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अंबपाली

रामवृक्ष बेनीपुरी

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7921
आईएसबीएन :9789380183251

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ऐतिहासिक अंबपाली और वैशाली की आत्मा को बखूबी चित्रित करता रोचक एवं लोकप्रिय नाटक...

Ambapali - A Hindi Book - by Ramvriksh Benipuri

अंबपाली बौद्ध युग की एक अतिप्रसिद्ध नारी है। उसको लेकर भारतीय भाषाओं में कितनी ही रचनाएँ हुई हैं–काव्य, कहानी, नाटक उपन्यास के रूप में।

जहाँ अंबपाली का जन्म हुआ था, उसी भूमि में लेखक श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी भी जनमे। एक पुरातत्त्वज्ञ ने तो यहाँ तक कह डाला है कि वृज्जियों के आठ कुलों में शायद उनका (लेखक का) वंश भी है, जिनकी संघ-शक्ति ने वैशाली को महानता और अमरता प्रदान की थी।

‘अंबपाली’ नाटक को अपार प्रसिद्धि मिली और इसने नाट्य-लेखन को एक नया आयाम दिया। बेनीपुरीजी लिखते हैं–‘सघन पत्तियोंवाली एक आम्र-विटपी के तने से उठँगकर मैं अपनी अंबपाली की रचना किया करता था–सामने फूलों से लदे मोतिए और गुलाब के झाड़ थे, ऊपर आसमान पर बादलों की घुड़दौड़ होती थी और इधर मेरी लेखनी कागज पर घुड़दौड़ करती थी। दिन भर मैं जो कुछ रचता, शाम को मित्रों को सोल्लास सुनाता। उस पाषाणपुरी में मेरी इस कुसुम-तनया की अलौकिक चरितावली उनके शुष्क हृदयों को हरा-भरा और रंगीन बना देती, वे मुझ पर और इस कृति पर प्रशंसा की पुष्प-वृष्टि करने लगते! बेचारे विधाता को ऐतिहासिक अंबपाली की सृष्टि करने में ऐसा सुंदर वातावरण और ऐसा निराला प्रोत्साहन कहाँ प्राप्त हुआ होगा!’’

ऐतिहासिक अंबपाली और वैशाली की आत्मा को बखूबी चित्रित करता रोचत एवं लोकप्रिय नाटक।

 

पहला अंक

एक

 

[एक विस्तृत सघन अमराई–आम की डाल-डाल मंजरियों से लदीं, झुकीं; भौरे जिन पर गुंजार कर रहे, बसंती हवा जिनमें खेलवाड़ कर रही–आम के पेड़ों के बीच की जमीन में सरसों की फूली हुई क्यारियाँ–वृक्षों से लिपटी लताओं से जहाँ-तहाँ बन गई कुंजें–सूरज की किरणों से अभी सोना नहीं गया है–मंजरियों, पत्तों, फलों पर की ओस की बूँदे उसके स्पर्श से चमचम कर रहीं–चिड़ियों की चहचह में दूर से सुनाई पड़नेवाली कोयल की कुहूं।

अमराई का मध्य–एक फैला हुआ आम का वृक्ष–उसकी एक मोटी डाल से एक झूला लटक रहा–जहाँ-तहाँ कमाचियों के बने पिंजड़े झूल रहे।
एक किशोरी झूलेवाले वृक्ष की ओर आती दिखाई पड़ती है–कमर में प्राचीन ढंग का हरा परिधान, जो मुश्किल से घुटनों के नीचे पहुँचता है–कमर के ऊपर के हिस्से में सिर्फ स्तनों को ढकनेवाली पतली कंचुकी हरे रंग की है–गले में फूलों की माला, जो कमर तक लटक रही–बालों के जूड़े में सरसों के फूल खोंसे–सुंदर-सुडौल गोरी बाँहों में सिर्फ फूलों के ही कंगन–हाथ में आम की मंजरियों का गुंच्छा।

