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बावन नदियों का संगम

शैलेश मटियानी

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7911
आईएसबीएन :9788177211146

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प्रसिद्ध उपन्यासकार शैलेश मटियानी की कलम से निःसृत यह उपन्यास संपूर्ण भारतीय समाज का ताना-बाना एवं उसमें पैठी हुई कुरीतियों, विडंबनाओं तथा विषमताओं का कच्चा चिट्ठा पेश करता है...

Bavan Nadiyon Ka Sangam - A Hindi Book - by Shailesh Matiyani

‘‘हमें चाय की दुकान पर बैठे-बैठे सुनाई देता रहा।’’
‘‘कहती थीं कि...’’
‘‘बड़ी औरत, बड़ी बातें कहती हैं।’’
‘‘सुनना नहीं चाहते हो?’’
‘‘हाथी के हगे को उँगली से दिखाने की जरूरत नहीं होती, रामेसर भाई!’’
‘‘बहुत तेज हो, यार! हम तुम्हें ऐसा पेट का दड़ियल करके जाने नहीं थे।’’

‘‘देखो रामेसर, केले का गाछ लगता है न? पहले पत्ते और फिर फली फूटते वक्त लगता है कि नहीं? और फिर फूल, फिर केले की घड़ी करते-करते कितना वक्त लगता है? मगर जब लकड़ी जैसे सख्त केले को पुआल के भीतर रखो तो सिर्फ दो-चार दिन में नरम पड़ जाता है कि नहीं? आदमी को भी बस, तैयार होते वक्त लगता है, पकते नहीं।’’
‘‘रहीमन बहन के पकाए हो?’’
‘‘हाँ, इतने ज्यादा पक गए, कीड़े पड़ने की नौबत आ गई!’’

रामेसर कुछ कहना चाहता था कि लगातार बजते भोंपू की आवाज सुनके रुक जाना पड़ा। पलटे, दोनों ने देखा कि पदारथ भाई हैं। अकेले थे, जीप खुद ही ड्राइव कर रहे थे। दोनों ने सलाम किया तो हँसते बोले, ‘‘क्यों, इधर उलटी दिशा में?...’’
‘‘बस, यों ही, साहब जी! जरा पिलाजा सनीमा देखने का जी था।...’’

–इसी उपन्यास से

प्रसिद्ध उपन्यासकार शैलेश मटियानी की कलम से निःसृत यह उपन्यास संपूर्ण भारतीय समाज का ताना-बाना एवं उसमें पैठी हुई कुरीतियों, विडंबनाओं तथा विषमताओं का कच्चा चिट्ठा पेश करता है। अत्यंत मनोरंजक एवं पठनीय उपन्यास।

बावन नदियों का संगम

1


राधेश्याम के दिल्ली, दरियागंज के किसी होटल में नौकरी पर होने की खबर बुंदू को जेब में पड़ी कोई वजनदार वस्तु लग रही थी। उन दोनों के नेताजी के यहाँ से वापस लौटने के इंतजाम में वह बंतो से बतियाता रहा।

स्थिति के बारे में उसे सारी जानकारियाँ मिल चुकी थीं, इसलिए जैसे ही सामनेवाले नुक्कड़ पर वे दोनों प्रकट हुईं, खिड़की से बाहर झाँकता बुंदू घुटनों के सहारे उकड़ूँ बैठ गया।

दीया-बत्ती का वक्त हो चुका था, मगर बंतो ने अभी तक रोशनी नहीं की थी। कोठरी में नीम-अँधेरा हो आया था और ऐसे में बगल की कोठरी में बीमार पड़ी गणेशी का कराहना बुंदू को बिल्ली के नाखूनों जैसा चुभ रहा था। कुछ देर यों ही नमाज-अदायगी की-सी मुद्रा में बने रहने के बाद नजर को तीर की तरह साधकर अंदाजा तो छोटे की पान की दुकान पर रुकी औरतों को लेकर इत्मीनान में होने की कोशिश की कि गुलाब बाई और लल्लन ही होंगी। फिर बंतो को आवाज दी, ‘‘देख तो, री बंतो! तेरी अम्मा लोग ही आई दिखती हैं।’’

