हास्य-व्यंग्य >> फ्रेम से बड़ी तस्वीर फ्रेम से बड़ी तस्वीरअश्विनी कुमार दुबे
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अश्विनी कुमार दुबे की व्यंग्य रचनाओं का संग्रह...
वर्तमान हिंदी-व्यंग्य संसार की अराजक सी तस्वीर में कहीं रिलीफ के कोने
की तलाश हो तो अश्विनीकुमार दुबे की व्यंग्य रचनाओं से गुजर जाइए। व्यंग्य
को बेहद गंभीर कर्म की भाँति निभाने वाले अश्विनी दुबे में अपने लिखे को
लेकर कोई व्यर्थ के मुगालते नहीं हैं, पर अपने लिखे हुए का अतिक्रमण करने
की चाहत उनमें शिद्दत से है। इस संग्रह की रचनाएँ उन्हें वहाँ से आगे ले
जाती हैं, जहाँ वे अपने पिछले संग्रह में खड़े थे। वे भाषा, शैली तथा
व्यंग्य के विषयों को लेकर भी बेहद सजग व्यंग्यकार हैं। उनकी रचनाओं में
बहुत सारा ऐसा मिलता है, जिसे वर्तमान व्यंग्य-संसार में अन्यत्र पाने को
आप तरस जाते हैं, वे बेचैन रहनेवाले और बेचैन कर देनेवाले व्यंग्यकार हैं.
व्यंग्य कॉलमों की रुटीन, पिटी लीक से परे चलने की छटपटाहट उनमें है और
उनके व्यंग्य में सर्वत्र दीखती भी है। निश्चित ही यह वेचैनी और छटपटाहट
अभी उस स्तर तक नहीं पहुँची है, जहाँ वह अश्विनी की रचनाओं को अद्वितीय
बना दे, पर वह है और उसके होने से एक संभावना यह बनी ही रहेगी कि बेचैनी
को भविष्य में अश्विनी दुबे और सार्थक तथा रचनात्मक दिशा दे पाएँगे। उनसे
यदि व्यंग्य-संसार को ज्यादा उम्मीदें हैं तो यों ही नहीं हैं। वर्तमान
व्यंग्य-संग्रह की रचनाओं में इन उम्मीदों के कारण सर्वत्र देखे जा सकते
हैं।
—डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
एक आवेदन-पत्र की यात्राकथा
पिछले वर्ष मेरे एक मित्र ने अपने विभाग में आवेदन किया कि मैं अपने विषय
में शोध-कार्य करना चाहता हूँ। कृपया मुझे इसकी अनुमति प्रदान करें। दो
महीने तो उनके अनुविभाग में वह आवेदन विचाराधीन रहा। बड़े बाबू ने दूसरे
जरूरी कागज निपटाए, जिनसे उसका और साहब का कुछ भला होना था। इस गैर जरूरी
कागज को उसने फुर्सत में देखने के लिए रख छोड़ा। कई बार जब हमारे मित्र ने
बड़े बाबू को अपने आवेदन के लिए स्मरण कराया, जब उन्होंने फाइलों के ढेर
में से उसे ढूँढ़कर निकाला। काफी सोच-विचार के पश्चात् बड़े बाबू ने हमारे
उन मित्र पर अहसान करते हुए उनका आवेदन-पत्र संभागीय कार्यालय के लिए
मूलतः अग्रेसित लिखकर भेज दिया।
संभागीय कार्यालय एक बड़ा ऑफिस है। यहाँ के साहब ‘बड़े साहब’ कहलाते हैं। बड़े साहब के पास दो बड़े काम हैं—एक तो आए दिन मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ मीटिंगें अटैंड करना। दूसरा, अकसर दौरे पर बाहर जाते रहना। इसलिए बड़े साहब को ऑफिस में बैठने का वक्त ही नहीं मिलता।
