ऐतिहासिक >> अमिता अमितायशपाल
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‘अमिता’ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में कल्पना को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है।
‘अमिता’ ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि में कल्पना को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। इस उपन्यास के
प्राक्कथन में यशपाल स्वयं इसके मूल मन्तव्य की ओर इशारा करते
हैं–‘विश्वशान्ति के प्रयत्नों में सहयोग देने के लिए
मुझे भी तीन वर्ष में दो बार यूरोप जाना पड़ा है। स्वभावतः इस समय
(1954-1956) में लिखे मेरे इस उपन्यास में, मुद्दों द्वारा लक्ष्यों को
प्राप्त करने अथवा समस्याओं को सुलझाने की नीति की विफलता का विचार कहानी
का मेरुदंड बन गया है।’
कलिंग पर अशोक के आक्रमण की घटना में परिवर्तन करके यशपाल ने इस उपन्यास का केन्द्र कलिंग की बालिका राजकुमारी अमिता को बनाया है। उपन्यास के माध्यम से वे जो सन्देश युद्ध-त्रस्त संसार को देना चाहते हैं, वह उन्हीं के शब्दों में : ‘मनुष्य ने अपने अनुभव और विकास से शान्ति की रक्षा का अधिक विश्वास योग्य उपाय खोज लिया है। यह सत्य बहुत सरल है। मनुष्य अन्तर्राष्ट्रीय रूप में दूसरों की भावना और सदिच्छा पर विश्वास करे, दूसरों के लिए भी अपने समान ही जीवित रहने और आत्म-निर्णय से सह-अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करे। सभी राष्ट्र और समाज अपने राष्ट्रों की सीमाओं में, अपने सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुसार व्यवस्था रखने में स्वतन्त्र हों। जीवन में समृद्धि और सन्तोष पाने का मार्ग अपनी शक्ति को उत्पादन में लगाना है, दूसरों को डरा कर और मारकर छीन लेने की इच्छा करना नहीं है।’
कलिंग पर अशोक के आक्रमण की घटना में परिवर्तन करके यशपाल ने इस उपन्यास का केन्द्र कलिंग की बालिका राजकुमारी अमिता को बनाया है। उपन्यास के माध्यम से वे जो सन्देश युद्ध-त्रस्त संसार को देना चाहते हैं, वह उन्हीं के शब्दों में : ‘मनुष्य ने अपने अनुभव और विकास से शान्ति की रक्षा का अधिक विश्वास योग्य उपाय खोज लिया है। यह सत्य बहुत सरल है। मनुष्य अन्तर्राष्ट्रीय रूप में दूसरों की भावना और सदिच्छा पर विश्वास करे, दूसरों के लिए भी अपने समान ही जीवित रहने और आत्म-निर्णय से सह-अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करे। सभी राष्ट्र और समाज अपने राष्ट्रों की सीमाओं में, अपने सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुसार व्यवस्था रखने में स्वतन्त्र हों। जीवन में समृद्धि और सन्तोष पाने का मार्ग अपनी शक्ति को उत्पादन में लगाना है, दूसरों को डरा कर और मारकर छीन लेने की इच्छा करना नहीं है।’
माता का उपदेश
चैत्य तोरण में अष्टधातु के विशाल घंटे में टंकारों की गर्जना उठने लगी।
उस गर्जना की प्रतिध्वनि में नगर के अन्य देव-स्थानों से भी आरती के
शंखों, घड़ियालों और भेरियों के शब्द नगर के निद्रा-स्तब्ध, कुहासा भरे
आकाश में गूँजने लगे। वातावरण में इन ध्वनियों के उत्पन्न कम्पन नगर पर
छाये घने कोहरे को विचलित करने लगा। विरल होते कोहरे को उदीयमान सूर्य की
किरणें उजला बनाने लगीं। ऊँची भूमि पर स्थित चैत्य के सम्मुख फैले, कुहासे
की मसहरी में निद्रालसित नगर में भी जागरण के चिह्न प्रकट होने लगे।
नया चैत्य नगर के पश्चिम भाग में प्राचीर के समीप था। चैत्य की श्वेत पत्थर से बनी प्रशस्त ड्योढ़ी, उजले कुहासे से भरे आकाश में स्वप्न-जगत के प्रासाद के द्वार की ध्वनि घने कोहरे के कारण दूर तक नहीं जा रही थी। ड्योढ़ी के समीप आने पर चैत्य के अलिन्दों में, कुशासनों पर पद्यासन से बैठे पीत चीवरधारी भिक्षु भी दिखायी दे जाते थे।
