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यथार्थ गीता

स्वामी अदगदानंद

प्रकाशक : श्री परमहंस प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :386
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7815
आईएसबीएन :81-8930806-8

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वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद श्रीमद्भगवद्गीता की शाश्वत व्याख्या...

Yatharth Geeta - A Hindi Book - by Swami Adgadanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शास्त्र

परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाले क्रियात्मक अनुशासन के नियमों का संकलन ही शास्त्र है। इस दृष्टि से भगवान श्रीकृष्णोक्त गीता सनातन, शाश्वत धर्म का शुद्ध शास्त्र है; जो चारों वेद, उपनिषद, समस्त योगशास्त्र, रामचरित मानस तथा विश्व के सभी दर्शनशास्त्रों का अकेले ही प्रतिनिधित्व करती है। गीता मानव मात्र के लिए धर्म का अतर्क्य शास्त्र है।

परमात्मा का निवास

वह सर्वसमर्थ, सदा रहनेवाला परमात्मा मानव के हृदय में स्थित है। सम्पूर्ण भावों से उसकी शरण जाने का विधान है, जिससे शाश्वत धाम, सदा रहनेवाली शान्ति तथा अनन्त जीवन की प्राप्ति होती है।

सन्देश

सत्य वस्तु का तीनों कालों में अभाव नहीं है और असत्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है। परमात्मा ही तीनों कालों में सत्य है, शाश्वत है, सनातन है।

—स्वामी अड़गड़ानन्द

‘‘यथार्थ गीता’’ के लेखक एक सन्त हैं जो शैक्षिक उपाधियों से सम्बद्ध न होने पर भी सद्गुरु कृपा के फलस्वरूप ईश्वरीय आदेशों से संचालित हैं। लेखन को आप साधना-भजन में व्यवधान मानते रहे हैं किन्तु गीता के इस भाष्य में निर्देशन ही निमित्त बना। भगवान ने आपको अनुभव में बताया कि आपकी सारी वृत्तियाँ शान्त हो गई हैं केवल छोटी-सी एक वृत्ति शेष है- गीता लिखना। पहले तो स्वामीजी ने इस वृत्ति को भजन से काटने का प्रयत्न किया किन्तु भगवान के आदेश का मूर्त स्वरूप है, ‘यथार्थ गीता’। भाष्य में जहाँ भी त्रुटि होती भगवान सुधार देते थे। स्वामीजी की स्वान्तः सुखाय यह कृति सर्वान्तः सुखाय बने, इसी शुभकामना के साथ।

—प्रकाशक की ओर से

विश्व में प्रचलित सम्पूर्ण धार्मिक विचारों के आदि उद्गम स्थल भारत के समस्त अध्यात्म और आत्मस्थिति दिलानेवाले सम्पूर्ण शोध के साधन-क्रम का स्पष्ट वर्णन इस गीता में है, जिसमें ईश्वर एक, पीने की क्रिया एक, पथ में अनुकम्पा एक तथा परिणाम एक है – वह है प्रभु का दर्शन, भगवत्स्वरूप की प्राप्ति और काल से अतीत अनन्त जीवन। देखें - ‘यथार्थ गीता’। श्रीकृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था, उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे ? मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते। कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव-भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक हैं–जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है। जिस स्तर पर श्रीकृष्ण थे, क्रमशः चलकर उसी अवस्था को प्राप्त महापुरुष ही जानता है कि गीता क्या कहती है ? वह गीता की पंक्तियाँ ही नहीं दुहराता, बल्कि उनके भावों को भी दर्शा देता है; क्योंकि जो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वही उस वर्तमान महापुरुष के समक्ष भी है। इसलिये वह देखता है, दिखा देगा; आपमें जागृत भी कर देगा, उस पथ पर चला भी देगा।

‘पूज्य श्री परमहंस जी महाराज भी उसी स्तर के महापुरुष थे। उनकी वाणी तथा अन्तः प्रेरणा से गीता का जो अर्थ मिला, उसी का संकलन ‘यथार्थ गीता’ है।

