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अज्ञेय से साक्षात्कार

कृष्णदत्त पालीवाल

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :331
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7852
आईएसबीएन :978818998235

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पिछले पाँच दशकों के दौरान की उनकी वैचारिक यात्रा को प्रस्तुत करते सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन से लिए गए साक्षात्कार ...

Agyeya Se Sakshatkar - A Hindi Book - by Krishnadutt Parliwal

कृष्णदत्त पालीवाल


4 मार्च, 1943 की सिकंदराबाद, ज़िला फर्रूखाबाद, उ० प्र० में जन्में कृष्णदत्त पालीवाल प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय जापान के तोक्यों यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज़ में विज़िटिंग प्रोफेसर रहे।

प्रमुख प्रकाशन : भवानीप्रसाद मिश्र का काव्य-संसार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का चिंतन जगत् मैथिलीशरण गुप्त : प्रासंगिकता के अंत-सूत्र सुमित्रानंदन पंत डॉ० अम्बेडकर और समाज-व्यवस्था सीय राम सब जग जानी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार गिरिजाकुमार माथुर जापान में कुछ दिन डॉ० अम्बेडकर : समाज-व्यवस्था और दलित-साहित्य उत्तर-आधुनिकतावाद की ओर अज्ञेय होने का अर्थ उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य नवजागरण और महादेवी वर्मा का रचना-कर्म स्त्री-विमर्श के स्वर अज्ञेय : कवि-कर्म का संकट निर्मल वर्मा दलित साहित्य : बुनियादी सरोकार निर्मल वर्मा : उत्तर औपनिवेशिक विमर्श अंतरंग साक्षात्कार। साहित्येतिहास लेखक (सहयोगी कार्य) : साहित्य अकादेमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘इंटीग्रेटेड हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर’ के संपादक मंडल के सदस्य हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ‘भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास’ में लेखन नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास (डॉ० नगेन्द्र) में लेखन। संपादन : लक्ष्मीकांत वर्मा की चुनी हुई रचनाएँ मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली–बाहर खंडों में। पुरस्कार/सम्मान : हिंदी अकादमी पुरस्कार दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मान तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय, जापान द्वारा प्रशस्ति पत्र उ० प्र० हिंदी संस्थान का राममनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान सुबह्मण्यम भारती सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा साहित्यकार सम्मान, हिंदी अकादमी दिल्ली हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क, अमेरिका में सम्मानित।

अज्ञेय से साक्षात्कार


सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन से लिए गए ये साक्षात्कार पिछले पाँच दशकों के दौरान की उनकी वैचारिक यात्रा को प्रस्तुत करते हैं। अज्ञेय की गणना भारतीय भाषाओं के मूर्धन्य रचनाकारों, संपादकों और आलोचनात्मक निबंधकारों में होती है। हिंदी साहित्य के आधुनिक मूर्त्तिभंजक अलीकी रचनाकारों में उन्होंने अपने सृजन-मुहावरे से युग-प्रवर्त्तन किया है। साहित्य जगत् में रवीन्द्रनाथ और टी०वी० इलियट की तरह उनके सृजन और चिंतन का युगांतरकारी जानते हैं कि जैसे उन्होंने कविता को नए मोड़ नया बौद्धिक मुहावरा दिया, वैसे ही उन्होंने उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, डायरी, यात्रावृत्त, पत्रकारिता तथा इंटरव्यू आदि विधाओं में एक अभिनव क्रांति की है।

