हास्य-व्यंग्य >> बेटा वी.आई.पी. बन बेटा वी.आई.पी. बनआर.के. पालीवाल
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अपनी सहज व्यंग्यात्मकता के लिए ख्यात आर. के. पालीवाल का यह तीसरा व्यंग्य संग्रह...
आज के व्यंग्यकारों के बीच अपनी सहज व्यंग्यात्मकता के लिए
ख्यात आर. के. पालीवाल का यह तीसरा व्यंग्य संग्रह है। यहां व्यंग्यकार
चूहे और बिल्लियों के माध्यम से व्यंग्य की शुरुआत करते हुए कहीं आंसुओं
का डीएनए टेस्ट करवाता है तो कहीं फर्टिलिटी के तत्वों की खोज में जुट
जाता है। उन्हें आधुनिक फैशन बनाम महिला-शोषण जैसा विषय ही नहीं, बुढ़ापा
उन्मूलन योजना, चित-पट का कालजयी खेल और धंधा परिवर्तन भी आकर्षित करता है।
कहीं वह कन्फ्यूजन का चेहरा पढ़ने की कोशिश में नजर आते हैं तो कहीं अनेकता में एकता के सूत्र तलाश करते हुए कम्प्यूटराइज्ड घर और आदमी की संगत में पहुंच जाते हैं।
पालीवालजी का व्यंग्यकार नेता की आत्मा में प्रवेश कर स्कूल टीचर को ही नहीं खुद राष्ट्रपति को भी खुली चिट्ठी लिख बैठा है। उसका समाजशास्त्री इस तरह जागता रहता है कि उसे नकल की विकृतियां, चूहों के दोष और खतरनाक वैज्ञानिकों के खौफनाक प्रयोगों पर चिंतन करते हुए भी इस बात का बराबर खयाल बना रहता है कि कह सके–बेटा, वी.आई.पी. बन।
ये व्यंग्य गुदगुदाते हुए हमारे समय से न सिर्फ मुलाकात करवाते हैं, बल्कि उसमें बदलाव की जरूरत को भी शिद्दत से महसूस करवाते हैं।
कहीं वह कन्फ्यूजन का चेहरा पढ़ने की कोशिश में नजर आते हैं तो कहीं अनेकता में एकता के सूत्र तलाश करते हुए कम्प्यूटराइज्ड घर और आदमी की संगत में पहुंच जाते हैं।
पालीवालजी का व्यंग्यकार नेता की आत्मा में प्रवेश कर स्कूल टीचर को ही नहीं खुद राष्ट्रपति को भी खुली चिट्ठी लिख बैठा है। उसका समाजशास्त्री इस तरह जागता रहता है कि उसे नकल की विकृतियां, चूहों के दोष और खतरनाक वैज्ञानिकों के खौफनाक प्रयोगों पर चिंतन करते हुए भी इस बात का बराबर खयाल बना रहता है कि कह सके–बेटा, वी.आई.पी. बन।
ये व्यंग्य गुदगुदाते हुए हमारे समय से न सिर्फ मुलाकात करवाते हैं, बल्कि उसमें बदलाव की जरूरत को भी शिद्दत से महसूस करवाते हैं।
आर.के. पालीवाल
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर के गांव बरला के
एक किसान परिवार में सन् 1961 में जन्मे आर.के. पालीवाल की प्रारंभिक
शिक्षा अपने गांव में ही हुई।
डीएवी स्नातकोत्तर विद्यालय मुजफ्फरनगर से बीएससी (बायलॉजी) और एमएससी (वनस्पति विज्ञान) करने के बाद मेरठ विश्वविद्यालय से एमफिल एवं पीएचडी (वनस्पति विज्ञान) की।
1983-84 में ए.डी. कॉलेज रिवाड़ी (हरियाणा) में लेक्चरर रहने के बाद, 1985-86 में भारतीय वन सेवा में रहे।
1986 में निरंतर भारतीय राजस्व सेवा में। पालीवालजी आयकर विभाग के विभिन्न कार्यालयों एवं प्रतिनियुक्ति पर भारत सरकार की सेवा में कार्यरत हैं।
‘आयकर : परिचय एवं व्यावहारिक ज्ञान’ पर भारत सरकार के वित्त मंत्रालय से पुरस्कृत पालीवालजी एक सिद्दहस्त कथाकार भी हैं। इनका उपन्यास ‘अंग्रेज कोठी’ बहुप्रशंसित रहा है। एक कहानी संग्रह ‘बदनाम आदमी और अन्य कहानियां भी प्रकाशित।
मूलतः व्यंग्यकार श्री पालीवाल ‘जा बैल मुझे बख्श’, ‘मिस यूनिवर्स’ सरीखे व्यंग्य संग्रहों के लिए चर्चित रहे हैं। ‘बेटा, वी.आई.पी. बन’ इनका तीसरा व्यंग्य संग्रह है।
संप्रति : वर्तमान में आयकर आयुक्त, दिल्ली