श्वेत ड्योढ़ी की सीढ़ियाँ काले पत्थर की थीं। सीढ़ियों के समीप राजदंडधारी चारण स्वर्ण-खचित वस्त्रों से ढँकी बड़ी पालकी रखी हुई थी। पालकी के डाँडों के साथ-साथ पीली पगड़ियाँ और लाल कुर्तियों पर पीले कमर-पट्टे बाँधे आठ वाहक बैठे थे। शिविकावाहक शीत के कारण घुटनों को बाँहों में समेटे, ठड्डी को घुटनों पर टिकाये थे। घंटे की टंकार से वे भी सतर्क हो गये। पालकी के दाये-बायें द्वारों के समीप, दुपट्टों से वक्षस्थल और धोती के फेंटे से कमर करे यवनियाँ खड़ी थीं। टंकार सुनकर उनके हाथ में थमे खड्ग सीधे हो गये। पालकी के चारों ओर खड़े सशस्त्र राजपुरुष भी चौकस हो गये। सभी लोगों के नेत्र ड्योढ़ी की ओर उठ गये।
चैत्य की ड्योढ़ी से प्रायः पच्चीस कदम के अन्तर पर दरिद्र नर-नारियों की छोटी-सी भीड़ खड़ी थी। कुछ राजपुरुष उस भीड़ को आगे बढ़ने से रोके हुए थे। उस शीत में भी भीड़ के लोगों के शरीरों पर कम ही वस्त्र थे उनके सिरों पर फटी-पुरानी पगड़ियाँ, कमर तक अँगरखे और घुटनों तक कपड़ों के छोटे टुकड़े लिपटे हुए थे। कुछ लोग केवल धोती मात्र से ही कंधे से घुटनों तक शरीर को लपेटे थे। वे लोग शीत से और राजपुरुषों के भय से भी सिकुड़े हुए थे। घंटे की गूँज से भयातुर भीड़ की आँखें भी ड्योढ़ी की ओर उठ गयीं।
चैत्य की ड्योढ़ी में एक राज-दासी कंधे पर स्वर्ण-कलश उठाये दिखायी दी। दासी ने ड्योढ़ी के तोरण से लटके घंटे के नीचे से आते समय, बाँह उठा कर घंटे की जिह्वा को हिला दिया था।
राज-दासी को देखकर राज-दंडधारी चारण ने दंड उठा कर ऊँचे स्वर में घोषणा की–‘‘परमभगवती की जय हो ! प्रजा और पौरजन ससम्मान सावधान ! महामहिमामयी प्रजापालक, धर्म-रक्षक कलिंग की राजेश्वरी के लिये प्रजा मार्ग दे !’’
सोने का कलसा उठाये दासी के पीछे ड्योढ़ी में कलिंग की राजेश्वरी दिखायी दीं वे राजहंसिनी के समान मंद गति से आ रही थीं। महारानी का शरीर कन्धों से कमर तक हिम के समान श्वेत दुशाले से ढँका हुआ था। रूखे काले केश पीठ पर फैले हुए थे। कमर से पाँव के नखों तक श्वेत रेशमी वस्त्र का अन्तरवासक लिपटा हुआ था। महारानी माथे को तनिक झुकाये, हाथ जोड़े, मंत्रपाठ करती हुई चल रही थीं। शरीर पर कोई आभूषण न था। उनका सौम्य रूप भक्ति, बौद्ध श्रमणों के विनय और शील के नियमों तथा संयम का प्रतीक था। महारानी के पीछे दो दासियाँ बड़े-बड़े थालों में पूजा का प्रसाद लिये थीं।
चैत्य के सामने राजपुरुषों द्वारा रोकी हुई भीड़ में से कम्पित पुकारें सुनायी दीं–
‘‘राजेश्वरी की जय हो !
अन्नदाता की जय हो !
अभयदान हो !
रक्षा हो !’’
पाठ में मग्न महारानी ने भीड़ की अस्पष्ट पुकार सुनी। उन्होंने अनुमान किया, भिक्षार्थियों की भीड़ भिक्षा चाहती है। महारानी ने प्रसाद का थाल लिये एक दासी को भीड़ में प्रसाद बाँट देने का संकेत कर दिया और पालकी में बैठ गयीं।
भीड़ की ओर से कोलाहल और पुकारों का स्वर पूर्वापेक्षा हो गया :
‘‘भगवती राज़ेश्वरी की जय हो !
अभयदान मिले !
रक्षा मिले !
न्याय मिले !’’
महारानी की दृष्टि भीड़ की ओर गयी। उन्होंने कुहासे से फूटती किरणों से नेत्रों को ओट देने के लिए भँवों पर हाथ रख कर उस ओर देखा और चँवरधारिणी यवनी को सम्बोधन किया–‘‘प्रजा क्या चाहती है, निवेदन करे !’’
यवनी तुरन्त दौड़कर, भीड़ को रोके हुए, राजपुरुषों के समीप पहुँची। राजपुरुषों ने भीड़ को पालकी के समीप जाने का मार्ग दे दिया। दरिद्र लोग पालकी से कुछ अन्तर पर ही रुक गये। उन्होंने पृथ्वी पर माथा रख कर, दण्डवत् करके अभयदान माँगा और न्याय के लिये दुहाई दी।
राजदंडधारी चारण महारानी का भाव जानकर आगे बढ़ गया और उसने भीड़ को सम्बोधन किया–‘‘परमभगवती, प्रजापालक, कलिंग की राजेश्वरी अभयदान देती हैं। प्रजा न्याय के लिये प्रार्थना करे !’’
भीड़ में से एक वृद्ध काँपते हुए आगे बढ़ा। उसने धरती को छू, कर-बद्ध होकर कंपित स्वर में प्रार्थना की–‘‘परमभगवती माता, दीनों को न्याय की भिक्षा मिले। दीनों पर अन्याय हो रहा है। भगवती की प्रजा से उनके बाप-दादा की धरती छीनी जा रही है। प्रजा की झोप़ड़ियाँ उजाड़ी जा रही हैं। अन्नदाता, रक्षा मिले !’’
