उपासना एवं आरती >> यज्ञ साधना यज्ञ साधनाकेदारनाथ मिश्र
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भारतीय समाज में यज्ञ साधना का क्या महत्व है इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
एक लम्बे अन्तराल के बाद आपके समक्ष पुनः प्रस्तुत हूँ। कभी-कभी अपनी
इच्छा होते हुए भी वांछित कार्य तमाम प्रयासों के बाद भी सम्पादित नहीं
किये जा सकते। इसके मूल में भगवती की सदिच्छा ही सर्वोपरि है। मेरे साथ तो
ऐसा प्रायः ही होता रहता है। अस्तु इस अन्तराल में भी उस परासत्ता ने अनेक
खट्टे-मीठे अनुभवों को झोली में डाला, जिन्हें भविष्य में यथा समय आपके
समक्ष प्रस्तुत किया जाता रहेगा।
यज्ञ जैसी विधा का प्रचार-प्रसार और उसके साथ कदाचार भी आज के युग में खूब किया जा रहा है। एक ओर तो यज्ञ को पूर्णतया वैज्ञानिक प्रक्रिया मानकर उसका यशोगान किया जा रहा है, तो दूसरी ओर इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को त्रुटिहीन बनाने के स्थान पर त्रुटियों की भरमार कर दी गयी है। यह भी नहीं सोचा जा रहा है कि वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार प्रत्येक सत्क्रिया की सत्प्रक्रिया और गलत क्रिया की गलत प्रक्रिया होती है, किन्तु व्यवहार में इस बात की घोर उपेक्षा की जा रही है जो हमारे लिए लाभदायक नहीं हो सकती है।
कहीं तिल, चावल, जौ मिलाकर हवन किया जा रहा है, तो कहीं बाजार में बिकने वाली रेडीमेड, कूड़े-कचरे वाली पैकिट को स्वाहा किया जा रहा है। हवन के सराजाम (सड़े सामान) को बेचने वालों की कमी नहीं है, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि जब सभी देवताओं के वाहन अलग-अलग हैं, उनके आयुध, वस्त्र और नैवेद्य (प्रिय वस्तुएँ) अलग-अलग हैं, तो सबकी हवन सामग्री कैसे एक हो सकती है और उसमें से कूड़े-कचरे वाली हवन सामग्री किसको पसन्द है ? यह हमारी सद्भावना का ही एक नमूना है कि सारा कूड़ा-कचरा भगवान् को प्रदान कर बदले में अत्युत्तम पदार्थों (स्वर्गादि) की कामना कर रहे हैं, जबकि यह सभी लोग जानते हैं कि यज्ञदेव (अग्निदेव) ऐसे महाप्रभु है, जो अपने पास कुछ भी बचाकर नहीं रखते, जो कुछ भी उन्हें समर्पित किया जाता है, उसे गुणित कर विश्व-वायुमण्डल में प्रवाहित कर देते हैं। तब उनको दिया हुआ कूड़ा-कचरा यदि वापस हमें ही मिलता है, तो इसमें बुराई ही क्या है ?
‘यज्ञ’ हमारे भारतीय ऋषिवरों के लक्ष-लक्ष वर्षों के अनुसंधान का परिणाम है, किन्तु बड़े ही कष्ट का विषय है कि आज जितना दूषित इस प्रक्रिया को कर दिया गया है, शायद ही किसी अन्य विधा को इतना विकृत किया गया हो। वैसे तमाम संस्थाएँ आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विधा के प्रचार-प्रसार के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रही हैं। वैज्ञानिक शोधों के द्वारा भी इसे सटीक प्रमाणित किया जा चुका है। ‘यज्ञोपैथी’ नाम से इसे पाश्चात्य वैज्ञानिक भी मान्यता प्रदान कर चुके हैं किन्तु आश्चर्य तो तब होता है, जब इसे अति वैज्ञानिक प्रक्रिया करार देने वाले व्यक्ति और संस्थाएँ भी इसमें आज के समाज के द्वारा प्रचलित अति गम्भीर त्रुटियों की ओर से आँखें मूँद लेते हैं।
