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दुल्हन बाजार

रॉबिन शॉ पुष्प

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 771
आईएसबीएन :81-7457-251-1

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प्रस्तुत है दुल्हन बाजार....

Dulhan Bajar-A Hindi Book BY Robin Shaw Pushp

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक

यहाँ इश्क पान की तरह पेश किया जाता है। यही तो खासियत है दुल्हन बाज़ार की।.....पुराना शौकीन है, तो काली पत्ती ....पीली पत्ती वगैरह.....वगैरह ....।
नया है तो हीरा मोती....पान बहार....इलायची यानी मीठा पान। इन्हें इस बात की खूब पहचान है, कि कौन तीखा पसन्द करता है, कौन मीठा, अब दो साल पहले सन्नों ने सिरिल के आगे इश्क का पान पेश किया या नहीं, कहा नहीं जा सकता और किस को तीखा या मीठा। इसका भी मुझे सही पता नहीं।

वैसे दो साल पहले सिरिल अपनी मां और बहिन के साथ इस बाज़ार में आया आप कुछ ऐसा, वैसा नहीं सोचिए पिता की मृत्यु के बाद हालात कुछ ऐसे हुए कि गाँव छोड़ना प़ड़ा। इस शहर में मकान की तलाश में भटकता रहा। जाकर इसी मुहल्ले में मकान मिला। नीचे एक कमरा ऊपर दूसरा। नीचे वाले को उसने स्टूडियों बना दिया। ऊपर रहने सोने के लिए फोटोग्राफी से दाल रोटी। पेटिंग से मन हल्का होता। गाहे-बेगाहे पोट्रेस के भी आर्डर मिल जाते। जब पोट्रेट का आर्डर मिलता। तो सिरिल कुछ ज्यादा ही खुश होता लकड़ी के फ्रेम पर बड़े यतन से कैनवस ठोकता। पेंसिल से स्केच बनाता। फिर रंग और ब्रश...शुरू-शुरू में उसे लगता था। कि इन वेश्याओं का जीवन भी कैनवस की तरह। हर रात, इस कैनवस पर लोग इश्क, मुहब्बत के खा़के खीचते हैं, सुबह सब गायब। फिर वहीं खाली-खाली सादा-सादा कैनवस। मगर सन्नों ....? और सन्नों के बारें में सोचते-सोचते बजाए ग्राहक की तश्वीर के वह कभी पाँव में घुँघरू, कभी सारंगी, कभी तबले के चित्र बना देता। यह सब शुरू-शुरू में होता था। अब नहीं।

पहले एक बात और होती थी।
जब वह किसी काम से बाजार की तरफ निकलता तो अक्सर हां चौराहे पर बनी त्रिमूर्ति के आगे ठहर जाया करता था त्रिमूर्ति यानी तीन शेरोवाली मूर्ति। उसे ऐसा लगता था, कि वे तीनों शेर इस चौराहे पर पहरा दे रहे है। एक दिन ये शेर अपने असली रूप अख़्तियार कर लेंगे और एक न एक दिन ऐसे लोगों को फाड़ कर खा जायेंगे। जो रात के अंधेरे में नारी शरीर को नोंच-नोंच कर खाते हैं।

यह पहले की बात है। तब सिरिल ऐसा सोचा करता था। मगर अब उसने इस त्रिमूर्ति का दूसरा ही अर्थ लगा लिया है। यानी जिस जगह ये शेर दिखे। समझ लो उस इलाके में रात में शहर के बड़े-बड़े शेर निकलते हैं.... फिर चीर फाड़ खून-गोश्त....और पेट भर जाने पर लौट जाते है। अपनी-अपनी मांद में। ये शेर कोई निशान नहीं छोडते। सुबह पता ही नहीं चलता कि कौन शेर किधर से आया था। अब इस त्रिमूर्ति से सिरिल को डर लगने लगा है। कहीं शहर भर के शेर सन्नो को पकड़कर खा न जाये इन्हीं शेरों की वजह से दोंनों के बीच खट-पट भी हो जाया करती है।
आज मैं, आप को सिरिल और सन्नो उर्फ़ तवायफ शहनाज की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। अगर सिरिल नहीं आता इस मुहल्ले में, तो क्या सन्नों की वहीं कहानी होती, जो पहले कभी जानी थी। एक मामूली से आर्टिस्ट के आ जाने से कितना कुछ बदल गया है इस कथा में। तो कहानी शुरू करूँ.....

मगर एक बाधा आ गयी यह बाँधा है-श्रीकान्त उसने यहाँ आकर ‘गायिका –रक्षा-समिति’ नहीं बनायी होती तो क्या कुछ घटित हो जाता इस दुल्हन बाजार में।और इवा यानी इवलिन यानी सिरिल की बहन उसके कारण भी बहुत कुछ गड़बड़ हो गया है। फिर किसकी कहानी कहूं। सन्नो, सिरिल, श्रीकान्त, या इवा की ? या फिर सबकी ? यदि सबकी तो आरम्भ किससे करूँ ? कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। सामने सादे पृष्ठ पड़े है खाली-खाली कैनवस की तरह सादा कैनवस। चलिए इसी से कहानी शुरू करता हूँ। सादे कैनवस पर सिरिल एक पेंटिग बनाता है।...यानी

ज़ख्म तो हमने इन आँखों में देखे हैं,
लोंगों से सुनते है मरहम होता है !’