भारतीय कार्यालयों में एक स्वस्थ परंपरा है कि यहाँ हर आवेदन के साथ आवेदक को टेबल-टू-टेबल खुक जाना पड़ता है। हमारे ऑफिसों में अपने आप कोई कागज आगे नहीं बढ़ता। कागज को आगे बढ़ाना है तो उसके लिए आवेदक को जरूरी ‘ईंधन’ खर्च करना पड़ता है। बिना ईंधन के कभी कोई गाड़ी आगे बढ़ी है ? फिर ये कागज बिना ऊर्जा के आगे कैसे बढ़ेंगे ? इस प्रकार आवेदक को हर टेबल की जरूरी औपचारिकता पूरी करनी पड़ती है, तब आवेदन-पत्र कुछ आगे बढ़ पाता है।
हमारे उन मित्र ने सोचा कि अपने विभाग से मैंने तो आगे पढ़ाई के लिए अनुमति माँगी है, यह तो तुरंत मिल जाएगी। इसके लिए क्यों टेबल-टू-टेबल चक्कर लगाएँ। परंतु यह गलत सोचा था। नियम तो नियम हैं; उसका पालन हर हालत में होना चाहिए। हमारे कार्यालयों में अलिखित नियमों का बहुत कड़ाई से पालन किया जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विभागीय अनुमति प्राप्त करने का वह आवेदन कई महीनों तक संभागीय कार्यालय की फाइल में दबा रहा। सरकारी फाइल बड़ी अजीब चीज है। यह बड़ी मुश्किल से खुलती है। किन्हीं खास प्रकरणों में जब यह खुल जाती है, तब बंद होने का नाम नहीं लेती।
अंततः हमारे मित्र ने कई महीने प्रतीक्षा करने के उपरांत एक दिन संभागीय कार्यालय जाकर अपने प्रकरण को निकलवाया, स्थापना-कक्ष के सभी क्लर्कों को चाय पिलवाई, पान खिलाया। तब उनका आवेद-पत्र मंडल कार्यालय को मूलतः भेजे जाने के लिए साहब की टेबल पर प्रस्तुत हुआ। अब इस अनुशंसा के नीचे साहब के हस्ताक्षर होने थे, जो एक दुरूह कार्य था। साहब का ऑफिस में बैठना उसी प्रकार है, जैसे जेठ में किसी दिन बरसात हो जाए। कभी-कभी सौभाग्य से जेठ की गरमी में भी बरसात हो जाती है। एक दिन हुई। उस दिन साहब के हस्ताक्षर आवेदन-पत्र पर हो गए।
अब वह आवेदन मंडल कार्यालय में विचाराधीन है। कुछ महीनों बाद मैंने अपने मित्र को मंडल कार्यालय का चक्कर लगाते देखा।
‘‘क्यों भाई, आपको पी-एच.डी करने की विभागीय अनुमति मिल गई ?’’ मैंने उनसे पूछा।
‘‘अभी कहाँ भाई साहब ! छह महीने में तो एप्लीकेशन बामुश्किल मंडल कार्यालय पहुँची है। साहब की टेबल पर है। वहाँ से मार्क होकर बड़े बाबू के पास जाएगी, तब बड़े बाबू नोटशीट लिखेंगे, नोटशीट पर सुपरिंटेडेंट साहब अपनी टीप लिखेंगे, फिर साहब जब ऑफिस में बैठेंगे, तब नोटशीट एप्रूव होगी। नोटशीट स्वीकृत होने के बाद फिर लेटर टाइप होगा, टाइपिस्ट बहुत बिजी रहता है। उसे हमेशा बहुत सारे कागज करने होते हैं। उससे कई बार निवेदन करके मैं अपने सामने पत्र टाइप करवाऊँगा, तब पुनः वह पत्र बड़े बाबू की टेबल पर जाएगा। साहब की सील के नीचे वे अपने हस्ताक्षर की चिड़िया बिठाएँगे। फिर सुरिंटेंडेंट की टेबल से होता हुआ वह पत्र साहब की टेबल तक पहुँचेगा। उस समय साहब छुट्टी पर हो सकते हैं या कहीं दौरे पर ! प्रायः नेताओं के साथ वे मीटिंग में व्यस्त रहते हैं। इस प्रकार मंडल कार्यालय से उस पत्र को मुख्य कार्यालय की ओर भेजने में 2-3 महीने का समय और लग सकता है। जबकि पत्र में सिर्फ इतना ही लिखा जाना है—‘‘मूलतः मुख्य कार्यालय की ओर अग्रेषित।’’
