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मॉरिशस के यशस्वी कथाकार अभिमन्यु अनत का एक सामाजिक उपन्यास...
Lal Paseena - A Hindi Book - by Abhimanyu Anat
मॉरिशस के यशस्वी कथाकार अभिमन्यु अनत का यह उपन्यास उनके लेखन में एक नए दौर की शुरुआत है। इस उपन्यास में वे देश और काल की सीमाओं में बँधी मानवीय पीड़ा को मुक्त करके साधारणीकरण की जिस उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित कर सके हैं, वह उनके रचनाकार की ही नहीं, समूचे हिन्दी कथा-साहित्य की एक उपलब्धि मानी जाएगी।
मॉरिशस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में उन भारतीय मजदूरों के जीवन-संघर्षों की कहानी है, जिन्हें चालाक फ्रांसीसी और ब्रिटिश उपनिवेशवादी सोना मिलने के सब्जबाग दिखाकर मॉरिशस ले गए थे। वे भोले-भाले निरीह मजदूर अपनी जरूरत की मामूली-सी चीज़ें लेकर अपने परिवारों के साथ वहाँ पहुँच गए। उन्होंने वहाँ की चट्टानों को तोड़कर समतल बनाया, और उनकी मेहनत से वह धरती रसीले और ठोस गन्ने के रूप में सचमुच सोना उगलने लगी। आज मॉरिशस की समृद्ध अर्थव्यवस्था का आधार गन्ने की यह खेती ही है। लेकिन जिन भारतीयों के खून और पसीने से वहाँ की चट्टानें उपजाऊ मिट्टी के रूप में परिवर्तित हुई, उन्हें क्या मिला ? यह उपन्यास मॉरिशस के इतिहास के उन्हीं पन्नों का उत्खनन है जिन पर भारतीय मजदूरों का खून छिटका हुआ है, और जिन्हें वक्त की आग जला नहीं पाई। आज मॉरिशस एक सुखी-सम्पन्न मुल्क के रूप में देखा जाता है।
मॉरिशस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में उन भारतीय मजदूरों के जीवन-संघर्षों की कहानी है, जिन्हें चालाक फ्रांसीसी और ब्रिटिश उपनिवेशवादी सोना मिलने के सब्जबाग दिखाकर मॉरिशस ले गए थे। वे भोले-भाले निरीह मजदूर अपनी जरूरत की मामूली-सी चीज़ें लेकर अपने परिवारों के साथ वहाँ पहुँच गए। उन्होंने वहाँ की चट्टानों को तोड़कर समतल बनाया, और उनकी मेहनत से वह धरती रसीले और ठोस गन्ने के रूप में सचमुच सोना उगलने लगी। आज मॉरिशस की समृद्ध अर्थव्यवस्था का आधार गन्ने की यह खेती ही है। लेकिन जिन भारतीयों के खून और पसीने से वहाँ की चट्टानें उपजाऊ मिट्टी के रूप में परिवर्तित हुई, उन्हें क्या मिला ? यह उपन्यास मॉरिशस के इतिहास के उन्हीं पन्नों का उत्खनन है जिन पर भारतीय मजदूरों का खून छिटका हुआ है, और जिन्हें वक्त की आग जला नहीं पाई। आज मॉरिशस एक सुखी-सम्पन्न मुल्क के रूप में देखा जाता है।
लाल पसीना
वह नाव ताम्रपर्णी से निकली थी। दोनों भिक्षु नाविक कलिंग के थे। पांड्य देश में दोनों भिक्षुओं ने बाक़ी भिक्षुओं से अलग अपना निर्णय लिया था। उनसे पहले निकले भिक्षु भवन, काम्बोज, गान्धार-जैसे देशों को पहुँच चुके थे। यह सूचना उन्हें कलिंग में ही मिल गई थी। अतः उनकी नौका जब नई भूमि की तलाश में ताम्रपर्णी पहुँची तो उन्होंने देखा कि वहाँ भी पहले से ही भिक्षु पहुँचे हुए थे।
ताम्रपर्णी में उन्होंने चुनी हुई लकड़ियों से अधिक विश्वसनीय नाव बनवाई। नई भूमि पर प्रथम पहुँचने की चाह लिए दोनों ने वहाँ से नई यात्रा शुरू की। सुदूर पूर्व के द्वीपों की चर्चाएँ, वे सुन चुके थे। उस विस्तृत महासागर के एक द्वीप से दूसरे द्वीप को होते हुए फिर तो वे इतने अधिक आगे निकल कि न तो उन्हें स्थान का पता रहा, न दिशा का। सामने सागर विस्तृत होता चला गया था। इधर कई दिनों से वर्षा न होने के कारण और जल-पात्र ख़ाली हो जाने से उनकी अपनी स्थिति तो नाज़ुक थी ही, उनके साथ पीपल का जो अन्तिम पौधा था, वह भी मुरझाने लगा था। बीच पानी, पानी को मुहताज !