अज्ञेय अपने समय के विवाद-पुरुष और विवाद-नायक रहे हैं। सबसे ज्यादा विवाद-संवाद ‘तारसप्तक’ तथा ‘सप्तकों’ की भूमिकाओं को लेकर हुआ। पिछले साठ-पैंसठ वर्षों में शायद ही कोई ‘भूमिका’ इतनी विचारोत्तेजक और नए विवादों को जन्म देने वाली रही हो–जितनी कि ‘तारसप्तक’ की भूमिका। कवि-कर्म से संबंधित जितनी अवधारणाएँ, चिंतन और वाद-विवाद पिछले छह दशकों में पैदा हुए हैं उनका केंद्र ‘तारसप्तक’ ही है। ‘प्रयोग’, ‘परंपरा’, ‘आधुनिकता’, ‘काव्य-सत्य’, ‘जटिल संवेदना’, ‘काव्यानुभूति’, ‘काव्य-भाषा’, ‘काव्य-प्रतीक’, ‘काव्य-बिंब और लय’ आदि को लेकर तमाम बहसें उठ खड़ी हुई। उनका उत्तर अज्ञेय को निबंध लिखकर या ‘साक्षात्कार’ देकर देना पड़ा। कथा-साहित्य में ‘शेखर : एक जीवनी’ को लेकर तो तूफान ही खड़ा हो गया। इस उपन्यास की प्रतियाँ जगह-जगह जलाई गई, लेकिन अज्ञेय न रुके, न झुके और कथा-साहित्य में नए से नए प्रयोग किए।

हिंदी-जगत् को टी०एस० इलियट की आलोचना से परिचित कराने का श्रेय अज्ञेय को है। ‘त्रिशंकु’ के निबंधों ने बदले हुए साहित्यिक सोच का नया चिंतन-प्रतिमान प्रस्तुत किया और टी० एस० इलियट के निबंध ‘ट्रेडीशन एंड इंडिविजुअल टेलेंट’ का ‘रूढ़ि और मौलिकता’ शीर्षक से छायानुवाद किया। इसी चिंतन को लेकर अज्ञेय और इलियट की तुलना करने की होड़ लग गई। यह भी सिद्ध करने का प्रयास शुरू किया गया कि अज्ञेय में मौलिक कुछ नहीं है, सब कुछ विदेश की नकल है। तमाम सिरफिरों ने अज्ञेय पर बेबुनियाद अनर्गल, राग-द्वेष से भरे आरोपों की झड़ी लगा दी। शायद ही किसी बड़े रचनाकार को इतने अनर्गल प्रहार झेलने पड़े हों जितने अज्ञेय ने झेले हैं।

अज्ञेय से ‘इंटरव्यू’ का सच्चा आनंद रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदाय सक्सेना, रमेशचन्द्र शाह के साथ हुए साक्षात्कारों में मिलता है। इनके साथ अज्ञेय अपना मन खोलते हैं। हिंदी में जितने ‘साक्षात्कार’ अज्ञेय ने दिए हैं उतने किसी ने नहीं दिए। सैकड़ों की संख्या में ‘इंटरव्यू’ देने वाले अज्ञेय ने ‘इंटरव्यू’ विधा को सच्चे अर्थों में प्रतिष्ठित किया। हिंदी में पत्र-पत्रिकाओं के ठलुआ पत्रकार या नए-नए बछड़े कुछ करने की नियत से ‘इंटरव्यू’ का धंधा करते हैं–उनके लिए इंटरव्यू कला एक फैशन है। इसलिए वे अच्छे प्रश्न नहीं बना पाते, न रचना-कर्म, रचना-प्रक्रिया, रचना-प्रभाव, रचना-शिल्प से जुड़े उत्तरों की गहराई का मर्म समझ या पकड़ पाते हैं। लेकिन जब रघुवीर सहाय ने ‘अज्ञेय अपने बारे में’ आकाशवाणी पर ‘इंटरव्यू’ लिए तो इंटरव्यू विधा की महिमा का नया अर्थ-क्षेत्र भी खुला। फिर ‘अपरोक्ष’ शीर्षक से, ‘कवि नायक’ शीर्षक से अज्ञेय के ‘साक्षात्कार’ सामने आए। इनकी बानगी यहाँ कुछ साक्षात्कारों में मिलेगी।

वास्तविकता यह है कि अज्ञेय के लिए ‘इंटरव्यू’ एक रचनात्मक वैचारिक यात्रा है। वे इस विधा में अपने समय समाज-साहित्य-राजनीति की वैचारिक हलचल को अंकित करते हैं। इस दृष्टि से अज्ञेय के ये साक्षात्कार एक बेचैन-उर्वर प्रतिभा के जीवंत दस्तावेज हैं।

