जीवनी/आत्मकथा >> काशी के विद्यारत्न संन्यासी काशी के विद्यारत्न संन्यासीबलदेव उपाध्याय
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परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री गौड़ स्वामी की जीवनगाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री गौड़ स्वामी
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में विद्यानगरी
काशी में
भाष्यान्त व्याकरण के अध्यापक वैयाकरण, न्याय के तर्ककर्कश तार्किक,
मीमांसा मर्मज्ञ तथा वेदान्त के विलक्षण आलोचक लोकातीत वैदुष्य के धनी एक
संन्यासी महाराज विराजते थे जिनका नाम था–परमहंस
परिव्राजकाचार्य
श्री गौड़ स्वामी। गुरु द्वारा दीक्षाकाल में दिया गया नाम तो
था–तारक ब्रह्मानन्द सरस्वती परन्तु जनसाधारण में ये गौड़
स्वामी के
नाम से ही नितान्त विश्रुत थे। इस नाम का एक मुख्य हेतु भी था। काशी में
दाक्षिणात्य संन्यासियों का ही उस युग में बाहुल्य था। एतद्देशीय गौड़
ब्राह्मण को चतुर्थाश्रम में दीक्षित करने वाले संन्यासियों का नितान्त
अभाव था। परन्तु इनकी विद्याबुद्धि एवं तपोनिष्ठा से प्रसन्न होकर गुरुजी
ने इन्हें संन्यासाश्रम में दीक्षित किया था। ये गौड़ ब्राह्मणों में
संन्यास से दीक्षित किए जाने वाले व्यक्तियों में एक प्रकार से प्रथम थे।
इसी हेतू ये इस नाम से विभूषित किए गए थे। इनके गृहस्थ एवं संन्यासी
प्रौढ़ शिष्यों का एक विशाल समूह ही था जो इनके आश्रम पर निवास करता था
तथा भिक्षाटन के समय भी इनसे अध्ययन करता रहता था। सुना है कि जब गौड़
स्वामीजी दाहिने हाथ में भिक्षापात्र तथा बायें हाथ में पाठ्यग्रन्थ के
पत्रों को लेकर पढ़ाते हुए भिक्षाटन के लिए दलबल के साथ निकलते थे, तो
काशी की सँकरी गलियों में पण्डितों का जमावड़ा हो जाता और उधर से आवागमन
ही रुक जाता था। जो देखता, वह इस भव्य दृश्य को देखकर अचंभित हो जाता। ऐसे
थे हमारे चरितनायक काशी नगरी के मूर्धन्य विद्वान् गौड़ स्वामीजी। गौड़
स्वामीजी की जीवनगाथा की खोज में जब सुदर्शन-सम्पादक पण्डित माधवप्रसाद
मिश्र ने काशी के व्याकरण-धुरन्धर पण्डित विभवरामजी सारस्वत से जिज्ञासा
की, तब उनकी दशा का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया
है–‘‘पण्डितजी का गला भर आया। कुछ कहना
चाहा, पर कह न
सके। अन्त में हिचकियों को थमा, आँखों को पोंछ, जी को कड़ा कर कहा भी तो
वाष्पावरुद्ध कण्ठ से इतना ही कि गुरुजी के गुण वर्णनातीत हैं। कौन कह
सकता है ? निःसन्देह जब वयोवृद्ध, तपोवृद्ध एवं विद्यावृद्ध पण्डित
विभवराम नहीं कह सकते, तो और की क्या सामर्थ्य है ? पण्डित विभवराम वे
हैं–जो महाविद्वान् वार्धक्य के एकमात्र अवलम्बन पुत्ररत्न का
स्वर्गवास होने पर भी विचलित नहीं हुए। परन्तु गुरुवियोग का गुरुतर दुःख
उन्हें भी दुःख दे रहा था।’’
इन्हीं महामहिमाशाली परिव्राजकाचार्य और गौड़ स्वामीजी की जीवनगाथा यहाँ संक्षेप में दी जा रही है, विद्वानों के मनन तथा अनुसंधान के लिए।1
