाखूनों से कुरेदा हुआ अभिशप्त मानव का इतिहास।

आग की तपिश ही नहीं, इसमें हिम का दाह भी है। अनुभव की प्रमाणिकता और अनुभूति की गहनता ने इस कालजयी कृति को एक नया आयाम दिया है। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है शायद। बर्फीले पर्वतीय क्षेत्र की इस कथा में एक अंचल विशेष की धरती की धड़कन है, एक जीता-जागता एहसास भी। गोमती, पिरमा, कुन्नू के माध्यम से संत्रस्त मानव-समाज के कई चित्र उजागर हुए हैं। इसलिए यह कुछ लोगों की कहानी है, कहीं ‘सबकी कहानी’ बन गयी है—देश काल की परिधि से परे। डोगरी, उड़िया, पंजाबी मराठी, नेपाली, बर्मी, चीनी, नार्वेजियन, अँग्रेजी आदि में इसके अनुवाद हो चुके हैं। ‘आकाशवाणी’ से धारावाहिक प्रसारण एवं रंगमंच के माध्यम से नाट्य-रूपान्तरण भी। आस्ट्रेलिया तथा इटली के विश्वविद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक के रूप में भी यह वर्षों तक पढ़ाई जाती रही है। इस पर प्रसार भारती द्वारा एक फिल्म बनाई जा रही है।

साहित्य का अर्थ सत्य है तो इससे बड़ा सत्य और क्या होगा ? एक चुभती हुई यन्त्रणा, टूटे काँटे की अनी की तरह, जो निरन्तर कसकती रहे।

 

आरम्भ में

(पहले संस्करण से)

 

एक गाँव की कहानी है यह। गाँव का नाम कुछ भी हो सकता है। किसी भी नाम से पात्रों को सम्बोधित किया जा सकता है। क्या अन्तर पड़ता है इससे !
यह उन अभिशप्तों की जीवन-गाथा है, जो समाज द्वारा बहिष्कृत किये गये हैं, सदा के लिए तिरस्कृत !
सच पूछें तो दुख की साकार, सदेह प्रतिमाएँ हैं ये। दर्द के जीते—जागते पुतले ! गोमती, पिरमा, खिमु’ का-ये सारे चित्र यन्त्रणाओं की स्याह सफेद रेखाओं से चित्रित किये गये हैं, काल की तूलिका से !
वृद्ध खिमु’ का आज भी जीवित हैं-इस व्यथा-कथा के साक्षी। बित्तेभर की चौरस भूमि की ओर इंगित कर कहते हैं, ‘‘हाँआ, यहीं पर थी वह झोपड़ी, दो भाई रहते थे यहाँ। बड़े का नाम पिरमा था और छोटे का...।’’ इससे अधिक कुछ न कहकर, न जाने किस दृष्टि से शून्य में ताकते रहते हैं !
यहाँ अब ऊँची-ऊँची घास, दृष्टि के कँटीले पौधे उग आये हैं। फँइयाँ का नन्हा-सा नाज़ुक बिरवा मिट्टी की दीवार के उस पार झाँक रहा है।

आज भी दिन-रात धौंकनियाँ चल रही हैं। ठण्डा लोहा तप रहा है। गरम लोहे पर ठण्डे लोहे का आघात ! आग के छीटें बिखर रहे हैं।
दूर कहीं अन्धकार में एक मानवाकार छाया-सी आज भी कभी-कभी उभरती दिखलाई देती है तो लोग दहशत से घरों के किवाड़ मूँदकर छिप जाते हैं।
गोमती की यह सच्ची कहानी मैंने सच-सच नहीं लिखी। यदि सच लिखता तो लोगों को सच न लगती। इसलिए उसकी अन्तहीन यन्त्रणाओं को कहीं-कहीं से कम करने का अपराध-भर मैंने अवश्य किया है, ताकि यह सच्ची कहानी झूठी न लगे। गोमती अब कहाँ है ?
कुन्नु का क्या बना ?
मुझे स्वयं पता नहीं। हाँ, कुछ दिन पहले उस गाँव अवश्य गया था, जहाँ गोमती रहती थी कभी। उसकी वृद्धा माँ का अभी-अभी देहान्त हुआ है। लोगों से गोमती के विषय में पूछा तो कुछ भी पता न चला। गाँव के कुछ पढ़े-लिखे लोगों को अवश्य शिकायत थी कि मैंने उनके गाँव की अन्तरंग बातें जगजाहिर क्यों की ? अखबार में क्या लिखा ? गोमती के चरित्र पर लांछन क्यों लगाया ?