-स्वामी अड़गड़ानन्द

गीता मानव मात्र का धर्मशास्त्र है।

-महर्षि वेदव्यास

श्रीकृष्णकालीन महर्षि वेदव्यास से पूर्व कोई भी शास्त्र पुस्तक के रूप में उपलब्ध नहीं था। श्रुतज्ञान की इस परम्परा को तोड़ते हुए उन्होंने चार वेद, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, भागवत एवं गीता–जैसे ग्रंथों में पूर्व संचित भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानराशि को संकलित कर अन्त में स्वयं ही निर्णय दिया कि ‘सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।’ सारे वेदों के प्राण, उपनिषदों का भी सार है गीता, जिसे गोपाल श्रीकृष्ण ने दुहा और अशान्त जीव को परमात्मा के दर्शन और साधन की स्थिति, शाश्वत शान्ति की स्थिति तक पहुँचाया। उन महापुरुष ने अपनी कृतियों में से गीता को शस्त्र की संज्ञा देते हुए स्तुति की और कहा,

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।

(म. भा., भीष्मपर्व/अ.43/1)

गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्मनाभ भगवान के श्रीमुख से निःसृत वाणी है फिर अन्य शास्त्रों के संग्र की क्या आवश्यकता ?
गीता का सारांश इस श्लोक से प्रकट होता है–

एकं शास्त्रं देवकीपुत्र गीतम्,
एको देवो देवकीपुत्र एव।
एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि,
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।

–(गीता महात्म्य)

अर्थात् एक ही शास्त्र है जो देवकी-पुत्र भगवान ने श्रीमुख से गायन किया–गीता ! एक ही प्राप्त करने योग्य देव है। उस गायन में जो सत्य बताया–आत्मा ! सिवाय आत्मा के कुछ भी शाश्वत नहीं है। उस गायन में उन महायोगेश्वर ने क्या जपने के लिए कहा–ओम्। अर्जुन ! ओम् अक्षय परमात्मा का नाम है, उसका जप कर और ध्यान मेरा धर। एक ही धर्म है गीता में वर्णित परमदेव एक परमात्मा की सेवा। उन्हें श्रद्धा से अपने हृदय में धारण करो। अस्तु, आरम्भ से ही गीता आपका शास्त्र रहा है। भगवान श्रीकृष्ण के हजारों वर्ष पश्चातक् परवर्ती जिन महापुरुषों ने एक ईश्वर को सत्य बताया, गीता के ही संदेशवाहक हैं। ईश्वर से ही लौकिक एवं पारलौकिक सुखों की कामना, ईश्वर से डरना, अन्य किसी को ईश्वर न मानना यहाँ तक तो सभी महापुरुषों ने बताया; किन्तु ईश्वरीय साधना, ईश्वर तक की दूरी तय करना यह केवल गीता में ही सांगोपांग क्रमबद्ध सुरक्षित है। गीता से सुख-शान्ति तो मिलती ही है किन्तु यह अक्षय अनामय पद भी देती है। देखिये गीता की गौरवप्राप्त टीका–‘यथार्थ गीता’।

यद्यपि विश्व में सर्वत्र गीता का समादर है फिर भी यह किसी मज़हब या सम्प्रदाय का साहित्य नहीं बन सका; क्योंकि सम्प्रदाय किसी न किसी रूढ़ि से जकड़े हैं। भारत में प्रकट हुई गीता विश्व मनीषा की धरोहर है, अतः इसे राष्ट्रीय शास्त्र का मान देकर ऊँच-नीच, भेदभाव तथा कलह परम्परा से पीड़ित विश्व की सम्पूर्ण जनता को शान्ति देने का प्रयास करें।

धर्म-सिद्धान्त–एक

1. सभी प्रभु के पुत्र-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15/7।

सभी मानव ईश्वर की सन्तान हैं।

2. मानव तन की सार्थकता-

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।9/33।।

सुखरहित, क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मानव-तन को पाकर मेरा भजन कर अर्थात् भजन का अधिकार मनुष्य शरीरधारी को है।

3. मनुष्य की केवल दो जाति-

द्वै भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।16/6।।

मनुष्य केवल दो प्रकार के हैं–देवता और असुर। जिसके हृदय में दैवी सम्पत्ति कार्य करती है वह देवता है तथा जिसके हृदय में आसुरी सम्पत्ति कार्य करती है वह असुर है। तीसरी कोई अन्य जाति सृष्टि में नहीं है।

4. हर कामना ईश्वर से सुलभ-

त्रैविद्या मां सोमपा। पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रर्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्द्रिव देवभोगान्।।9/20।।

मुझे भजकर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं, मैं उन्हें देता हूँ। अर्थात् सब कुछ एक परमात्मा से सुलभ है।

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