बंतो खिड़की तक आई और आले पर से मोमबत्ती उठाकर उसने सीढ़ियों पर रोशनी की। बुंदू नीचेवाली कोठरी में बैठा था। आले में रखी दूसरी मोमबत्ती को दियासलाई दिखाने के बाद वह तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ती गुलाब बाई वाली कोठरी में चली गई। जल्दी-जल्दी मिट्टी का दीया जलाकर अगरबत्तियाँ सुलगाईं और संतोषी माता की तसवीर के चारों ओर घुमाने के बाद माथे से छुआते हुए तसवीर के फ्रेम में खोंस दिया। अगरबत्ती की सुगंध नथनों में भर गई। क्षण भर को वह गहरी प्रार्थना में लीन हो गई–‘‘मैया री, धंधा चौपट न होने पावे हम लोगों का। आगे शुकर का व्रत जरूर रखूँगी। तेरे सिवा कौन है हमारा रखवाला, माई!’’

प्रार्थना में माथा झुकाते उसे एक दिव्यता की अनुभूति हुई। लगा, संतोषी माता ने धीमे से हाथ फेरा है उसके माथे पर। उसकी बाई आँख डबडबा गई।
सीढ़ियाँ चढ़कर जैसे ही गुलाब बाई और लल्लन ऊपर पहुँचीं, बुंदू ने पहले गुलाब बाई और फिर लल्लन को ‘भाभी, नमस्ते!’ कहा और हँसने की कोशिश करते बोला–‘‘कोठीवालियों का-सा बाजार करती लौट रही हो दोनों जन, गुलाब भौजी! बड़ा शरीफों का-सा कटरा बना लिया मुहल्ले को तुम लोगों ने!...और ये गणेशी ने कब से खाट पकड़ ली? ये तो आज-कल में बोलती मालूम पड़ती है।’’

‘‘शरीफों का कटरा न हो गया होता तो इस धंधे की टैम खिड़की पर तुम मर्द जात थोड़े ना बैठे होते, बुंदू!’’ कहती गुलाब बाई ऊपर सीढ़ियों की तरफ चल पड़ी–‘‘बैठो बुंदू भैया, आती हूँ अभी। जरा मइया का दीया कर लूँ। लल्लन जिज्जी, तुम भी ठहरी रहना, चा पीती जाना। उस नारद मुनि ने तो पानी को तब पूछा, जब हलक पानी लेने के काबिल न रहा। बंतो री, बुंदू चाचा और ताई के लिए जल्दी से चा तो बना; लल्ली! गणेशी को दवा दी कि नहीं?’’

‘‘मिनिस्टर साहब के यहाँ से आ रही हो ना! चा–शरबत को भी ना पूछा? हमें बंतो ने बताया तो सोचते थे, दावत खाके लौटोगी दोनों।’’ बुंदू ने विनोद में कहा तो गुलाब बाई ऊपर को जाती सीढ़ी पर पाँव रखते-रखते थम गई–‘‘वो तो बातों की ही इमरती छानता है, बातों की ही पकौड़ियाँ! कान जल गए सुनते-सुनते। इन सियासी लोगों का तो अगर मुँह सिल दो तो उसी रफ्तार से पीछे से बोलना शुरू कर दें।’’
‘‘कुछ रास्ता निकला या नहीं, ये बताओ?’’

‘‘रास्ता निकालते-निकालते तो आँतें निकाल देगा नेता!...लेकिन देखो, क्या करता है। शैनाज-मुन्नी-चंदा लोग तो उसी मुटल्ले के शैदाई हैं।’’ कहती गुलाब बाई ओझल हो गई, तो बुंदू ने कहा, ‘‘तुम तो दुआ-सलाम भी भूल गई लगती हो!’’
‘‘कब आए तुम? हमारे डेरे पर ना गए? हमीदन बी राजी-खुशी तो हैं? खालिद-शंकर लोग मिले थे?’’ लल्लन ने पूछा।