गोमती के चरित्र पर लांछन की भूल मैं कैसे कर सकता हूँ ? वह तो किसी भी सती-सावित्री से ऊँची थी !
इस उपन्यास पर पाठकों की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। गाँव की इस सीधी-सादी कहानी में ऐसा क्या है, जो उन्हें कहीं इतना गहरा छू रहा है।–मेरी समझ में यह बात अभी तक समझ में नहीं आयी। ‘छाया मत छूना मन’ के पश्चात् मेरे लिए एक और आश्चर्य है !
इसे मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि साधारण पाठकों के साथ-साथ प्रबुद्ध लोगों को भी यह कहानी रुचिकर लगी। पाठकों का जो अपरिमित स्नेह मुझे मिला, वह किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्या का विषय बन सकता है।
साहित्य में मैंने मनोरंजन के लिए नहीं, मिशन के रूप में लिया है। मेरा प्रयास रहा है कि असंख्य यन्त्रणाओं से घिरे गूँगे आदमी को स्वर मिले। यों मेरा दुख-दर्द उनके दुख-दर्द से अलग कहाँ है ? वस्तुतः उनके माध्यम से मैंने अपनी व्यथा को ही वाणी देने की कोशिश की है।
इन विवश लोगों की व्यथा आपको कुछ सोचने के लिए विवश करे तो समझूँगा कि मेरा प्रयास विफल नहीं रहा।

 

कगार की आग

(पाँचवें संस्करण पर)

 

‘कगार की आग’ को प्रकाशित हुए अब लगभग बीस वर्ष होने को आये हैं। इन दो दशकों की अवधि में कितना कुछ नहीं बदला ! आज सब एक सपना-सा लगता है।
मुझे याद आ रहा है, यह ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के ‘रजत जयन्ती विशेषांक’ में प्रकाशित हुआ था, तब पाठकों के पत्रों का कैसा अम्बार लगा था ! उन सैकड़ों पत्रों में एक पत्र यशपाल जी का भी था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि पहाड़ी जन-जीवन का बड़ा सशक्त सजीव चित्रण हुआ है, इस उपन्यास में। इस पर्वतीय अंचल को मैंने कई बार निकट से देखा है। वे अतीत की स्मृतियाँ इसे पढ़कर पुनःसाकार हो आयीं। हमारे यहाँ सभी पर्वतीय क्षेत्रों का जन-जीवन इसी तरह का है-संघर्षमय !

यशपाल जी मूलतः हिमाचल प्रदेश के थे।
कुछ वर्ष। बाद दिल्ली में ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। उसमें प्रायः सारे संसार से हिन्दी विद्वान/हिन्दी सेवी आये थे। इन्हीं में एक थे-चीन के पेइचिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक प्रो.ल्यु-को नान।
जब वे भारत से स्वदेश लौट रहे थे, मैंने भेंट-स्वरूप उन्हें एक पुस्तक प्रदान की।
जाते-जाते मैंने कहा, ‘‘इसे आपको दे तो रहा हूँ परन्तु पढ़िएगा नहीं। क्योंकि आंचलिक शब्दों की बहुतायत से आपको पढ़ने में कठिनाई होगी। एक मित्र के नाते मेरा कर्तव्य बन जाता है कि आपके प्रति कुछ भी ऐसा न करूँ जिससे आपको किंचित कष्ट हो...।
ल्यु-को नान की अपनी निश्छल हँसी में देर तक हंसते रहे थे। बात आयी-गयी हो गयी !
तभी कुछ महीने पश्चात एक दिन देखता हूँ, उनका एक पत्र मेरी मेज़ पर पड़ा है। कलात्मक ढंग से अपने हस्तलेख में, हिन्दी में लिखा है-
‘‘ ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ के समय आपने अपना उपन्यास ‘कगार की आग’ मुझे भेंट किया था। और इसे न पढ़ने का आग्रह किया था। पर सच कहूँ तो इसे आपने इतना अच्छा लिखा है कि मैं एक ही साँस में पूरा पढ़ गया। मुझे बहुत पसन्द आया। शायद इसीलिए कि इसकी कहानी मेरे ही परिवार की अपनी कहानी है। चीन में ‘मुक्ति आन्दोलन’ से पूर्व मेरी एक भानजी थी बहुत सुन्दर बहुत तेज। वह मुझे मामाजी कहकर पुकारती थी, हालाँकि उम्र में मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी। वह मेरी बहन की मँझली बेटी थी.....।

