लोगों की राय

कहानी संग्रह >> रामदरश मिश्र संकलित कहानियां

रामदरश मिश्र संकलित कहानियां

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7829
आईएसबीएन :978-81-237-5909

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

235 पाठक हैं

रामदरश मिश्र की संकलित कहानियों का संग्रह...

Ramdarash Mishra Sankalit Kahaniyan - A Hindi Book - by Ramdarash Mishra

रामदरश मिश्र ने नयी कहानी के समय में लिखना शुरू किया था और सचेतन कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी के दौर में भी खूब सक्रिय रहें, लेकिन उन्हें आंदोलनों की जलवायू रास नहीं आई। 15 अगस्त, 1924 को गोरखपुर जिले के डुमरी गांव में पैदा हुए प्रो. रामदरश मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से प्रोफेसर पद से सेवा मुक्त हुए। 19 कविता संग्रह, 14 उपन्यास, 22 कहानी-संग्रह, समीक्षात्मक कृतियां, ललित निबंध संग्रह, यात्रा-वर्णन, आत्मकथा, संस्मरण, डायरी, बाल साहित्य, रचनावली, नवसाक्षर साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण कृतियां पाठक जगत को दीं।

रामदरश मिश्र के चर्चित उपन्यासों में ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’, ‘बीच का समय’, ‘सूखता हुआ तालाब, ‘अपने लोग’, ‘रात का सफर’, ‘आकाश की छत’ व ‘बिना दरवाजे का मकान’ प्रमुख हैं। ‘खाली घर’, ‘आज का दिन भी’, ‘अकेला मकान’, ‘विदूषक’ कहानी संग्रह भी चर्चा में रहें। कविता संग्रहों में ‘बारिश में भीगते बच्चे’, ‘कभी-कभी इन दिनों’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’ लोकप्रिय रहें। अनेक संस्थानों से रामदरश मिश्र अपने लेखन के लिए सम्मानित किए गए जिनमें प्रमुख हैं :–दयावती मोदी-कवि शेखर सम्मान, श्लाका सम्मान, हिंदी-अकादमी (दिल्ली सरकार) भारत-भारती सम्मान, हिंदी संस्थान (उत्तर प्रदेश) महापंडित-राहुल सांकृत्यायन सम्मान (केंद्रीय हिंदी संस्थान-आगरा), उदयराज सिंह सम्मान (‘नई धारा’, पटना) पुरस्कार से सम्मानित रामदरश मिश्र की शैली बिल्कुल सादा है व्यवहार आत्मीय है रचनाएं समयानुकूल जो है परस्पर जोड़ने का प्रयास करती है।

उम्र के इस पड़ाव में रामदरश मिश्र अभी भी सक्रिय हैं और साहित्य साधना में रत्त हैं।

अनुक्रम


  • सड़क
  • मां, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो
  • खंडहर की आवाज
  • चिट्ठियों के बीच
  • सीमा
  • लाल हथेलियां
  • एक भटकी हुई मुलाकात
  • एक औरत : एक ज़िंदगी
  • एक इंटरव्यू उर्फ कहानी तीन शुतुरमुर्गों की
  • एक वह
  • निर्णयों के बीच
  • मुर्दा मैदान
  • सर्पदंश
  • घर
  • मिस फिट
  • आधुनिक
  • दिनचर्या
  • आखिरी चिट्ठी
  • टूटे हुए रास्ते
  • सवाल के सामने
  • डर
  • रोटी
  • अपने लिए
  • आज का दिन भी
  • दुकान
  • चिकित्सा
  • वसंत का एक दिन
  • लड़की
  • विदूषक
  • विरासत

  • 1. सड़क


    भर्र-भर्र करती हुई एक जीप दुकान के सामने रुकी।
    ‘ओ चाय वाले, चार कप चाय बनाना’–कहकर एक आदमी तीन आदमियों के साथ दुकान के आगे पड़ी खाट पर बैठ गया और वे आपस में बनती हुई इस सड़क के बारे में बातचीत करने लगे।

    चाय वाले ने कोयले के चूल्हे पर खौलते पानी को पतीली में डालकर अंदाज से उसमें चाय चीनी और दूध मिला दिया और कांपते हाथों से, आंखें नीची किए चार कप चाय तिपाई पर रख आया।
    ‘‘ओ हो हो, क्या वाहियात चाय बनाई है इस बुड्ढे ने’, कहकर उस आदमी ने झटके से प्याला सहित चाय नीचे लुढ़का दी। शेष तीनों आदमियों ने उसकी हां में हां मिलाई, लेकिन चाय सुड़कते रहे।