प्रथम भिक्षु ने दूसरे भिक्षु की ओर देखा। उसके साहस को बढ़ाने के लिए उसने धीरे से कहा, ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ! जाओ, बढ़ते जाओ !’’
दूसरे ने अपने सूखे होंठों को हिलने दिया। कोई स्वर नहीं फूटा। फिर भी प्रथम भिक्षु ने नेत्र बंद कर लिए, ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि...।’’
नाव चलती रही...
एकाएक–उस दोपहर में शाम का-सा धुँधलका छा गया। दोनों एक-दूसरे को देखते हुए मौन रहे। दूर, काफ़ी दूर, जहाँ एक क्षण पहले सागर और आकाश के रंग आपस में मिले हुए लग रहे थे, वहाँ लाली छा गई थी। देखते-ही-देखते सामने पहाड़-जैसे ऊँचे ज्वार-भाटे उठने लगे। हवा में उष्णता आ गई थी। दूर के प्रलयंकर ज्वार-भाटे अपने फेनिल उफान के साथ नाव के पास आते गए। कूपदंड डगमगाने लगा, उसके साथ ही नाव भी ज़ोरों से हिलने लगी। दोनों ने पूरी स्फूर्ति के साथ पाल को नीचे उतारा। नाव डगमगाती ही रही।
सागर का उथल-पुथल बढ़ता गया। उसके गहरे नीलेपन को भेदकर गहराई से दूध की-सी फेनिल लहरें गम्भीर गर्जन के साथ उठती रहीं। उस भयानक नाद से दोनों भिक्षु सहम गए थे।
बवंडर ! चक्रवात !!
और सागर चिंघाड़ता रहा। दूर की वह लालिमा विस्तार पाती गई। अपने स्वर को सागर के गम्भीर गर्जन से ऊपर उठाते हुए एक नाविक के अपने भय को प्रकट किया, ‘‘आँधी ?’’
दूसरे ने उसी आश्चर्य-भरे स्वर में कहा, ‘‘विचित्र !’’
यात्रा के दौरान यात्रियों ने कई आँधियाँ देखी थीं। चक्रवात, बवंडर सभी देखे थे लेकिन इससे भिन्न। अचानक ही एक घटाटोप अँधेरे ने पूरे वातावरण को अपने में लपेट लिया। हाथ को हाथ नहीं सूझ पा रहा था। धड़कने तेज़ होकर भी एहसास नहीं की जा रही थीं। नाव के डोलते रहने के कारण दोनों को अपने अस्तित्व का बोध बना रहा। दोनों के हाथ से पतवारें छूट गई थीं। उस गहन अदृश्य वातावरण में दोनों के हाथ आगे बढ़े। स्पर्श होते ही दोनों हाथ एक-दूसरे के साथ बँध गए। मुखड़ों पर झंझावात के थपेड़ों से दोनों ने एक बार फिर अपने जीवित होने का प्रमाण पाया। कुछ दिखाई पड़ जाना नितान्त असम्भव था।
दोनों एक-दूसरे के हाथों को थामे महासागर की उपद्रवी स्थिति का अनुभव करते रहे। भयानक कालेपन के बीच दोनों जकड़े रहे। भारी कोलाहल होता रहा। झटास का पानी नाव से भरने लगा। नाव के आसपास का पानी उबलता-सा प्रतीत हो रहा था।
बिजली कौंधी ! उसके साथ ही अँधेरा फट गया। दोनों ने विस्फारित नेत्रों से अपने सामने देखा। ऊँचे ज्वार-भाटे एकदम पास आ गए थे। पानी का रंग नीलेपन से हटकर कालेपन को आ गया था। दोनों ने चारों ओर देखा। कोई क्षितिज नहीं था सामने। चारों ओर से उफनती लहरे, विद्रोही ज्वार-भाटे...।
धमाके के साथ विस्फोट हुआ। वातावरण रंग बदलता रहा। दूसरा प्रलयंकर विस्फोट हुआ। दोनों नाव के भीतर लुढ़क गए। किसी तरह एक-दूसरे का सहारा लेकर दोनों खड़े हुए...उनके नेत्र खुले-के-खुले रह गए। जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य उनके नेत्रों के सामने व्यतीत हो रहा था। कुछ ही दूरी पर सागर के बीच अंगारे और लपटें उठती दिखाई पड़ीं। गरमी से दोनों के शरीर दग्ध हो चले थे। उनके मुखड़ों पर पानी के छींटे अब भी थे, फिर भी उन्हें पसीने का अनुभव हुआ।
