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अग्निरेखा

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7879
आईएसबीएन :9788171789337

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महादेवीजी की अंतिम दिनों में रची गई कविताएँ...

 

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अग्निरेखा’ में महादेवीजी की अंतिम दिनों में रची गई कविताएँ संगृहीत हैं, जो पाठकों को अभिभूत भी करेंगी और आश्चर्यचकित भी। आश्चर्यचकित इस अर्थ में कि महादेवी-काव्य में ओतप्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है, यहाँ एकदम अनुपस्थित है। अपने आपको ‘नीरभरी दुख की बदली’ कहनेवाली महादेवी अब जहाँ ज्वाला के पर्व’ की बात करती हैं वही ‘आँधी की राह’ चलने का आहवान भी। ‘वशी’ का स्वर अब ‘पांचजन्य’ के स्वर में बदल गया है और ‘हर ध्वंस-लहर में जीवन लहराता’ दिखाई देता है।

अपनी काव्य-यात्रा के पहले महत्त्वपूर्ण दौर का समापन करते हुए महादेवीजी ने कहा था–‘देखकर निज कल्पना साकार होते; और उसमें प्राण का संचार होते। सो गया रख तूलिका दीपक-चितेरा।’ इन पंक्तियों में जीवन-प्रभात की जो अनुभूति है, वही प्रस्तुत कविताओं में ज्वाला बनकर फट निकली है। अकारण नहीं कि वे गा उठी हैं–‘इन साँसों को आज जला मैं/लपटों की माला करती हूँ।’

कहना न होगा कि महादेवीजी के इस काव्यताप को अनुभव करते हुए हिन्दी का पाठक-जगत उसके पीछे छुपी उनकी युगीन संवेदना से निश्चय ही अभिभूत होगा।

 

अग्नि-स्तवन

 

पर्व ज्वाला का, नहीं वरदान की वेला !
न चन्दन फूल की वेला !

चमत्कृत हो न चमकीला
किसी का रूप निरखेगा,
निठुर होकर उसे अंगार पर
सौ बार परखेगा
खरे की खोज है इसको, नहीं यह क्षार से खेला !

किरण ने तिमिर से माँगा
उतरने का सहारा कब ?
अकेले दीप ने जलते समय
किसको पुकारा कब ?
किसी भी अग्निपंथी को न भाता शब्द का मेला !

किसी लौ का कभी सन्देश
या आहूवान आता है ?
शलभ को दूर रहना ज्योति से
पल-भर न भाता है !
चुनौती का करेगा क्या, न जिसने ताप को झेला !
खरे इस तत्व से लौ का
कभी टूटा नहीं नाता
अबोला, मौन भाषाहीन
जलकर एक हो जाता !
मिलन-बिछुड़न कहाँ इसमें, न यह प्रतिदान की वेला !

सभी का देवता है एक
जिसके भक्त हैं अनगिन,
मगर इस अग्नि-प्रतिमा में
सभी अंगार जाते बन !
इसी में हर उपासक को मिला अद्वैत अलबेला !

न यह वरदान की वेला
न चन्दन फूल का मेला !
पर्व ज्वाला का, न यह वरदान की वेला।

 

गीत

 

पूछो न प्रात की बात आज
आँधी की राह चलो।

जाते रवि ने फिर देखा क्या भर चितवन में ?
मुख-छबि बिंबित हुई कणों के हर दर्पण में !
दिन बनने के लिए तिमिर को
भरकर अंक जलो !

ताप बिना खण्डों का मिल पाना अनहोना,
बिना अग्नि के जुड़ा न लोहा-माटी-सोना।
ले टूटे संकल्प-स्वप्न उर-
ज्वाला में पिघलो !

तुमने लेकर तिमिर-भार क्या अपने काँधे,
तट पर बाँधी तरी, चरण तरिणी से बाँधे ?
कड़ियाँ शत-शत गलें स्वयं
अंगारों पर बिछलो।

रोम-रोम में वासन्ती तरुणाई झाँकी,
तुमने देखी नहीं मरण की वह छवि बाँकी !
तिमिर-पर्व में गलो अजर
नूतन से आज ढलो !
आज आँधी के साथ चलो !

 

गीत

 

वंशी में क्या अब पाञ्चजन्य गाता है ?
शत शेष-फणों की चल मणियों से अनगिन,
जल-जल उठते हैं रजनी के पद-अंकन,
केंचुल-सा तम-आवरण उतर जाता है !

छू अनगढ़ समय-शिला को ये दीपित स्वर,
गढ़ छील, कणों को बिखराते धरती पर,
आकार एक ही, पर निखरा आता है।

लय ने छू-छूकर यह छायातन सपने,
कर दिये जगा, जाने-पहचाने अपने,
चिर सत्य पलक-छाया में मँडराता है।

मेघों में डूबा सिन्ध किरण में आँधी,
एक ही पुलिन ने जीवन-सरिता बाँधी,
अब आर-पार-तरिणी से क्या नाता है ?

शत-शत वसन्त पतझर में बोले हौले,
तम से, विहान मनुहारें करते डोले,
हर ध्वंस-लहर में जीवन लहराता है।
वंशी में क्या अब पाञ्चजन्य गाता है ?

 

गीत

 

आँखों में अंजन-सा
आँजो मत अंधकार !

तिमिर में न साथ रही
अपनी परछाई भी,

सागर नभ एक हुए
पर्वत औ’ खाई भी,

मेघ की गुफाओं में बन्दी जो आज हुआ,
सूरज वह माँग रहा
तुमसे अब दिन उधार !

कुंडली में कसता जग
क्षितिज हुआ महाव्याल
शृंखला बनाता है
क्षण-क्षण को जोड़ काल,
रात ने प्रभंजन की आहट भी पी ली है,
दिशि-दिशि ने प्रहरों के
मूँद लिए वज्र-द्वार !
हीरक नहीं जो जड़े मुकुटों में जाते हैं,
मोती भी नहीं हैं
इन्हें वेध कौन पाते हैं ?
ज्वालामुखियों में पले सपने ये अग्नि-विहग
लपटों के पंखों पर
कर लेंगे तिमिर पार।
विश्व आज होगा
चिनगारियों का हरसिंगार !

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