बचपन में अक्सर वह हमारे घर आया करती थी, और हम दोनों साथ-साथ खेलते थे। दौड़ने में, पेड़ पर चढ़कर अंगूर तोड़ने में, मछलियाँ पकड़ने में मैं हमेशा उससे पीछे रह जाता था। लेकिन वह बेचारी गरीब घर में जन्मी थी। पिता खेत मजदूर थे। माँ जमींदार के घर नौकरानी। हमारा घर स्वयं इतना गरीब था कि हम उनके परिवार की, चाहते हुए भी कोई मदद नहीं कर पाते थे।
‘‘एक दिन अनायास उसकी शादी हो गयी और वह रोती-रोती विदा हुई। पता चला कि उसका पति तो एकदम अन्धा है ! तब भानजी की उम्र केवल चौदह साल की थी। कई बार वह घर भाग आयी, लेकिन हर बार पकड़ी गयी और हर बार मार-मार अधमरी कर दी गयी। पर फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसकी हिम्मत कभी नहीं टूटी। आखिरकार वह भागने में एक दिन सफल हो गयी। कहाँ चली गयी, किसी को मालूम नहीं। न मेरे माता-पिता न मेरे बहन-बहनोई ही उसके बारे में कुछ जानना चाहते थे और न कोई इस सम्बन्ध में किसी से पूछता ही था। क्योंकि इस तरह औरत का भाग जाना, माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए कलंक समझा जाता था...।

‘‘मुक्ति के बाद मैं एक ज़मीन-सुधार दल में शामिल होकर पड़ोसी जिले में गया। वहाँ मुझे मालूम हुआ कि एक ज़मींदार से संघर्ष करते समय, उसके काले-कारनामे से मेरी प्यारी भानजी की जान चली गयी। आपका यह उपन्यास पढ़ते-पढ़ते मुझे अहसास होता रहा कि इसकी नायिका गोमती और कोई नहीं, मेरी ही दिवंगता भानजी है जो अब भी जीवित है, और विशाल भारत-भूमि में आज भी अपने बच्चे का हाथ थामे अँधियारे में, पता नहीं कहाँ जा रही है !
चीन में तो सुबह हो चुकी है, लेकिन वह बेचारी पता नहीं, कैसे भटकती-भटकती भारत पहुँच गयी ! क्या करें ?
‘‘आपको पत्र लिखने का मकसद यह है कि मैं अपनी प्यारी भानजी को अपने देश वापस बुलाना चाहता हूँ ताकि यहाँ चीन की उसकी बहनें उसकी दुखभरी राम-कहानी समझ सकें। पता नहीं, आप इज़ाजत देंगे...