ज्वार-भाटे शिथिल होते हुए। सागर के रंग बदलते रहे। आँधी, चक्रवात, बवंडर सभी कुछ थमता जा रहा था। नाव पानी से भर जाने के कारण डूबने लगी थी कि तभी बादल का-सा कोई गर्जन हुआ। बिजलियाँ चमकीं। एक-दो साधारण विस्फोट हुए...ज्वार-भाटे अपने-आप में टूट-टूटकर लहरों का रूप लेते गए। तभी दोनों को लगा कि समुद्र के पानी का तापमान बढ़ता जा रहा था...लहरें उबलती दीख रही थीं। वातावरण इतना अधिक उष्ण हो चला था कि श्वास लेना कठिन प्रतीत हो रहा था।
अभी वे सोच ही रहे थे कि यह समुद्र के बीच से निकलनेवाला कैसा ज्वालामुखी है कि तभी दूरी पर सागर को फाड़कर पहाड़-सी कोई चीज़ ऊपर आती दिखाई पड़ी। एक बार फिर चारों ओर से ज्वार-भाटे उठते दिखाई पड़े और बीच से उठनेवाला पहाड़ ऊपर को उठता गया। सागर की नाव के नीचे से भी ज्वार-भाटे उठे और नाव को दोनों भिक्षुओं के साथ-साथ ऊपर, बहुत ऊपर उठाकर फिर लपेट में ले लिया। इससे आगे का दृश्य भिक्षुओं ने नहीं देखा। वे अथाह गहराई में विलीन हो गए। द्वीप विस्तृत होता गया जब तक कि बीच के ज्वालामुखी से अंगारे निकलने बन्द न हो गए...। और इसी तरह महासागर के बीच एक नए द्वीप का जन्म हुआ।
लम्बे समय तक वह धरती बंजर बनी रही। फिर धीरे-धीरे धरती ठंडी होती गई। ज्वालामुखी का विषाक्त प्रभाव कम होता गया। वनस्पतियों का उगना आरम्भ हुआ। पक्षी और पशु भी पैदा होते गए।
इतिहास के धूमिल पन्नों से इस द्वीप को पहुँचनेवाला पहला जहाज़ द्रविड़ नाविकों का था जो सम्भवतः दिशाहीन होकर इधर भटक आया था। उस समय द्वीप निर्जीव था। द्रविड़ नाविकों को जब अन्य जहाज़ों और लोगों के इधर पहुँचने की सम्भावना नहीं दिखी तो वे वहाँ से चल पड़े।
इसी तरह समय बीतता गया। ईसा के बाद पहली शताब्दी के लगभग भारत की ओर जाते हुए अरबों की नज़र इस वीरान द्वीप पर पड़ी। उन्होंने भी सम्भवतः अधिक उम्मीद न करके उसे छोड़ दिया। इसी तरह समय-समय पर जातियाँ आती रहीं, जाती रहीं।
इतिहास के पन्ने कुछ स्पष्ट हुए। हिन्द महासागर से यात्रा करते हुए पुर्तगालियों का आगमन इस द्वीप में हुआ। इसे बसाना जब उन्हें टेढ़ी खीर प्रतीत हुआ तो वे आगे बढ़ गए। उनकी इच्छा भारत जीतने की थी। पुर्तगालियों के बाद और भी लोग आए और गए।
भारत पर अधिकार जमाने के लिए फ्रांस और इंग्लैंड के बीच संघर्ष था। उसी समय इस द्वीप को भारतविजय की सुविधा के लिए लक्ष्य में रखा गया। इसी द्वीप से होकर फ्रांसीसियों ने मद्रास में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ पहली लड़ाई लड़ी। इन्हीं लोगों के समय में मॉरिशस में भारतीयों का आगमन शुरू हो गया था। इस द्वीप के महत्त्व को समझकर अंग्रेज़ों ने भारतीय सेना के साथ फ्रांसीसियों पर आक्रमण किया और द्वीप उनके अधिकार में आ गया।
यहाँ से मॉरिशस में भारतीयों के आगमन की महत्त्वपूर्ण कहानी शुरू होती है।
इतिहास के पन्नों पर धूल जमती गई और कई पृष्ठों को जला भी दिया गया। फिर भी कुछ पन्नों को एक ऐसी स्याही से लिखा गया था, जिस पर धूल टिक नहीं पाई। चन्द ऐसे भी पन्ने थे जो भारतीय मज़दूरों के ख़ून-पसीने से कुछ इस तरह भीगे हुए थे कि उन्हें आग जला न सकी और जो पन्ने जले भी उनकी राख को खाद समझ नियति ने खेतों में बिखेर दिया। इतिहास की बलि का वह सारा रक्त बहकर खेतों के रक्त से जा मिला और...
