धर्म एवं दर्शन >> संस्कार-विधि संस्कार-विधिदयानन्द सरस्वती
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महर्षि दयानन्द कृत संस्कार विधि द्वारा सोलह संस्कारों की पूर्ण विधि जानें...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विशेष महत्त्व है।
संस्कार हमारे जीवन के आधार हैं। संस्कार का अर्थ होता है शुद्ध करना, साफ
करना, चमकाना और भीतरी रूप को प्रकाशित करना।
हमारी दिनचर्या की भांति हमारी जीवनचर्या भी नियमित है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत के मानव जीवन का गंभीर अध्ययन करके महर्षि दयानन्द ने मनुष्य के पूर्ण विकास के लिए-ऐसा विकास जिसमें शरीर, मन, आत्मा तीनों की उन्नति हो, जिन सुनहरे नियमों की रचना की है उन्हें हम अपनी जीवनचर्या के नियम कहते हैं। हमारे संस्कार भी इसी जीवनचर्या के प्रमुख अंग हैं।
आइये महर्षि दयानन्द कृत संस्कार विधि द्वारा सोलह संस्कारों की पूर्ण विधि जानें।
हमारी दिनचर्या की भांति हमारी जीवनचर्या भी नियमित है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत के मानव जीवन का गंभीर अध्ययन करके महर्षि दयानन्द ने मनुष्य के पूर्ण विकास के लिए-ऐसा विकास जिसमें शरीर, मन, आत्मा तीनों की उन्नति हो, जिन सुनहरे नियमों की रचना की है उन्हें हम अपनी जीवनचर्या के नियम कहते हैं। हमारे संस्कार भी इसी जीवनचर्या के प्रमुख अंग हैं।
आइये महर्षि दयानन्द कृत संस्कार विधि द्वारा सोलह संस्कारों की पूर्ण विधि जानें।
।। ओउम् ।।
भूमिका
सब सज्जन लोगों को विदित होवे कि मैंने बहुत सज्जनों के अनुरोध करने से
श्रीयुत् महाराजे विक्रमादित्य के संवत् 1932 कार्तिक कृष्णपक्ष 30 शनिवार
के दिन ‘संस्कारविधि’ का प्रथमारम्भ किया था। उसमें
संस्कृतपाठ सब एकत्र और भाषापाठ एकत्र लिखा था। इस कारण संस्कार करानेवाले
मनुष्यों को संस्कृत और भाषा दूर-दूर होने से कठिनता पड़ती थी जो एक हज़ार
पुस्तक छपे थे उनमें से अब एक भी नहीं रहा। इसलिए श्रीयुत् महाराजे
विक्रमादित्य के संवत् 1940 आषाढ़ बादि 13 रविवार के दिन पुनः संशोधन करके
छपवाने के लिए विचार किया।
अब की बार जिस-जिस संस्कार का उपदेशार्थ प्रमाणवचन और प्रयोजन है, वह-वह संस्कार के पूर्व लिखा जाएगा। तत्पश्चात् जो-जो संस्कार में कर्त्तव्य विधि है, उस-उसको क्रम से लिखकर पुनः उस संस्कार का शेष विषय जोकि दूसरे संस्कार तक करना चाहिए, वह लिखा है और जो विषय प्रथम अधिक लिखा था, उसमें से अत्यन्त उपयोगी न जानकर छोड़ भी दिया है और अब की बार जो-जो अत्यन्त उपयोगी विषय है, वह-वह अधिक भी लिखा है।
इसमें यह न समझा जावे कि प्रथम विषय युक्त न था, और युक्त छूट गया था उसका संशोधन किया है, किन्तु उन विषयों का यथावत् क्रमबद्ध संस्कृत के सूत्रों में प्रथम लेख किया था। उसमें सब लोगों की बुद्धि कृतकारी नहीं होती थी, इसलिए अब सुगम कर दिया है, क्योंकि संस्कृतस्थ विषय विद्वान् लोग समझ सकते थे, साधारण नहीं।
इसमें सामान्य विषय, जोकि सब संस्कारों के आदि और उचित समय तथा स्थान में अवश्य करना चाहिए, वह प्रथम सामान्यप्रकरण में लिख दिया है और जो मन्त्र वा क्रिया सामान्यप्रकरण की संस्कारों में अपेक्षित है, उसके पृष्ठ, पंक्ति की प्रतीक उन कर्त्तव्य संस्कारों में लिखी है कि जिसको देखके सामान्यविधि की क्रिया वहाँ सुगमता से कर सकें और सामान्यप्रकरण का विधि भी सामान्यप्रकरण में लिख दिया है, अर्थात् वहाँ का विधि करके संस्कार का कर्त्तव्य कर्म करे और जो सामान्यप्रकरण का विधि लिखा है, वह एक स्थान से अनेक स्थलों में अनेक बार करना होगा। जैसे अगन्याधान प्रत्येक संस्कार में कर्त्तव्य है, वैसे वह सामान्यप्रकरण में एकत्र लिखने से सब संस्कारों में बारम्बार न लिखना पड़ेगा।