अगर आप अनुमति दें तो मैं इसका मूल हिन्दी से चीनी में अनुवाद का कार्य आरम्भ करूँ ! अगर हाँ, तो उसके लिए एक भूमिका और अपना संक्षिप्त परिचय भेजना न भूलें...।
सुप्रसिद्ध बर्मी लेखक उ पारगू ने भी इसे मूल हिन्दी में पढ़ा। उन्होंने भी कहा, ‘‘यह तो हमारे देश बर्मा की जैसी कहानी है।’’
कोंकणी के लेखक चन्द्रकान्त केणी ने इसका बहुत वर्ष पूर्व कोंकणी में रूपान्तर किया था। मैंने कहा, आप अनुवाद से पूर्व स्थानीय बोली के शब्दों का अर्थ पूछ लेते तो अनुवाद और अधिक अच्छा होता....।
उन्होंने उत्तर दिया, हमारे समाज की परिस्थितियाँ पर्वतीय समाज से अधिक भिन्न नहीं। हमें कहीं यह अपने ही प्रदेश की जैसी कहानी लगती रही, इसलिए कठिनाई का प्रश्न कहाँ उठता ?
उड़िया की अग्रणी लेखिका डॉ. प्रतिभा राय ने मूल हिन्दी से इसका उड़िया में अनुवाद किया, जिसके दो संस्करण हुए। उनका कहना था कि मौलिक उड़िया लेखन के मुकाबले में यह पुस्तक अधिक बिकी। नारी-शोषण और सामाजिक विसंगतियों की स्थितियाँ वहाँ भी कमोबेश वैसी ही हैं...।

एक पत्रकार/लेखिका ने कहा था, आपातकाल के दौर में जब मैं मध्यप्रदेश के किसी जेल में थी, तब ‘साप्ताहिक’ में इसे पढ़ा था। मैंने ही नहीं, पचास से अधिक राजनीतिक बन्दियों ने भी। पढ़ते-पढ़ते इसके पन्ने बिखर गये थे। मैं ज़िन्दगी में दो ही बार रोयी, पहली बार जब मेरी माँ का निधन हुआ और दूसरी बार जब यह उपन्यास पढ़ा...।
एक अपेक्षित तिरस्कृत लोहारों के गाँव की इस साधारण-सी कहानी में ऐसा क्या है ? यह रहस्य समझ नहीं पाया। अब पूरे तीस चालीस वर्ष बीत रहे हैं, उस परिवेश को देखे। एक बार मन करता है, उस गाँव को फिर देखूँ, ! देखूँ वह गोमती कहाँ है, जिसके संघर्षों की गाथा, भारत में ही नहीं, चीन बर्मा, नार्वे आदि अनेक देश के वासियों को अपनी, नितान्त अपनी लगती है। क्यों ?

 

कगार की आग

(सातवें संस्करण पर)

 

निर्धूम अग्नि-ज्वाल !
बुरादे की आग ! सदैव सुलगती हुई !
आज लगभग तीस वर्ष बीत गये, पर उस आग की तपिस का अहसास अभी तक निरन्तर होता रहा है !
समय के साथ-साथ सारी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। गाँव भी अब वे गाँव नहीं रहे। न वे लोग ! न वे बातें ! लगता है, एक नये सपने, नये यथार्थ से साक्षात्कार हो रहा है ! मैं देख रहा हूँ—सारा गाँव उमड़ आया है। आस-पास के गावों के लोग भी ! गोमती सदेह, साक्षात खड़ी दिखलायी दे रही है। पिरमा ठण्ड से ठिठुरता हुआ, चीथड़ों में लिपटा, खम्भे के सहारे ! यह रजत-पट की गोमती है—वास्तविक गोमती से अधिक जीवन्त।
बिजली के हण्डे जल रहे हैं। बड़ा-सा मूवी कैमरा घूम रहा है, लोग कहते हैं—अब गोमती की यह कहानी दूर दूर तक जाएगी। कैमरे के माध्यम से भविष्य में भी जीवित रहेगी !
हम होंगे या नहीं, पर यह कहानी रहेगी !