    अब जाकर चाय वाले ने आंख उठाई और क्रोध से बड़बड़ाते उस आदमी ने भी चाय वाले को देखा और आश्चर्य से बोल उठा—
    ‘अरे, आप मास्टर साहब !’
    और मास्टर चंद्रभान पांडे ने देखा कि वह आदमी और कोई नहीं उसके इलाके के एम.एल.ए. जंगबहादुर यादव हैं। उनकी आंखें शर्म से झुक गईं और झुकी हुई आंखे पोर-पोर फटी हुई खादी की धोती के बड़े-बड़े सुराखों में उलझ गईं।

    यादव जी ने एक ठहाका लगाया–‘अच्छा मास्टर जी, आपने अब यह धंधा भी शुरू कर दिया। ठीक है आदमी को कुछ-न-कुछ करते रहना चाहिए। पैसा बड़ी चीज़ है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो कहिएगा, मास्टर जी।’ फिर एक ठहाका लगाया और साथ के लोगों ने भी ठहाके का अनुसरण किया। एक ने खुशामद के तौर पर कहा—‘अरे यादव जी, आपकी बदौलत अब इस इलाके में सड़क आ रही है तो न जाने कितने लोगों का पेट पलेगा।’

    यादव जी ने पांच रुपए का एक नो निकाला और मास्टर साहब की ओर बढ़ा दिया।’
    ‘मेरे पास खुले रुपए और पैसे नहीं हैं।’ मास्टर जी ने कहा।
    ‘अरे तो रखिए, कौन आपसे पैसे वापस मांग रहा है ?’
    ‘नहीं, मैं आपसे पैसे लेने का अधिकारी नहीं हूं।’ आपने तो चाय पी ही नहीं।
    ‘अरे तो चाय के पैसे कौन दे रहा है, गुरुजी ! इसे गुरु दक्षिणा समझ लीजिए। रख लीजिए, काम आएगा।’

    पांडे जी तिलमिला गए। हाथ में पांच रुपए का नोट पकड़े मर्माहत से रह गए। उनके मन में क्रोध का एक बवंडर उठा। आंखों में हिकारत भरे वे यादव जी की ओर बढ़ और पांच का नोट उनकी ओर फेंककर चिल्लाए—‘यादव जी, ये अपने रुपये लेते जाइए, मैं भीख नहीं मांगता।’
    लेकिन यादव जी जीप में बैठ चुके थे। मुस्कुरकर पांडेजी और उनके द्वारा फेंके गए रुपए को देखा। जीप भर्र-भर्र करके स्टार्ट हुई और उसकी धूल-भरी हवा में नाचता हुआ नोट थोड़ी दूर पर आ गिरा।

    कुछ देर तक नोट धूल-भरी हवा में छटपटाता रहा और फिर शांत हो गया। पांडे जी उसे देखते रहे, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़े और धूल झाड़कर नोट उठा लिया। आखिर किया क्या जाए !
    गोरे बदन, चौड़े माथे, श्वेत केशवाले पांडे जी खादी की एक जीर्ण-शीर्ण धोती पहने और उसी का आधा भाग नंगे शरीर पर डाले हुए अपनी झोंपड़ी के आगे पड़ी बेंच पर बैठे-बैठे उदास हो चले थे। उनके चंदन-चर्चित ललाट की सुकुड़न भरी रेखाओं में यादव जी की जीप से उड़ी हुई धूल समा गई थी। सोच रहे थे–

    यादव उसे अपमानित कर गया। वह पहले ही कहता रहा कि यह काम उससे नहीं होगा। वह ब्राह्मण, पुराना कांग्रेसी, स्कूल का शिक्षक। क्या बुढ़ौती में छोटी जातियों के लोगों की तरह चाय-पकौड़ी और सुरती बेचना ही उसके तकदीर में रह गया था। उसने कितना मना किया लेकिन अपनी संतान के आगे किसका वश चलता है। रमेश जिद कर गया और कुछ लोगों ने उसकी हां में हां मिला दी।