गौड़ स्वामीजी का जन्म पंजाब के पटियाला रियासत के ‘शनोवर’ नामक गाँव में एक मध्यमवर्गीय गौड़ ब्राह्मण के घर में हुआ था। इनके पिता का नाम था–जयगोपाल मिश्र। बालक का नाम था भगवानदत्त। बड़े होने पर पढ़ने में इनकी अभिरुचि रही। पिताजी से आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की। माता-पिता ने इन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा। 12 साल की उम्र में ही इनका विवाह कर दिया। पिताजी की बिना सूचित किए ही ये पढ़ने के लिए घर से निकल पड़े और होशियारपुर जिले में ‘मदूद’ गाँव के निवासी पण्डित केशवराम सारस्वत से तीन-चार वर्षों तक पढ़ते रहे। केशवरामजी ने काशी में विद्याभ्यास किया था और प्रसिद्ध वैयाकरण भैरव मिश्र (परिभाषेन्दुशेखर की भैरवी व्याख्या के कर्त्ता) से व्याकरण का अध्ययन किया था। यहाँ आकर काव्य, नाटक, पुराण आदि के समझने की योग्यता इन्होंने प्राप्त कर ली। ‘विचारसागर’ रचयिता निश्चलदासजी ने भी आरम्भ में इन्हीं से संस्कृत का अध्ययन किया था। भगवानदत्त अब प्रौढ़ शिक्षा के निमित्त काशी आए और यहाँ के वरिष्ठ पण्डितों से नानाशास्त्रों का अध्ययन अनेक वर्षों तक करते रहे। इस युग के प्रख्यात वैयाकरण पं. काकाराम पण्डित से व्याकरण, सखाराम भट्ट से वेदान्त तथा पण्डित चन्द्रनारायण भट्टाचार्य से न्याय का विधिवत् अध्ययन किया और इन शास्त्रों में अभिनन्दनीय प्रौढ़ि प्राप्त कर ली। बीस साल में इन विद्याओं के अध्ययन तथा मनन से शास्त्रीय तत्त्वचिन्तन में गम्भीर वैदुष्य प्राप्त कर घर लौटे। माता-पिता की प्रसन्नता की सीमा न रही और सबसे अधिक प्रसन्नता की लहर उस युवती के जीवन में उठने लगी जिससे इनका बालकपन में ही विवाह हुआ था।
पण्डित जयगोपाल मिश्र अपने पण्डित पुत्र को पटियाले के बड़े-बड़े सरदारों के पास ले गए, परन्तु उन लोगों ने उनका सत्कार नहीं किया। उनकी अवहेलना से भगवानदत्त का चित्त अत्यन्त विरक्त हो गया और वे संन्यास लेने के निमित्त घर से निकल पड़े अपनी पत्नी को एक विशेष कार्य के निमित्त जाने की सूचना देकर ही। साथ में तीन ग्रन्थों को भी ले लिया–अद्वैतसिद्धि, गौड़ब्रह्मानन्दी तथा शास्त्रदीपिका। इन ग्रन्थों के प्रति आग्रह होने से भगवानदत्तजी की दार्शनिक अभिरुचि तथा आध्यात्मिक सम्मान का सद्यः परिचय प्राप्त होता है। ये तीनों ही ग्रन्थ वेदान्त तथा मीमांसा के चूड़ान्त ग्रन्थ होने का गौरव रखते हैं। अद्वैतसिद्धि प्रख्यात अद्वैतवेदान्ती स्वामी मधुसूदन सरस्वती (16 शती) की सर्वाधिक महनीय दार्शनिक कृति है। गौड़ब्रह्मानन्दी भी इसी प्रकार ब्रह्मानन्द सरस्वती (17 शती) की अद्वैततत्त्वप्रतिपादिका पाण्डित्यपूर्ण रचना है। शास्त्रदीपिका मीमांसकमूर्धन्य मैंथिल विद्वान पार्थसारथि मिश्र (1050 ई.–1120 ई.) की प्रौढ़ तत्त्वबोधिनी रचना है जो भाट्टसम्प्रदाय के इतिहास में अद्वितीय मानी जाती है। भगवानदत्तजी ने अपनी धर्मपत्नी को आश्वासन देते हुए कहा कि मेरे माता-पिता की सेवा प्रेम तथा सत्कार के साथ करना और मैं अपने विशेष स्वार्थ की सिद्धि के लिए बाहर जा रहा हूँ। मेरे लिए किंचिन्मात्र भी चिन्तित न होना।
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1. द्रष्टव्य विशुद्धचरितावली, पृ. 8-9, माधवमिश्र, निबन्ध माला, प्रथम भाग, प्रकाशक-इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, 1992, वि. (1935 ई.)
