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एक ठग की दास्तान

फिलिप मिडोज टेलर

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7707
आईएसबीएन :978-81-8361-263

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आतंक का पर्याय बने ठगों में सर्वाधिक प्रसिद्ध अमीर अली के विभिन्न रोमांचकारी अभियानों पर आधारित तथ्यपरक आत्मकथात्मक उपन्यास...

Ek Thag ki Dastan - A Hindi Book - by Filip Midoz Teilar

700 से अधिक हत्याएँ करके अपराध के महासिन्धु में डूबा हुआ अमीर अली जेल में सामान्य बन्दियों से पृथक् बड़े ठाट-बाट से रहता था। वह साफ कपड़े पहनता, अपनी दाढ़ी सँवारता और पाँचों वक्त की नमाज अदा करता था। उसकी दैनिक क्रियाएँ नियमपूर्वक चलती थीं। अपराधबोध अथवा पश्चात्ताप का कोई चिह्न उसके मुख पर कभी नहीं देखा गया। उसे भवानी की अनुकम्पा और शकुनों पर अटूट विश्वास था। एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा था कि भवानी स्वयं उसका शिकार उसके हाथों में दे देती है, इसमें उसका क्या कसूर ? और अल्लाह की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। उसका यह भी कहना था कि यदि वह जेल में न होता तो उसके द्वारा शिकार हुए यात्रियों की संख्या हजार से अधिक हो सकती थी।


प्रस्तुत पुस्तक ‘एक ठग की दास्तान’ 19वीं शताब्दी के आरम्भकाल में मध्य भारत, महाराष्ट्र तथा निजाम के समस्त इलाकों में सड़क-मार्ग से यात्रा करनेवाले यात्रियों के लिए आतंक का पर्याय बने ठगों में सर्वाधिक प्रसिद्ध अमीर अली के विभिन्न रोमांचकारी अभियानों की तथ्यपरक आत्मकथा है। इसे लेखक ने स्वयं जेल में अमीर अली के मुख से सुनकर लिपिबद्ध किया है।

औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत अत्यधिक मनोरंजक आत्मकथात्मक पुस्तक।

‘‘शरफुन, यह नादानी है और बच्चों जैंसा आचरण है। हम एक-दूसरे को क्यों प्रताड़ित करें ? तुमने मेरा इरादा सुन लिया, और अब तुम मुझे चाहे दिल्ली का सिंहासन दे दो तो मैं उस पर तुम्हारे साथ भले बैठ जाऊँ, परन्तु मेरा हृदय उसी का रहेगा, जिसका उस पर अधिकार है। इस दशा में, तुम और मैं दोनों सन्ताप के समुद्र में सदैव डूबे रहेंगे। इस समय भी तुम्हारा हृदय ईर्ष्या से जल रहा है। सोचो, तब तुम्हारे आवेग की क्या दशा होगी, जब तुम उस व्यक्ति से संलाप करोगी, जिससे तुम इस समय भी घृणा करती हो और जिसे तुम मुझसे पृथक् करने में अफसल रही हो।’’


‘‘मुझे तुम्हारी किसी बात की परवाह नहीं। मुझे किसी परिणाम की भी चिन्ता नहीं। इस विषय को लेकर अपने जीवन और अपनी नेकनामी को स्थिर कर लिया। खतरा उठाकर भी मुझे शरण में ले लो। जहाँ तक तुम्हारी पत्नी का प्रश्न है, मुझे उससे कोई नफरत नहीं होगी। क्या हमारा मजहब चार पत्नियाँ रखने की इजाजत नहीं देता ? हमारे पवित्र कुरान में क्या यह नहीं लिखा ? तुम इससे इनकार नहीं कर सकते। औरत होने पर भी मैं सब जानती हूँ। अज़ीमा को मैं बहन का प्यार दूँगी। जहाँ तक तुम्हारे बच्चों का प्रश्न है, मैं तुम्हारे लिए उनको भी प्यार करूँगी। क्या उनके पीछे दौलत और भावी प्रतिष्ठित जीवन को ठुकरा दोगे ? अरे भले आदमी, क्या तुमने अपना होश खो दिया ? देखो, मैं तुम्हारे साथ कितनी शान्ति से बात कर रही हूँ और तुम्हारे सामने तर्क रखती हूँ कि यदि तुम्हारी बहन होती तो क्या होता ?’’


–इसी पुस्तक से  

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