‘‘गया था। पहले सीधे डेरे पर गया था। अकेली कुतिया-सी सलोरीवाली लेटी पड़ी थी। धंधे की टैम का सूना मसान बना देता है धंधेवालियों की बस्ती को। ऊबने लगा तो चला आया। अजीब माहौल है यहाँ तो। पता चला, नेताजी के यहाँ गई हो गुलाब भौजी और शहनाज के साथ। हमीदन बी ने वालेकुम सलाम कहा है, खालिद मियाँ ने भी। शंकर चाकूबाजी में तिहाड़ पहुँचे हैं। हमारे आते अभी जमानत नहीं हुई थी। हलाक ना हुआ कोई, मगर छूटते-छूटते ही छूटेंगे। हगते-मूतते छुरा निकालने की रुस्मती का यही हश्र होना है। दलाली में छुरा दिखाओ चाहे जितना, आजमाओ नहीं, तभी खैर है। जो गिराक दिखाने से ना डरे, समझो, उससे उलझने में जोखिम जरूर होगा। डेरेवालियों के धंधे की तो वहाँ भी हालत मंदी है। कोठेवालियों का बाजार उजाड़ पड़ता जाता है–कोठियोंवाले नामा पीट रहे हैं। पेशेवर धंधेवालियों में बीस गुने की गिराकी दिल्ली की शरीफजादियाँ करती हैं। उनके फ्लैटों में दरबान दशहरी लेता है!’’

‘‘बड़े लोगों की बड़ी बाते हैं, बुंदू मियाँ! ‘हाथी पर हौदी, गधे पर लादी’ सदा ही रही है। ये तो मानी बात है, न पढ़े-लिखे शरीफों की जैसी दलाली तुम जनों से होगी, ना बिलायती भोंकनेवालियों की जैसी गिराकी हम बेपढ़ी गरीब धंधेवालियों से कटेगी। सुना है, वहाँ कारों, कोठियोंवाला हिसाब है? फोनोगिराफ से नामा तै होता है!’’

‘‘खालिद मियाँ के रसूख से एक जगह पहुँचना हो गया। दिल्ली के हिसाब से तो दोयम जगह थी मगर इन दड़बों में बैठों से तसव्वुर होगा वहाँ का, लल्लन? अंदर की आँत तक पहुँचा आदमी ना हो, पेटेंट गिराक ना हो तो किसी के बाप की ताकत है, जो के उसके जेहन में आए कि इन कोठियों में अस्मतफरोशी होती होगी! आओ, गुलाब भौजी, बैठो। दिल्लीनामा सुन रही हैं हमसे लल्लन भाभी। सिविल लैन में जैसवाल वकील साहब के घर गई तो हो तुम दोनों जन? बैठक देखा है उनका? दिल्ली की कोठीवालियों की बैठकों के सामने कबाड़ी की दुकान समझो जैसवाल की बैठकी को, जो इस अठन्निए शहर में रईसों की बैठक कहाती है। क्यों री बंतो, कितनी देर है तेरी चा में? पानी तो तू गुलाब भौजी के आने से पहले चढ़ाए बैठी थी!’’

गुलाब बाई अब तक पानदान खोल चुकी थी। कत्था-चूना ठीक करने के बाद सरौता लेकर सुपारी काटने बैठ गई। बोली, ‘‘ठाली बैठो तो उबासियाँ आती हैं। चा आती ही होगी। तुम कुछ दिल्ली शहर की रामकहानी सुना रहे थे, बुंदू भैया? नए तो तुम गए ना थे, पहले भी कई दफे जा चुके हो। इस बार तुम कुछ परियों के दरबार के लतियाए-से लौटे हो!’’