साहित्य की चिंता


रमेशचन्द्र शाह

‘चौथा सप्तक’ की भूमिका में आपने कवि के लिए एक ‘मास्क’ अथवा ‘पर्सोना’ की जरूरत पर बल दिया है, बल्कि सच्चाई को प्रस्तुत करने के लिए उसे (मुखौटे को) अनिवार्य माना है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, यह आग्रह इस तरह आपके पहले के काव्य-चिंतन में नहीं मिलता। तो समसामयिक रचना से आपके असंतोष का वह कौन-सा आधार था स्पष्ट करें जिससे इस पर ज्यादा बल देने की या इस रूप में बल देने की जरूरत पड़ी ?

मैं समझता हूँ कि एक तो काव्य के बारे में जो चिंतन हुआ उसका सहज विकास था यह। यह बात यहाँ तक ले जाकर मैंने नहीं कही, पर कैसे यहाँ तक पहुँचती है, यह तो पहले जो कुछ कहा है उस पर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा। छायावाद के बारे में मेरी जो धारणा थी उसमें यही बात मैंने कही थी कि उससे पहले का, गुप्त जी के समय तक का, काव्य एक विशेष अर्थ में निर्वैयक्तिक था और उसमें व्यक्ति के स्वर के लिए, कवि के व्यक्तित्व के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी। छायावाद के कवियों ने पहले-पहल कविता में कवि के व्यक्तित्व के लिए जगह बनाई। उनकी कविता में कवि की आत्मा भी व्यक्त हो सकती है, जबकि उससे पहले यही था कि कवि को जहाँ तक हो सके अदृश्य किया जाए और कविता में रीति बोले या कथा-वस्तु, अगर हो तो वह बोले–कवि भरसक उसमें न प्रकट हो। पंत जी ने तो इसीलिए स्पष्ट शब्दों में इस बात की शिकायत की थी कि कविता के लिए उससे पहले भाषा ही कहाँ थी ?’ उनका आशय यह नहीं था कि पहले कविता नहीं थी, लेकिन जिस तरह की कविता वह कहना चाहते थे, जिसमें कवि का व्यक्तित्व बोले, उसके भाव भी व्यक्ति की भावनाओं के रूप में ही प्रकट हो सके, उसके लिए भाषा नहीं रही थी। भाषा का संस्कार ऐसा हो गया था कि उस तरह की बात कुछ अटपटी या अनकहनी लगती थी। उन्होंने भाषा

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डॉ० रमेशचन्द्र शाह और अज्ञेय के बीच संवाद मार्च, 1985 में दिल्ली में हुआ। टेप की प्रतिलिपि को प्रकाशनीय रूप देने के लिए उसका यत्किंचित् संपादन अज्ञेय द्वारा किया गया।

में व्यक्ति के स्वर के लिए जगह बना दी और वही उसका सहज स्वर हो गया–इस हद तक कि यह प्रश्न उठने लगा कि इसमें ‘मैं’ कुछ जरूरत से ज्यादा बोलता है। कविता को जो कुछ छायावाद से मिल गया था, उसको छोड़े बिना अगर फिर से ऐसी संभावना बनानी है कि इस ‘मैं’ से बड़ा और भिन्न भी कुछ बोल सके, तो क्या उपाय करना होगा ? कवि न केवल स्वयं बोले बल्कि दूसरे को भी बुलवा सके–यह कैसे संभव होगा ? यह सोचें तो फिर नए सिरे से पुराने साहित्य की भी एक पहचान बनती है, क्योंकि उसमें भी एक ‘चेहरा’ बोलता रहा, उस काव्य में जो चरित्र आते थे उनमें बहुत-से ऐसे थे कि उनकी मार्फत कवि अपनी ही बात कहता था। राधा और कृष्ण तक के बहाने से, उनके निमित्त से, कवि अपनी भावनाएँ भी प्रकट करता था। यानी जो शुद्ध धार्मिक काव्य है उससे अलग, भक्ति और रीति काव्य में बहुत-सा ऐसा था जिसमें कवि अपनी भावनाएँ, अपने भाव, अपने अनुभव प्रकट करता था, लेकिन राधा-कृष्ण को या किसी और चरित्र को निमित्त बनाकर। तो उससे मेरे सामने यह बात स्पष्ट हुई कि बड़ी बात–अपने से बड़ी बात कहने के लिए, अपने से अलग एक चेहरे की भी आवश्यकता हो सकती है। फिर मैंने यह भी पहचाना कि नाटक में भी तो बराबर यही होता है और यहाँ तक कि नाटक में यदि कभी कोई महाशक्ति मंच पर आती है तो वह चेहरा पहनकर आती है, जबकि साधारण मानवीय चरित्र अपने मानवीय रूप में भी आ सकते हैं। एक ही नाटक में आप देखेंगे कि कोई बड़ी शक्ति आती है तो वह चेहरा पहनकर आती है और बाकी लोग साधारण मानवीय चेहरा लेकर ही अभिनय में प्रवृत्त होते हैं। तो इससे यह बात और स्पष्ट हो गई कि चेहरे की उपयोगिता होती है।

