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कहानी संग्रह >> ख़ुशकिस्मत

ख़ुशकिस्मत

ममता कालिया

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7864
आईएसबीएन :9788180315381

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नयी-साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत यह अनुपम कहानी संग्रह निस्संदेह पठनीय और संग्रहनीय है।

Khushkismat - A Hindi Book - by Mamta Kaliya

प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘ख़ुशकिस्मत’ में सामाजिक विसंगतियों का बोध और उनसे उबरने की बेचैनी तथा मनोविज्ञान का समावेश किया गया है।
इस कहानी संग्रह में एक अकेली तस्वीर ख़ुशक़िस्मत, कौवे और कोलकाता, चोरी, सूनी, बगिया, छोटे गुरु, परदेशी, पंडिताइन, लड़के राएवाली, बसंत-सिर्फ एक तारीख़, तस्कीं को हम न रोयें, खाली होता हुआ घर, एक मदद औरत आदि कहानियों संग्रहीत हैं।

नयी-साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत यह अनुपम कहानी संग्रह निस्संदेह पठनीय और संग्रहनीय है।

एक अकेली तस्वीर


हुँम, बड़े होंगे तो हों ! कोई इस तरह सबके सामने डाँटा जाता है। जगह, समय कुछ देखते नहीं, बस कह दिया जो मुँह में आया।
तनिया को बेहद गुस्सा आ रहा था। उसे पापा से हमेशा की यह शिकायत थी। वे उसे अभी भी चार साल की बच्ची समझते हैं जो जब चाहा चाँटा मारा और पुचकार लिया। दुकान के सारे सेल्समैन कैसे देखने लगे थे उसे; और वे ग्राहक-दम्पत्ति भी, जो लट्ठा खरीद रहे थे।

वह साड़ी ले भी लेती, पर क्या मन से पहन पाती ? माना, ग़लती उसकी भी है, पर यह ग़लती नहीं उसकी कमज़ोरी है, जिसे पापा अच्छी तरह जानते हैं। शो केस में लटकी चारखाने की हैंडलूम साड़ी देख वह ही मचली थी; ‘‘पापाऽऽ यह साड़ी...।’’ दुकान में उसका एक ही पीस था। पापा ने अपने सामने नपवाई, कीमत पूछी और आदत से विपरीत बिना एक भी पैसा कम दिए दाम चुका दिए। सेल्समैन तह जमा कर लिफ़ाफ़े में डालने लगा तो तनि पापा के कान में डरते-डरते फुसफुसाई, ‘पापा, यह हम पर खिल जाएगी ?’’ पापा बोले, ‘‘तनु, बेकार की बात नहीं करते; पकड़ो पैकिट !’’ तनि बिखर गई, ‘‘क्या करेंगे लेकर इसे ! कलरस्कीम भी खास नहीं है और ‘चैक्स’ का डिज़ाइन अब तो पुराना होने आया। रहने दो !’’ पापा ने डाँटा, ‘‘डोन्ट बी फुलिश, ले चुकी हो तुम इसे।’’ ‘‘पापा चाहे कुछ भी हो जाए, हम तो पहनेंगे नहीं इसे। ले लो तुम !’’ पापा बेहद चिढ़ गए ‘‘तनिया !’’ उत्तर में तनिया की आँखों में आँसू छलक आए, उन्हें न छुपाने का प्रयत्न किए, पोंछती हुई वह बाहर चल दी।

पापा दुकानदार से खूब-खूब माफ़ी माँग तनिया पर झल्ला पड़े–‘‘बेअक्ल लड़की है, खरीदने का शऊर नहीं तो घुसती क्यों है दुकान में ? बेवकूफ़ मेरी पोज़ीशन कितनी गिराती है इस तरह ! पैसे लौटवाने में भिखारी तो मैं बना। बाइस साल की है, कोई बच्चा तो नहीं !’’

सारे रास्ते पापा इस बाइस साल की सुबकती लड़की पर झींकते, खीझते आए। और अब उनका क्या है, मूड ठीक करने क्लब चले गए हैं, रात-बिरात कभी भी लौटेंगे। पूरे लम्बे-चौड़े घर में तनिया अकेली है। नाम को आया छोड़ जाते हैं जो सात बजे से खर्राटे भर सोती है। एक, दो, तीन...पाँच, पाँचों कमरे बिल्कुल सूने हैं, कहीं जीवन का कोई चिन्ह है नहीं। सोफासेट, डाइनिंग टेबिल, पलंग, किताबो, इन सब से कभी घर आबाद हुआ है !