    ‘पर्र...’ पांडे जी उदास हो आए। हाथ लगाकर देखा–खादी की धोती चूतड़ पर फिर फट गई थी। धोती क्या है जैसे चीथड़ों का जोड़। खादी उसे बेपर्द करके छोड़ेगी। अब वह क्या करे ? इसी धोती को वह इधर से उधर और उधर से इधर करके पहनता रहता है। सभी जगह तो यह फट चुकी है, अब इधर से उधर करने की भी तो नहीं बची। रमेश कहता है—‘छोड़िए खादी वादी, पिता जी। मिल की धोती मजबूत और सस्ती होती है। वह इस तरह जगह-जगह धोखा नहीं देती।’

    वह कब से सुन रहा है कि रमेश की बात को और सोचता है ठीक ही तो कहता है रमेश। लेकिन अब क्या बदलना ? अब तो जिंदगी बीत चली, इसी बुढौती में क्या नियम भंग करना ?... लेकिन वह कहां से खरीदे खादी की धोती। एक मोटी धोती भी तेरह-चौदह रुपए से कम में नहीं आती, फिर उसके साथ कुरता-टोपी, चादर-तौलिया सभी तो लगे हुए हैं। इतने में तो मिल के मोटे कपड़ों के कई-कई सेट आ जाएंगे और चलेंगे भी ज्यादा।... फिर भी जी नहीं मानता। अब जीना ही कितने दिन है... लेकिन जी के मानने-न-मानने का ही सवाल तो नहीं है। उसे स्कूल से रिटायर हुए पांच वर्ष हो गए, खेत के नाम पर तीन बीघे खेत-वो भी बाढ़ग्रस्त कछार के खेत। छह-सात आदमियों का गुजर-बसर कैसे हो ? महेश तो पढ़-लिखकर परिवार सहित शहर चला गया नौकरी करने। उसका अपना ही गुजर-बसर मुश्किल से होता है। छोटा लड़का रमेश बहुत ढकेलने पर भी आठवीं पार नहीं कर सका। लिपट गया खेती-बारी में। उसके तीन बच्चे हैं, दूनों जून भरपेट खाना तो मिलता नहीं, ये खादी के कपड़े कहां से आएं ?

    दुकान के सामने से लोग आ-जा रहे थे। पांडेजी ने झोंपड़ी के पीछे जाकर धोती इधर-उधर करने की बहुत कोशिश की लेकिन अब उन्हें कोई गुंजाइश नहीं दीखी। उन्हें क्रोध हो आया कि इस ससुरी धोती को फाड़-फूटकर फेंक दें और नंगा हो जाए।... अरे नंगा तो हो ही गया है। चाय की दुकान खोलकर कम नंगा हुआ है ? हर परिचित आदमी एक व्यंग्यमयी दृष्टि से उसे देखता है और अजब-अजब सवाल करता है और तिस पर यह यादव का बच्चा उसे इतना अपमानित कर गया। उसे इतना क्रोध आया कि इस यादव के बच्चे को फिर एक बार बेंच पर खड़ा करके उसके चूतड़ पर बेंत लगाए, लेकिन अब तो वह एम.एल.ए. हो गया है, छात्र नहीं रहा। वह अपना क्रोध अपने भीतर ही दबाए सुलगने लगा था। लेकिन उसे एक बात से बड़ी राहत मिली कि उसने इस एम.एल.ए. के बच्चे को स्कूल में कई बार बेंच पर खड़ाकर बेंत से पीटा है। अब भी उसके चूतड़ पर बेंत के निशान होंगे। धीरे-धीरे स्कूल के दिन उसके सामने सरक आए। तब कौन जानता था कि यह जंगली आगे चलकर जंगबहादुर यादव एम.एल.ए. बन जाएगा। क्लास में सबसे बोदा लड़का यही था। इसे हर रोज मार पिटती थी। कई बार तो इसने लड़कों के चाकू, दवात, पेंसिलें चुरा लीं थीं और उसने इसे बेंच पर खड़ा करके बहुत पीटा था। एक बात तो इसने गांधीजी की तस्वीर दूसरे लड़के की किताब से फाड़ ली थी और उस पर पेशाब कर दिया था। फिर तो उसने उसे स्कूल से ही निकाल दिया था। बाद में लोगों के कहने-सुनने पर वापस ले लिया था।... अब वह बड़ा नेता बन गया है। पता नहीं इस देश में कैसे इतने बड़े-बड़े चमत्कार हो जाते हैं।... उसे लगता है कि लोग कहां से कहां पहुंच गए और वह खादी की फटी धोती पकड़े बैठा हुआ है।