इस संदर्भ में एक विदेशी रचना का, आधुनिक रचना का विदेशी प्रसंग भी मेरे मन में उभर रहा है। इसलिए मैं जानना चाहता हूँ कि आपका विचार क्या है ? जैसे निर्वैयक्तिकता का आदर्श–कि कवि को स्वयं बहुत नहीं बोलना चाहिए और अच्छी आत्माभिव्यक्ति भी–और एक तरह से काव्य की वस्तुपरकता और आत्मपरकता का द्वैत भी–हल करने की दिशा में दो विचार इस शताब्दी के अंग्रेजी काव्य में आए। एक तो इलियट का ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रिलेटिव1 वाला सिद्धांत था–कि अपने से बाहर, अपनी जीवनी से बाहर, अपने जीवनगत अनुभव से बाहर या किसी स्थिति की, किसी नाटकीय परिस्थिति की, किसी कहानी की कल्पना करें और उसके जरिए आप अभिव्यक्ति करें। और दूसरा जो है एक तरह से इलियट से बहुत ही भिन्न किस्म के आधुनिक कवि थे–येट्स–उनका : उन्होंने ‘मास्क’ की अवधारणा की। लेकिन इन दोनों में दार्शनिक दूरी बहुत है–इलियट के और येट्स के बीच में, ‘मास्क’ और ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रिलेटिव1 के बीच में। येट्स में तो ‘फोक बायोग्राफी’ का बड़ा महत्त्व है, उसकी अपनी ‘सब्जेक्टिविटी’, उसके अपने व्यक्तित्व का बहुत महत्त्व है। तो ‘मास्क’ की अवधारणा से उसकी यह बात नहीं कटती, जबकि इलियट का स्पष्टतया निर्वैयक्तिक आदर्श है। तो मैं यह जानना चाह रहा था कि जब आपने आज के कवियों की रचना को देखते हुए और उनके प्रति एक आलोचनात्मक रवैया अख्तियार करते हुए उनकी कविता से या उनके रचना-दर्शन से असंतोष अनुभव करते हुए जब इस प्रतिमान को सुझाया तो इसमें किस तरह की मुक्ति या किस तरह से बदलाव की क्या उम्मीदें, क्या अपेक्षाएँ आपकी थीं–कि रचना इस तरह जानी चाहिए।