और दबोचा हुआ वह इतिहास परतों के नीचे कैसे साँसों के लिए संघर्ष करता रहा, उसकी गवाही आज भी धरती की सोंधी गन्ध देती रहती है। लेकिन उस इतिहास को कैसे जिया गया था ?
आगे उसी जीवन की कहानी है।
ताम्रपर्णी में उन्होंने चुनी हुई लकड़ियों से अधिक विश्वसनीय नाव बनवाई। नई भूमि पर प्रथम पहुँचने की चाह लिए दोनों ने वहाँ से नई यात्रा शुरू की। सुदूर पूर्व के द्वीपों की चर्चाएँ, वे सुन चुके थे। उस विस्तृत महासागर के एक द्वीप से दूसरे द्वीप को होते हुए फिर तो वे इतने अधिक आगे निकल कि न तो उन्हें स्थान का पता रहा, न दिशा का। सामने सागर विस्तृत होता चला गया था। इधर कई दिनों से वर्षा न होने के कारण और जल-पात्र ख़ाली हो जाने से उनकी अपनी स्थिति तो नाज़ुक थी ही, उनके साथ पीपल का जो अन्तिम पौधा था, वह भी मुरझाने लगा था। बीच पानी, पानी को मुहताज !
प्रथम भिक्षु ने दूसरे भिक्षु की ओर देखा। उसके साहस को बढ़ाने के लिए उसने धीरे से कहा, ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ! जाओ, बढ़ते जाओ !’’
दूसरे ने अपने सूखे होंठों को हिलने दिया। कोई स्वर नहीं फूटा। फिर भी प्रथम भिक्षु ने नेत्र बंद कर लिए, ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि...।’’
नाव चलती रही...
एकाएक–उस दोपहर में शाम का-सा धुँधलका छा गया। दोनों एक-दूसरे को देखते हुए मौन रहे। दूर, काफ़ी दूर, जहाँ एक क्षण पहले सागर और आकाश के रंग आपस में मिले हुए लग रहे थे, वहाँ लाली छा गई थी। देखते-ही-देखते सामने पहाड़-जैसे ऊँचे ज्वार-भाटे उठने लगे। हवा में उष्णता आ गई थी। दूर के प्रलयंकर ज्वार-भाटे अपने फेनिल उफान के साथ नाव के पास आते गए। कूपदंड डगमगाने लगा, उसके साथ ही नाव भी ज़ोरों से हिलने लगी। दोनों ने पूरी स्फूर्ति के साथ पाल को नीचे उतारा। नाव डगमगाती ही रही।
सागर का उथल-पुथल बढ़ता गया। उसके गहरे नीलेपन को भेदकर गहराई से दूध की-सी फेनिल लहरें गम्भीर गर्जन के साथ उठती रहीं। उस भयानक नाद से दोनों भिक्षु सहम गए थे।
बवंडर ! चक्रवात !!
और सागर चिंघाड़ता रहा। दूर की वह लालिमा विस्तार पाती गई। अपने स्वर को सागर के गम्भीर गर्जन से ऊपर उठाते हुए एक नाविक के अपने भय को प्रकट किया, ‘‘आँधी ?’’
दूसरे ने उसी आश्चर्य-भरे स्वर में कहा, ‘‘विचित्र !’’