दो


चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर सिरिल घर की ओर लौट चला, अधरों पर मुस्कान और आँखों में चमक। उसकी कला का समुचित मूंल्यांकन हुआ था।........‘होली और दुल्हन’ पर प्रथम पुरस्कार। फूल सी नाजुक नारी। पलकों में बोलते हुए आँसू। हथेली पर मुस्कराती हुई मेंहदी। माँग में लजाता हुआ सिंन्दूर और अधरों पर चांदनी सी हँसी। चार कहारों के कंधों पर एक जिंदगी जा रही है किसी दूसरे को नया जीवन देने। और करीब ही खड़ी हैं एक दीवार ....गिरती हुई बिल्कुल अकेली ....पराजित-सी सिरिल खुश है।

उसकी माँ उसकी बहन और शायद सन्नो की भी खुशियों का ठिकाना नहीं रहेगा। तभी वह उदास हो जाता है ....वह एक मामूली सा आर्टिस्ट हैं जो पैसों की तंगी से एक गंदे से बाजार में एक घटिया सी दुकान किए बैठा है। प्रथम पुरस्कार प्राप्त कलाकार ....मगर इतनी भी आमदनी नहीं कि माँ और बहिन का पेट भर सकें...एक मकान के दो हिस्से ..ऊपर घर नीचे स्टूडियों। वैसे बहुत सारे पड़ोसी हैं, मगर जो सबसे अच्छा हैं दरअसल वहीं बुरा है।

अभी वह स्टूडियों में घुसा ही था कि सन्नों दौड़ती हुई आ गयी। पाँव में घुँघरू एक संगीत उभरा और उसके ठहरते ही थम गया।

सिरिल ने जीती हुई ट्राफी मेज पर रख दी और पटकते हुए कहा कितनी बार मना किया है घुँघरु-उंगरु पहन कर यहाँ मत आया करो। ये तुम्हारा कोठा नहीं आर्टिस्ट का स्टूडियों है। लेकिन तुम्हें कुछ याद रहे तब न।
सन्नों हल्ले से मुस्कुराई...वैसे कुछ चीज़े मुझे याद रहती है।..... जैसे तुम।’’ और वहीं मेज पर बैठ कर अपने पैर हिलाने लगीं। घुँघरुओं की आवाज कमरे में भर गई।
सिरिल ने थोड़ी नाराजगी से कहा- ‘‘प्लीज सन्नों इसे बन्द करों। घुँघरुओँ की आवाज से मेरा सर फटने लगता है।’’
-‘‘मगर सिरिल हमारे उस्ताद जी तो कहते हैं कि घुँघरुओं की आवाज हमारे लिए अजान से बढ़कर है।’’
सिरिल की आवाज़ में और तल्ख़ी आ गयी जाने किस पाप की सजा है कि इस मुहल्ले में मकान  मिला....और मकान भी ऐसा’’....

जिसकी दीवार और तवायफ़ की दीवार एक है। बस, एक दीवार का फर्क। लेकिन यह फर्क जितना बड़ा है सिरिल...मैं जानती हूँ तुम एक ग़रीब फ़नकार हो। अपनी माँ और छोटी बहन को लेकर इस गन्दे मुहल्ले में रहने के लिए मजबूर हो....लेकिन मेरा यकीन करो, मैं तुमसे भी ज्यादा गरीब और लाचार हूँ। तुम सिर्फ अपना फन बेचते हो और मैं ?....मैं तो फ़न के साथ-साथ अपने आप को भी बेच देती हूँ। यह जग बहुत बड़ा व्यापारी है सिरिल एक तरफ पानी और रंगों से बनाई हुई तुम्हारी तस्वीरें खरीदता है तो दूसरी तरफ लहूँ और मांस से बनाया हुआ खुदा का फ़न। अब मैं सब समझ गई हूँ सिरिल, किसी दिन अगर गलती से खुदा इस जमीन पर आ जाएगा, तो यह जग उसका भी सौदा कर लेगा।’’
-‘‘तुम कौन सा सौदा करके आई हो ? ’’सिरिल ने पहली जैसी नाराजगी से पूछा।
ज़माने के आगे गिरवी रखी हुई चीज़ क्या सौदा करेंगी सिरिल ? मैंने अभी-अभी खिड़की से देखा कि तुम आ रहे हो, सो रियाज़ बन्द कर तुम्हें मुबारक बाद देने आ गई।’’

-‘‘शुक्रिया।’’
सन्नो ने ट्राफी को हाथों में लेकर चूम लिया- ‘‘बहुत खूबसूरत तस्वीरे बनाते हो मेरी भी एक बना दो न ...।
-‘‘मेरे पास वक्त नहीं है।’’
-‘‘लेकिन एक छोटा-सा जवाब देने का तो वक्त होगा।’’
-‘‘बोलों।’’
इस बार गम्भीरता से सन्नो ने प्रश्न किया।-‘‘तुम ईसाई हो न।’’
‘‘हूँ’’

-‘‘और शायद तुम्हारे ही मज़हब में हज़रत ईसा ने फरमाया है, कि जो एक गाल पर चाटा मारे उसकी तरफ़ दूसरा भी....।’’
एक गन्दी लड़की से ईसा के वचन सुनकर सिरिल के मुँह में कड़वाहट भर आई। -‘‘देखों मेरा वक्त जाया मत करो। अब तुम इतनी गिर गई हो कि ....।’’
‘‘थूकने को भी जी नहीं चाहता यहीं, न। मगर मैं उठी ही कब थी। सिरिल, इस समाज ने तो इस बुरी तरह से कमर तोड़ रखी है कि उठना चाहकर भी उठना मुमकिन नहीं है। सभी तो रात के अंधेरे में मुहब्बत करते हैं, मगर दिन के उजाले में नफरत। एक तुम थे सो तुमने भी...।’’ और सन्नो सिसकने लगी। न चाहते हुए भी सिरिल ने उसे बांहों का सहारा दिया।  

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