अकेलापन व्यथा की कथा का एक नया परिच्छेद खोल देता है। तनिया कितनी ऊब गई थी, अपने इस सूने-सूने घर से ! हर कमरा जैसे काटने दौड़ता था। उसे याद आया–उन्हीं उदासी भरे दिनों में उसने नीचे वाले घर में जाना शुरू किया था। कितना मन लगता था कभी-कभी, स्नेह भाभी के बच्चों भरे परिवार में ! पापा के ऑफिस जाते ही वह पहुँचती–‘भाभी।’’ भाभी रसोई से कहतीं—‘‘बैठ तनि मैं अभी आई।’’ बेसिर पैर की गप्पों में कैसे समय गुजर जाता था। कभी भाभी काम में लगी रहती तब भी वह बैठी रहती। बच्चों का शोर-शराबा ही देखना भला-सा लगता। भाभी थाली में मटर भर, बच्चों के बीच रख जातीं; दस मिनट में सारी मटरें चुक जातीं। कभी दूध बिल्ली पी जाती, भाभी झट चुन्नू को तीन आने और गिलास देकर दौड़ा देतीं। उस घर में जैसे जीवन हमेशा उत्ताल तरंगें भरता रहता। मदन भाईसाहब जब लौट कर आते तब तो विद्युत गतिभर जाती सब में। कहीं भाभी कमीज़ पकड़ा रही हैं, कहीं हाथ धुला रही हैं, कहीं चाय थमा रही हैं। एक बच्चा जूते लाकर रखता, दूसरा मफ़लर ढूँढ़ कर लाता। वह भाभी, से कहती, ‘‘भाभी, तुम्हारे दिन और रात तो जैसे फिसलते हैं...।’’ और भाभी शरमा जातीं ‘‘हाँ हाँ, तेरी हो जाएगी न जब, तब पूछूँगी...’’

वही समय तो था जब तनि ने हौले-हौले, किन्हीं झीने-झीने तारों से सपने बुनने शुरू किए थे। वह बार-बार एक ही कहानी को फिर-फिर दुहराती, ‘‘उसका घर होगा, अपना घर। जहाँ वह होगी, वे होंगे।’’ जैसे सब कुछ यों ही होना था, ऐसे ही घर में पापा ने उसका रिश्ता तय तय कर दिया।

बनि दिन रात बस स्वप्निल-स्वप्निल घूमती : इंजीनियर की तो ज्यूटी भी खास नहीं होती। दोपहर में वे आ जाया करेंगे, साथ लंच खाएँगे, शाम को घूमने जाया करेंगे। यों छोटी-छोटी जगहों में ट्रांसफ़र बहुत होता है, पर अच्छा है...ज्यादा एकांत मिलेगा।
और तनिया ने दिन के हर पहर, रात की हर घड़ी जैसे यह सपना देख-देख अपनी इंद्रियों को कंठस्थ करा दिया।...जनवरी में विवाह हो जाना था...।

फिर अचानक उसके स्वभावानुसार उसमें एकदम शैथिल्य भर गया। यही तो मुश्किल रही तनिया के साथ। जब उसे जो मिलना होता और जैसे ही उसे भान होता ‘यह सुख मेरा है’, उसके मन से उस सब का सारा महत्व जैसे समाप्त हो जाता। पा लेने की स्थिति ही उसे प्राप्ति से वितृष्णा दिला जाती। तनिया को लगा : ‘‘कौन-सा सूनापन भर लेगी वह यों ! एक अजनबी कौन उसे इतना प्रभावित कर लेगा ! उसके इस सारे विस्तृत व्यक्तित्व को अपनी बाहों में कौन ऐसे बाँध लेगा कि फिर कभी उसे कोई प्यास न सताए ! अगर उसके बाद भी असंतोष ही उसकी पूँजी रही !’’ आस-पास के परिवारों पर दृष्टि डाली तो तनिया का संशय बोला, ‘‘तुम्हें क्या पता, इनकी खिलखिलाहटों के पीछे कितने सुबकते सपने हैं ! हृदय से कौन किसका कितना है !’’ परायी इच्छाओं के कटघरे में वह बन्द होना चाहेगी ?