किशोरी उस पेड़ के नजदीक पहुँचती है–झुकी डाली की मंजरियों को चूमती है–उसे देखते ही पिजड़ों से पंछी चहचहा उठते हैं–उन पिंजरबद्ध पंछियों के निकट जाकर उन्हें दुलराती है–मुँह से सीटी देती हुई एक श्यामा के पिंजड़े को लेती झूले के नजदीक आती है। धीरे-धीरे झूलती हुई श्यामा की ओर देखती वह गाती है–]

 

मेरी श्यामा ने वंशी फूँकी,
कोयलिया क्यों कूकी?
कुहरे की झीनी चदरिया में सोई
धरती थी ऊँघ रही सुधि खोई
किसने अचानक उसे गुदगुदाया
चारों तरफ छा गई जैसे माया–
सरसों की क्यारियाँ फूलीं
आमों में मंजरियाँ झूलीं,
भौंरों की भामिनियाँ भूलीं
पुरवाई मस्ती में यों सनसनाई–
कि भूली हुई बात फिर याद आई, कलेजे में हूँकी,
कोइलिया कूकी,
मेरी श्यामा ने वंशी फूँकी।

 

[जब किशोरी गा रही, उसी रंग-रूप, वेशभूषा की दूसरी किशोरी बगल से आती है। पहली किशोरी गाने की तन्मयता में उसे नहीं देखती। वह धीरे-धीरे, दबे पाँव आम के पेड़ के नजदीक आती और उसकी डाल पर चढ़ जाती है। ज्यों ही गाना खत्म होता है, वह कोयल की बोली का अनुकरण कर कुहू-कुहू बोल उठती है। संगीतमना किशोरी चकित होकर पेड़ की ओर देखती है–फिर झूले से उठकर आगे बढ़ती है–सहसा डाल की ओर देखकर हँस पड़ती है।]

पहली किशोरी : ओहो, मधु! उतर पगली! वही मैं कह रही थी, यह कोयल तो हो नहीं सकती। उतर, उतरती है या...
दूसरी किशोरी : या! क्या? गा, गा–‘मेरी श्यामा ने वंशी’...वाह री तेरी श्यामा!
पहली किशोरी : उतरती है या ढेले फेंकूँ?
दूसरी किशोरी : ढेले उन पर फेंक, जिनकी ‘भूली हुई बात फिर याद आई, कलेजे में हूकी!’ वही ढेले बरदाश्त करेंगे तेरे, मैं क्यों?
पहली किशोरी : नहीं उतरती?
दूसरी किशोरी : नहीं उतरती!

[पहली किशोरी गुस्से से इधर-उधर ढेले ढूँढ़ती है, फिर हाथ की मंजरियों को ही फेंकने लगती है। निशाना चूकता जाता है–ऊपर की किशोरी ठहाके लगाती है। अंत में जब वह डाल पर चढ़ने का उपक्रम करती है, दूसरी किशोरी डाल से दोल मारकर जमीन पर आ जाती और झूले पर जाकर झूलती हुई गाती है–‘कोइलिया क्यों कूकी, मेरी श्यामा ने।’ तब तक पहली किशोरी भी उतर आती है और झूले के नजदीक पहुँचती है–]

पहली किशोरी : क्यों री, तू मुझे चिढ़ाती क्यों है?
दूसरी किशोरी : (बिना जवाब दिए वह गाती जाती है)–‘कोइलिया क्यों कूकी, मेरी श्यामा ने वंशी फूँकी...’
पहली किशोरी : तू नहीं चुप होती!
दूसरी किशोरी : (गाती जाती है) ‘क्यों कूकी, मेरी श्यामा ने...’
पहली किशोरी : (चिढ़कर उसे झकझोरती हुई) श्यामा की सास!
दूसरी किशोरी : (नाक-भौं चढ़ाती हुई) कोयल की सौत!