महारानी के सौम्य, गौर मुख पर चिन्ता की छाया आ गयी। उन्होंने पालकी के समीप खड़े राजपुरुषों के यूथप को सम्बोधन किया–‘‘प्रजा क्या कह रही है ? क्या ऐसा हो रहा है ? ऐसा क्यों हो रहा है ? किसके आदेश से हो रहा है ?’’
यूथप ने भीड़ को सम्बोधन किया–‘‘परमभगवती, धर्म-रक्षक राजेश्वरी जानना चाहती हैं, क्या ऐसा हो रहा है ? ऐसा क्यों हो रहा है ? किसके आदेश से हो रहा है।’’
भीड़ में से कई पुकारें एक साथ सुनायी दीं–‘‘राजपुरुष और सैनिक हमारा गाँव उजाड़ने का आदेश देते हैं। राजपुरुष कहते हैं, महासेनापति की ऐसी आज्ञा है। हमारी बस्ती की धरती पर एक महादुर्ग बनाया जायेगा, एक महाप्रासाद का निर्माण होगा।’’
दीन प्रजा की गुहार सुनकर नकार के संकेत से खिन्न श्वर से बोलीं–‘‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा। हमें दुर्ग नहीं चाहिए, दूसरा राजप्रासाद नहीं चाहिए। परिग्रह में संतोष और शांति नहीं है। यूथप प्रजा को आश्वासन दे, ऐसा अन्याय नहीं होगा। किसी का स्थान और धरती नहीं छीनी जायेगी। हम आश्वासन देते हैं, ऐसा नहीं होगा।’’
यूथप ने प्रजा की ओर बढ़कर महारानी का संदेश सुना दिया।
प्रजा के आर्त और कातर कंठ सबल हो गये। प्रजा ने ऊँचे स्वर से कलिंग की राजेश्वरी का जय-जयकार किया–
‘‘परमभगवती महारानी की जय हो !
राजेश्वरी माता का प्रताप अखंड हो !
अन्नदाता माता की जय हो!
दयासागर भगवती की जय हो !’’
चारण ने पालकी के सामने जाकर फिर पुकारा–‘‘परमभगवती महारानी की जय हो ! प्रजा और पौरजन, ससम्मान सावधान ! कलिंग की महामहिमामयी राजेश्वरी के लिये प्रजा मार्ग दे !’’
महारानी की पालकी चैत्य के द्वार से राजप्रासाद की ओर प्रस्थान कर गयी।
कलिंग के राजप्रासाद में अन्तःपुर के विशाल आँगन में, अलिंदों से प्रमद उद्यान की ओर चिकने श्वेत पत्थर की चौड़ी-चिकनी सीढ़ियाँ उतरती थीं। सीढ़ियों पर युवती राजदासी हिता, युवराज्ञी की प्रतीक्षा में खड़ी थी। हिता का सिर, कंधे और नाभि तक शरीर मोटे-पीले वस्त्र से ढँका था। आँचल में कुछ हलका बोझ होने से वस्त्र, उसके सुडौल पुष्ट शरीर से नाभि तक खिंचा हुआ था। उसकी डमरू जैसी कटि पर कसी लाल धोती में उसके शरीर की सुघड़ वर्तुलता और खरादे हुए पलंग के पाँवों के समान पिंडलियों की गोलाइया छिप नहीं पा रही थीं। दासी शरीर के ऊपरी भाग का सन्तुलन बनाये रखने के लिए बायाँ हाथ कमर पर रखे, कंधों को तनिक पीछे झुकाये थी। उसके दायें हाथ में बलवान कुत्ते बभ्रु की जंजीर का सिरा था। बभ्रु प्रातः प्रथम मिलन के समय स्नेहविह्वल हो बार-बार अपनी गुलाबी लपलपाती जीभ से हिता का हाथ छू देता था। हिता उसे स्नेह से डाँट देती थी–‘‘हट पागल !’’ बभ्रु के गले से लटकी हुई जंजीर व्यर्थ ही जान पड़ती थी। वह स्नेह की जंजीर से बँधा स्वयं ही हिता से चिपटा जा रहा था।
हिता और बभ्रु भिन्न जाति के जीव थे परन्तु दोनों के शरीर की गठन में अनुपात का बहुत साम्य था। उभरा हुआ सुडौल वक्षस्थल, दो हाथों के अर्थ चन्द्रों में समा सकने योग्य कटि। जाँघें भी गठी हुईं और गोल। नेत्रों में भी एक जैसी तीक्ष्णता। हेमन्त की कुहासा भरी वायु से दोनों को ही रोमांच हो रहा था परन्तु दोनों में ही तत्परता का भाव था। दोनों प्रतीक्षा में, अलिंद में खुलने वाली दीर्धिका की ओऱ पल-पल देख लेते थे। दीर्धिका की ओर देखते समय बभ्रु का कभी दायाँ कान खड़ा हो जाता, कभी दायाँ कान गिरकर बायाँ उठ जाता।
बभ्रु सहसा अलिंद की ओर उछला। उसका शरीर गले में बँधी जंजीर पर तुल गया। जंजीर तन गयी और जंजीर को थामें दासी की बाँह भी तन गयी। अपने स्थान से खिंच न जाने के प्रयत्न में हिता का शरीर भी जंजीर पर दूसरी दिशा में तुल गया। उसने आँचल के अन्न को गिरने न देने के लिये उदर पर दबा लिया। हिता ने बभ्रु की व्याकुलता से अनुमान कर लिया कि कुत्ते के तीखे नाक और कानों ने दीर्घिका में युवराज्ञी की आहट पा ली है। पल भर में ही युवराज्ञी दीर्घिका से अलिंद में प्रकट हो गयीं।