संपर्क : 10, प्रसाद नगर, करोलबाग, नई दिल्ली-5
डीएवी स्नातकोत्तर विद्यालय मुजफ्फरनगर से बीएससी (बायलॉजी) और एमएससी (वनस्पति विज्ञान) करने के बाद मेरठ विश्वविद्यालय से एमफिल एवं पीएचडी (वनस्पति विज्ञान) की।
1983-84 में ए.डी. कॉलेज रिवाड़ी (हरियाणा) में लेक्चरर रहने के बाद, 1985-86 में भारतीय वन सेवा में रहे।
1986 में निरंतर भारतीय राजस्व सेवा में। पालीवालजी आयकर विभाग के विभिन्न कार्यालयों एवं प्रतिनियुक्ति पर भारत सरकार की सेवा में कार्यरत हैं।
‘आयकर : परिचय एवं व्यावहारिक ज्ञान’ पर भारत सरकार के वित्त मंत्रालय से पुरस्कृत पालीवालजी एक सिद्दहस्त कथाकार भी हैं। इनका उपन्यास ‘अंग्रेज कोठी’ बहुप्रशंसित रहा है। एक कहानी संग्रह ‘बदनाम आदमी और अन्य कहानियां भी प्रकाशित।
मूलतः व्यंग्यकार श्री पालीवाल ‘जा बैल मुझे बख्श’, ‘मिस यूनिवर्स’ सरीखे व्यंग्य संग्रहों के लिए चर्चित रहे हैं। ‘बेटा, वी.आई.पी. बन’ इनका तीसरा व्यंग्य संग्रह है।
संप्रति : वर्तमान में आयकर आयुक्त, दिल्ली
संपर्क : 10, प्रसाद नगर, करोलबाग, नई दिल्ली-5
अनुक्रम
चूहे और बिल्लियां
चूहे और बिल्ली प्रागैतिहासिक काल से
मानव-कौतूहल का विषय
रहे हैं। हालांकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में स्थान तो चूहे एवं बिल्ली
दोनों को मिला है, लेकिन चूहों को बिल्लियों से अधिक महत्त्व मिला है। यह
एक अजीबोगरीब विरोधाभास है। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से बिल्ली मनुष्य की
दोस्त होनी चाहिए थी एवं चूहे दुश्मन ! परंतु सांस्कृतिक हकीकत इसके धुर
विपरीत है। पता नहीं, गणेशजी ने चूहे में ऐसी क्या महानता देखी कि पुष्पक
विमान जैसी आरामदेह सवारियां त्यागकर चूहे को अपना ऑफिशियल वाहन घोषित कर
दिया। कई बार यह शक होता है कि भांग के नशे में उन्हें कोई चूहा हाथी जैसा
विशालकाय दिखा होगा और एक बार मुंह से निकलने पर चूहा गणेशजी के पैरों में
लिपट गया होगा–‘महाराज मैं जैसा भी हूं, आपके
आशीर्वाद से
आपका भार भी उठा लूंगा। आप स्वयं मुझे अपना वाहन स्वीकार कर चुके हैं। अब
मैं आपके अतिरिक्त किसी को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दूंगा और
जन्म-जन्मांतर तक आप ही की सेवा में रहूंगा।’ हो सकता है, चालाक
चूहे ने गोबर गणेशजी को धमकी भी दे दी हो कि हे भगवान, यदि आप अपनी बात से
हटे तो मैं आत्महत्या कर लूंगा ! और वे दया खा गए हों।
एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?
खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।
मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर फक्कड़ गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।
चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।
अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते। जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।
एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?
खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।
मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर फक्कड़ गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।
चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।
अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते। जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।
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