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सुपर पावर?

राघव बहल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :295
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7821
आईएसबीएन :9788173158988

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इस पुस्तक में भू-राजनीति के उभरते दौर में भारत और चीन की भूमिका का अनूठा तथा आकर्षक विवरण है

Super Power? - A Hindi Book - by Raghav Bahl

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस पुस्तक में भू-राजनीति के उभरते दौर में भारत और चीन की भूमिका का अनूठा तथा आकर्षक विवरण है।’

–आनंद शर्मा, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, भारत सरकार

‘अनूठी शैली में अपूर्व अंतर्दृष्टि के साथ भारत और चीन के इतिहास एवं क्षमताओं का आँकड़ों से परिपूर्ण चित्रण।’

–एन.आर. नारायण मूर्ति, चेयरमैन, इन्फोसिस

‘इक्कीसवीं सदी की उभरती शक्ति के रूप में भारत की समस्याओं और संभावनाओं में दिलचस्पी रखनेवाले हर व्यक्ति के लिए पठनीय।’

–विमल जालान, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर

‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत को अंततः ‘लोकतंत्र, जनसांख्यिकी और विविधता’ का लाभ मिलेगा।’

–मुकेश डी. अंबानी, अध्यक्ष एवं प्रबंधक निदेशक, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड

‘इक्कीसवीं सदी में एशिया की दो बड़ी शक्तियों भारत और चीन के विकास का विशद और गहन अध्ययन।’

–नंदन नीलकेनी, चेयरमैन, यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया

‘आज दुनिया के दो सबसे चर्चित राष्ट्र भारत व चीन की वर्तमान और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर आर्थिक स्थिति, राज्यतंत्र और समाज की तुलना एवं विवेचना।’

–सुनील भारती मित्तल, चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक, भारती एंटरप्राइजेज

‘दो दिग्गज राष्ट्रों की क्षमताओं और चुनौतियों की अंतर्दृष्टिपूर्ण तुलना। भारत बनाम चीन की पहेली को समझने के लिए एक पठनीय पुस्तक।’

–आनंद जी. महिंद्रा, उपाध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा

‘राघव पत्रकार और उद्यमी के रूप में इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति की चर्चा में अपने परिप्रेक्ष्य को अनूठे अंदाज में रखते हैं।’

–के.वी. कामथ, चेयरमैन, आईसीआईसीआई बैंक लिमिटेड

‘जहाँ चीन के उत्थान के पीछे एक सबल शासन-तंत्र है, वहीं भारत धीरे-धीरे, सशक्त-तंत्र के अभाव में, अस्त-व्यस्त तरीके से आगे बढ़ रहा है; परंतु भारत के विकास का रास्ता अधिक सुनिश्चित है।’

–गुरचरण दास, प्रसिद्ध लेखक व मैनेजमेंट गुरु

‘इतिहास, जनसांख्यिकी, अर्थव्यवस्था और समाज से संबंधित मुद्दों का भारत में रह रहे एक भारतीय द्वारा बहुआयामी विश्लेषण।’

–रमा बीजापुरकर, उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ

चीन विकास के क्षेत्र में अपनी गति से अर्थशास्त्र के चकित करनेवाले नए मुहावरे गढ़ रहा है; जबकि भारत उभरती अर्थव्यवस्था का विशिष्ट उदाहरण है। भारत के विकास की गति में धीमी किंतु निरंतर वृद्धि हुई है। भारत एवं चीन ने विकास व उन्नति के नए शिखर छुए हैं और दुनिया भर की निगाहें अपनी ओर खींच ली हैं।

यक्ष प्रश्न है कि सुपर पावर की दौड़ में कौन विजयी होगा–भारतीय कछुआ या चीन खरगोश ? सुप्रसिद्ध उद्यमी और पत्रकार राघव बहल का तर्क है कि इसका निर्णय इस आधार पर नहीं होगा कि इस समय कौन अधिक निवेश कर रहा है या कौन तेज गति से उन्नति कर रहा है, बल्कि सुपर पावर बनने के पैमाने होंगे–किसमें अधिक उद्यमशीलता और दूरदर्शिता है और कौन प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों का सामना करते हुए विकासशील है।