‘‘बस-बस गुलाब भौजी, सही लफ्ज ले आई हो। दिल्ली ससुरी घूमी भतेरी, मगर ऐसा ख्वाबगाहों में घूमना कहाँ हुआ था? खालिद मियाँ की पहुँच इतनी दूर तक हम समझते ना थे। क्या कहते हैं कि डिफिंस कौलनी मुहल्ले में ले गए थे। हमारा तो सच पूछो, मार जी हलकान कि बेटा बुंदू, मेंढ़क का गंगा की धारा में कूदना कर रहे हो! मार जूतों के खाल निकाल ली गई कि नाबदान का कीड़ा मखमलपोश में कहाँ! तो सारे बाल एक जगे इकट्ठा हो जाएँगे। स्कूटर से उतर के पाँव धरा है नीचे, तभी हिम्मत छूटने लगी। कोठी के सामने पहुँचे तो यों समझे कि खालिद मिया चूतिया बना रहे होंगे। आना किसी मामले में किसी बड़े वकील की कोठी का रहा होगा और हमें अच्छी लोकल पेल दिए कि ‘चलो, आज तुम्हें दिल्लीवालियों के कोठे की तफरी करा दें।’ जी में जब आया कि किसी बड़े वकील की कोठी है, तो समझो, चैन पड़ा। सोचे कि शंकर की जामीन का मसला होगा। बाहर चमचमाती कार खड़ी थी। फाटक के दोनों तरफ गोल पतीले जैसा बल्ब जला हुआ। कोठी का बाहर का सारा अगला हिस्सा जवा की बेलों में गुच्छम-गुच्छ! मूँछें मठारता गोरखा दरबान ऐसा खड़ा कि यहाँ शेरवानियों की कोठी पर कहीं दिखे तो दिखे। मन में हुआ, बैठक से बीस हाथ दूर जूता उतरवानेवाले जैसवाल वकील साथ में हों तो बताएँ, ऐसी होती है वकीली! चूहे की तरह चींचनेवाले दरवाजे का खालिस सोने का-सा चमचमाता कुंडा खींचा है खालिद भाई ने, तो यों समझो जैसे कोई गैबी परदा हटाया गया हो और अनारकली फिल्म शुरू! मार झमाझम घुँघरुओं की आवाज। बाद में खालिद भाई ने बताया कि दरवाजे की आटूमैटिक घंटी रही। बाहर चाँदना, मगर शीशे के दरवाजों के पार जैसे अँधेरे में कोई दरिया बहता हो, ऐसा सन्नाटा! जब तक हमसे ये बने कि खालिद मियाँ तो नौशा बने सवारी गाँठ रहे हैं, दिल्लीवालों का रुतबा जमाना चाहते हैं, बताने से रहे–हम जूते उतारें तो कहाँ उतारें?–तब तक झम्म से रोशनी जली है और वकील साहब की कौनो यूनिवरसिटी में पढ़ेवाली बिटिया या कि बहू बैठक में प्रकट भई हैं। मार नीलम परी! मार नीलम परी! मार नीलम परी! नीली ही साड़ी, नीला ही ब्लाउज–पेटीकोट, नीली ही जूती और नीले ही जड़ाऊ नगों से भरे चमचमाते जेवर! थे हम भौचक, मगर जैसे ही खालिद भाई से पहले वो मुसकराई है और हमारी ‘नमस्ते’ का जवाब दिया है, एक मिनट में हम चौचक जान गए कि बुंदू बेटे, ये देखो कि पैसे का खेला, कितनी जबरदस्त चीज है! पेशेवाली और परी के बीच का फर्क खत्म किए देता है। चा-पानी-नाश्ता किया है, लौट आए हैं, मगर वहाँ की चमक-दमक, तौबा! अभी तक कानों में दस्ताने-हमजा पड़ी महसूस होती है, गुलाब भौजी! अब उस बैठक का हवाल क्या दूँ तुम्हें–बैठने के सोफे ऐसे कि रजवाड़ों में हों। शीशे के खानों में मार यहाँ से वहाँ तक एक-से-एक किताबें लगी हुईं। बड़ा-सा फिरज अपनी जगह। सब करीने से लगे। लाल रंग का टेलीफोन एक, हरे रंग का टेलीफोन दूसरा। एयर-कंडीशन मशीन का चलना ऐसा, जैसे जंगल में का कोई झरना हो! अब जो यहाँ पहुँच के मुहल्ले का आलम देखा है तो जी में आया है कि अब बेटे पुलिस कप्तान, है असली मरद का जना तो उन कोठियों के भीतर से बाहर निकाल रंडियों को। अच्छे-अच्छे जनरैल-करनैलों की रूह फना हो जाए वहाँ तो! खालिद मियाँ बताते थे–बड़े-बड़े मिनिस्टर-इनिस्टर, एम. पी. लोगों की आवाजाही रहती है वहाँ। सब नामे का खेल है, गुलाब भौजी तुम लोगों की तंग गलियों में धंधेवालियाँ कमाई हुई बकरियों-सी लटकी रहती हैं–तीन रुपल्लीवाला भी सीना टोह के देखता है। वहाँ हजार से नीचे फाटक के एक फुट अंदर रसाई नहीं है।’’