तनिया ने पापा से कहा, ‘‘पापा, हम सोचते हैं, शादी वगैरह हमें सूट नहीं करेगीं।’’ पापा हँस दिए : हाँ-हाँ शादी न हुई काले बुन्दे हो गए, तुम्हें सूट नहीं करेंगे।’’ तनिया गम्भीर हो गई :’’ सच कह रहे हैं पापा, आप कलकत्ते मना लिख दीजिए।’’

‘‘लाड़ लड़वा रही है बिटिया ! अरे वह जमाने लद गए जब तुम्हें मनाते थे। पता है तनि, अब हमें चाय बनानी आ गई है, टोस्ट भी बिना जलाए सेंक लेते हैं। फिर बताओ तुम्हें यहाँ क्यों बनाए रखें ? अपने ठौर-ठिकाने बैठो, छुट्टी पाकर हम भी तीर्थवीर्थ करें।’’ पापा मज़ाक को फैलाते रहे। तनिया भन्ना उठी, ‘‘मुझे पता है आपका तीर्थ ! अब आधी रात तक क्लब से लौट भी आते हो, तब वह भी नहीं रहेगा। ऐसे आपको बिगड़ने नहीं दूँगी, क्या समझा है ! बस मना लिख दो उन्हें। हमें नहीं जाना आपको छोड़ कर।’’

कलकत्ते वालों ने बेहद बुरा माना था। खुसफुस कहना भी शुरू कर दिया था अब : ‘अजी पढ़ी-लिखी लड़की है, पड़ गई होगी किसी चक्कर में, मना कर दिया। बड़ी तेज़ होती हैं ये आजकल की लड़कियाँ !’ पापा ने ज़्यादा दुख नहीं मनाया, बेटी को हृदय से लगाए रखने का उन्हें कम मोह न था।

इस सब के बाद जैसे तनिया बहुत सहज हो गई। जीवन जिस तरह अब तक था, वैसे ही चल पड़ा। वैसे ही पापा के देर से लौटने पर रूठना, स्नेह भाभी के पास बैठना, साँझ को सितार का रियाज़ करना और रात दस बजे तक अपने कमरे में नीला बल्ब जला कर सो जाना। जीने की इस व्यवस्था में कोई नूतन प्राप्ति नहीं थी, इसलिए इसमें वितृष्णा का भय नहीं था। यह तो जैसे उसकी चर्या थी। इसके प्रति कोई शैथिल्य नहीं था मन में, उत्साह भी नहीं। स्वयं पर बिताने को बहुत समय था, स्वयं के बारे में सोचने को खूब-सा अवकाश था, स्वयं को महत्व देने की अनेकों सुविधाएँ थीं। तनिया अपने आप में बड़ी सन्तुष्ट थी।

मकर संक्रान्ति आने वाली थी। तनिया स्नेह-भाभी से लड्डू बनाने का तरीका पूछने गयी तो देखा, भाभी जूते साफ़ कर रही थी, ‘‘यह काम भी शुरू कर दिया भाभी।’’ हाथ पल्ले से पोंछ कर भाभी उठीं, ‘‘अरे तनि, आज इतने नाराज़ होकर गए हैं। जूते साफ़ नहीं थे सो उन्हें चप्पल पहननी पड़ी। तू कैसे आई इतनी जल्दी ?’’

तनि को लगा वह भाभी की अपेक्षा कितनी सुखी है ! विवाह कर लेती तो उसे भी जीवन में यही मिलता : ‘कमीज़ के काज, मोजों की मरम्मत, झाडू बुहारी, जूतों की पॉलिश।’ उससे निभता यह सब ! भाभी की ज़िन्दगी में अब शेष भी क्या रहा है ? उन्माद का आवेग तो कब का उत्तर चुका। चुन्नू, किकी और रूनु के आगमन के बाद तो अब आँ-आँ, ऊँ-ऊँ के सिवा और हो भी क्या सकता है। इस सब से वह दूर रही, यह उसने ठीक ही किया। उत्साह के नाद के बाद अब की मरघटी उदासी वह तो नहीं सह सकती थी।

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