निर्णायक मुद्दा यह होगा कि क्या भारत अपने नीति-निर्धारण और सरकारी प्रशासन को सुधार पाएगा ? एशिया की दो बड़ी शक्तियों–चीन और भारत–के इतिहास, राजनीति, अर्थव्यवस्था व संस्कृतियों के तथ्यपरक विश्लेषण और विवरण पर आधारित यह पुस्तक बहल के प्रतिभापूर्ण लेखन की परिचायक है।

सुपर पावर ? में विद्वान् लेखक ने आँकड़ों सहित इन दो पड़ोसी देशों की होड़ का पूरा लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। ऐसे प्रत्येक पाठक के लिए, जो जिज्ञासु है कि ये दोनों देश इतिहास को कैसे बदलेंगे, यह पुस्तक अत्यंत पठनीय है।

विषय प्रवेश

चीन और तीव्र वेग के साथ बच निकलने की कला


नेपोलियन ने एक बार कहा था, ‘‘चीन को सोने दो, वरना जागने पर वह पूरी दुनिया को हिलाकर रख देगा।’’

चीन जाग उठा है। जैसी कि भविष्यवाणी की गई थी, उसके आर्थिक विकास ने दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। हालाँकि इस चमत्कार के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह बड़े पैमाने पर पूँजी व्यय है। अब तक मानव जाति के इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश नहीं हुआ है। चीन ने स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, रेलवे, हवाई अड्डों, पुलों, बंदरगाहों, गगनचुंबी इमारतों, फैक्ट्रियों, मॉलों, टेक्नोलॉजी पार्कों और नए शहरों का निर्माण किया है। उसकी इस महत्वाकांक्षा को अपूर्व और क्रूरता की हद तक प्रभावशाली कहा जा सकता है। यहाँ मैंने ‘‘क्रूरता’’ शब्द का इस्तेमाल सकारात्मक भाव से किया है। ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो मस्तिष्क को सुन्न कर देनेवाली महत्त्वाकांक्षा के भाव को व्यक्त कर सके। अपनी इसी महत्त्वाकांक्षा के कारण चीन कल्पनातीत पैमाने पर अपनी निवेश मशीन का पूरी क्षमता से इस्तेमाल करने में सफल रहा है। लाल सेना में एक कहावत है कि मात्रा की अपनी विशेषता होती है; यह विशेषता अब पूरी दुनिया साँस रोके देख रही है।

आज चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 50 प्रतिशत निवेश कर रहा है, जो अभूतपूर्व है। किसी भी दूसरे देश ने अपने इतिहास में कभी भी इतने बड़े पैमाने पर निवेश नहीं किया है। यहाँ तक कि जब जापान की अर्थव्यवस्था चरम पर थी तो उसने भी अपने सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत या उससे थोड़ा अधिक निवेश किया था। लेकिन चीन 50 प्रतिशत निवेश कर रहा है। है न अचरज की बात !

लगभग दो सौ वर्षों का आर्थिक अनुभव हमें यही बताता है कि अंधाधुंध निवेश एक बुलबुला पैदा करता है और फिर भरभराकर ढह जाता है। यहाँ तक कि सामान्य समझ भी हमसे यही बात कहती है। यदि विशालकाय पुलों, मॉलों, संयंत्रों और बंदरगाहों के निर्माण पर अरबों डॉलर खर्च करते हैं तो उसका फौरन अच्छा और पुष्टिकारक प्रभाव पड़ता है। अर्थव्यवस्था तेज रफ्तार से फूलने-फलने लगती है, लोग अधिक कमाई और अधिक खर्च करने लगते हैं, फैक्टरियाँ उत्पादन के शोर से गूँजने लगती हैं और संपत्ति का सृजन होने लगता है। लेकिन समस्या उस समय पैदा होती है, जब बंदरगाहों की क्षमता का आधा ही इस्तेमाल होता है (क्योंकि वे जरूरत से अधिक बड़े होते हैं), या सड़कों से टोल टैक्स के रूप में लक्ष्य से कम कमाई होती है (क्योंकि उन पर उम्मीद से कम कारें चलती हैं)। अर्थशास्त्री इसे सीधी-सादी भाषा में ‘अंधाधुंध निवेश’ से पैदा हुई’ अतिशय क्षमता’ कहते हैं। यह शानदार महल बनाने जैसा है, जबकि आपको महज पाँच कमरोंवाले मकान की जरूरत होती है (दुबई के अमीर इसकी मिसाल हैं)। संकट उस समय शुरू होता है जब आपको महल के खाली हिस्सों के रख-रखाव के लिए अतिरिक्त सुरक्षा प्रहरियों, मालियों, इलेक्ट्रिशियनों और हाउसकीपरों की जरूरत पड़ती है। देर-सबेर आप बिना इस्तेमाल वाले कमरों और गलियारों के फिजूल रख-रखाव की तकलीफ को महसूस करने लगते हैं। तब आप खर्च में कटौती करने लगती हैं और महल के बिना इस्तेमालवाले हिस्सों को भगवान् भरोसे छोड़ देते हैं। अंततः ये हिस्से खंडहर में तब्दील होने लगते हैं। फील-गुड के बुलबुले में छेद हो जाता है और संपत्ति नष्ट होने लगती है।

