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51 ग़ज़लें

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :68
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7816
आईएसबीएन :9788128826085

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दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा, आज दुश्मन ने कहा-शाबाश तो अच्छा लगा...रामदरश मिश्र जी की 51 ग़ज़लों का संग्रह...

51 Gazlen - A Hindi Book - by Ramdarash Mishra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये ग़ज़लें

 

मेरे इस ग़ज़ल-संग्रह की शुरू की 38 ग़ज़लें नहीं हैं- यानी सन् 2007 और 2009 के बीच लिखी हुई शेष 13 ग़ज़लें पिछले संग्रहों से ली गयी हैं। ये कैसी हैं इसकी पहचान तो पाठक करेंगे बाक़ी मेरी तो कोशिश रही है कि बोलचाल की भाषा में अपने और-परिवेश के सुख-दुख और समय के सच को स्वर दे सकूँ। ग़ज़ल पर अपने अधिकार का दावा न कल किया था न आज कर रहा हूँ।

 

रामदरश मिश्र

 

रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त, 1924 को गोरखपुर जिले के डुमरी गांव में हुआ। उन्होंने एम.ए.,पीएच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की।

संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग) के प्रोफेसर के पद से सेवा मुक्त। सर्जनात्मक रचनाओं के रूप में उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य रचना की। उनके प्रमुख सर्जनात्मक रचनाएँ निम्न हैं– काव्य-संग्रह– पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियां, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, मेरे प्रिय गीत, हंसी ओठ पर आंखें नम हैं (ग़ज़ल-संग्रह), जुलूस कहां जा रहा है ?, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएं, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, बाजार को निकले हैं लोग (ग़ज़ल-संग्रह), आम के पत्ते, तू ही बता ऐ जिंदगी (ग़ज़ल-संग्रह); उपन्यास- पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग (बीच का समय), बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार; कहानी-संग्रह - खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, इकसठ कहानियां, अपने लिए, मेरी प्रिय कहानियां, चर्चित कहानियां,श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां, आज का दिन भी, फिर कब आएंगे ?, एक कहानी लगातार, विदूषक, दिन के साथ, 10 प्रतिनिधि कहानियां, मेरी तेरह कहानियां, विरासत; ललित निबंध-संग्रह- कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख, यात्रा-वर्णन- तना हुआ इंद्रधनुष, भोर का सपना, पड़ोस की खुशबू; आत्मकथा- सहचर है समय, फुरसत के दिन, संस्मरण- स्मृतियों के छंद, अपने-अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएं- बूंद-बूंद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती है। साथ ही मिश्र जी ने अभी तक ग्यारह पुस्तकों की समीक्षा भी की है।

 

(1)

 

आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा
सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा
आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में
हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा
था पढ़ाया मांज कर बरतन घरों में रात-दिन
हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा
लोग यों तो रोज़ ही आते रहे, आते रहे
आज लेकिन आप आये पास तो अच्छा लगा
क़त्ल, चोरी, रहज़नी व्यभिचार से दिन थे मुखर
चुप रहा कुछ आज का दिन ख़ास तो अच्छा लगा
ख़ून से लथपथ हवाएँ ख़ौफ-सी उड़ती रहीं
आँसुओं से नम मिली वातास तो अच्छा लगा
है नहीं कुछ और बस इंसान तो इंसान है
है जगा यह आपमें अहसास तो अच्छा लगा
हँसी हँसते हाट की इन मरमरी महलों के बीच
हँस रहा घर-सा कोई आवास तो अच्छा लगा
रात कितनी भी धनी हो सुबह आयेगी ज़रूर
लौट आया आपका विश्वास तो अच्छा लगा
आ गया हूँ बाद मुद्दत के शहर से गाँव में
आज देखा चँदनी का हास तो अच्छा लगा
दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा
आज दुश्मन ने कहा–शाबाश तो अच्छा लगा

 

(2)

 