‘‘तब तो शोध-कार्य करने की अपेक्षा उसके लिए विभागीय अनुमति प्राप्त करना ज्यादा कठिन काम है।’’ मैंने कहा।
‘‘हाँ, निश्चित ही ! हिम्मते मर्द मदद-ए-खुदा !’’ मित्र ने हँसते हुए कहा।
साहब दौरे पर हैं। चपरासी ऊँघ रहा है। बड़े बाबू चाय की दूकान पर हैं। सुपरिंटेंडेंट साहब की तबीयत ठीक नहीं है। छोटे बाबू अपनी पत्नी को लिवाने ससुराल गए हैं। टाइपिस्ट के घर में जचकी हुई है। कभी इस टेबल पर कोई है तो उस टेबल पर कोई नहीं है। ऐसा सुखद संयोग कभी-कभी आता है, जब सब लोग किसी दिन ऑफिस में एक साथ उपस्थित हों।
कई महीने बाद वह आवेदन-पत्र प्रमुख कार्यालय में पहुँचा। प्रमुख कार्यालय, हमारे मित्र जिस कस्बे में रहते हैं, वहाँ से 300 किलोमीटर दूर एक महानगर में है। हमारे मित्र ब्लाक स्तर के कस्बे में नौकरी करते हैं। तहसील में उनका संभागीय कार्यालय है। जिले में मंडल कार्यालय और संभाग में मुख्य कार्यालय है। तहसील और जिला उनके कस्बे के पास हैं। सुबह बस से जाकर शाम तक वे अपने घर वापस आ जाते थे। अब उनका आवेदन-पत्र संभाग में मुख्य कार्यालय तक पहुँच गया, वहाँ जाकर शाम तक घर लौट आना संभव नहीं है। अपने कस्बे से 300 कि.मी. दूर जाकर बड़े शहर के किसी होटल में 2-3 दिन रुककर ही वे अपने आवेदन-पत्र को आगे बढ़वा सकते थे। इसके अलावा कोई विकल्प न था। कभी-कभी उन्हें इस व्यवस्था पर बहुत गुस्सा आता। वे मुझसे कहते—‘‘भाई साहब, इन ऑफिसों में सारे काम नियम से क्यों नहीं होते ? हर कागज के पीछे आदमी को भागना पड़ता है ? टेबल-टू-टेबल खुद जाकर यदि कागज को न देखें तो उसके खो जाने में देर नहीं लगती। आखिर ऐसा क्यों है ?’’
‘‘यह काम करने की हमारी भारतीय शैली है। खुशी की बात है कि हमारे नौकरशाह इस परंपरा को और आगे बढ़ा रहे हैं।’’
मेरा जवाब सुनकर मित्र निराश हो जाते हैं। अब मैं उन्हें किस प्रकार ढाढ़स बँधाता ! कुछ दिनों बाद उन्होंने संभाग की ओर प्रस्थान किया।
संभाग में उनके विभाग का बहुत बड़ा कार्यालय है। वहाँ रोज किस्म-किस्म के सैकड़ों पत्र आते हैं। फाइलों का अंबार लगा है। बाबुओं की भरमार है। दो दिन तो उन्हें कागजों के ढेर में अपना आवेदन पत्र ढूँढ़ने में लग गए। चार दिनों तक इस टेबल से उस टेबल, उस बाबू से इस बाबू के पास चक्कर लगाकर उन्होंने अपने आवेदन को आगे भिजवाने की प्रक्रिया पूर्ण करा ली। आवेदन-पत्र पर फिर वही एकमात्र टिप्पणी—‘मूलतः प्रमुख कार्यालक की ओर अग्रेषित।’