महाराजकुमारी अमिता के काले, चिकने काकुल मोतियों की लड़ियों से गुँथे हुए थे, परन्तु उछल-कूद के कारण उसके गोल, गोरे चेहरे पर बिखर गये थे। राजकुमारी के शरीर पर सोने के तारों के कढ़े लाल दुशाले के कपड़े की बंड़ी थी। बालिका के फूले हुए शरीर में उदर और कटि का भेद न जान पड़ता था। पीले रेशम का छोटा-सा शाटक उसके उदर परसोने की मेखला से अटका हुआ था। कोमल कलाइयों पर रत्न-जटिल छोटे-छोटे कंगन थे। चन्दहार उछल-कूद के कारण कंधे पर अटका हुआ था।
बालिका महाराजकुमारी प्रति दो पग दौड़कर तीसरे पग पर उछलती आ रही थी। उनके पीछे-पीछे आता वृद्ध कंचुकी उद्दाल लम्बे चोंगे पर राजकीय चिह्न बाँधे, द्रुत गति के कारण हाँफ रहा था। उद्दाल का चेहरा अतिवार्धक्य के कारण पीले पड़ गये दाढ़ी-मूँछ से ढँका हुआ था। उसके माथे पर अनुभव की रेखायें थीं जिन्हें उत्तरदायित्व के बोझ ने और भी गहरा कर दिया था। उद्दाल के पीछे हाँफती हुई प्रौढ़ा दासी वापी आ रही थी। वापी के हाथ में राजकुमारी के लिये लाल चमड़े के छोटे-छोटे, सुन्दर जूते थे।
महाराजकुमारी अमिता ने बभ्रु को स्नेह के आवेश से अपनी ओर लपकते देखकर अपनी छोटी, गोल, कोंपलों के समान उसके ओंठ आगे बढ़ कर गोल हो गये। उसने कुत्ते को पुचकार लिया–‘‘आ बभ्रु, आ !’’
बभ्रु एक बार पंजे धरती पर छुआ कर और भी वेग से राजकुमारी की ओर लपका। हिता ने जंजीर को दोनों हाथों से पकड़ कर कुत्ते को रोके रहने के लिये पूरी शक्ति लगा दी। हेमन्त के शीत से कंटकित हिता का गेहुँआ शरीर श्रम की ऊष्णता से चिकना हो गया और माथे पर स्वेद के महीन कण छलक आये। दासी की आशंका थी, पशु स्नेह के उद्वेग में दौड़कर युवराज्ञी को धक्का न दे दे। कंचुकी ने दूर से ही तर्जनी उठाकर कुत्ते को शान्त रहने के लिये धमकाया। बेचारे पशु ने विवश होकर अपना पेट धरती पर चिपका दिया और मुख धरती पर रगड़-रगड़ कर ‘कूं-कूं’ करने लगा।
अमिता कुत्ते के समीप बैठ गयी और प्यार से उसका सिर अपनी गोद में ले लिया और पुचकारने लगी। हिता तब भी बभ्रु की साँकल को सतर्कता से खींचे हुए थी कि वह स्नेह की मूढ़ता में राजकुमारी के मुख को अपनी जीभ से न छू ले। ज्योंही बभ्रु अधीर होकर अपनी जीभ अमिता के मुख की ओर बढ़ाता, हिता जंजीर खींच लेती।
प्रौढ़ा दासी वापी ने आगे बढ़ कर अमिता के जूते उसके सम्मुख रख कर विनय की–‘‘अम्मे महारानी जूते पहन लें। घास में छिपा कीट-कंटक कोमल चरणों को कष्ट देगा। बहुत पीड़ा होगी।’’
अमिता ने अपनी घुँघराली अलकें नकार में झटक कर जूते पहनने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी और सीढ़ियों से उछलती-कूदती प्रमद-उद्यान में उतरने लगी।
कलिंग की युवराज्ञी महाराजकुमारी अमिता की आयु छः वर्ष की थी। मगध के सम्राट बिंदुसार के पुत्र अशोक ने सिंगासनारूढ़ होने के पश्चात् चार वर्ष तक अपने अंतरंग प्रतिद्वन्द्वियों और शत्रुओं को निर्मूल किया था। राजवंश के प्रतिद्वन्द्वियों से निश्चित होकर अशोक ने अपना राज्याभिषेक कर सम्राट की पदवी ग्रहण की और बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् उसने दक्षिण दिशा में, साम्राज्य के प्रसार के लिये कलिंग देश पर आक्रमण किया।
कलिंग के महाप्रतापी, देवरक्षित, धर्मरक्षक महाराजाधिराज करवेल ने साम्राज्य के विस्तार की इच्छा करने वाले मगध-सम्राट अशोक के आक्रमण का प्रतिरोध अपनेराज्य की सीमा पर स्वयं सेना लेकर किया। हाथी पर चढ़ कर रणक्षेत्र में अपनी सेना का संचालन करते समय कलिंगराज के शरीर में कई बाण लग गये थे। महाराज शरीर में लगे घावों की चिन्ता न कर, अशोक की सेना को अपने राज्य की सीमा से पचास योजन दूर पीछे हटाकर ही राजधानी लौटे। महाराज युद्ध में तो विजयी हुए परन्तु युद्ध में लगे घावों की चिकित्सा अनेक चतुर वैद्यों और शल्य-क्रिया-दक्ष चिकित्सकों द्वारा एक वर्ष तक की जाने पर उन्हें स्वास्थ्य लाभ न हुआ।