यात्रा के दौरान यात्रियों ने कई आँधियाँ देखी थीं। चक्रवात, बवंडर सभी देखे थे लेकिन इससे भिन्न। अचानक ही एक घटाटोप अँधेरे ने पूरे वातावरण को अपने में लपेट लिया। हाथ को हाथ नहीं सूझ पा रहा था। धड़कने तेज़ होकर भी एहसास नहीं की जा रही थीं। नाव के डोलते रहने के कारण दोनों को अपने अस्तित्व का बोध बना रहा। दोनों के हाथ से पतवारें छूट गई थीं। उस गहन अदृश्य वातावरण में दोनों के हाथ आगे बढ़े। स्पर्श होते ही दोनों हाथ एक-दूसरे के साथ बँध गए। मुखड़ों पर झंझावात के थपेड़ों से दोनों ने एक बार फिर अपने जीवित होने का प्रमाण पाया। कुछ दिखाई पड़ जाना नितान्त असम्भव था।
दोनों एक-दूसरे के हाथों को थामे महासागर की उपद्रवी स्थिति का अनुभव करते रहे। भयानक कालेपन के बीच दोनों जकड़े रहे। भारी कोलाहल होता रहा। झटास का पानी नाव से भरने लगा। नाव के आसपास का पानी उबलता-सा प्रतीत हो रहा था।
बिजली कौंधी ! उसके साथ ही अँधेरा फट गया। दोनों ने विस्फारित नेत्रों से अपने सामने देखा। ऊँचे ज्वार-भाटे एकदम पास आ गए थे। पानी का रंग नीलेपन से हटकर कालेपन को आ गया था। दोनों ने चारों ओर देखा। कोई क्षितिज नहीं था सामने। चारों ओर से उफनती लहरे, विद्रोही ज्वार-भाटे...।
धमाके के साथ विस्फोट हुआ। वातावरण रंग बदलता रहा। दूसरा प्रलयंकर विस्फोट हुआ। दोनों नाव के भीतर लुढ़क गए। किसी तरह एक-दूसरे का सहारा लेकर दोनों खड़े हुए...उनके नेत्र खुले-के-खुले रह गए। जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य उनके नेत्रों के सामने व्यतीत हो रहा था। कुछ ही दूरी पर सागर के बीच अंगारे और लपटें उठती दिखाई पड़ीं। गरमी से दोनों के शरीर दग्ध हो चले थे। उनके मुखड़ों पर पानी के छींटे अब भी थे, फिर भी उन्हें पसीने का अनुभव हुआ।
ज्वार-भाटे शिथिल होते हुए। सागर के रंग बदलते रहे। आँधी, चक्रवात, बवंडर सभी कुछ थमता जा रहा था। नाव पानी से भर जाने के कारण डूबने लगी थी कि तभी बादल का-सा कोई गर्जन हुआ। बिजलियाँ चमकीं। एक-दो साधारण विस्फोट हुए...ज्वार-भाटे अपने-आप में टूट-टूटकर लहरों का रूप लेते गए। तभी दोनों को लगा कि समुद्र के पानी का तापमान बढ़ता जा रहा था...लहरें उबलती दीख रही थीं। वातावरण इतना अधिक उष्ण हो चला था कि श्वास लेना कठिन प्रतीत हो रहा था।
अभी वे सोच ही रहे थे कि यह समुद्र के बीच से निकलनेवाला कैसा ज्वालामुखी है कि तभी दूरी पर सागर को फाड़कर पहाड़-सी कोई चीज़ ऊपर आती दिखाई पड़ी। एक बार फिर चारों ओर से ज्वार-भाटे उठते दिखाई पड़े और बीच से उठनेवाला पहाड़ ऊपर को उठता गया। सागर की नाव के नीचे से भी ज्वार-भाटे उठे और नाव को दोनों भिक्षुओं के साथ-साथ ऊपर, बहुत ऊपर उठाकर फिर लपेट में ले लिया। इससे आगे का दृश्य भिक्षुओं ने नहीं देखा। वे अथाह गहराई में विलीन हो गए। द्वीप विस्तृत होता गया जब तक कि बीच के ज्वालामुखी से अंगारे निकलने बन्द न हो गए...। और इसी तरह महासागर के बीच एक नए द्वीप का जन्म हुआ।
लम्बे समय तक वह धरती बंजर बनी रही। फिर धीरे-धीरे धरती ठंडी होती गई। ज्वालामुखी का विषाक्त प्रभाव कम होता गया। वनस्पतियों का उगना आरम्भ हुआ। पक्षी और पशु भी पैदा होते गए।