अपने गन्तव्य स्थान का वे निर्णय बहुत पहिले ही कर चुके थे। संन्यासाश्रम में दीक्षित होना उनका चरम लक्ष्य था। काशी की दशा वे देख ही चुके थे। दाक्षिणात्म संन्यासी गौड़ ब्राह्माणों को संन्यास दीक्षा देने से सर्वथा विरत रहते थे। जातीय विद्वेष ही इसका कारण माना जाता था। फलतः उन्होंने काशी की ओर न जाकर दक्षिण की ओर ही प्रस्थान किया। इस लालसा से कि उधर ही कहीं सुयोग्य वीतराग संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ले लेंगे। उन्होंने नासिक जाने का निर्णय किया। गोदावरी के पावन तट पर विराजमान नासिक केवल धार्मिक तीर्थ ही न था, अपितु संस्कृत के विद्वानों एवं साधु-सन्तों के समागम से पवित्र होने वाला पावन स्थल भी था। यहीं रहकर वे छात्रों तथा सुबुद्ध विद्वानों को भी संस्कृत के शास्त्रों का अध्यापन करने लगे। उनकी कीर्ति पूरे मण्डल में व्याप्त हो गई और सुदूर स्थानों से भी जिज्ञासु छात्रों की टोली जुटने लगी। नासिक में ही एक सुबुद्ध विरक्त संन्यासी रहते थे। उनके सामने पण्डितजी ने अपनी अभिलाषा प्रकट की। संन्यासी महोदय ने इनकी विद्याबुद्धि तथा सात्त्विक आचार-विचार से प्रभावित होकर बिना ‘ननु-नच’ किए ही इन्हें संन्यास की दीक्षा दी। अब इनका नाम भगवानदत्त मिश्र से बदलकर स्वामी प्रदत्त तारक ब्रह्मानन्द सरस्वती हो गया। साधारण जनता इन्हें ‘पण्डित स्वामी’ के अभिधान से संबोधित करने लगी। ‘पण्डित स्वामी’ जी ने नासिक में बीस वर्षों तक अध्यापन किया। यहीं पर इनकी अध्यापन कला की कीर्ति से आकृष्ट होकर दूर-दूर से छात्र आने लगे। यहीं पर पहले-पहल पं. वंशीधर शुक्ल, जो आगे विशुद्धानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, स्वामीजी से मिले और तीन वर्षों तक निष्ठापूर्वक अध्ययन के द्वारा वेदों का गम्भीर वैदुष्य प्राप्त कर लिया। इस समय के शिष्यों में प्रमुख थे–धारा के गणेश शास्त्री, इन्दौर के गणू शास्त्री, अच्युतानन्द, सच्चिदानन्द तथा नृसिंह स्वामी जो स्वामीजी के काशी आगमन पर उनके साथ यहाँ आए और अपनी अवशिष्य शिक्षा का समापन काशी में किया। यहाँ आने पर गौड़ स्वामी को एक और भी विद्वान् शिष्य मिला जिसके दर्शन-मात्र से चित्त को शान्ति मिलती थी, मन में वैराग्य उपजता था, हृदय भक्तिभाव से पूर्ण होता था और अन्तःकरण की दुर्वासना दूर होती थी। इस दयासागर शान्तपूर्ति शिष्य का नाम स्वामी विश्वरूपानन्द था। अहिल्याबाई की धर्मशाला में गौड़ स्वामी ने अपना डेरा डाला। राजाओं की ओर से एक विशिष्ट मठ के स्थापन का प्रस्ताव इन्होंने ठुकरा दिया। धर्मशाला को स्वामीजी ने अपना आवास तथा पाठशाला दोनों ही बनाया। धर्मशाला की पहिली मंजिल विद्यार्थियों के वेदाध्ययन, व्याकरण, न्याय, वेदान्त आदि के प्रारम्भिक अध्ययन के कारण गूँजने लगी तथा दूसरी मंजिल में संन्यासियों की मण्डली विराजमान रहती थी तथा वेदान्त का अनुशीलन करती थी।