प्रमुख कार्यालय प्रदेश की राजधानी में है। उनके कस्बे से एक हजार किलोमीटर दूर। उन्होंने जब अपना आवेदन अपने कार्यालय में जमा किया था, तब उस कार्यालय के बड़े बाबू रामखिलावन ने उन्हें बताया था—‘उच्च शिक्षा के लिए विभागीय अनुमति विभाग प्रमुख द्वारा प्रदान की जाती है। इसलिए आपका यह आवेदन राजधानी तक जाएगा।’
अब यह आवेदन-पत्र राजधानी की ओर चल पड़ा। इस दौरान हमारे मित्र महोदय ने अपना शोध-प्रबंध आधे से ज्यादा लिख लिया। साल भर हो गया, परंतु अभी तक उन्हें अपने विभाग से शोध-कार्य के लिए विभागीय अनुमति प्राप्त नहीं हुई। राजधानी में किसी भी विभाग के, जो ‘विभाग प्रमुख’ नामक प्राणी होते हैं, वे बहुत महान होते हैं। उनसे सहज ही कोई विभागीय व्यक्ति कभी नहीं मिल सकता, ऐसा करना अनुशासनहीनता में आता है। थ्रू-प्रापर-चैनल मिलने का नियम है। विभाग प्रमुख के नीचेवाले सभी अफसरों से लिखित अनुमति लेकर ही आप उनसे मिल सकते हैं।
एक बार एक सुपरवाइजर नीचे के अफसरों से बिना अनुमति लिये ‘विभाग प्रमुख’ से मिलने चला गया। विभाग प्रमुख ने उसे इस गलती के लिए बहुत डाँटा और उसके खिलाफ एक डि.ओ. लेटर लिख दिया।
कुछ दिनों बाद विभाग प्रमुख और वह सुपरवाइजर एक ही ट्रेन से कहीं जाने वाले थे। प्लेटफॉर्म पर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। नमस्ते हुई। सुपरवाइजर पर्याप्त दूरी बनाए खड़ा रहा। कुली ने विभाग प्रमुख का सामान प्रथम श्रेणी के डिब्बे के पास उतारा। विभाग प्रमुख कुली को कुछ कम पैसे दे रहे थे। इस बात पर कुली से उनकी बहस हो गई। उन्होंने उसे उसी ढंग से डाँट दिया, जिस प्रकार अपने मातहतों को डाँटते रहते हैं। प्लेटफॉर्म के सभी कुली इकट्ठे हो गए। फिर सबने मिलकर विभाग प्रमुख महोदय की जमकर पिटाई की। पिटाई का यह अद्भुत कार्यक्रम जब समाप्त हुआ, तब हताश विभाग प्रमुख ने सुपरवाइजर को फिर डाँटा—‘‘जब मैं पिट रहा था, तब तुम मेरी मदद करने के लिए क्यों नहीं आए ?’’
‘सर, मैं तो आपके आदेशों का ही पालन कर रहा था। यहाँ मेरे ऊपर वाले अफसर नहीं थे। मैं उनसे बिना पूछे आपको बचाने कैसे आता मुझे आपके पास थ्रू-प्रापर-चैनल आना चाहिए।’’ सुपरवाइजर ने विनयपूर्वक कहा। विभाग प्रमुख की हालत देखने लायक थी।
हमारे मित्र महोदय ने राजधानी का चक्कर लगाने से बचने के लिए वहाँ रहनेवाले अपने एक मित्र को फोन किया—‘‘भैया, हमारा एक आवेदन-पत्र प्रमुख कार्यालय में विचाराधीन है। उस पर कार्यवाही के लिए ऑफिस में जाकर जरा प्रयास कर दें।’’
दूसरी ओर से उन्हें आश्वासन मिला—‘‘ठीक है, देख लेंगे।’’
राजधानी में किसे फुर्सत है कि दूसरे के काम के लिए भागदौड़ करता फिरे ! एक-दो बार कभी प्रमुख कार्यालय में उनका जाना हुआ तो उन्होंने यों ही किसी बाबू से कह भी दिया होगा—‘‘जरा देख लेना भई, मेरे एक मित्र का आवेदन आपके कार्यलय में लंबित है।’’ सिर्फ इतना कह देने से भला किसी ऑफिस में कोई काम होता है ?