जिस समय अशोक ने कलिंग को अपने साम्राज्य में समेट लेने के लिए प्रथम आक्रमण किया था, कलिंगराज करवेल को राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए आठ वर्ष बीत चुके थे पर पूर्ण युवा महाराज उस समय तक निःसन्तान ही थे। महारानी भी सन्तान के अभाव से दुखी थीं। अशोक के आक्रमण से एक वर्ष पूर्व महारानी नन्दा ने कलिंग नगर में आये योगी बौद्ध स्थविर जीवन की चमत्कार सिद्धि की प्रसंशा सुनी थी। उन्होंने स्थविर के सम्मुख बंध्यापन का अभिशाप दूर करने के लिये प्रार्थना की। स्थविर जीवक के आशीर्वाद से उन्होंने गर्भ धारण किया था। ज्योतिषियों द्वारा बतायी जिस शुभ घड़ी में महाराज ने अशोक के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिये उत्तर दिशा की ओर रणयात्रा की उसी घड़ी में महारानी नन्दा ने प्रथम सन्तान राजकुमारी को जन्म दिया था। राज-ज्योतिषी ने महाराज के विजय अभियान मुहूर्त में राजकुमारी के अमित, अक्षय वैभव और प्रतापी होने की भविष्यवाणी की थी। ज्योतिषी की गणना के अनुसार राजकुमारी के अमित वैभव और पराक्रमं की स्वामिनी होने के विश्वास में राजकुमारी का नाम अमिता रखा गया था।
कलिंगराज वीर प्रकृति के थे। भरे यौवन में युद्ध के घावों के कारण वीरगति से देवलोक आरोहण करते समय भी वे अधीर नहीं हुए।
नया चैत्य नगर के पश्चिम भाग में प्राचीर के समीप था। चैत्य की श्वेत पत्थर से बनी प्रशस्त ड्योढ़ी, उजले कुहासे से भरे आकाश में स्वप्न-जगत के प्रासाद के द्वार की ध्वनि घने कोहरे के कारण दूर तक नहीं जा रही थी। ड्योढ़ी के समीप आने पर चैत्य के अलिन्दों में, कुशासनों पर पद्यासन से बैठे पीत चीवरधारी भिक्षु भी दिखायी दे जाते थे।
श्वेत ड्योढ़ी की सीढ़ियाँ काले पत्थर की थीं। सीढ़ियों के समीप राजदंडधारी चारण स्वर्ण-खचित वस्त्रों से ढँकी बड़ी पालकी रखी हुई थी। पालकी के डाँडों के साथ-साथ पीली पगड़ियाँ और लाल कुर्तियों पर पीले कमर-पट्टे बाँधे आठ वाहक बैठे थे। शिविकावाहक शीत के कारण घुटनों को बाँहों में समेटे, ठड्डी को घुटनों पर टिकाये थे। घंटे की टंकार से वे भी सतर्क हो गये। पालकी के दाये-बायें द्वारों के समीप, दुपट्टों से वक्षस्थल और धोती के फेंटे से कमर करे यवनियाँ खड़ी थीं। टंकार सुनकर उनके हाथ में थमे खड्ग सीधे हो गये। पालकी के चारों ओर खड़े सशस्त्र राजपुरुष भी चौकस हो गये। सभी लोगों के नेत्र ड्योढ़ी की ओर उठ गये।
चैत्य की ड्योढ़ी से प्रायः पच्चीस कदम के अन्तर पर दरिद्र नर-नारियों की छोटी-सी भीड़ खड़ी थी। कुछ राजपुरुष उस भीड़ को आगे बढ़ने से रोके हुए थे। उस शीत में भी भीड़ के लोगों के शरीरों पर कम ही वस्त्र थे उनके सिरों पर फटी-पुरानी पगड़ियाँ, कमर तक अँगरखे और घुटनों तक कपड़ों के छोटे टुकड़े लिपटे हुए थे। कुछ लोग केवल धोती मात्र से ही कंधे से घुटनों तक शरीर को लपेटे थे। वे लोग शीत से और राजपुरुषों के भय से भी सिकुड़े हुए थे। घंटे की गूँज से भयातुर भीड़ की आँखें भी ड्योढ़ी की ओर उठ गयीं।
चैत्य की ड्योढ़ी में एक राज-दासी कंधे पर स्वर्ण-कलश उठाये दिखायी दी। दासी ने ड्योढ़ी के तोरण से लटके घंटे के नीचे से आते समय, बाँह उठा कर घंटे की जिह्वा को हिला दिया था।
राज-दासी को देखकर राज-दंडधारी चारण ने दंड उठा कर ऊँचे स्वर में घोषणा की–‘‘परमभगवती की जय हो ! प्रजा और पौरजन ससम्मान सावधान ! महामहिमामयी प्रजापालक, धर्म-रक्षक कलिंग की राजेश्वरी के लिये प्रजा मार्ग दे !’’