इतिहास के धूमिल पन्नों से इस द्वीप को पहुँचनेवाला पहला जहाज़ द्रविड़ नाविकों का था जो सम्भवतः दिशाहीन होकर इधर भटक आया था। उस समय द्वीप निर्जीव था। द्रविड़ नाविकों को जब अन्य जहाज़ों और लोगों के इधर पहुँचने की सम्भावना नहीं दिखी तो वे वहाँ से चल पड़े।
इसी तरह समय बीतता गया। ईसा के बाद पहली शताब्दी के लगभग भारत की ओर जाते हुए अरबों की नज़र इस वीरान द्वीप पर पड़ी। उन्होंने भी सम्भवतः अधिक उम्मीद न करके उसे छोड़ दिया। इसी तरह समय-समय पर जातियाँ आती रहीं, जाती रहीं।
इतिहास के पन्ने कुछ स्पष्ट हुए। हिन्द महासागर से यात्रा करते हुए पुर्तगालियों का आगमन इस द्वीप में हुआ। इसे बसाना जब उन्हें टेढ़ी खीर प्रतीत हुआ तो वे आगे बढ़ गए। उनकी इच्छा भारत जीतने की थी। पुर्तगालियों के बाद और भी लोग आए और गए।
भारत पर अधिकार जमाने के लिए फ्रांस और इंग्लैंड के बीच संघर्ष था। उसी समय इस द्वीप को भारतविजय की सुविधा के लिए लक्ष्य में रखा गया। इसी द्वीप से होकर फ्रांसीसियों ने मद्रास में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ पहली लड़ाई लड़ी। इन्हीं लोगों के समय में मॉरिशस में भारतीयों का आगमन शुरू हो गया था। इस द्वीप के महत्त्व को समझकर अंग्रेज़ों ने भारतीय सेना के साथ फ्रांसीसियों पर आक्रमण किया और द्वीप उनके अधिकार में आ गया।
यहाँ से मॉरिशस में भारतीयों के आगमन की महत्त्वपूर्ण कहानी शुरू होती है।
इतिहास के पन्नों पर धूल जमती गई और कई पृष्ठों को जला भी दिया गया। फिर भी कुछ पन्नों को एक ऐसी स्याही से लिखा गया था, जिस पर धूल टिक नहीं पाई। चन्द ऐसे भी पन्ने थे जो भारतीय मज़दूरों के ख़ून-पसीने से कुछ इस तरह भीगे हुए थे कि उन्हें आग जला न सकी और जो पन्ने जले भी उनकी राख को खाद समझ नियति ने खेतों में बिखेर दिया। इतिहास की बलि का वह सारा रक्त बहकर खेतों के रक्त से जा मिला और...
और दबोचा हुआ वह इतिहास परतों के नीचे कैसे साँसों के लिए संघर्ष करता रहा, उसकी गवाही आज भी धरती की सोंधी गन्ध देती रहती है। लेकिन उस इतिहास को कैसे जिया गया था ?
आगे उसी जीवन की कहानी है।
2
अपनी साँसों को महसूसते हुए वह घास पर पड़ा रहा। उन साँसों के साथ-साथ वह ख़ामोशी की गहराई को भी भाँप रहा था। आकाश के झिलमिलाते तारों को वह अपने मस्तिष्क के भीतर टिमटिमाता अनुभव करता रहा। सामने के अँधेरे में अपनी साँसों से चीरने के प्रयास में असफल वह अपने-आप उसके मिटने की आस में बैठा रहा। अँधेरे में एक हाथ से दूसरे हाथ को टटोलकर उसने घासों को हटाया। भूमि की हलकी गरमी को अनुभव किया। फिर अपने दाहिने हाथ को अपने शरीर पर दौड़ाते हुए उसे नाक तक पहुँचाया। वहाँ भी साँसों के साथ उसी तरह की गरमी थी। उसे अपने सही-सलामत होने का पूरा यक़ीन हो गया था।
उसने पैरों को हिलाकर देखा। अभी ताक़त बाक़ी थी। दोनों हाथों को धरती पर टिकाकर वह धीरे से खड़ा हुआ। सीधा खड़ा हो जाने के बाद उसे लगा कि जाँघों में बहुत कम ताक़त बाक़ी थी। दाहिनी जाँघ पर हाथ फेरकर उसने मुँडेर पर से गिरने के बाद के घाव को महसूसा। उसकी अँगुलियाँ तरल हो गई थीं। उस कालेपन में लाल रंग को बस महसूसा ही जा सकता था। वह रंग गहरा था। अधिक गहरा था। चोट गहरी थी। हाथ से छू जाने के बाद उसे दर्द का अनुभव हुआ।