छह महीने तक जब राजधानी स्थित विभाग प्रमुख के कार्यालय से कोई सूचना न मिली तब झक मारकर एक दिन हमारे मित्र महोदय ने राजधानी की दिशा में कूच किया।
एक सप्ताह बाद वे वापस आए। मैंने उनसे पूछा, ‘‘क्यों भई, शोध-कार्य करने के लिए आपको विभागीय अनुमति मिली कि नहीं ?’’ वे हँसकर बोले, ‘‘विभागीय अनुमति तो अब तक नहीं मिली, अलबत्ता विश्वविद्यालय से मुझे अपने शोध-प्रबंधन पर डॉक्टरेट की उपाधि जरूर मिल गई है। जब तक मुझे अपने विभाग से यह अनुमति पत्र नहीं मिलता, तब तक मेरा विभाग मुझे डॉक्टर नहीं मानेगा और मेरी सर्विस-बुक में यह उपलब्धि दर्ज नहीं की जाएगी एवं इस काम के लिए मिलनेवाली दो वेतन-वृद्धियाँ भी मुझे नहीं मिलेंगी।’’
मैंने फिर पूछा, ‘‘इस कार्य के लिए तुम अपने प्रमुख कार्यालय गए तो थे। वहाँ से कुछ नहीं हुआ ?’’ उन्होंने बताया—‘‘मैं सप्ताह भर राजधानी में रहा। ऑफिस में अपने आवेदन-पत्र को ढुँढ़वाया। नोटशील लिखवाई। बड़े साहब की टेबल पर फाइल पुटअप करवाकर आया हूँ। साहब उन दिनों राजधानी से बाहर दौरे पर गए थे। जब आएँगे, काम हो जाएगा।’’
उनकी बात सुनकर मैं सोचने लगा—लोग कहते हैं, देश में सूचना-क्रांति हो गई है। इंटरनेट, फैक्स और दूरभाष का युग देश में आ गया है। संचार के इतने विकसित साधन हमारे पास होने के बावजूद एक आवेदन-पत्र को छोटे ऑफिस से राजधानी स्थित प्रमुख कार्यालय तक पहुँचने में डेढ़-दो साल लग जाते हैं, जबकि इस आवेदन-पत्र के साथ तो आवेदक स्वयं यात्रा कर रहा है। उन कागजों का क्या होता होगा, जिनके साथ कोई इस प्रकार यात्रा नहीं कर सकता।
संभागीय कार्यालय एक बड़ा ऑफिस है। यहाँ के साहब ‘बड़े साहब’ कहलाते हैं। बड़े साहब के पास दो बड़े काम हैं—एक तो आए दिन मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ मीटिंगें अटैंड करना। दूसरा, अकसर दौरे पर बाहर जाते रहना। इसलिए बड़े साहब को ऑफिस में बैठने का वक्त ही नहीं मिलता।
भारतीय कार्यालयों में एक स्वस्थ परंपरा है कि यहाँ हर आवेदन के साथ आवेदक को टेबल-टू-टेबल खुक जाना पड़ता है। हमारे ऑफिसों में अपने आप कोई कागज आगे नहीं बढ़ता। कागज को आगे बढ़ाना है तो उसके लिए आवेदक को जरूरी ‘ईंधन’ खर्च करना पड़ता है। बिना ईंधन के कभी कोई गाड़ी आगे बढ़ी है ? फिर ये कागज बिना ऊर्जा के आगे कैसे बढ़ेंगे ? इस प्रकार आवेदक को हर टेबल की जरूरी औपचारिकता पूरी करनी पड़ती है, तब आवेदन-पत्र कुछ आगे बढ़ पाता है।
हमारे उन मित्र ने सोचा कि अपने विभाग से मैंने तो आगे पढ़ाई के लिए अनुमति माँगी है, यह तो तुरंत मिल जाएगी। इसके लिए क्यों टेबल-टू-टेबल चक्कर लगाएँ। परंतु यह गलत सोचा था। नियम तो नियम हैं; उसका पालन हर हालत में होना चाहिए। हमारे कार्यालयों में अलिखित नियमों का बहुत कड़ाई से पालन किया जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विभागीय अनुमति प्राप्त करने का वह आवेदन कई महीनों तक संभागीय कार्यालय की फाइल में दबा रहा। सरकारी फाइल बड़ी अजीब चीज है। यह बड़ी मुश्किल से खुलती है। किन्हीं खास प्रकरणों में जब यह खुल जाती है, तब बंद होने का नाम नहीं लेती।