पण्डित वंशीधर शुक्ल ने इस पाठशाला का स्वयं निरीक्षण किया। तब देखा कि वेदान्त के आलोचक संन्यासियों के बीच गौड़ स्वामीजी सुशोभित हैं। वे वृद्ध हो गए थे, परन्तु उनके हृष्ट-पुष्ट और मांसल शरीर को देखकर यही प्रतीत होता था कि उनकी वय तीस-चालीस वर्ष से अधिक न होगी। उनकी उज्ज्वल दृष्टि, उन्नत ललाट, विशाल वक्षःस्थल, प्रलम्ब भुजाएँ और गम्भीर वाणी उनके पूर्वाचरित ब्रह्मचर्य की ज्ञापक थीं। उनके दोनों कान श्वेत रोमावली से आच्छादित थे जिन्हें देखने ये यही बोध होता था मानो जरा देवी बलीयान् तपस्वी शिष्यों के भय से अब इन्हें अन्तिम गुप्त संवाद सुना रही हों। स्वामीजी की प्रशान्त गम्भीर आकृति मात्र के देखने से यही जान पड़ता था कि ये शान्ति के आधार, क्षमा तथा सन्तोष के आगार, सत्स्वभाव के आश्रय, धर्म के प्रवर्तक एवं सन्मार्ग के दर्शक हैं। ऐसे स्वामीजी के सामने नतमस्तक होकर वंशीधरजी ने साष्टांग प्रणाम किया। पूछने पर अपना परिचय दिया तथा संन्यास आश्रम में स्वामीजी से दीक्षा लेने के लिए अपने मनोगत भाव को प्रकट किया। गौड़ स्वामीजी ने कलिकाल में संन्यास धर्म के यथावत् परिपालन में साधकों की असमर्थता की बात कह सुनाई। वंशीधर ने अपने चरित्र की स्वच्छता तथा मन की विमलता का अपने शब्दों से परिचय दिया। बहुत दिनों तक कठिन परीक्षा लेने पर शिष्य की योग्यता से प्रभावित होकर स्वामीजी ने उन्हें संन्यास में दीक्षित किया और उनका नाम विशुद्धानन्द रख दिया।
स्वामी विश्वरूप और स्वामी विशुद्धानन्द के अतिरिक्त गौड़ स्वामीजी के दो और भी संन्यासी शिष्य थे–एक थे विश्वेश्वरानन्द तथा दूसरे शंकरानन्द। विश्वेश्वरानन्द का पूर्व आश्रम का नाम कन्हैयालाल था। वे सारस्वत और गयावाल ब्राह्मण थे। उस समय सुवर्ण-सिद्धि के लिए वे नाना जड़ी-बूटियों को बटोर लाते, उनका रस निकालते तथा ताँबा पर रगड़ने का अभ्यास करते, परन्तु अभीप्सित परिणाम कभी सिद्ध नहीं हुआ। सुनते हैं–गौड़ स्वामीजी शिष्यों के साथ एक बार रामनगर गए, साथ में कन्हैयालाल भी थे। रास्ते में उगी एक जड़ी की ओर उन्होंने उखाड़ लेने का संकेत किया। कन्हैयालाल उसे उखा़ड़ लाए और स्वामीजी ने उन्हें पूछने पर बताया कि यही उनके आर्थिक लोभरूपी व्याधि की रामबाण दवा है। उन्होंने जड़ी का रस निकाला, ताँबे पर उसे मला। आश्चर्यचकित नेत्रों से उन्होंने देखा कि वह चमचमाता सोना हो गया–पक्का सोना। कन्हैयालाल का चित्त इस घटना से नितान्त बदल गया। अपनी सारी सम्पत्ति छात्रों में बाँटकर वे स्वामीजी के अनन्य भक्त बन गए। संन्यास-दीक्षा लेकर वे ‘विश्वेश्वरानन्द’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
इन्हीं महामहिमाशाली परिव्राजकाचार्य और गौड़ स्वामीजी की जीवनगाथा यहाँ संक्षेप में दी जा रही है, विद्वानों के मनन तथा अनुसंधान के लिए।1