 

हिमांशु जोशी

 

एक

 

पहले भी ऐसा ही हुआ था-रात के अँधियारे वह दो तीन बार भागकर आयी थी-अकेली। माँ ने तब भी इसी तरह अधीर स्वर में पूछा था, ‘गोमु, इस तरह ? साथ कोई नहीं..?
वृद्धा माँ के सूखे अधर किंचित खुल आये थे। झुर्रियों से ढके उस उदास चेहरे की ओर गोमती क्षण-भर देखती रही थी, मुझ अभागी को कौन छोड़ने आएगा इजा ! मौत भी तो नहीं आती !
बाँज के छिलके-सी अपनी रूखी हथेलियों में मुँह छिपाकर गोमती नन्ही बच्ची की तरह बिलख पड़ी।
माँ समझाती रही, औरत के लिए केवल वही घर है इजु ! जैसे भी हो अपनी घड़ी तुझे वहीं काटनी है। सब दिन एक-से तो नहीं रहते। कभी कुछ सह भी लिया कर...।
‘‘कब तक सहूँ इजा ?’’ तार-तार फटी, अपनी मैली-कुचैली कुरती का चाल उसने ऊपर उघाड़कर दिखलाया, यह देख, अब भी कहती है...! तूने पैदा होते ही मुझे ज़मीन में गाड़ क्यों नहीं दिया था..?
बेटी की फूल-सी कोमल देह में नीले-नीले निशान देखकर माँ का दिल दहल उठा। फटी पिछौड़ी के चाल में अपनी आँख के आँसू समेटती हुई बोली, ‘‘कैसे काने करम लेकर जनमी तू ! किन राकसों के पल्ले पड़ गयी अभागी ! नोच-नोचकर तुझे खा डालेंगे वे।

तरह-तरह के उदाहरण देकर माँ फिर समझाती रही, पर इस बार गोमती का मन कुछ अधिक उखड़ा हुआ था। उसके पति पिरमा के सामने ही ककिया ससुर ने उसे किनमोड़े की मोटी लाठी से पीटा था। ककिया सास उसका झोंटा पकड़कर बाज की तरह झपटी थी, जनिजौंसि राँड नौ घर का जूठन खाकर यहाँ चली आयी हैं ! नंगी नौंहाल ! एक खसम खा चुकी है बेशरम ! गोदलि कहती थी जलेबी के दोने खाती है ! जंगल के चौकीदार पतरौल के साथ कल वन में कहाँ जा रही थी ? घोड़िया डॉक्टर से क्या बातें कर रही थी ? हमारी इज्जत तूने मिट्टी में मिलाकर रख दी। अजब का जोबन चढ़ा है तुझ पर रण्डी !
लातों से, घूँसों से गोमती चुपचाप पिटती रही। धरम राम सरपंच गाँव न आये होते तो शायद सब मिलकर, उसे जान से ही मार डालते, पर उन्होंने किसी तरह बीच-बचाव कर छुड़ाया था।
पिरमा घुटने मोड़े बैठा था-गूँगे मिड़गू की तरह। माँ को यों पिटते देख कुन्नू दीवार से सटकर छिप गया था। भय से आतंकित रो भी न पा रहा था...।
पुराने पयाल की झीनी झोंपड़ी के एक कोने में पड़ी गोमती नन्हें कुन्नू को कलेजे से लगाये सिसकती रही और पास पड़ा पिरमा सारी रात खों-खों खाँसता रहा था।

गोमती किससे कहती ? कौन सुनता उसकी कि ‘घोड़िया डॉक्टर’ से वह पति के लिए दवा लेती है। उससे और कोई सम्बन्ध नहीं। जंगल में हफ्ते-भर से उसने पतरौल की सूरत तक नहीं देखी। गाँव की औरतों के साथ घास काटने जंगल गयी, उन्हीं के साथ लौटी। फिर गोदलि ने उसे कहाँ देखा ? कब ? बेशरम खुद ही पतरौल से बीड़ी माँग-माँगकर पीती थी। इसी बरसात में एक दिन अपनी आँखों से उसने गोदलि को देखा था-बीच वन में स्थित लीसेवालों की काठ की कोठरी से बाहर निकलते हुए। घाघरी का चाल भीगा था...। परन्तु देखकर भी अनदेखा कर दिया था गोमती ने !
कहीं गोमती किसी से कुछ कह न बैठे-इस भय से शायद गोदलि ने पहले ही उस पर लांछन लगा दिया हो। पर, अब इन खबीसों को क्या हो गया है !