अंततः हमारे मित्र ने कई महीने प्रतीक्षा करने के उपरांत एक दिन संभागीय कार्यालय जाकर अपने प्रकरण को निकलवाया, स्थापना-कक्ष के सभी क्लर्कों को चाय पिलवाई, पान खिलाया। तब उनका आवेद-पत्र मंडल कार्यालय को मूलतः भेजे जाने के लिए साहब की टेबल पर प्रस्तुत हुआ। अब इस अनुशंसा के नीचे साहब के हस्ताक्षर होने थे, जो एक दुरूह कार्य था। साहब का ऑफिस में बैठना उसी प्रकार है, जैसे जेठ में किसी दिन बरसात हो जाए। कभी-कभी सौभाग्य से जेठ की गरमी में भी बरसात हो जाती है। एक दिन हुई। उस दिन साहब के हस्ताक्षर आवेदन-पत्र पर हो गए।
अब वह आवेदन मंडल कार्यालय में विचाराधीन है। कुछ महीनों बाद मैंने अपने मित्र को मंडल कार्यालय का चक्कर लगाते देखा।
‘‘क्यों भाई, आपको पी-एच.डी करने की विभागीय अनुमति मिल गई ?’’ मैंने उनसे पूछा।
‘‘अभी कहाँ भाई साहब ! छह महीने में तो एप्लीकेशन बामुश्किल मंडल कार्यालय पहुँची है। साहब की टेबल पर है। वहाँ से मार्क होकर बड़े बाबू के पास जाएगी, तब बड़े बाबू नोटशीट लिखेंगे, नोटशीट पर सुपरिंटेडेंट साहब अपनी टीप लिखेंगे, फिर साहब जब ऑफिस में बैठेंगे, तब नोटशीट एप्रूव होगी। नोटशीट स्वीकृत होने के बाद फिर लेटर टाइप होगा, टाइपिस्ट बहुत बिजी रहता है। उसे हमेशा बहुत सारे कागज करने होते हैं। उससे कई बार निवेदन करके मैं अपने सामने पत्र टाइप करवाऊँगा, तब पुनः वह पत्र बड़े बाबू की टेबल पर जाएगा। साहब की सील के नीचे वे अपने हस्ताक्षर की चिड़िया बिठाएँगे। फिर सुरिंटेंडेंट की टेबल से होता हुआ वह पत्र साहब की टेबल तक पहुँचेगा। उस समय साहब छुट्टी पर हो सकते हैं या कहीं दौरे पर ! प्रायः नेताओं के साथ वे मीटिंग में व्यस्त रहते हैं। इस प्रकार मंडल कार्यालय से उस पत्र को मुख्य कार्यालय की ओर भेजने में 2-3 महीने का समय और लग सकता है। जबकि पत्र में सिर्फ इतना ही लिखा जाना है—‘‘मूलतः मुख्य कार्यालय की ओर अग्रेषित।’’
‘‘तब तो शोध-कार्य करने की अपेक्षा उसके लिए विभागीय अनुमति प्राप्त करना ज्यादा कठिन काम है।’’ मैंने कहा।
‘‘हाँ, निश्चित ही ! हिम्मते मर्द मदद-ए-खुदा !’’ मित्र ने हँसते हुए कहा।
साहब दौरे पर हैं। चपरासी ऊँघ रहा है। बड़े बाबू चाय की दूकान पर हैं। सुपरिंटेंडेंट साहब की तबीयत ठीक नहीं है। छोटे बाबू अपनी पत्नी को लिवाने ससुराल गए हैं। टाइपिस्ट के घर में जचकी हुई है। कभी इस टेबल पर कोई है तो उस टेबल पर कोई नहीं है। ऐसा सुखद संयोग कभी-कभी आता है, जब सब लोग किसी दिन ऑफिस में एक साथ उपस्थित हों।
कई महीने बाद वह आवेदन-पत्र प्रमुख कार्यालय में पहुँचा। प्रमुख कार्यालय, हमारे मित्र जिस कस्बे में रहते हैं, वहाँ से 300 किलोमीटर दूर एक महानगर में है। हमारे मित्र ब्लाक स्तर के कस्बे में नौकरी करते हैं। तहसील में उनका संभागीय कार्यालय है। जिले में मंडल कार्यालय और संभाग में मुख्य कार्यालय है। तहसील और जिला उनके कस्बे के पास हैं। सुबह बस से जाकर शाम तक वे अपने घर वापस आ जाते थे। अब उनका आवेदन-पत्र संभाग में मुख्य कार्यालय तक पहुँच गया, वहाँ जाकर शाम तक घर लौट आना संभव नहीं है। अपने कस्बे से 300 कि.मी. दूर जाकर बड़े शहर के किसी होटल में 2-3 दिन रुककर ही वे अपने आवेदन-पत्र को आगे बढ़वा सकते थे। इसके अलावा कोई विकल्प न था। कभी-कभी उन्हें इस व्यवस्था पर बहुत गुस्सा आता। वे मुझसे कहते—‘‘भाई साहब, इन ऑफिसों में सारे काम नियम से क्यों नहीं होते ? हर कागज के पीछे आदमी को भागना पड़ता है ? टेबल-टू-टेबल खुद जाकर यदि कागज को न देखें तो उसके खो जाने में देर नहीं लगती। आखिर ऐसा क्यों है ?’’