गौड़ स्वामीजी का जन्म पंजाब के पटियाला रियासत के ‘शनोवर’ नामक गाँव में एक मध्यमवर्गीय गौड़ ब्राह्मण के घर में हुआ था। इनके पिता का नाम था–जयगोपाल मिश्र। बालक का नाम था भगवानदत्त। बड़े होने पर पढ़ने में इनकी अभिरुचि रही। पिताजी से आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की। माता-पिता ने इन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा। 12 साल की उम्र में ही इनका विवाह कर दिया। पिताजी की बिना सूचित किए ही ये पढ़ने के लिए घर से निकल पड़े और होशियारपुर जिले में ‘मदूद’ गाँव के निवासी पण्डित केशवराम सारस्वत से तीन-चार वर्षों तक पढ़ते रहे। केशवरामजी ने काशी में विद्याभ्यास किया था और प्रसिद्ध वैयाकरण भैरव मिश्र (परिभाषेन्दुशेखर की भैरवी व्याख्या के कर्त्ता) से व्याकरण का अध्ययन किया था। यहाँ आकर काव्य, नाटक, पुराण आदि के समझने की योग्यता इन्होंने प्राप्त कर ली। ‘विचारसागर’ रचयिता निश्चलदासजी ने भी आरम्भ में इन्हीं से संस्कृत का अध्ययन किया था। भगवानदत्त अब प्रौढ़ शिक्षा के निमित्त काशी आए और यहाँ के वरिष्ठ पण्डितों से नानाशास्त्रों का अध्ययन अनेक वर्षों तक करते रहे। इस युग के प्रख्यात वैयाकरण पं. काकाराम पण्डित से व्याकरण, सखाराम भट्ट से वेदान्त तथा पण्डित चन्द्रनारायण भट्टाचार्य से न्याय का विधिवत् अध्ययन किया और इन शास्त्रों में अभिनन्दनीय प्रौढ़ि प्राप्त कर ली। बीस साल में इन विद्याओं के अध्ययन तथा मनन से शास्त्रीय तत्त्वचिन्तन में गम्भीर वैदुष्य प्राप्त कर घर लौटे। माता-पिता की प्रसन्नता की सीमा न रही और सबसे अधिक प्रसन्नता की लहर उस युवती के जीवन में उठने लगी जिससे इनका बालकपन में ही विवाह हुआ था।
पण्डित जयगोपाल मिश्र अपने पण्डित पुत्र को पटियाले के बड़े-बड़े सरदारों के पास ले गए, परन्तु उन लोगों ने उनका सत्कार नहीं किया। उनकी अवहेलना से भगवानदत्त का चित्त अत्यन्त विरक्त हो गया और वे संन्यास लेने के निमित्त घर से निकल पड़े अपनी पत्नी को एक विशेष कार्य के निमित्त जाने की सूचना देकर ही। साथ में तीन ग्रन्थों को भी ले लिया–अद्वैतसिद्धि, गौड़ब्रह्मानन्दी तथा शास्त्रदीपिका। इन ग्रन्थों के प्रति आग्रह होने से भगवानदत्तजी की दार्शनिक अभिरुचि तथा आध्यात्मिक सम्मान का सद्यः परिचय प्राप्त होता है। ये तीनों ही ग्रन्थ वेदान्त तथा मीमांसा के चूड़ान्त ग्रन्थ होने का गौरव रखते हैं। अद्वैतसिद्धि प्रख्यात अद्वैतवेदान्ती स्वामी मधुसूदन सरस्वती (16 शती) की सर्वाधिक महनीय दार्शनिक कृति है। गौड़ब्रह्मानन्दी भी इसी प्रकार ब्रह्मानन्द सरस्वती (17 शती) की अद्वैततत्त्वप्रतिपादिका पाण्डित्यपूर्ण रचना है। शास्त्रदीपिका मीमांसकमूर्धन्य मैंथिल विद्वान पार्थसारथि मिश्र (1050 ई.–1120 ई.) की प्रौढ़ तत्त्वबोधिनी रचना है जो भाट्टसम्प्रदाय के इतिहास में अद्वितीय मानी जाती है। भगवानदत्तजी ने अपनी धर्मपत्नी को आश्वासन देते हुए कहा कि मेरे माता-पिता की सेवा प्रेम तथा सत्कार के साथ करना और मैं अपने विशेष स्वार्थ की सिद्धि के लिए बाहर जा रहा हूँ। मेरे लिए किंचिन्मात्र भी चिन्तित न होना।
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1. द्रष्टव्य विशुद्धचरितावली, पृ. 8-9, माधवमिश्र, निबन्ध माला, प्रथम भाग, प्रकाशक-इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, 1992, वि. (1935 ई.)