सोने का कलसा उठाये दासी के पीछे ड्योढ़ी में कलिंग की राजेश्वरी दिखायी दीं वे राजहंसिनी के समान मंद गति से आ रही थीं। महारानी का शरीर कन्धों से कमर तक हिम के समान श्वेत दुशाले से ढँका हुआ था। रूखे काले केश पीठ पर फैले हुए थे। कमर से पाँव के नखों तक श्वेत रेशमी वस्त्र का अन्तरवासक लिपटा हुआ था। महारानी माथे को तनिक झुकाये, हाथ जोड़े, मंत्रपाठ करती हुई चल रही थीं। शरीर पर कोई आभूषण न था। उनका सौम्य रूप भक्ति, बौद्ध श्रमणों के विनय और शील के नियमों तथा संयम का प्रतीक था। महारानी के पीछे दो दासियाँ बड़े-बड़े थालों में पूजा का प्रसाद लिये थीं।
चैत्य के सामने राजपुरुषों द्वारा रोकी हुई भीड़ में से कम्पित पुकारें सुनायी दीं–
‘‘राजेश्वरी की जय हो !
अन्नदाता की जय हो !
अभयदान हो !
रक्षा हो !’’
पाठ में मग्न महारानी ने भीड़ की अस्पष्ट पुकार सुनी। उन्होंने अनुमान किया, भिक्षार्थियों की भीड़ भिक्षा चाहती है। महारानी ने प्रसाद का थाल लिये एक दासी को भीड़ में प्रसाद बाँट देने का संकेत कर दिया और पालकी में बैठ गयीं।
भीड़ की ओर से कोलाहल और पुकारों का स्वर पूर्वापेक्षा हो गया :
‘‘भगवती राज़ेश्वरी की जय हो !
अभयदान मिले !
रक्षा मिले !
न्याय मिले !’’
महारानी की दृष्टि भीड़ की ओर गयी। उन्होंने कुहासे से फूटती किरणों से नेत्रों को ओट देने के लिए भँवों पर हाथ रख कर उस ओर देखा और चँवरधारिणी यवनी को सम्बोधन किया–‘‘प्रजा क्या चाहती है, निवेदन करे !’’
यवनी तुरन्त दौड़कर, भीड़ को रोके हुए, राजपुरुषों के समीप पहुँची। राजपुरुषों ने भीड़ को पालकी के समीप जाने का मार्ग दे दिया। दरिद्र लोग पालकी से कुछ अन्तर पर ही रुक गये। उन्होंने पृथ्वी पर माथा रख कर, दण्डवत् करके अभयदान माँगा और न्याय के लिये दुहाई दी।
राजदंडधारी चारण महारानी का भाव जानकर आगे बढ़ गया और उसने भीड़ को सम्बोधन किया–‘‘परमभगवती, प्रजापालक, कलिंग की राजेश्वरी अभयदान देती हैं। प्रजा न्याय के लिये प्रार्थना करे !’’
भीड़ में से एक वृद्ध काँपते हुए आगे बढ़ा। उसने धरती को छू, कर-बद्ध होकर कंपित स्वर में प्रार्थना की–‘‘परमभगवती माता, दीनों को न्याय की भिक्षा मिले। दीनों पर अन्याय हो रहा है। भगवती की प्रजा से उनके बाप-दादा की धरती छीनी जा रही है। प्रजा की झोप़ड़ियाँ उजाड़ी जा रही हैं। अन्नदाता, रक्षा मिले !’’
महारानी के सौम्य, गौर मुख पर चिन्ता की छाया आ गयी। उन्होंने पालकी के समीप खड़े राजपुरुषों के यूथप को सम्बोधन किया–‘‘प्रजा क्या कह रही है ? क्या ऐसा हो रहा है ? ऐसा क्यों हो रहा है ? किसके आदेश से हो रहा है ?’’
यूथप ने भीड़ को सम्बोधन किया–‘‘परमभगवती, धर्म-रक्षक राजेश्वरी जानना चाहती हैं, क्या ऐसा हो रहा है ? ऐसा क्यों हो रहा है ? किसके आदेश से हो रहा है।’’
भीड़ में से कई पुकारें एक साथ सुनायी दीं–‘‘राजपुरुष और सैनिक हमारा गाँव उजाड़ने का आदेश देते हैं। राजपुरुष कहते हैं, महासेनापति की ऐसी आज्ञा है। हमारी बस्ती की धरती पर एक महादुर्ग बनाया जायेगा, एक महाप्रासाद का निर्माण होगा।’’
दीन प्रजा की गुहार सुनकर नकार के संकेत से खिन्न श्वर से बोलीं–‘‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा। हमें दुर्ग नहीं चाहिए, दूसरा राजप्रासाद नहीं चाहिए। परिग्रह में संतोष और शांति नहीं है। यूथप प्रजा को आश्वासन दे, ऐसा अन्याय नहीं होगा। किसी का स्थान और धरती नहीं छीनी जायेगी। हम आश्वासन देते हैं, ऐसा नहीं होगा।’’
यूथप ने प्रजा की ओर बढ़कर महारानी का संदेश सुना दिया।
प्रजा के आर्त और कातर कंठ सबल हो गये। प्रजा ने ऊँचे स्वर से कलिंग की राजेश्वरी का जय-जयकार किया–
‘‘परमभगवती महारानी की जय हो !
राजेश्वरी माता का प्रताप अखंड हो !
अन्नदाता माता की जय हो!
दयासागर भगवती की जय हो !’’