‘‘यह काम करने की हमारी भारतीय शैली है। खुशी की बात है कि हमारे नौकरशाह इस परंपरा को और आगे बढ़ा रहे हैं।’’
मेरा जवाब सुनकर मित्र निराश हो जाते हैं। अब मैं उन्हें किस प्रकार ढाढ़स बँधाता ! कुछ दिनों बाद उन्होंने संभाग की ओर प्रस्थान किया।
संभाग में उनके विभाग का बहुत बड़ा कार्यालय है। वहाँ रोज किस्म-किस्म के सैकड़ों पत्र आते हैं। फाइलों का अंबार लगा है। बाबुओं की भरमार है। दो दिन तो उन्हें कागजों के ढेर में अपना आवेदन पत्र ढूँढ़ने में लग गए। चार दिनों तक इस टेबल से उस टेबल, उस बाबू से इस बाबू के पास चक्कर लगाकर उन्होंने अपने आवेदन को आगे भिजवाने की प्रक्रिया पूर्ण करा ली। आवेदन-पत्र पर फिर वही एकमात्र टिप्पणी—‘मूलतः प्रमुख कार्यालक की ओर अग्रेषित।’
प्रमुख कार्यालय प्रदेश की राजधानी में है। उनके कस्बे से एक हजार किलोमीटर दूर। उन्होंने जब अपना आवेदन अपने कार्यालय में जमा किया था, तब उस कार्यालय के बड़े बाबू रामखिलावन ने उन्हें बताया था—‘उच्च शिक्षा के लिए विभागीय अनुमति विभाग प्रमुख द्वारा प्रदान की जाती है। इसलिए आपका यह आवेदन राजधानी तक जाएगा।’
अब यह आवेदन-पत्र राजधानी की ओर चल पड़ा। इस दौरान हमारे मित्र महोदय ने अपना शोध-प्रबंध आधे से ज्यादा लिख लिया। साल भर हो गया, परंतु अभी तक उन्हें अपने विभाग से शोध-कार्य के लिए विभागीय अनुमति प्राप्त नहीं हुई। राजधानी में किसी भी विभाग के, जो ‘विभाग प्रमुख’ नामक प्राणी होते हैं, वे बहुत महान होते हैं। उनसे सहज ही कोई विभागीय व्यक्ति कभी नहीं मिल सकता, ऐसा करना अनुशासनहीनता में आता है। थ्रू-प्रापर-चैनल मिलने का नियम है। विभाग प्रमुख के नीचेवाले सभी अफसरों से लिखित अनुमति लेकर ही आप उनसे मिल सकते हैं।
एक बार एक सुपरवाइजर नीचे के अफसरों से बिना अनुमति लिये ‘विभाग प्रमुख’ से मिलने चला गया। विभाग प्रमुख ने उसे इस गलती के लिए बहुत डाँटा और उसके खिलाफ एक डि.ओ. लेटर लिख दिया।
कुछ दिनों बाद विभाग प्रमुख और वह सुपरवाइजर एक ही ट्रेन से कहीं जाने वाले थे। प्लेटफॉर्म पर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। नमस्ते हुई। सुपरवाइजर पर्याप्त दूरी बनाए खड़ा रहा। कुली ने विभाग प्रमुख का सामान प्रथम श्रेणी के डिब्बे के पास उतारा। विभाग प्रमुख कुली को कुछ कम पैसे दे रहे थे। इस बात पर कुली से उनकी बहस हो गई। उन्होंने उसे उसी ढंग से डाँट दिया, जिस प्रकार अपने मातहतों को डाँटते रहते हैं। प्लेटफॉर्म के सभी कुली इकट्ठे हो गए। फिर सबने मिलकर विभाग प्रमुख महोदय की जमकर पिटाई की। पिटाई का यह अद्भुत कार्यक्रम जब समाप्त हुआ, तब हताश विभाग प्रमुख ने सुपरवाइजर को फिर डाँटा—‘‘जब मैं पिट रहा था, तब तुम मेरी मदद करने के लिए क्यों नहीं आए ?’’