अन्धकार में उसके सामने ककिया ससुर-कलिय’ का का डरावना चेहरा घूमने लगा। शराबियों की जैसी बड़ी-बड़ी लाल आँखें ! घनी मूँछे ! जिन्दा दैंत।
पिरमा से सौ बार कह चुकी है-तुम्हारे कका की नज़र अच्छी नहीं। इनके मन में पाप उपज गया है। बड़ी गन्दी निगाह से देखते हैं।
लेकिन पिरमा ने हमेशा की तरह जैसे इस बात को भी सुना नहीं, तू तो निरी बावली है ! इतने बूढ़े पर शक करती है ? तुझे पाप लगेगा। परलोक बिगड़ेगा तेरा। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे ? बिना बात थू-थू !
यह सुनकर गोमती मन मसोसकर रह गयी थी। पिरमा पागल है-परमहंस निरीह पशु ! सबको पता है। कका बैल की तरह ज़िन्दगी भर उसे जोते रहे। जब तक एक परिवार में रहे, खाना भी कभी भर पेट नहीं दिया। रूखा-सूखा, जूठा-पीठा, टूटी-फूटी थाली में फेंक दिया। पहनने के लिए अपने बेटे तेजुवा के उतारे चीथड़े !
इधर कुछ दिनों से अकल शायद कुछ अधिक ही मारी गयी है बुढ़ऊ की। पिरमा को रोज रात को आलू के खेतों की रखवाली के लिए भेज देते हैं। उसकी सारी रात ‘आ लो लो, छेपो-छेपो ! हाड् च-अ ! हाड् च-अ ! कर शौली को भगाने में ही बीत जाती है। पल-भर के लिए भी आँख लगी नहीं कि सारा खेत चौपट...
जब सब सो जाते हैं, सारा गाँव मशान-सा सूना हो जाता है, बूढ़े ककिया ससुर कलिया अँधियारे में दबे पाँव उसकी टूटी झोपड़ी के छीने कपाट टटोलने लगते हैं। दो-तीन बार वह दुत्कार चुकी है, पर कुत्ते की तरह फिर-फिर मुड़कर देखने से बाज नहीं आते !

परसों रात जब किवाड़ खोल ही लिये तो उसे कुछ सूझा नहीं कि क्या करे ? सिरहाने पर रखी हँसिया उसने अन्धकार में जोर से फेंककर दे मारी !
तब कहीं दुम दबाकर भागे निरलज्ज !
सुबह किसी ने पूछा, ‘कलिय’ का, माथे पर चोट कैसे लगी ? तो कहते थे-पाँव फिसल जाने से गिर पड़ा यार ! अँधियारे में अब बिलकुल आँख से नहीं देखता !

तब से बदला लेने की ताक में थे और वह भी कल ले ही लिया। पत्नी को सिखलाकर तैयार किया। गोदलि को गुड़ खिलाया और फिर रचा यह महाभारत...!
आग के उसे लिटाकर अम्मा उसके दुखते घावों को गरम कपड़ें से सेंकती रही। खाने के लिए आज कुछ भी न था घर में। तवे पर गरम राख डालकर, सोयाबीन-भट् के कुछ दाने भूनकर दोनों ने चख लिये और ऊपर से लोटा-लोटा भर ठण्डा पानी गटकर आँखें मूँद लीं। बूढ़ी माँ के हाथ-पैर अब अधिक चल न पाते थे। इसलिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी सम्भव न रहा था। महीने में कई-कई ‘एकादसियाँ’ हो जातीं।
पता नहीं रात का कौन-सा पहर बीत रहा था ! बुझी आग के पास गुदड़ी में लिपटी गोमती को नींद न आ पा रही थी। इतनी बड़ी दुनिया में उसे कहीं, कोई ठौर नज़र न आ रही थी। पति पगला-विक्षिप्त। न सास, न ससुर। एक देवर- वह भी लाम में। मैके में टूटे किवाड़ खोलने के लिए अकेली बूढ़ी विधवा माँ। आज मरी कि कल !
कई बार आत्महत्या का विचार आया। सोचा-दुल्ल के अगास को छूते ऊँचे पेड़ पर रस्सी बाँधकर लटक जाए। हजार झंझटों से छुटकारा मिल जाएगा, पर कुन्नू का निरीह चेहरा बीच में दीवार की तरह आ खड़ा होता। नन्हें-नन्हें हाथ ! दूधिया दाँत ! वह उलझ पड़ती-अन्धकार में कुछ टटोलती हुई।..पिरमा के ठूँठ-से काले हाथ उसका फटा आँचल पकड़ लेते....। उसे पता है-कलिय’का क्या चाहते हैं-