‘प्रत्येक क्रिया की समान प्रतिक्रिया होती है’ यह विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। सुविदित तथ्य यह है कि क्रिया के अनुकूल ही उसकी प्रतिक्रिया होगी। जल में मीठा मिलाने पर ही उसका स्वाद मीठा होता है। नमक मिलाने पर तो उसका स्वाद नमकीन हो जायेगा। ठीक इसी प्रकार जब हम उचित यज्ञकुण्ड में, उचित आसन पर उचित ढंग से आसीन होकर, उचित सामग्री से, उपयुक्त ढंग से, उपयुक्त मात्रा में आहुतियाँ प्रदान करेंगे, तो निश्चित ही परिणाम अभीष्ट आयेंगे, अन्यथा नहीं। लोहे और ताँबे के पात्र में हवन करने का सख्त निषेध किया गया है, किन्तु जब हम लोहे के पात्र में आग जलाकर कूड़े-कचरे वाली रेडीमेड हवन सामग्री झोंक देते हैं तो दुःख, कष्ट, व्याधियाँ ही हाथ आयेंगी। आज के लोग (विद्वान और यजमान) धुएँ-धक्कड़ से बचने हेतु जल्दी-जल्दी काम निपटाकर कृतकृत्य हो जाना चाहते हैं। अस्तु ऐसी स्थिति में परिणाम क्या आयेगा, हमें स्वयं विचारना चाहिए।
‘यज्ञ’ के विषय में इस छोटी-सी पुस्तक में सम्पूर्ण जानकारी तो नहीं दी जा सकती, किन्तु आज के समय में एक सामान्य साधक के लिए जितना जानना आवश्यक है, वह सब कुछ इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का शास्त्र-सम्मत प्रयास किया गया है। यज्ञ-कुण्ड निर्माण से लेकर शाकल्य-निर्माण पर्यन्त सब-कुछ इसमें क्रमशः सुव्यवस्थित ढंग से दिया गया है।
‘यज्ञ विज्ञान’ एक उत्कृष्ट कृति है। ऐसा उन बहुत से विद्वानों का मत है, जिन्होंने इसकी विषय-वस्तु का अवलोकन किया है। हवन के प्रत्येक पहलू को छूने का, उसकी विवेचना का और उसमें व्याप्त भ्रान्ति निवारण का इसमें पूर्ण प्रयास किया गया है। ऐसे में त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं।
एक बात और, पूरी पुस्तक आद्योपान्त पढ़ें, कई बार पढ़ें। हो सकता है आपके मन में किसी पृष्ठ पर उठे प्रश्न का उत्तर किसी अन्य पृष्ठ पर मिल जाये। फिर भी यदि कोई जिज्ञासा शेष रहे तो सदैव की भाँति आपकी जिज्ञासा का समाधान करके मुझे परम प्रसन्नता प्राप्त होगी।
यज्ञ जैसी विधा का प्रचार-प्रसार और उसके साथ कदाचार भी आज के युग में खूब किया जा रहा है। एक ओर तो यज्ञ को पूर्णतया वैज्ञानिक प्रक्रिया मानकर उसका यशोगान किया जा रहा है, तो दूसरी ओर इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को त्रुटिहीन बनाने के स्थान पर त्रुटियों की भरमार कर दी गयी है। यह भी नहीं सोचा जा रहा है कि वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार प्रत्येक सत्क्रिया की सत्प्रक्रिया और गलत क्रिया की गलत प्रक्रिया होती है, किन्तु व्यवहार में इस बात की घोर उपेक्षा की जा रही है जो हमारे लिए लाभदायक नहीं हो सकती है।
कहीं तिल, चावल, जौ मिलाकर हवन किया जा रहा है, तो कहीं बाजार में बिकने वाली रेडीमेड, कूड़े-कचरे वाली पैकिट को स्वाहा किया जा रहा है। हवन के सराजाम (सड़े सामान) को बेचने वालों की कमी नहीं है, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि जब सभी देवताओं के वाहन अलग-अलग हैं, उनके आयुध, वस्त्र और नैवेद्य (प्रिय वस्तुएँ) अलग-अलग हैं, तो सबकी हवन सामग्री कैसे एक हो सकती है और उसमें से कूड़े-कचरे वाली हवन सामग्री किसको पसन्द है ? यह हमारी सद्भावना का ही एक नमूना है कि सारा कूड़ा-कचरा भगवान् को प्रदान कर बदले में अत्युत्तम पदार्थों (स्वर्गादि) की कामना कर रहे हैं, जबकि यह सभी लोग जानते हैं कि यज्ञदेव (अग्निदेव) ऐसे महाप्रभु है, जो अपने पास कुछ भी बचाकर नहीं रखते, जो कुछ भी उन्हें समर्पित किया जाता है, उसे गुणित कर विश्व-वायुमण्डल में प्रवाहित कर देते हैं। तब उनको दिया हुआ कूड़ा-कचरा यदि वापस हमें ही मिलता है, तो इसमें बुराई ही क्या है ?