‘सर, मैं तो आपके आदेशों का ही पालन कर रहा था। यहाँ मेरे ऊपर वाले अफसर नहीं थे। मैं उनसे बिना पूछे आपको बचाने कैसे आता मुझे आपके पास थ्रू-प्रापर-चैनल आना चाहिए।’’ सुपरवाइजर ने विनयपूर्वक कहा। विभाग प्रमुख की हालत देखने लायक थी।
हमारे मित्र महोदय ने राजधानी का चक्कर लगाने से बचने के लिए वहाँ रहनेवाले अपने एक मित्र को फोन किया—‘‘भैया, हमारा एक आवेदन-पत्र प्रमुख कार्यालय में विचाराधीन है। उस पर कार्यवाही के लिए ऑफिस में जाकर जरा प्रयास कर दें।’’
दूसरी ओर से उन्हें आश्वासन मिला—‘‘ठीक है, देख लेंगे।’’
राजधानी में किसे फुर्सत है कि दूसरे के काम के लिए भागदौड़ करता फिरे ! एक-दो बार कभी प्रमुख कार्यालय में उनका जाना हुआ तो उन्होंने यों ही किसी बाबू से कह भी दिया होगा—‘‘जरा देख लेना भई, मेरे एक मित्र का आवेदन आपके कार्यलय में लंबित है।’’ सिर्फ इतना कह देने से भला किसी ऑफिस में कोई काम होता है ?
छह महीने तक जब राजधानी स्थित विभाग प्रमुख के कार्यालय से कोई सूचना न मिली तब झक मारकर एक दिन हमारे मित्र महोदय ने राजधानी की दिशा में कूच किया।
एक सप्ताह बाद वे वापस आए। मैंने उनसे पूछा, ‘‘क्यों भई, शोध-कार्य करने के लिए आपको विभागीय अनुमति मिली कि नहीं ?’’ वे हँसकर बोले, ‘‘विभागीय अनुमति तो अब तक नहीं मिली, अलबत्ता विश्वविद्यालय से मुझे अपने शोध-प्रबंधन पर डॉक्टरेट की उपाधि जरूर मिल गई है। जब तक मुझे अपने विभाग से यह अनुमति पत्र नहीं मिलता, तब तक मेरा विभाग मुझे डॉक्टर नहीं मानेगा और मेरी सर्विस-बुक में यह उपलब्धि दर्ज नहीं की जाएगी एवं इस काम के लिए मिलनेवाली दो वेतन-वृद्धियाँ भी मुझे नहीं मिलेंगी।’’
मैंने फिर पूछा, ‘‘इस कार्य के लिए तुम अपने प्रमुख कार्यालय गए तो थे। वहाँ से कुछ नहीं हुआ ?’’ उन्होंने बताया—‘‘मैं सप्ताह भर राजधानी में रहा। ऑफिस में अपने आवेदन-पत्र को ढुँढ़वाया। नोटशील लिखवाई। बड़े साहब की टेबल पर फाइल पुटअप करवाकर आया हूँ। साहब उन दिनों राजधानी से बाहर दौरे पर गए थे। जब आएँगे, काम हो जाएगा।’’
उनकी बात सुनकर मैं सोचने लगा—लोग कहते हैं, देश में सूचना-क्रांति हो गई है। इंटरनेट, फैक्स और दूरभाष का युग देश में आ गया है। संचार के इतने विकसित साधन हमारे पास होने के बावजूद एक आवेदन-पत्र को छोटे ऑफिस से राजधानी स्थित प्रमुख कार्यालय तक पहुँचने में डेढ़-दो साल लग जाते हैं, जबकि इस आवेदन-पत्र के साथ तो आवेदक स्वयं यात्रा कर रहा है। उन कागजों का क्या होता होगा, जिनके साथ कोई इस प्रकार यात्रा नहीं कर सकता।
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