देखिए, आपने जो नाम लिए दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक हैं, दोनों उपयोगी भी हो सकते हैं। अगर आपका आग्रह ऐतिहासिक वस्तु पर है या आपकी दृष्टि इतिहास को महत्व देती है–जैसा कि मैं समझता हूँ कि इलियट ने दिया–तो आप वस्तु-जगत् में ऐसा संबंधकारक खोजते हैं जो कि ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रिलेटिव’ है, उसके निमित्त से आप अपने ऐतिहासिक रूप को सामने लाते हैं, ऐतिहासिक निर्वैयक्तिक रूप को। इसलिए आपको वस्तु-जगत् में ऐसे संबंधों की खोज उपयोगी जान पड़ती है, आवश्यक भी जान पड़ती हैं, उसके माध्यम से आप अपनी बात कहते हैं। दूसरी तरफ जहाँ तक दृष्टि में संस्कृति पर ज्यादा जोर है–ऐतिहासिक अस्मिता पर नहीं, सांस्कृतिक अस्मिता पर–वहाँ उस ‘ऑब्जेक्टिव’ या कि वस्तुगत ‘कोर्रिलेटिव’ का महत्त्व नहीं है; वहाँ पर ‘मास्क’ ज्यादा उपयोगी है। क्योंकि सांस्कृतिक वस्तु तो बाहरी होती ही नहीं, वह अभ्यंतर ही रहती है, इसलिए वह तो चेहरा माँगती है। जो बाहरी वस्तु है, उसके लिए एक बाहरी संबंधकारक भी खोजना पड़ सकता है या उपयोगी हो सकता है; वहीं ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रिलेटिव’ है। और मैं समझता हूँ कि इलियट और येट्स की दृष्टि में यह बुनियादी भेद है भी। येट्स में कहीं ज्यादा संस्कृति की चेतना है, सांस्कृतिक अस्मिता की चिंता है और इतिहास की नहीं है; जबकि इलियट को उतनी ही ज्यादा इतिहास की चिंता है।

मैं समझता हूँ कि आपकी यह बात काफी विचारोत्तेजक है और मुझे सही भी लग रही है। लेकिन यहाँ पर फिर मेरे मन में यह सवाल पैदा होता है कि, जैसा आपने देखा होगा, इधर साहित्य के विचारकों में एक प्रवृत्ति लक्षित की जा रही है। आधुनिक रचना के इस पूरे दौर से ही उनको संतोष नहीं मिलता, उसके कारण चाहे कुछ भी हों, जायज या नाजायज कारण। उनका यह कहना है कि रचना के पिछले चालीस वर्ष जो हैं यह एक तरह का विचलन, मुख्य धारा से विचलन है और उससे पहले–नयी कविता, प्रयोगवादी कविता से पहले–हिंदी कविता सही दिशा में चल रही थी। उनके मत से वह बड़ा सही काव्य था, लेकिन इसको जो बौद्धिक दिशा दी गई या आधुनिक दिशा दी गई वह सही नहीं थी। और उसका जो आतंक हुआ या जो प्रभाव पड़ा, वह एक तरह से एक विचलन ही है, कविता का स्वाभाविक विकास नहीं हुआ, वह उससे कुंठित हुआ। अब संतुलन फिर से सही करने की बात की जा रही है। और मजे की बात यह है कि इस नए आग्रह में, इसके चिंतन में एक तो आपके द्वारा अभी प्रस्थापित दोनों चीजों के–इतिहास और संस्कृति के–किसी के पक्ष या विपक्ष में तर्क नहीं है–न तो सांस्कृतिक अस्मिता के पक्ष में कोई ठोस तर्क सामने आ रहा है और न उस तरह से इतिहास-विद्ध रचना-दृष्टि, जो इलियट की चिंता थी। इलियट वाली तो उनके लिए और भी उपेक्षणीय है, और भी गलत है; क्योंकि इतिहास की चिंता तो उनको है, लेकिन वैसी नहीं है जैसी इलियट की है। तो इस प्रसंग में, इस आरोप या नए आग्रह के सामने आप कुछ कहना चाहेंगे ?

पता नहीं इसके बारे में क्या कहा जा सकता है क्योंकि इस तरह का चिंतन बहुत ज्यादा संगत या प्रासंगिक नहीं है। इलियट और येट्स तो दोनों कवि हैं और कविता से उनका बहुत गहरा सरोकार है, कविता की उनको चिंता है। जिन लोगों की बात आप करते रहे हैं उनके ऐतिहासिक चिंतन में कविता की चिंता उनको बहुत कम है। एक वैचारिक तारतम्य की चिंता तो उनको है, लेकिन उसमें कविता कहाँ तक बचती है, इसकी चिंता उनको नहीं है। बल्कि यह भी कह सकते हैं कि उसकी बहुत ज्यादा समझ भी उनको नहीं है। और बहुत-सी चीजें, जिनकी ये लोग प्रशंसा भी करते हैं, उनमें बहुत कम ऐसी चीजें हैं जिनको कविता माना जा सकता है। यहाँ तक कि कुछ अच्छे कवियों की चीजें भी वे चुनते हैं तो जो उनका वास्तविक काव्य है उसको एक तरफ कर देते हैं और केवल जो स्वयं उनके विचार या मतवाद से मेल खाता है उसी की प्रशंसा करते हैं।