    शाम को रमेश आया और दोनों आदमी दुकान उठाकर घर ले गए।
    ‘मुझसे यह नहीं होगा, रमेश।’ पांडे जी थके-थके-से बोले।
    ‘क्यों पिताजी ?’
    ‘लोग मुझे बहुत छोटी नजर से देख रहे थे आज। मैं लोगों की निगाह नहीं झेल पा रहा था।’

    ‘हां पिताजी, भूख से भारी लोगों की निगाह ही होती है न। तो ठीक है, हम लोगों की निगाहें क्यों झेलें, भूख ही झेलें।’
    बीच में एक चुप्पी पसर गई।
    ‘बैठन को तो मैं बैठता, देखता–कौन साला मेरा अपमान करता है लेकिन फिर खेती-बारी चौपट हो जाएगी।’

    पांडे जी कुछ नहीं बोले।
    ‘कुछ मिला, बाबू जी ?’
    ‘हां, दो रुपए कमाई के पांच रुपए गुरु-दक्षिणा के।’
    ‘गुरु-दक्षिणा कैसी ?’

    पांडे जी ने यादव की कहानी सुना दी।
    ‘अरे तो इसमें इतना आहत होने की कौन बात है, बाबूजी ! सौ हम लोगों से खाता है पांच दे ही गया तो क्या हो गया ?’
    पांडे जी ने रमेश को मार खाई हुई दृष्टि से देखा। रमेश हंस रहा था।

    रात को पांडे जी लेटे तो बड़ी बेचैनी अनुभव कर रहे थे। वे अपने से ही पूछ रहे थे–क्यों भाई आदर्शवादी कांग्रेसी, तपे हुए शिक्षक, नशाखोरी के दुश्मन ! तुम्हारी यही परिणति होनी थी। जिन्हें तुमने जीवन-भर ज्ञान पिलाया क्या उन्हें अब चाय-पकौड़ी खिलाओ-पिलाओगे ? जिनके सामने नशा के विरुद्ध बोलते रहे, उन्हीं के लिए सुरती तौलोगे ? नहीं-नहीं, यह नहीं होगा।

    वह कब से सोच रहा था कि काश, इस पिछड़े हुए कछार में भी एक सड़क आती। लेकिन सारी-की-सारी सरकारें तो सोई हुई हैं इस कछार की ओर से आंख फेरकर ! सड़कें, तो दुनिया में कितनी हैं लेकिन अपने जवार में सड़क आने का और उस पर यात्रा करने का सुख कुछ और ही होगा ! कितना प्यारा अनुभव होगा नदियों-नालों, खंदकों-खाइयों के ऊपर से भागती सड़क का यात्री होने का। कितनी सुविधाएं बढ़ जाएंगी। लेकिन तब उसने कहां सोचा था कि सड़क के आने का कोई और मतलब भी हो सकता है।

    और जब कच्ची सड़क पक्की सड़क बनने लगी तो रमेश ने कहा–‘‘बाबूजी, कच्ची सड़क पक्की सड़क बन रही है–यह बहुत अच्छा हुआ। अपना एक खेत सड़क के किनारे ही है और उसी के पास बस अड्डा भी बनने वाला है। हम क्यों न वहां कोई दुकान खोल दें ? शुरू में चाय की दुकान खोली जाए और कुछ सुरती की गांठें वहां रख दी जाएं। रास्ता तो चालू है ही, अब सड़क बन रही है वह और चालू हो जाएगी और बहुत से मजदूर काम पर लगेंगे।’
    ‘अच्छा देखा जाएगा ?’ टालने की गरज से पांडे जी ने कहा।

    ‘देखा नहीं जाएगा, अभी शायद किसी के दिमाग में यह चीज आई नहीं है, बाद में तो सभी भरभराकर दुकाने खोल देंगे। हमें सबसे पहले अपनी दुकान जमा लेनी चाहिए।’ एक चुप्पी छाई रही।
    ‘इस बुढ़ौती में आपको खेती-बारी के काम करने पड़ते हैं, इससे अच्छा होगा कि आप दुकान पर बैठें। आराम से आपके दिन भी कट जाएंगे और चार पैसे की आमदनी भी हो जाएगी।’

    प्रथम पृष्ठ

    अन्य पुस्तकें

    लोगों की राय

    No reviews for this book

    A PHP Error was encountered

    Severity: Notice

    Message: Undefined index: mxx

    Filename: partials/footer.php

    Line Number: 7

    hellothai