गोमती किसी के साथ कहीं भाग जाए या नदी में डूब मरे और पिरमा खरीदे हुए गुलाम की तरह ज़िन्दगी-भर उनकी चाकरी करे। वह मरे तो उसके हिस्से की ज़मीन ‘वारिस’ बनकर स्वयं हथिया लें। गजार के तलाऊँ तीन खेत उन्हीं के पास तीन बीसी रुपये में रहन पड़े हैं-पिरमा की माँ के क्रिया-कर्म के समय से ! और भी बहुत कुछ है, हथियाने के लिए !
तेजुवा उस दिन पोखरी की दुकान में डंके की चोट से कहता था-पिरुमुआ पागल मरे तो गोमती राँड़ को अपने घर में रख लूँगा..

अपना रूप-रंग अपने को ही अभिशाप-सा लग रहा था उसे। गोमती सोचती रही कि नोच-नोचकर अपना चेहरा कुरूप कर ले। देवदार के जलते छिलके से झुलस ले। परमेसर भी कितना कठोर है ? इतना रूप उसे न देता तो आज वह सब न भुगतना पड़ता-! बाहर के ही नहीं, घर के भीतर के भी सब दुश्मन हो गये हैं !
‘‘अभी सोयी नहीं गोमु ?’’ माँ ने करवट बदलते हुए पूछा।
‘‘नींद नहीं आ रही इजा !’’ गोमती ने यों ही उखड़े-उखडे स्वर में उत्तर दिया।
तेरे देवर देबिया की लाम से कोई चिट्ठी-पतरी आयी ?
‘‘इधर बहुत दिनों से कुछ नहीं। माघ-फागुन में एक चिट्ठी ज़रूर मिली थी। तुलिया बतला रहा था कि किसी दूसरी जगह बदली हो गयी है तब से कुछ नहीं।
‘‘पैसा-पाई तो फिर क्या भेजा होगा ?’’

‘‘द, कहाँ से ? पहले दो-तीन महीने में नोन-तेल के लिए कुछ भेज देते थे, पर अब वह भी नहीं। हमारी जान को तो ये सब दुश्मन लग गये हैं। कौन जाने किसी ने कोई ऐसी-वैसी चिट्ठी न भेज दी हो ! वह चुप हो गयी, कहती-कहती।
‘‘मल्ले घर ठुल कका की लड़की धरी का कुछ पता-पानी मिला इजा ?’’ गहरा मौन तोड़ती हुई गोमती बोली।
कहाँ चला ? माँ ने अनिच्छा से उत्तर दिया, कहते हैं टनकपुर में किसी नाई के घर बैठ गयी है !
ठुल कका की लड़की धरी और गोमती कभी सच्ची सहेलियाँ थीं। देवीधूरे के मेले में उस साल वे साथ-साथ गयी थीं। सारी-सारी रात उन्होंने झोंटे गाये थे ! हुड़के की ताल पर थिरकती रही थीं-उड़ती रही थीं-हवा में ! कहाँ गये अब वे दिन ?
घुटनों को ठोड़ी से मिलाये गोमती पता नहीं कहाँ भटक गयी थी !



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