‘यज्ञ’ हमारे भारतीय ऋषिवरों के लक्ष-लक्ष वर्षों के अनुसंधान का परिणाम है, किन्तु बड़े ही कष्ट का विषय है कि आज जितना दूषित इस प्रक्रिया को कर दिया गया है, शायद ही किसी अन्य विधा को इतना विकृत किया गया हो। वैसे तमाम संस्थाएँ आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विधा के प्रचार-प्रसार के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रही हैं। वैज्ञानिक शोधों के द्वारा भी इसे सटीक प्रमाणित किया जा चुका है। ‘यज्ञोपैथी’ नाम से इसे पाश्चात्य वैज्ञानिक भी मान्यता प्रदान कर चुके हैं किन्तु आश्चर्य तो तब होता है, जब इसे अति वैज्ञानिक प्रक्रिया करार देने वाले व्यक्ति और संस्थाएँ भी इसमें आज के समाज के द्वारा प्रचलित अति गम्भीर त्रुटियों की ओर से आँखें मूँद लेते हैं।
‘प्रत्येक क्रिया की समान प्रतिक्रिया होती है’ यह विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। सुविदित तथ्य यह है कि क्रिया के अनुकूल ही उसकी प्रतिक्रिया होगी। जल में मीठा मिलाने पर ही उसका स्वाद मीठा होता है। नमक मिलाने पर तो उसका स्वाद नमकीन हो जायेगा। ठीक इसी प्रकार जब हम उचित यज्ञकुण्ड में, उचित आसन पर उचित ढंग से आसीन होकर, उचित सामग्री से, उपयुक्त ढंग से, उपयुक्त मात्रा में आहुतियाँ प्रदान करेंगे, तो निश्चित ही परिणाम अभीष्ट आयेंगे, अन्यथा नहीं। लोहे और ताँबे के पात्र में हवन करने का सख्त निषेध किया गया है, किन्तु जब हम लोहे के पात्र में आग जलाकर कूड़े-कचरे वाली रेडीमेड हवन सामग्री झोंक देते हैं तो दुःख, कष्ट, व्याधियाँ ही हाथ आयेंगी। आज के लोग (विद्वान और यजमान) धुएँ-धक्कड़ से बचने हेतु जल्दी-जल्दी काम निपटाकर कृतकृत्य हो जाना चाहते हैं। अस्तु ऐसी स्थिति में परिणाम क्या आयेगा, हमें स्वयं विचारना चाहिए।
‘यज्ञ’ के विषय में इस छोटी-सी पुस्तक में सम्पूर्ण जानकारी तो नहीं दी जा सकती, किन्तु आज के समय में एक सामान्य साधक के लिए जितना जानना आवश्यक है, वह सब कुछ इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का शास्त्र-सम्मत प्रयास किया गया है। यज्ञ-कुण्ड निर्माण से लेकर शाकल्य-निर्माण पर्यन्त सब-कुछ इसमें क्रमशः सुव्यवस्थित ढंग से दिया गया है।
‘यज्ञ विज्ञान’ एक उत्कृष्ट कृति है। ऐसा उन बहुत से विद्वानों का मत है, जिन्होंने इसकी विषय-वस्तु का अवलोकन किया है। हवन के प्रत्येक पहलू को छूने का, उसकी विवेचना का और उसमें व्याप्त भ्रान्ति निवारण का इसमें पूर्ण प्रयास किया गया है। ऐसे में त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं।
एक बात और, पूरी पुस्तक आद्योपान्त पढ़ें, कई बार पढ़ें। हो सकता है आपके मन में किसी पृष्ठ पर उठे प्रश्न का उत्तर किसी अन्य पृष्ठ पर मिल जाये। फिर भी यदि कोई जिज्ञासा शेष रहे तो सदैव की भाँति आपकी जिज्ञासा का समाधान करके मुझे परम प्रसन्नता प्राप्त होगी।
-पं. केदारनाथमिश्र
ज्योतिषाचार्य
ज्योतिषाचार्य
1
यज्ञ विज्ञान : भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठतम् धरोहर
मन्त्रोपासना का चतुर्थ महत्त्वपूर्ण अंग ‘हवन’
भारतीय
संस्कृति की समस्त विश्व को अनुपम देन है। मानव-मन की विभिन्न अवस्थाओं का
अध्ययन, मनन, चिन्तन, मानव शरीर व जीवन की विभिन्न विसंगतियों का अघ्ययन,
विश्लेषण, तद्नुसार प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर यज्ञ विद्या की खोज और
परिष्कृत रूप में उसका प्रक्रियात्मक परीक्षण व प्रस्तुतीकरण भारतीय
ऋषियों की अति विशिष्ट देन है। यज्ञ की विशिष्टता, श्रेष्ठता, गरिमा का
सत्यापन व प्रक्रियात्मक वर्णन करने हेतु भारतीय संस्कृत वाङ्मय की
श्रेष्ठतम् धरोहर के रूप में विश्व-विश्रुत वेद चतुष्टयी में अति
महत्त्वपूर्ण ‘यजुर्वेद’ यज्ञ विद्या को ही पूर्ण रूप
से
समर्पित है। व्यक्ति कल्याण से लेकर समष्टि कल्याण तक के विविध यज्ञों व
तत्सम्बन्धित मन्त्रों का वर्णन यजुर्वेद में है। इसलिए इसे यज्ञ का वेद
भी कहा जाता है। भारतीय संस्कृति एवं वैदिक वाङ्मय में यज्ञ विद्या का
स्थान-स्थान पर उल्लेख करके इसकी सर्वश्रेष्ठता ही प्रतिपादित की गयी है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में यज्ञ के
महत्त्व
पर प्रकाश डालते हुए कहा है—