लेकिन चीन सर्वनाश की इन सभी भविष्यवाणियों को लगातार झुठलाता रहा है। कई सयाने लोग भविष्यवाणी करते रहे हैं कि चीन का बुलबुला फूट जाएगा। वे अपनी भविष्यवाणी के समर्थन में आर्थिक तर्क और सिद्धांत में रँगे अकाट्य व बुद्धिसंगत कारण भी देते रहे हैं। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ, न ही होने के कोई संकेत दिख रहे हैं। यह सही है कि रास्ता आसान नहीं था। चीन कुछ तूफानों को झेल चुका है और कुछ छोटे बुलबुलों को फूटते देख चुका है। लेकिन इनमें से किसी को भी महाविनाशकारी नहीं कहा जा सकता। अतिनिवेश से कोई तबाही नहीं हुई। ऐसे में, हमें एक सच्चाई स्वीकार करनी होगी—या तो रूढ़िगत आर्थिक सिद्धांत को पुनः परिभाषित करना होगा या फिर चीन अंततः चरमरा चाएगा। दोनों एक साथ नहीं बने रह सकते। चीन दो सौ वर्षों के आर्थिक सिद्धांतों को आसानी से नहीं झुठला सकता। अगर वह झुठलाएगा तो उसके दो नतीजे निकलेंगे–या तो वह त्रासदपूर्ण स्थिति का सामना करेगा या फिर रूढ़िगत आर्थिक सिद्धांत अप्रासंगिक होकर खत्म हो जाएगा।

सच कहें तो यह इतना अजूबा नहीं है कि इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। चीन एक नया आर्थिक तर्क गढ़ने में सफल रहा है। मैं इस बात पर 50 प्रतिशत दाँव लगाने के लिए तैयार हूँ कि चीन का रूढ़िगत सिद्धांत तुरुप का पत्ता साबित हुआ है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ ? क्योंकि अब तक अज्ञात और अनपरखे पैमाने पर निवेश कर चीन ने पूँजी निवेश की एक नई ‘रफ्तार’ की परिभाषा गढ़ दी होगी। परंपरागत सिद्धांत कहता है कि निवेश वहनीय होना चाहिए, यानी बढ़ती खपत और निवेश के बीच ‘सुमचित मेल’ होना चाहिए। लेकिन उस समय क्या होगा, जब आप अपनी अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक पूँजी झोंक देते हैं ? कुछ उसी तरह जैसे रॉकेट में अतिरिक्त झोंक दिया जाए, ताकि आप गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से बच निकलें। खासतौर पर तब जब आपकी पूँजी का एक बहुत बड़ा हिस्सा खिलौनों और टीवी का उत्पादन करनेवाली फैक्टरियों की बजाय सड़कों, रेलवे, स्कूलों, अस्पतालों और बंदरगाहों जैसी अवसंरचना के निर्माण पर खर्च होती है ? यह चीन का मास्टरस्ट्रोक हो सकता है, एक बार बाधिक होने पर यह दो सौ साल की आर्थिक बुद्धिमत्ता को पराजित कर सकता है। बड़ी-बड़ फैक्टरियाँ आवश्यकता से अधिक क्षमता का सृजन कर सकती हैं, लेकिन विशालकाय अवसंरचना उच्च उत्पादकता और संपत्ति-सृजन की क्षमता बढ़ा सकती है। इसलिए यह कहना कि चीन की फैक्टरियों और अवसंरचना दोनों में एक साथ निवेश करना चाहिए, भारी भूल होगी। बड़े कारखानों में बहुत ज्यादा हो सकता है, लेकिन बड़ी अवसंरचना से उच्च उत्पादकता और संपत्ति-सृजन की क्षमता पैदा हो सकती है। इसलिए चीन के बड़े कारखानों और अवसंरचना में बृहत् पूँजी निवेश को एकांगी दृष्टि से देखना संभवतः गलत होगा। बड़े कारखाने संभवतः व्यर्थ का उत्पादन कर सकते हैं, लेकिन वृहद् अवसंरचना, विशेषतः आयु बढ़ानेवाली परिसम्पत्तियाँ, जन-साधारण का सशक्तीकरण करती हैं। मजदूरों की बड़ी संख्या को शिक्षित करके विशालकाय परियोजनाओं को कारगर तरीके से कार्यान्वित कर, दुनिया भर से विशेषज्ञता और डॉलर को आयात कर आप ‘संपत्ति और उत्पादकत’ इस तरह बढ़ा सकते हैं, जिससे खपत बुलबुले का रूप ले सकती है। बड़े पैमाने पर आपकी गतिविधियाँ हर व्यक्ति और हर चीज को एक साथ ऊपर उठा सकती हैं और गिरा सकती हैं। लेकिन विशाल निवेश का नया मॉडल विकास के समूचे महासागर में उछाल ला सकता है।