यह तो खैर है। अभी आपने रीति-काव्य की बात कही। मुझे याद आता है, बहुत शुरू में भी आपने यह जो एक तरह से प्राप्ति की समस्या है, रचने की समस्या है इसी के प्रसंग में, कवि-कर्म की दृष्टि से, व्यावहारिक पक्ष की दृष्टि से ऐसा महसूस किया था कि रीति-काव्य से भी कुछ सीखा जा सकता है। लेकिन अगर कथ्य के पक्ष को लिया जाए, संवेदन के पक्ष को लिया जाए तो रीति हमसे बहुत दूर जान पड़ती है। उसकी मानसिकता से, मनोभूमि से किसी तरह की सहानुभूति स्थापित करना बड़ा कठिन है। इससे जो प्रश्न का रूप मेरे मन में बनता है यह है कि क्या विगत युग की किसी ऐसी कविता या साहित्यिकता से आज का रचनाकार कुछ सीख सकता है जिससे कि उसका मानसिक तादात्म्य बिलकुल भी न हो, जिससे वैचारिक शिल्पी के रूप में ही सही, कुछ सीख सकता है ?

सहानुभूति न हो सके ? अगर आप तादात्म्य के लिए मानसिक पक्ष पर जोर दे रहे हैं तब तो उससे हो सकता है जिससे सहानुभूति तो नहीं है, लेकिन जो तर्क की दृष्टि से सम्मान्य जान पड़ता है। बात यह है कि हम जब ‘रीति-युग’ की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं या एक ही पक्ष पर हमारा आग्रह रहता है। रीतियों में से केवल एक रीति पर–जिसको यहाँ पर बात स्पष्ट करने के लिए दरबारी रीति भी कह सकता हूँ–दरबारी रीति पर हमारा सारा जोर रहता है। लेकिन रीति तो लोक-साहित्य में भी काम करती है–इसके बावजूद कि लोक-साहित्य का उस तरह कोई व्यक्तिगत रचयिता नहीं माना जाता।

किसी सीमा तक रीति-परंपरा का एक अंग भी है–उसका साधन भी है। हाँ उस रीति से निश्चय ही सीखा जा सकता है, उसकी पहचान भी बनी रहनी चाहिए। बल्कि हर नया आंदोलन भी, आरंभ में चाहे जितना विद्रोही भाव ले, जितनी रीति-विरोधी मुद्राएँ अपनाए, धीरे-धीरे वह एक रीति गढ़ता है, फिर वह रीति ऐसी हो जाती है कि उसमें जड़ता आ जाती है, फिर उसके विरुद्ध आंदोलन होता है। आज भी जो लिखा जा रहा है उसमें बहुत-सा ऐसा है कि या तो नई रीति गढ़ने में योग दे रहा है या रीति के अनुकूल चलने का प्रयत्न कर रहा है। वहाँ भी अपने निजी अनुभव की या कि वैसे गहरे तादात्म्य की कमी उसमें है, लेकिन रीति का निर्वाह करने का प्रयत्न है क्योंकि उससे सामाजिक स्वीकृति मिलने की आशा उसको होती है।

एक यह भी मेरे मन में प्रश्न उठता है कि साहित्य की जो भी रचनात्मक विधाएँ आज के युग में सक्रिय हैं, क्या ऐसा कहा जा सकता है–या ऐसा कहा जा सकता था–कि उपन्यास और निबंध ज्यादा निजी विधाएँ हैं; कि इसलिए उनसे अपेक्षाओं का धरातल भी एक जैसा नहीं हो सकता है।

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