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्ति्वष्टकामधुक्।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ।।
इष्टान्भोगाह्नि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ये त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्वम।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्ति्वष्टकामधुक्।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयं परमवाप्स्यथ।।
इष्टान्भोगाह्नि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ये त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्वम।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।
-गीता 3/9-16
यज्ञ प्रयोजनार्थ किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे प्रकार के
कर्मों में संलग्न मानव-समुदाय ही कर्म के बन्धनों में फँसता है। अतः हे
अर्जुन। ! तुम आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के प्रयोजनार्थ ही भली-भाँति कर्म
को करो। इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि मानव आसक्ति त्यागकर अपने जीवन के
समस्त कर्म यज्ञ प्रयोजनार्थ ही करे, अन्यथा विपरीत करने पर वह कर्म के
बन्धनों में बँधता है और फिर वही प्रारब्ध के रूप में फल भोगना उसकी नियति
बन जाती है। आगे श्री भगवान् यज्ञ के सर्वव्यापी महत्त्व का प्रतिपादन
करते हुए इसके महत्त्व पर विशेष प्रकाश डालते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में
प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ के साथ प्रजा की रचना की और कहा
‘‘इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग उत्तरोत्तर वृद्धि को
प्राप्त
करो। यह यज्ञ तुम्हारी अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि प्रदान करने वाला हो।
इस यज्ञ के द्वारा तुम सब देवताओं का संवर्धन करो और इससे प्रसन्न हुए देवता तुम रोगों का संवर्धन करेंगे। तुम्हारा परम मंगल होगा यज्ञ के द्वारा संवर्धित होकर देवता तुम लोगों को अभीष्ट भोग प्रदान करेंगे और इस देवत्त भोग को प्राप्त करके जो व्यक्ति देवताओं को प्रदान किये बिना स्वयं उसका उपभोग करता है, वह चोर है। जो यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो केवल अपने लिए ही भोजन बनाते हैं वे पापिष्ट पाप का ही भोजन करते हैं। अन्न से शरीर की उत्पत्ति (बुद्ध, पुष्टि) होता है। मेघों से जल बरसने से अन्न की उत्पत्ति होती है, यज्ञ से मेघ (बादल) और कर्म से यज्ञ उत्पन्न होता है। कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न समझना चाहिए और ब्रह्म अक्षर से उत्पन्न होता है। अतएव वह सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। इस लोक में इस प्रकार से प्रवर्तित चक्र के अनुसार जो व्यक्ति आचरण नहीं करता है उस पापमय जीवन बिताने वाले व्यक्ति का जीना बेकार है।’’ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय धर्म संस्कृति के साथ यज्ञ परम्परा अविच्छिन रूप से जुड़ी हुई है।
इस यज्ञ के द्वारा तुम सब देवताओं का संवर्धन करो और इससे प्रसन्न हुए देवता तुम रोगों का संवर्धन करेंगे। तुम्हारा परम मंगल होगा यज्ञ के द्वारा संवर्धित होकर देवता तुम लोगों को अभीष्ट भोग प्रदान करेंगे और इस देवत्त भोग को प्राप्त करके जो व्यक्ति देवताओं को प्रदान किये बिना स्वयं उसका उपभोग करता है, वह चोर है। जो यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो केवल अपने लिए ही भोजन बनाते हैं वे पापिष्ट पाप का ही भोजन करते हैं। अन्न से शरीर की उत्पत्ति (बुद्ध, पुष्टि) होता है। मेघों से जल बरसने से अन्न की उत्पत्ति होती है, यज्ञ से मेघ (बादल) और कर्म से यज्ञ उत्पन्न होता है। कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न समझना चाहिए और ब्रह्म अक्षर से उत्पन्न होता है। अतएव वह सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। इस लोक में इस प्रकार से प्रवर्तित चक्र के अनुसार जो व्यक्ति आचरण नहीं करता है उस पापमय जीवन बिताने वाले व्यक्ति का जीना बेकार है।’’ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय धर्म संस्कृति के साथ यज्ञ परम्परा अविच्छिन रूप से जुड़ी हुई है।
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