चारण ने पालकी के सामने जाकर फिर पुकारा–‘‘परमभगवती महारानी की जय हो ! प्रजा और पौरजन, ससम्मान सावधान ! कलिंग की महामहिमामयी राजेश्वरी के लिये प्रजा मार्ग दे !’’
महारानी की पालकी चैत्य के द्वार से राजप्रासाद की ओर प्रस्थान कर गयी।
कलिंग के राजप्रासाद में अन्तःपुर के विशाल आँगन में, अलिंदों से प्रमद उद्यान की ओर चिकने श्वेत पत्थर की चौड़ी-चिकनी सीढ़ियाँ उतरती थीं। सीढ़ियों पर युवती राजदासी हिता, युवराज्ञी की प्रतीक्षा में खड़ी थी। हिता का सिर, कंधे और नाभि तक शरीर मोटे-पीले वस्त्र से ढँका था। आँचल में कुछ हलका बोझ होने से वस्त्र, उसके सुडौल पुष्ट शरीर से नाभि तक खिंचा हुआ था। उसकी डमरू जैसी कटि पर कसी लाल धोती में उसके शरीर की सुघड़ वर्तुलता और खरादे हुए पलंग के पाँवों के समान पिंडलियों की गोलाइया छिप नहीं पा रही थीं। दासी शरीर के ऊपरी भाग का सन्तुलन बनाये रखने के लिए बायाँ हाथ कमर पर रखे, कंधों को तनिक पीछे झुकाये थी। उसके दायें हाथ में बलवान कुत्ते बभ्रु की जंजीर का सिरा था। बभ्रु प्रातः प्रथम मिलन के समय स्नेहविह्वल हो बार-बार अपनी गुलाबी लपलपाती जीभ से हिता का हाथ छू देता था। हिता उसे स्नेह से डाँट देती थी–‘‘हट पागल !’’ बभ्रु के गले से लटकी हुई जंजीर व्यर्थ ही जान पड़ती थी। वह स्नेह की जंजीर से बँधा स्वयं ही हिता से चिपटा जा रहा था।
हिता और बभ्रु भिन्न जाति के जीव थे परन्तु दोनों के शरीर की गठन में अनुपात का बहुत साम्य था। उभरा हुआ सुडौल वक्षस्थल, दो हाथों के अर्थ चन्द्रों में समा सकने योग्य कटि। जाँघें भी गठी हुईं और गोल। नेत्रों में भी एक जैसी तीक्ष्णता। हेमन्त की कुहासा भरी वायु से दोनों को ही रोमांच हो रहा था परन्तु दोनों में ही तत्परता का भाव था। दोनों प्रतीक्षा में, अलिंद में खुलने वाली दीर्धिका की ओऱ पल-पल देख लेते थे। दीर्धिका की ओर देखते समय बभ्रु का कभी दायाँ कान खड़ा हो जाता, कभी दायाँ कान गिरकर बायाँ उठ जाता।
बभ्रु सहसा अलिंद की ओर उछला। उसका शरीर गले में बँधी जंजीर पर तुल गया। जंजीर तन गयी और जंजीर को थामें दासी की बाँह भी तन गयी। अपने स्थान से खिंच न जाने के प्रयत्न में हिता का शरीर भी जंजीर पर दूसरी दिशा में तुल गया। उसने आँचल के अन्न को गिरने न देने के लिये उदर पर दबा लिया। हिता ने बभ्रु की व्याकुलता से अनुमान कर लिया कि कुत्ते के तीखे नाक और कानों ने दीर्घिका में युवराज्ञी की आहट पा ली है। पल भर में ही युवराज्ञी दीर्घिका से अलिंद में प्रकट हो गयीं।
महाराजकुमारी अमिता के काले, चिकने काकुल मोतियों की लड़ियों से गुँथे हुए थे, परन्तु उछल-कूद के कारण उसके गोल, गोरे चेहरे पर बिखर गये थे। राजकुमारी के शरीर पर सोने के तारों के कढ़े लाल दुशाले के कपड़े की बंड़ी थी। बालिका के फूले हुए शरीर में उदर और कटि का भेद न जान पड़ता था। पीले रेशम का छोटा-सा शाटक उसके उदर परसोने की मेखला से अटका हुआ था। कोमल कलाइयों पर रत्न-जटिल छोटे-छोटे कंगन थे। चन्दहार उछल-कूद के कारण कंधे पर अटका हुआ था।
बालिका महाराजकुमारी प्रति दो पग दौड़कर तीसरे पग पर उछलती आ रही थी। उनके पीछे-पीछे आता वृद्ध कंचुकी उद्दाल लम्बे चोंगे पर राजकीय चिह्न बाँधे, द्रुत गति के कारण हाँफ रहा था। उद्दाल का चेहरा अतिवार्धक्य के कारण पीले पड़ गये दाढ़ी-मूँछ से ढँका हुआ था। उसके माथे पर अनुभव की रेखायें थीं जिन्हें उत्तरदायित्व के बोझ ने और भी गहरा कर दिया था। उद्दाल के पीछे हाँफती हुई प्रौढ़ा दासी वापी आ रही थी। वापी के हाथ में राजकुमारी के लिये लाल चमड़े के छोटे-छोटे, सुन्दर जूते थे।
महाराजकुमारी अमिता ने बभ्रु को स्नेह के आवेश से अपनी ओर लपकते देखकर अपनी छोटी, गोल, कोंपलों के समान उसके ओंठ आगे बढ़ कर गोल हो गये। उसने कुत्ते को पुचकार लिया–‘‘आ बभ्रु, आ !’’