रूढ़िगत सिद्धांत को अंततः त्याग देने से चीन के लोकतंत्र में निष्क्रियता आ सकती है। दो सौ वर्षों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था ने हमें पढ़ाया है कि वास्तविक उपक्रम और परिवर्तन तभी आकार लेते हैं जब जनता आजाद हो, जब वैयक्तिक प्रतिभा को अबाध रूप से फूलने-फलने का मौका मिले। अपने चारों तरफ देखिए–अमेरिका, यूरोपे, जापान, इजराइल, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, भारत, ऑस्ट्रेलिया की मिसाल लीजिए—दुनिया की अधिकांश दौलत लोकतंत्र में होती है। वहीं उसमें बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन चीन इस स्वयंसिद्ध सिद्धांत को चुनौती दे रहा है। एक बार फिर वह लोकतंत्र को दबाने के लिए अपनी महत्त्वाकांक्षा और अपने अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल कर रहा है। उसका मानना है कि लोग आजादी के एवज में धन पैदा करेंगे; लगभग तीन दशकों से उसके इस विश्वास का अनुकूल नतीजा सामने आ रहा है। उसका यह विश्वास और पुख्ता हुआ है। तो क्या चीन इतिहास के ताबूत में अंतिम कील ठोंक देगा ? यदि आम जनता हमेशा भय और आशंका में रहेगी तो क्या वास्तविक समृद्धि को बाँटा और बनाए रखा जा सकेगा ? देर-सबेर क्या धन पैदा करने की इच्छा खत्म नहीं हो जाएगी ? या क्या बढ़ती उम्मीदों की क्रांति सत्ता को पल नहीं देगी ? चीन इन सवालों को चाहे जितना खारिज करे, लेकन पंडित इनका जवाब ढूँढ़ने में लगे हैं। जाहिर है, चीन अर्थव्यवस्था की एक नई व्याख्या गढ़ रहा है, जिसमें किताबी बातों के लिए कोई जगह नहीं है। वह रूढ़िगत अर्थशास्त्र के ‘धीमे और निरंतर निवेश’ के सिद्धांत के विपरीत ‘तेज रफ्तार’ मॉडल के तहत पूँजी की अविश्वसनीय मात्रा खर्च कर रहा है। वह निवेश के साथ तालमेल बिठाने की बजाय खपत को बढ़ावा दे रहा है। वह मुक्त बाजार की कीमतों के विपरीत विदेशी मुद्रा की अधिकृत कीमतों, मजदूरी और जमीन का इस्तेमाल कर रहा है। और अंत में, वह यह सब कठोर तरीके से नियंत्रित अर्द्ध-लोकतंत्र में कर रहा है (कई लोग चीन को सीधे-सीधे निरंकुश राज्य कहेंगे, लेकिन इससे वे उसकी असामान्य कहानी के कुछ सूक्ष्म पहलुओं को जानने से वंचित रह जाएँगे)। सवाल यह है कि क्या वह सफल होगा ? जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, मैं इस पर 50 प्रतिशत से ज्यादा का दाँव नहीं लगा सकता। लेकिन बाकी 50 प्रतिशत का क्या होगा ?

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