इसमें प्रथम ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, पुनः स्वस्तवाचन, शान्तिपाठ, तदनन्तर सामान्य-प्रकरण, पश्चात् गर्भाधानादि अन्त्येष्टिपर्यन्त सोलह संस्कार क्रमशः लिखे हैं और यहाँ सब मन्त्रों का अर्थ नहीं लिखा है, क्योंकि इसमें कर्मकाण्ड का विधान है, इसलिए विशेषकर क्रिया-विधान लिखा है और जहाँ-जहाँ अर्थ करना आवश्यक है, वहाँ-वहाँ अर्थ भी कर दिया है और मन्त्रों के यथार्थ अर्थ मेरे किये वेद-भाष्य में लिखे ही हैं, जो देखना चाहें वहाँ से देख लेवें। यहाँ तो केवल क्रिया करना ही मुख्य है। जिन के द्वारा शरीर और आऐत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं, इसलिए संस्कारों का करना सब मनुष्यों को अति उचित है। ।। इति भूमिका ।।
अब की बार जिस-जिस संस्कार का उपदेशार्थ प्रमाणवचन और प्रयोजन है, वह-वह संस्कार के पूर्व लिखा जाएगा। तत्पश्चात् जो-जो संस्कार में कर्त्तव्य विधि है, उस-उसको क्रम से लिखकर पुनः उस संस्कार का शेष विषय जोकि दूसरे संस्कार तक करना चाहिए, वह लिखा है और जो विषय प्रथम अधिक लिखा था, उसमें से अत्यन्त उपयोगी न जानकर छोड़ भी दिया है और अब की बार जो-जो अत्यन्त उपयोगी विषय है, वह-वह अधिक भी लिखा है।
इसमें यह न समझा जावे कि प्रथम विषय युक्त न था, और युक्त छूट गया था उसका संशोधन किया है, किन्तु उन विषयों का यथावत् क्रमबद्ध संस्कृत के सूत्रों में प्रथम लेख किया था। उसमें सब लोगों की बुद्धि कृतकारी नहीं होती थी, इसलिए अब सुगम कर दिया है, क्योंकि संस्कृतस्थ विषय विद्वान् लोग समझ सकते थे, साधारण नहीं।
इसमें सामान्य विषय, जोकि सब संस्कारों के आदि और उचित समय तथा स्थान में अवश्य करना चाहिए, वह प्रथम सामान्यप्रकरण में लिख दिया है और जो मन्त्र वा क्रिया सामान्यप्रकरण की संस्कारों में अपेक्षित है, उसके पृष्ठ, पंक्ति की प्रतीक उन कर्त्तव्य संस्कारों में लिखी है कि जिसको देखके सामान्यविधि की क्रिया वहाँ सुगमता से कर सकें और सामान्यप्रकरण का विधि भी सामान्यप्रकरण में लिख दिया है, अर्थात् वहाँ का विधि करके संस्कार का कर्त्तव्य कर्म करे और जो सामान्यप्रकरण का विधि लिखा है, वह एक स्थान से अनेक स्थलों में अनेक बार करना होगा। जैसे अगन्याधान प्रत्येक संस्कार में कर्त्तव्य है, वैसे वह सामान्यप्रकरण में एकत्र लिखने से सब संस्कारों में बारम्बार न लिखना पड़ेगा।
इसमें प्रथम ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, पुनः स्वस्तवाचन, शान्तिपाठ, तदनन्तर सामान्य-प्रकरण, पश्चात् गर्भाधानादि अन्त्येष्टिपर्यन्त सोलह संस्कार क्रमशः लिखे हैं और यहाँ सब मन्त्रों का अर्थ नहीं लिखा है, क्योंकि इसमें कर्मकाण्ड का विधान है, इसलिए विशेषकर क्रिया-विधान लिखा है और जहाँ-जहाँ अर्थ करना आवश्यक है, वहाँ-वहाँ अर्थ भी कर दिया है और मन्त्रों के यथार्थ अर्थ मेरे किये वेद-भाष्य में लिखे ही हैं, जो देखना चाहें वहाँ से देख लेवें। यहाँ तो केवल क्रिया करना ही मुख्य है। जिन के द्वारा शरीर और आऐत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं, इसलिए संस्कारों का करना सब मनुष्यों को अति उचित है। ।। इति भूमिका ।।