बभ्रु एक बार पंजे धरती पर छुआ कर और भी वेग से राजकुमारी की ओर लपका। हिता ने जंजीर को दोनों हाथों से पकड़ कर कुत्ते को रोके रहने के लिये पूरी शक्ति लगा दी। हेमन्त के शीत से कंटकित हिता का गेहुँआ शरीर श्रम की ऊष्णता से चिकना हो गया और माथे पर स्वेद के महीन कण छलक आये। दासी की आशंका थी, पशु स्नेह के उद्वेग में दौड़कर युवराज्ञी को धक्का न दे दे। कंचुकी ने दूर से ही तर्जनी उठाकर कुत्ते को शान्त रहने के लिये धमकाया। बेचारे पशु ने विवश होकर अपना पेट धरती पर चिपका दिया और मुख धरती पर रगड़-रगड़ कर ‘कूं-कूं’ करने लगा।
अमिता कुत्ते के समीप बैठ गयी और प्यार से उसका सिर अपनी गोद में ले लिया और पुचकारने लगी। हिता तब भी बभ्रु की साँकल को सतर्कता से खींचे हुए थी कि वह स्नेह की मूढ़ता में राजकुमारी के मुख को अपनी जीभ से न छू ले। ज्योंही बभ्रु अधीर होकर अपनी जीभ अमिता के मुख की ओर बढ़ाता, हिता जंजीर खींच लेती।
प्रौढ़ा दासी वापी ने आगे बढ़ कर अमिता के जूते उसके सम्मुख रख कर विनय की–‘‘अम्मे महारानी जूते पहन लें। घास में छिपा कीट-कंटक कोमल चरणों को कष्ट देगा। बहुत पीड़ा होगी।’’
अमिता ने अपनी घुँघराली अलकें नकार में झटक कर जूते पहनने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी और सीढ़ियों से उछलती-कूदती प्रमद-उद्यान में उतरने लगी।
कलिंग की युवराज्ञी महाराजकुमारी अमिता की आयु छः वर्ष की थी। मगध के सम्राट बिंदुसार के पुत्र अशोक ने सिंगासनारूढ़ होने के पश्चात् चार वर्ष तक अपने अंतरंग प्रतिद्वन्द्वियों और शत्रुओं को निर्मूल किया था। राजवंश के प्रतिद्वन्द्वियों से निश्चित होकर अशोक ने अपना राज्याभिषेक कर सम्राट की पदवी ग्रहण की और बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् उसने दक्षिण दिशा में, साम्राज्य के प्रसार के लिये कलिंग देश पर आक्रमण किया।
कलिंग के महाप्रतापी, देवरक्षित, धर्मरक्षक महाराजाधिराज करवेल ने साम्राज्य के विस्तार की इच्छा करने वाले मगध-सम्राट अशोक के आक्रमण का प्रतिरोध अपनेराज्य की सीमा पर स्वयं सेना लेकर किया। हाथी पर चढ़ कर रणक्षेत्र में अपनी सेना का संचालन करते समय कलिंगराज के शरीर में कई बाण लग गये थे। महाराज शरीर में लगे घावों की चिन्ता न कर, अशोक की सेना को अपने राज्य की सीमा से पचास योजन दूर पीछे हटाकर ही राजधानी लौटे। महाराज युद्ध में तो विजयी हुए परन्तु युद्ध में लगे घावों की चिकित्सा अनेक चतुर वैद्यों और शल्य-क्रिया-दक्ष चिकित्सकों द्वारा एक वर्ष तक की जाने पर उन्हें स्वास्थ्य लाभ न हुआ।
जिस समय अशोक ने कलिंग को अपने साम्राज्य में समेट लेने के लिए प्रथम आक्रमण किया था, कलिंगराज करवेल को राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए आठ वर्ष बीत चुके थे पर पूर्ण युवा महाराज उस समय तक निःसन्तान ही थे। महारानी भी सन्तान के अभाव से दुखी थीं। अशोक के आक्रमण से एक वर्ष पूर्व महारानी नन्दा ने कलिंग नगर में आये योगी बौद्ध स्थविर जीवन की चमत्कार सिद्धि की प्रसंशा सुनी थी। उन्होंने स्थविर के सम्मुख बंध्यापन का अभिशाप दूर करने के लिये प्रार्थना की। स्थविर जीवक के आशीर्वाद से उन्होंने गर्भ धारण किया था। ज्योतिषियों द्वारा बतायी जिस शुभ घड़ी में महाराज ने अशोक के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिये उत्तर दिशा की ओर रणयात्रा की उसी घड़ी में महारानी नन्दा ने प्रथम सन्तान राजकुमारी को जन्म दिया था। राज-ज्योतिषी ने महाराज के विजय अभियान मुहूर्त में राजकुमारी के अमित, अक्षय वैभव और प्रतापी होने की भविष्यवाणी की थी। ज्योतिषी की गणना के अनुसार राजकुमारी के अमित वैभव और पराक्रमं की स्वामिनी होने के विश्वास में राजकुमारी का नाम अमिता रखा गया था।
कलिंगराज वीर प्रकृति के थे। भरे यौवन में युद्ध के घावों के कारण वीरगति से देवलोक आरोहण करते समय भी वे अधीर नहीं हुए।
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