आँखें ऊपर करके तारों को देखा। फिर ख़याल आया, धुँधलके में रास्ता टटोलकर उसे बढ़ना था। अभी वह बहुत दूर नहीं निकल पाया था। अँधेरे का लाभ उठाकर उसे दूर निकल जाना था। दूर, जहाँ उसके भीतर का डर मिट जाए। जहाँ से क्षितिज उसे विस्तृत लगे। साँसों की अकुलाहट कम हो जाए। पर वह स्थान अभी दूर था। अभी उसे बहुत अधिक चलना था। उसने क़दम उठाया। एक के बाद दूसरा। बड़ी कठिनाई से तीसरा उठा, फिर चौथा भी। थकान अभी बनी हुई थी। पूरी कठोरता के साथ जाँघ की पीड़ा को नकारकर वह बढ़ने लगा। घाव रिसता जा रहा था। वह उसे चलने से रोक रहा था। लेकिन उसे रोक पाना आसान नहीं था। उसका दाहिना पाँव ज़मीन पर अच्छी तरह पड़ नहीं पा रहा था, फिर भी वह चलता रहा।
उसका अपना शरीर अधिक बोझिल प्रतीत होने लगा था। लग रहा था, वह इतिहास के सभी बोझ को अपने ऊपर लिए चल रहा है। इतिहास तो कुछ लोगों को कुछ भी नहीं देता। बोझ ही सही, उसे कुछ तो मिला था। लेकिन यह गठरी इतनी भारी कभी नहीं थी। थकान और चोट का ख़याल करके होंठों के बीच जो फीकी मुस्कान आईं वह क्षणिक रही। उस अँधेरे में उसका ओझल हो जाना बड़ा सहज और तेज़ रहा। एक क्षण उसे ऐसा ख़याल भी आया कि जाँघ के घाव के कारण पाँव बेकार हैं। हाथों और घुटनों के बल चलने की इच्छा हुई। वह फीकी हँसी एक बार फिर आई और उसी तेज़ी के साथ फिर ग़ायब हो गई। सामने के अँधेरे को टटोलते हुए उसके हाथ झाड़ियों से छू गए। उन्हें हटाता हुआ वह बढ़ता गया।
दर्द के अधिक बढ़ जाने पर वह झींगुरों और जंगली कीड़ों की आवाज़ों की झनझनाहट को अपने ही भीतर पाने लगता। रात के घटाटोप अँधेरे को टटोलता-पकड़ता वह बढ़ता गया। उसकी वह पकड़ कहीं मुलायम थी, कहीं एकदम कठोर और कहीं तो वह स्पर्श से बाहर थी। तब उसके क़दम अनुमान से उठते और अचानक किसी खरगोश या चिड़िया द्वारा पैदा की गई खरखराहट से वह सिहर जाता। उसकी ज़ोरों से आती-जाती साँसें और काँपते क़दम वर्षों पहले के फ़ौजी जीवन की याद दिला जाते। उस समय वह कभी नहीं हाँफ़ता था। उसे पसीना बहुत आता था, पर पसीना आने का मतलब थकान नहीं होता था।
पैर जब जवाब-से देने लगे तो वह क्षण-भर को ठिठका, फिर रात के उस भारी सन्नाटे में उसने धीरे-से कहा, ‘‘नहीं ! लोग मुझे यहाँ पड़े हुए नहीं पा सकते, मुझे बेबस पाकर यहाँ से बाँध नहीं ले जा सकते। नहीं...नहीं !’’ वह फिर से चलने लगा। वह अभी उतनी दूर नहीं जा सका था, जहाँ से चारदीवारी की अकुलाहट पीछे छूट चुकी हो। वह नर्क अब भी उसके मस्तिष्क के अंश-अंश में था। वह लम्बा अतीत अब पास ही था। उसे मरना भी था तो उससे दूर जाकर, उससे कटकर। जीवन के एक-दो क्षण ही सी, वह अलग से उन वेदनाओं को नकारकर ही जीना चाहता था। वह ठौर दूर था, फिर भी उसके संकल्प में वह उतना अधिक दूर नहीं था, जहाँ पहुँचा न जा सके। वह हाथों के बल रेंगकर भी वहाँ पहुँचना चाहता था। उसके अपने भीतर की सीली आवाज़ भीतर-ही-भीतर अकुलाती रही...। आगे का यह दूर तक तना हुआ एकान्त और पीछे की वह सीमित चारदीवारी...। बीच में वह...