अपने गन्तव्य स्थान का वे निर्णय बहुत पहिले ही कर चुके थे। संन्यासाश्रम में दीक्षित होना उनका चरम लक्ष्य था। काशी की दशा वे देख ही चुके थे। दाक्षिणात्म संन्यासी गौड़ ब्राह्माणों को संन्यास दीक्षा देने से सर्वथा विरत रहते थे। जातीय विद्वेष ही इसका कारण माना जाता था। फलतः उन्होंने काशी की ओर न जाकर दक्षिण की ओर ही प्रस्थान किया। इस लालसा से कि उधर ही कहीं सुयोग्य वीतराग संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ले लेंगे। उन्होंने नासिक जाने का निर्णय किया। गोदावरी के पावन तट पर विराजमान नासिक केवल धार्मिक तीर्थ ही न था, अपितु संस्कृत के विद्वानों एवं साधु-सन्तों के समागम से पवित्र होने वाला पावन स्थल भी था। यहीं रहकर वे छात्रों तथा सुबुद्ध विद्वानों को भी संस्कृत के शास्त्रों का अध्यापन करने लगे। उनकी कीर्ति पूरे मण्डल में व्याप्त हो गई और सुदूर स्थानों से भी जिज्ञासु छात्रों की टोली जुटने लगी। नासिक में ही एक सुबुद्ध विरक्त संन्यासी रहते थे। उनके सामने पण्डितजी ने अपनी अभिलाषा प्रकट की। संन्यासी महोदय ने इनकी विद्याबुद्धि तथा सात्त्विक आचार-विचार से प्रभावित होकर बिना ‘ननु-नच’ किए ही इन्हें संन्यास की दीक्षा दी। अब इनका नाम भगवानदत्त मिश्र से बदलकर स्वामी प्रदत्त तारक ब्रह्मानन्द सरस्वती हो गया। साधारण जनता इन्हें ‘पण्डित स्वामी’ के अभिधान से संबोधित करने लगी। ‘पण्डित स्वामी’ जी ने नासिक में बीस वर्षों तक अध्यापन किया। यहीं पर इनकी अध्यापन कला की कीर्ति से आकृष्ट होकर दूर-दूर से छात्र आने लगे। यहीं पर पहले-पहल पं. वंशीधर शुक्ल, जो आगे विशुद्धानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, स्वामीजी से मिले और तीन वर्षों तक निष्ठापूर्वक अध्ययन के द्वारा वेदों का गम्भीर वैदुष्य प्राप्त कर लिया। इस समय के शिष्यों में प्रमुख थे–धारा के गणेश शास्त्री, इन्दौर के गणू शास्त्री, अच्युतानन्द, सच्चिदानन्द तथा नृसिंह स्वामी जो स्वामीजी के काशी आगमन पर उनके साथ यहाँ आए और अपनी अवशिष्य शिक्षा का समापन काशी में किया। यहाँ आने पर गौड़ स्वामी को एक और भी विद्वान् शिष्य मिला जिसके दर्शन-मात्र से चित्त को शान्ति मिलती थी, मन में वैराग्य उपजता था, हृदय भक्तिभाव से पूर्ण होता था और अन्तःकरण की दुर्वासना दूर होती थी। इस दयासागर शान्तपूर्ति शिष्य का नाम स्वामी विश्वरूपानन्द था। अहिल्याबाई की धर्मशाला में गौड़ स्वामी ने अपना डेरा डाला। राजाओं की ओर से एक विशिष्ट मठ के स्थापन का प्रस्ताव इन्होंने ठुकरा दिया। धर्मशाला को स्वामीजी ने अपना आवास तथा पाठशाला दोनों ही बनाया। धर्मशाला की पहिली मंजिल विद्यार्थियों के वेदाध्ययन, व्याकरण, न्याय, वेदान्त आदि के प्रारम्भिक अध्ययन के कारण गूँजने लगी तथा दूसरी मंजिल में संन्यासियों की मण्डली विराजमान रहती थी तथा वेदान्त का अनुशीलन करती थी।
