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जीवनी/आत्मकथा >> एक मस्त फक़ीर नीरज

एक मस्त फक़ीर नीरज

प्रेमकुमार

प्रकाशक : गलैक्सी पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7854
आईएसबीएन :978-81-906896-0

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प्रेमकुमार की ‘एक मस्त फ़कीर : नीरज’ से समय-समय पर हुई लम्बी-अंतरंग बातचीत...

Ek Mast Fakir Neeraj - A Hindi Book - by Premkumar

अपने समय में जितना सम्मान, यश, प्रतिष्ठा व अपनत्व नीरज ने पाया है, उतना बहुत कम रचनाकारों को नसीब होता है। गीत का पर्याय बन गए नीरज को कविता पढ़ते हुए देखना-सुनना तो एक अद्भुत सुख ही है, उन्हें बोलते हुए सुनना भी एक अलग तरह का अविस्मरणीय अनुभव होता है। उनकी कविता की तरह उनकी ज़िन्दगी के अनेक हिस्सों के बारे में बहुत कुछ जान लेने के लिए भी उनके श्रोता व पाठक सदैव इच्छुक, उत्सुक और प्रस्तुत रहे हैं। उनकी इस इच्छा और उत्सुकता के चलते नीरज के बारे में पता नहीं कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे किस्से तक गढ़—बना लिए गए हैं।

‘नीरज : एक मस्त फ़कीर’ प्रेमकुमार की नीरज जी से समय-समय पर हुई लम्बी-अंतरंग बातचीत पर आधारित पुस्तक है। पुस्तक के पहले खंड में नीरज के साथ हुई दो लम्बी बातचीतें हैं। खंड दो में बातचीच को लेखक ने आलेख-रूप में प्रस्तुत कर नीरज जी की जीवन-यात्रा के प्रमुख पड़ावों व उतार-चढ़ावों को देखना-दिखाना चाहा है। लेखक के इस प्रयास ने नीरज के कवि और व्यक्ति के उन अनछुए-अनजाने प्रसंगों को भी प्रकाश में ला दिया है, जिनके बारे में उनके करीबी भी उनसे कुछ पूछने में संकोच करते रहे हैं। पाठकों, छात्रों, शोधार्थियों एवं आलोचकों की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्त्व इसलिए और बढ़ जाता है कि नीरज ने यहाँ अपनी कविता, रचना-प्रक्रिया और जीवनानुभवों के बारे में स्वयं बेबाक टिप्पणियाँ की हैं। नीरज की काव्य-यात्रा और जीवन-यात्रा के सम्बन्ध में अनेक अज्ञात-अल्पज्ञात पहलुओं को उजागर करती हुई एक दिलचस्प, अनूठी एवं संग्रहणीय पुस्तक है—नीरज : एक मस्त फ़कीर।

गीत


हम तो मस्त फ़कीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे !
जैसा अपना आना प्यारे ! वैसा अपना जाना रे !
रामघाट पर सुबह गुजारी
प्रेमघाट पर रात कटी
बिना छावनी, बिना छपरिया
अपनी हर बरसात कटी
देखे महल दुपहले कितने, उनमें ठहरा तो समझा
कोई घर हो भीतर से तो हर घर में वीराना रे !
हम तो मस्त फ़कीर...!
औरों का धन सोना-चाँदी
अपना धन तो प्यार रहा
दिल से जो दिल का होता है
वह अपना व्यापार रहा
हानि-लाभ की वह सोचे, जिसकी मंजिल धन-दौलत हो
हमें सुबह की ओस सरीखा, लगा नफ़ा-नुकसाना रे !
हम तो मस्त फ़कीर...!
काँटे-फूल मिले जितने भी
स्वीकारे पूरे मन से
मान और अपमान हमें सब
दौर लगी पागलपन के
कौन गरीबा, कौन अमीरा, हमने सोचा नहीं कभी
सबका एक ठिकाना, लेकिन, अलग-अलग है जाना रे !
हम तो मस्त फ़कीर...!
सबसे पीछे रहकर भी हम
सबसे आगे रहे सदा
बड़े-बड़े आघात समय के
बड़े मजे से सहे सदा
दुनिया की चालों से, बिल्कुल उल्टी अपनी चाल रही
जो सबका सिरहाना है रे, वह अपना पैताना रे !
हम तो मस्त फ़कीर...!

गीत : दो


जीवन है ये संगम रिश्तों का
कभी बने ये शाप उम्र का, कभी बने वरदान फ़रिश्तों का
इस संगम में सभी नहाएँ
चाहे डूबें या उतराएँ
कर्ज चुकाना पड़े सभी को, साँस की किश्तों का
जीवन है ये...।
इक तट पर है दुख का रेला
इक तट पर है सुख का मेला
इन दोनों के बीच महल है ताश के पत्तों का।
जीवन है ये...।
विरह-मिलन हैं दो धाराएँ
कभी हँसाएँ, कभी रुलाएँ
आँसू और हँसी लेखा हैं सबके बस्तों का
जीवन है ये...।
इस संगम पर जितने आए
सबने अनगिन स्वप्न सजाए
पता नहीं है लेकिन अब उनकी फ़हरिश्तों का।
जीवन है ये...।
कोई भूखे रहे यहाँ पर
कोई प्यासे मरे यहाँ पर
मिले न सबको स्वाद यहाँ पर काजू-पिश्तों का।
जीवन है ये...।

गीत : तीन


साधो ! जीवन दुख की घाटी
दिस-दिस निसंक हाथ में लेकर काल लुकाठी !
सुलगें पंछी, सुलगें पिंजर
सुलगें सदी कल्प-मनवन्तर
ऐसी आग लगी है भीषण, सोना बचे न माटी।
साधो ! जीवन दुख...!
ऊँचाई से उच्च ऊँचाई
नीचाई से निच्च निचाई
इस पर धरी हुई हर काँधे, सौ-सौ मन की काठी।
साधो ! जीवन दुख...!
पूरब जाओ, पच्छिम जाओ
चाहे जहाँ भभूत लगाओ
एक हाथ हर ठौर पीठ पर पल-पल मारे साँठी।
साधो ! जीवन दुख...!
राजा-रंक, गृही-संन्यासी
बड़े-बड़े तलवार विलासी
जो भी आए यहाँ गए सब, खाली कर-कर आँटी।
साधो ! जीवन दुख...!
क्या सोया है ओढ़ गुदड़िया
साथ सुला माटी की गुड़िया
दुनिया तो है अरे बावरे ! बिन पाटी की खाटी।
साधो ! जीवन दुख...!

गीत : चार


साधो ! हम चौसर की गोटी
कोई गोरी, कोई काली, कोई बड़ी, कोई छोटी।
कोई पिटकर, कोई बसकर
कोई रोकर, कोई हँसकर
सब ही खेलें कठिन खेल ये, चाहे मिलें न रोटी।
साधो ! हम...!
इस खाने से उस खाने तक
चमराने से ठकुराने तक
खेले काल खिलाड़ी, सबकी गहे हाथ में चोटी।
साधो ! हम...!
कभी पट्ट हर कौड़ी आवे
कभी अचानक पौ पड़ जावे
मीर बनाए एक चाल तो, दूजी हरै लँगोटी।
साधो ! हम...!
इक-इक दाँव कि इक-इक फंदा
इक-इक घर है गोरखधंधा
हर तकदीर यहाँ है जैसे, कूकर के मुँह बोटी।
साधो ! हम...!
जब तक बिछी बिसात, जमा फड़
तब तक ही सारी ये भगदड़
फिर तो एक ख़लीता सबकी बाँधे गठरी मोटी !
साधो ! हम...!

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