पानी बरसा धुआँधार फिर बादल आये रे
धन्य धरा का हुआ प्यार, फिर बादल आये रे
धूल चिड़चिड़ी धुली, नहा पत्तियाँ लगीं हँसने
प्रकृति लगी करने सिंगार फिर बादल आये रे
भीगी-भीगी छाँह उड़ रही माँ के आँचल-सी
गला धूप का अहंकार, फिर बादल आये रे
छिपा पत्तियों में पंछी कोई जाने किसको
बुला रहा है बार-बार, फिर बादल आये रे
प्रिया-देश से आने वाली ओ पगली पुरवा
लायी है क्या समाचार, फिर बादल आये रे
जलतरंग बन गयी नदी, उस पर नव-नव तानें
छेड़ रही झुमझुम फुहार फिर बादल आये रे
फूट चली धरती की खुशबू समय थरथराया
लगे काँपने बंद द्वार फिर बादल आये रे
उग आये अंकुर अनंत स्पंदन से भू-तन पर
आँखों में सपने हज़ार फिर बादल आये रे
वन, पर्वत, मैदान सभी गीतों में नहा रहे
आ हम भी छेड़ें मल्हार फिर बादल आये रे

 

(3)

 

इस हाल में जाने न कैसे रह रहीं ये बस्तियाँ,
सुनता नहीं ऊपर कोई, कुछ कह रहीं ये बस्तियाँ

रोटी नहीं, पानी नहीं, अपने नहीं, सपने नहीं
वादे सियासत के कभी से सह रहीं ये बस्तियाँ

गर एक चिंगारी उठी तो ये धधक कर जल उठीं,
यदि टूट कर पानी गिरा तो बह रहीं ये बस्तियाँ

कोई सहारा है नहीं, मासूम लावारिस हैं ये
हैं लड़खड़ा कर उठ रहीं फिर ढर रहीं ये बस्तियाँ

ख़ामोश-सी लगतीं मगर विस्फोट होगा एक दिन
ज्वालामुखी-सी खुद के अंदर दहक रहीं ये बस्तियाँ

 

(4)

 

कुछ अपनी कही आपकी कुछ उसकी कही है
पर इसके लिए यातना क्या-क्या न सही है
भटका कहाँ-कहाँ अमन-चैन के लिए
थक-थक के मगर घर की वही राह गही है
दस्तक दी किसी दर पे बयांबां में रात को
आवाज़-सी आदमी कि यहाँ कोई नहीं है
कुछ ख़्वाब रचे रात में की दिन से गुफ़्तगूं
बस मेरे सफ़र की यही सौग़ात रही है
तोड़ा है अब भी देवता पत्थर का किसी ने
लोगों ने कहा— भागने पाय न, यही है
खोजो न इसमें दोस्तों बाज़ार की हँसी
गाता है इसमें दर्द, ये शायर की बही है
तुम लाख छिपाओ रहबरी आवाज़ में मगर
झुलसी हुई बस्ती ने कहा— ये तो वही है
आँगन में सियासत की हँसी बनती रही मीत
अश्कों से अदब के वो बार-बार ढही है

 

(5)

 

भूल गया घर-आँगन यादों से बाहर बाज़ार हुआ
आज बहुत दिन बाद बेख़ुदी में ख़ुद का दीदार हुआ

टूट गये नाते-रिश्ते सब, चैन लूटते हाथों से
औरों की आँसुओं-भरी आँखों से कितना प्यार हुआ

लगा कि हर रस्ता अपना है हर ज़मीन है अपनी ही
अपनेपन से हरा-भरा हर दिन जैसे त्यौहार हुआ

बैठा रहा चैन से, जाते लोग रहे क्या-क्या पाने
पर जब दी आवाज़ शजर ने जाने को लाचार हुआ

‘कल सोचूँगा-क्या करना है’, कहता रहा मेरा रहबर
बीता कितना वक़्त और यह वादा कितनी बार हुआ

ख़ुद के लिए रहे बनते तुम तरह-तरह की दीवारें
खुली हवा से बह न सके, जीवन सारा बेकार हुआ

कब तक फैलाते जाओगे सौदे वहशी ख़्वाबों के
तुम भी अब दूकान समेटो, शाम हुई अंधियार हुआ

आओ थोड़ा वक़्त बचा है साथ-साथ हँस लें, गालें
लेन-देन का हिसाब जो हुआ सो मेरे यार हुआ

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