पण्डित वंशीधर शुक्ल ने इस पाठशाला का स्वयं निरीक्षण किया। तब देखा कि वेदान्त के आलोचक संन्यासियों के बीच गौड़ स्वामीजी सुशोभित हैं। वे वृद्ध हो गए थे, परन्तु उनके हृष्ट-पुष्ट और मांसल शरीर को देखकर यही प्रतीत होता था कि उनकी वय तीस-चालीस वर्ष से अधिक न होगी। उनकी उज्ज्वल दृष्टि, उन्नत ललाट, विशाल वक्षःस्थल, प्रलम्ब भुजाएँ और गम्भीर वाणी उनके पूर्वाचरित ब्रह्मचर्य की ज्ञापक थीं। उनके दोनों कान श्वेत रोमावली से आच्छादित थे जिन्हें देखने ये यही बोध होता था मानो जरा देवी बलीयान् तपस्वी शिष्यों के भय से अब इन्हें अन्तिम गुप्त संवाद सुना रही हों। स्वामीजी की प्रशान्त गम्भीर आकृति मात्र के देखने से यही जान पड़ता था कि ये शान्ति के आधार, क्षमा तथा सन्तोष के आगार, सत्स्वभाव के आश्रय, धर्म के प्रवर्तक एवं सन्मार्ग के दर्शक हैं। ऐसे स्वामीजी के सामने नतमस्तक होकर वंशीधरजी ने साष्टांग प्रणाम किया। पूछने पर अपना परिचय दिया तथा संन्यास आश्रम में स्वामीजी से दीक्षा लेने के लिए अपने मनोगत भाव को प्रकट किया। गौड़ स्वामीजी ने कलिकाल में संन्यास धर्म के यथावत् परिपालन में साधकों की असमर्थता की बात कह सुनाई। वंशीधर ने अपने चरित्र की स्वच्छता तथा मन की विमलता का अपने शब्दों से परिचय दिया। बहुत दिनों तक कठिन परीक्षा लेने पर शिष्य की योग्यता से प्रभावित होकर स्वामीजी ने उन्हें संन्यास में दीक्षित किया और उनका नाम विशुद्धानन्द रख दिया।
स्वामी विश्वरूप और स्वामी विशुद्धानन्द के अतिरिक्त गौड़ स्वामीजी के दो और भी संन्यासी शिष्य थे–एक थे विश्वेश्वरानन्द तथा दूसरे शंकरानन्द। विश्वेश्वरानन्द का पूर्व आश्रम का नाम कन्हैयालाल था। वे सारस्वत और गयावाल ब्राह्मण थे। उस समय सुवर्ण-सिद्धि के लिए वे नाना जड़ी-बूटियों को बटोर लाते, उनका रस निकालते तथा ताँबा पर रगड़ने का अभ्यास करते, परन्तु अभीप्सित परिणाम कभी सिद्ध नहीं हुआ। सुनते हैं–गौड़ स्वामीजी शिष्यों के साथ एक बार रामनगर गए, साथ में कन्हैयालाल भी थे। रास्ते में उगी एक जड़ी की ओर उन्होंने उखाड़ लेने का संकेत किया। कन्हैयालाल उसे उखा़ड़ लाए और स्वामीजी ने उन्हें पूछने पर बताया कि यही उनके आर्थिक लोभरूपी व्याधि की रामबाण दवा है। उन्होंने जड़ी का रस निकाला, ताँबे पर उसे मला। आश्चर्यचकित नेत्रों से उन्होंने देखा कि वह चमचमाता सोना हो गया–पक्का सोना। कन्हैयालाल का चित्त इस घटना से नितान्त बदल गया। अपनी सारी सम्पत्ति छात्रों में बाँटकर वे स्वामीजी के अनन्य भक्त बन गए। संन्यास-दीक्षा लेकर वे ‘विश्वेश्वरानन्द’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
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