–स्वामी दयानन्द सरस्वती
ओउम् नमो नमः सर्वविधात्रे जगदीश्वराय।
अथ संस्कारविधिं वक्ष्यामः
ओं सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्य्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः
तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः
—तैत्तिरीयआरण्यके, अष्टमप्रपाठके, प्रथमानुवाके
सर्वात्मा सच्चिदानन्दो विश्वादिर्विश्वकृद्विभुः।
भूयात्तमां सहायो नस्सर्वेशो न्यायकृच्छुचिः।।1।।
गर्भाद्या मृत्युपर्य्यन्ताः संस्काराः षोडशैव हि।
वक्ष्यन्ते तं नमस्कृत्यान्तविद्यं परेश्वरम्।।2।।
वेदादिशास्त्रसिद्धान्तमाध्याय परमादरात्।
आर्यैतिह्यं पुरस्कृत्य शरीरात्मविशुद्धये।।3।।
संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्मेध्यामत्र तदुच्यते।
असंस्कृतं तु यल्लोके तदमेध्यं प्रकीर्त्यते।।4।।
अतः संस्कारकरणे क्रियतामुद्यमो बुधैः।
शिक्षयौषधिभिर्नित्यं सर्वथा सुखवर्द्धनः।।5।।
कृतानीह विधानानि ग्रन्थग्रन्थनतत्परैः।
वेदविज्ञानविरहैः स्वार्थिभिः परमोहितैः।।6।।
प्रमाणैस्तान्यनादृत्य क्रियते वेदमानतः।
जनानां सुखबोधाय संस्कारविधिरुत्तमः।।7।।
बहुभिः सज्जनैस्सम्यङ् मानवप्रियकारकैः।
प्रवृत्तो ग्रन्थकरणे क्रमशोऽहं नियोजितः।।8।।
दयाया आनन्दो विसलति परो ब्रह्मविदितः
सरस्वत्यस्याग्रे निवसति मुदा सत्यनिलया।
इयं ख्यातिर्यस्य प्रततसुगुणा हीशशरणाऽ–
स्त्यनेनायं ग्रन्थो रचित इति बोद्धव्यमनघाः।।9।।
चक्षूरामाक्ङचन्द्रेऽब्दे कार्त्तिकस्यान्तिमे दले।
अमायां शनिवारेऽयं ग्रन्थारम्भः कृतो मया।।10।।
बिन्दुवेदाक्ङचन्द्रेऽब्दे शुचौ मासेऽसिते दले।
त्रयोदश्यां रवौ वारे पुनः संस्करणं कृतम्।।11।।
भूयात्तमां सहायो नस्सर्वेशो न्यायकृच्छुचिः।।1।।
गर्भाद्या मृत्युपर्य्यन्ताः संस्काराः षोडशैव हि।
वक्ष्यन्ते तं नमस्कृत्यान्तविद्यं परेश्वरम्।।2।।
वेदादिशास्त्रसिद्धान्तमाध्याय परमादरात्।
आर्यैतिह्यं पुरस्कृत्य शरीरात्मविशुद्धये।।3।।
संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्मेध्यामत्र तदुच्यते।
असंस्कृतं तु यल्लोके तदमेध्यं प्रकीर्त्यते।।4।।
अतः संस्कारकरणे क्रियतामुद्यमो बुधैः।
शिक्षयौषधिभिर्नित्यं सर्वथा सुखवर्द्धनः।।5।।
कृतानीह विधानानि ग्रन्थग्रन्थनतत्परैः।
वेदविज्ञानविरहैः स्वार्थिभिः परमोहितैः।।6।।
प्रमाणैस्तान्यनादृत्य क्रियते वेदमानतः।
जनानां सुखबोधाय संस्कारविधिरुत्तमः।।7।।
बहुभिः सज्जनैस्सम्यङ् मानवप्रियकारकैः।
प्रवृत्तो ग्रन्थकरणे क्रमशोऽहं नियोजितः।।8।।
दयाया आनन्दो विसलति परो ब्रह्मविदितः
सरस्वत्यस्याग्रे निवसति मुदा सत्यनिलया।
इयं ख्यातिर्यस्य प्रततसुगुणा हीशशरणाऽ–
स्त्यनेनायं ग्रन्थो रचित इति बोद्धव्यमनघाः।।9।।
चक्षूरामाक्ङचन्द्रेऽब्दे कार्त्तिकस्यान्तिमे दले।
अमायां शनिवारेऽयं ग्रन्थारम्भः कृतो मया।।10।।
बिन्दुवेदाक्ङचन्द्रेऽब्दे शुचौ मासेऽसिते दले।
त्रयोदश्यां रवौ वारे पुनः संस्करणं कृतम्।।11।।
सब संस्कारों के आदि में निम्नलिखित मन्त्रों के पाठ और अर्थ द्वारा एक
विद्वान् वा बुद्धिमान् पुरुष ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना
स्थिरचित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगाके करे और सब लोग उसमें ध्यान
लगाकर सुनें और विचारें–
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लोगों की राय
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