उसके क़दम बोझिल थे। सभी कुछ युग-सा लम्बा लग रहा था।
उसने पैरों को हिलाकर देखा। अभी ताक़त बाक़ी थी। दोनों हाथों को धरती पर टिकाकर वह धीरे से खड़ा हुआ। सीधा खड़ा हो जाने के बाद उसे लगा कि जाँघों में बहुत कम ताक़त बाक़ी थी। दाहिनी जाँघ पर हाथ फेरकर उसने मुँडेर पर से गिरने के बाद के घाव को महसूसा। उसकी अँगुलियाँ तरल हो गई थीं। उस कालेपन में लाल रंग को बस महसूसा ही जा सकता था। वह रंग गहरा था। अधिक गहरा था। चोट गहरी थी। हाथ से छू जाने के बाद उसे दर्द का अनुभव हुआ।
आँखें ऊपर करके तारों को देखा। फिर ख़याल आया, धुँधलके में रास्ता टटोलकर उसे बढ़ना था। अभी वह बहुत दूर नहीं निकल पाया था। अँधेरे का लाभ उठाकर उसे दूर निकल जाना था। दूर, जहाँ उसके भीतर का डर मिट जाए। जहाँ से क्षितिज उसे विस्तृत लगे। साँसों की अकुलाहट कम हो जाए। पर वह स्थान अभी दूर था। अभी उसे बहुत अधिक चलना था। उसने क़दम उठाया। एक के बाद दूसरा। बड़ी कठिनाई से तीसरा उठा, फिर चौथा भी। थकान अभी बनी हुई थी। पूरी कठोरता के साथ जाँघ की पीड़ा को नकारकर वह बढ़ने लगा। घाव रिसता जा रहा था। वह उसे चलने से रोक रहा था। लेकिन उसे रोक पाना आसान नहीं था। उसका दाहिना पाँव ज़मीन पर अच्छी तरह पड़ नहीं पा रहा था, फिर भी वह चलता रहा।
उसका अपना शरीर अधिक बोझिल प्रतीत होने लगा था। लग रहा था, वह इतिहास के सभी बोझ को अपने ऊपर लिए चल रहा है। इतिहास तो कुछ लोगों को कुछ भी नहीं देता। बोझ ही सही, उसे कुछ तो मिला था। लेकिन यह गठरी इतनी भारी कभी नहीं थी। थकान और चोट का ख़याल करके होंठों के बीच जो फीकी मुस्कान आईं वह क्षणिक रही। उस अँधेरे में उसका ओझल हो जाना बड़ा सहज और तेज़ रहा। एक क्षण उसे ऐसा ख़याल भी आया कि जाँघ के घाव के कारण पाँव बेकार हैं। हाथों और घुटनों के बल चलने की इच्छा हुई। वह फीकी हँसी एक बार फिर आई और उसी तेज़ी के साथ फिर ग़ायब हो गई। सामने के अँधेरे को टटोलते हुए उसके हाथ झाड़ियों से छू गए। उन्हें हटाता हुआ वह बढ़ता गया।
दर्द के अधिक बढ़ जाने पर वह झींगुरों और जंगली कीड़ों की आवाज़ों की झनझनाहट को अपने ही भीतर पाने लगता। रात के घटाटोप अँधेरे को टटोलता-पकड़ता वह बढ़ता गया। उसकी वह पकड़ कहीं मुलायम थी, कहीं एकदम कठोर और कहीं तो वह स्पर्श से बाहर थी। तब उसके क़दम अनुमान से उठते और अचानक किसी खरगोश या चिड़िया द्वारा पैदा की गई खरखराहट से वह सिहर जाता। उसकी ज़ोरों से आती-जाती साँसें और काँपते क़दम वर्षों पहले के फ़ौजी जीवन की याद दिला जाते। उस समय वह कभी नहीं हाँफ़ता था। उसे पसीना बहुत आता था, पर पसीना आने का मतलब थकान नहीं होता था।
पैर जब जवाब-से देने लगे तो वह क्षण-भर को ठिठका, फिर रात के उस भारी सन्नाटे में उसने धीरे-से कहा, ‘‘नहीं ! लोग मुझे यहाँ पड़े हुए नहीं पा सकते, मुझे बेबस पाकर यहाँ से बाँध नहीं ले जा सकते। नहीं...नहीं !’’ वह फिर से चलने लगा। वह अभी उतनी दूर नहीं जा सका था, जहाँ से चारदीवारी की अकुलाहट पीछे छूट चुकी हो। वह नर्क अब भी उसके मस्तिष्क के अंश-अंश में था। वह लम्बा अतीत अब पास ही था। उसे मरना भी था तो उससे दूर जाकर, उससे कटकर। जीवन के एक-दो क्षण ही सी, वह अलग से उन वेदनाओं को नकारकर ही जीना चाहता था। वह ठौर दूर था, फिर भी उसके संकल्प में वह उतना अधिक दूर नहीं था, जहाँ पहुँचा न जा सके। वह हाथों के बल रेंगकर भी वहाँ पहुँचना चाहता था। उसके अपने भीतर की सीली आवाज़ भीतर-ही-भीतर अकुलाती रही...। आगे का यह दूर तक तना हुआ एकान्त और पीछे की वह सीमित चारदीवारी...। बीच में वह...
उसके क़दम बोझिल थे। सभी कुछ युग-सा लम्बा लग रहा था।
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