बंतो तीन प्यालियों में चाय और बड़ी तश्तरी में इमरती-दाल-मोठ लिये पहुँची। बुंदू का थमना हुआ तो गुलाब बाई बोली, ‘‘घंटेवालों के यहाँ की इमरती दिखती है! बड़ा रसूख निभा रहे हो भइया, जो मुझ गुलाब के भी खाली हाथ नहीं आते हो। हाय, बंतो, तूने बचा लिया तो जमीन से आ लगे हैं। तेरा बुंदू चचा तो हमें जादू के गलीचे में बिठाए मार उड़ाए चला जा रहा था कोहकाफ की कोठियों में। अच्छा, रईसजादियों की सुना चुके होओ तो कुछ गरीबजादियों की भी कहो, बुंदू भइया! धंधे की हालत क्या है वहाँ?’’

‘‘धंधे की क्या पूछो, गुलाब! खोमचा लगाई हो रही है। अब कहाँ वो पुरानीवाली जी.बी. रोड रह गई! अंग्रेजों के वक्त में अजमेरी गेट की चौहद्दी से लाल कुआँ-लहौरी गेट तक का इलाका धंधे में आता था। अब बहुत सख्ती हो गई। बहते पानी में के झाड़-झंखाड़ की तरह शहर के दूर-दूर, किनारे-किनारे की बस्तियों में जा लगी हैं धंधेवालियाँ। ऐन शहर की जो आमद थी, वो जाती रही। अब पूरब के जिंस की पच्छिम में पूछ कहाँ! दिल्ली शहर में तो अब पछाहीं का जोर है। बड़ी बेकारी है भइया, वहाँ तो। रंगरूटी पर उतर आए हैं लोग। अब पहलेवाली बात कहाँ रही कि काली अपने चुगें, धौली अपने! मुंबई हुई जा रही है दिल्ली तो।’’
‘‘आग लगे ऐसे शहर को, जहाँ गरीबों की रोजी-रोटी का सिला न हो।’’

‘‘हाय अगन, हाय अगन तो अब सारे मुल्क में हो गई, गुलाब भौजी! छोटे शहरों में ही कहाँ बरकत रह गई? मिनिस्टरों तक का चंदा लग गया। नेता रामबिलास जैसे बड़े लोग दलाली पर उतर आए हैं तो अब बुंदू, भोला, बनवारी, रामेसर, उस्मान का कौन ठिकाना है! हमसे तो खालिद कह रहे थे, हमेशा को यहीं टिक जाओ। हफ्ता भर दिल्ली रहे हैं हम तो, वो खातिर किए हैं कि पूछो मत। अफारा जाते-जाते जाएगा। कहाँ ससुर ‘मोतीमहल’ में, कहाँ कनाट पिलेस के हवामहल में। मार मीट, मार मछली, मार मुरगा! इस फटीचर शहर की मंडियों में उतने कद्दू-लौकी न दिखे, जितने वहाँ मसाला लगे मुरगे टँगे दिखाई पड़ते हैं। हींक छूट गई। खाओ कम, देखो ज्यादा! आखिर-आखिर तंग आके एक दिन पाँवों–पाँवों दरियागंज की तरफ निकल गए। दारू वहाँ बड़ी सस्ती है। हमारे ऊ.पी. में तो जाने क्या आग लगी है। हर बोतल में मिनिस्टर से लेके आबकारी के चपरासी तक का हिस्सा लिख दिया है–गिरजाप्रसन्न ठेकेदार ने। गोलचे के करीब में आके एक सरदारजी के ढाबे में जा बैठे–अरे, हाँ–आँ–आँ!...’’

‘आँ-आँ’ को आलाप में खींचता बुंदू जिस तरह हवा में उठता-सा थम गया, तीनों चकित-सी देखती रह गईं। उसने अपने आपको ऐसी मुद्रा में कर लिया, जैसे कोई विस्फोट करने जा रहा हो।
‘‘अच्छा गुलाब भौजी, ये बताओ तो जानें कि हमने सरदारजी के होटल में क्या देखा है?’’

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