[दोनों एक-दूसरी को आँखें गड़ा-गड़ाकर देखती हैं। देखते-ही-देखते दोनों ठठाकर हँस पड़ती हैं और एक-दूसरी से लिपट जाती हैं। लिपट जाती, एक-दूसरी को चूमतीं–फिर दोनों झूले पर बैठ पैर से धीरे-धीरे पेंग देती। परस्पर आहिस्ता-आहिस्ता बातें करती हैं–
इनमें पहली किशोरी है अंबपाली; दूसरी उसकी सखी मधूलिका और यह है आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की बात–आज जहाँ मुजफ्फरपुर का जिला है, वहाँ, उत्तर-बिहार में तब वृज्जियों का प्रजातंत्र था, जो संघराज्य कहलाता थे। ये दोनों वृज्जि-कुमारियाँ हैं।]

मधूलिका : अंबे, आज भोर-भोर तूने कुछ देखा है क्या? या रात में कोई सपना देखा था?
अंबपाली : तेरा मतलब?
मधूलिका : मतलब है, तेरे इस गाने से।
अंबपाली : क्या बिना सपने देखे आदमी कुछ गा नहीं सकता? और सच पूछ तो ऐसी कोई भी रात होती है, जिसमें आदमी सपने न देखे या ऐसी कोई भोर आती है, जिसमें आदमी कोई रूप न देख पाए?

मधुलिका : लेकिन सपने-सपने में फर्क होता है और फर्क होता है रूप-रूप में, अंबे! एक सपना होता है, जिसमें आदमी डरकर आँखें खोल देता है और एक सपना होता है, जिसमें जग जाने के बाद भी आदमी आँखें मूँद लेता है कि एक बार फिर उसकी कड़ियाँ जोड़ सके! समझी?
अंबपाली : हूँ।

मधूलिका : यों ही एक रूप होता है, जिसको देखकर आँखें मुड़ जाती या मुँद जाती है और दूसरा रूप होता है, जिस पर नजर पड़ते ही पलकें और बरौनियाँ काम करना छोड़ देती हैं, नजरों में टकटकी बँध जाती है और दिमाग चिल्लाता है, आह, ये आँखें इतनी छोटी क्यों हुईं? बड़ी होतीं, इन्हीं में उसे रख लेता! समझी?
अंबपाली : हूँ।
मधूलिका : हूँ, हूँ क्या?
अंबपाली : यही कि रूप-रूप में फर्क होता है और फर्क होता है सपने सपने में। यही न? लेकिन, एक बात कहूँ मधु, मुझे याद नहीं कि कभी बुरे सपने भी देखे होऊँ; और मेरी आँखों ने जिसे देखा, सुंदर ही पाया!

मधूलिका : (आश्चर्यमयी मुद्रा से) अच्छा?
अंबपाली : हाँ-हाँ, सच कहती हूँ सखि! न जाने क्या बात है या तो कुरूप चीजें मेरी आँखों के सामने आतीं ही नहीं या मेरी नजरें उनका प्रतिबिंब ग्रहण नहीं करतीं।...
मधूलिका : (बात काटकर किंचित् मुसकान से) या तेरी नजर पड़ते ही कुरूप भी रूपवान् हो उठते हैं?

अंबपाली : दिल्लगी की बात नहीं है, मधु! मैंने आज तक दुनिया में सिर्फ सौंदर्य-ही-सौंदर्य देखा हैं–निर्जीव प्रकृति से लेकर प्राणवान् प्राणी तक! और, सपने? उनकी बात मत पूछ। मधु, आदमी जागना क्यों चाहता है? सोए रहो, सपने देखते रहो, क्या इससे भी कोई दूसरी अधिक सुंदर चीज हो सकती है? जागरण! (उपेक्षा के शब्दों में)–जागरण आदमी का वरदान है या अभिशाप है।
मधूलिका : आज तुझे यह क्या हो गया है? तू किस सपने के लोक में है?

अंबपाली : सपने का लोक! आह, मैं हमेशा उसी में रह पाती, मेरी मधु! जब बच्ची थी, सपने में देखती–परियों का देश, मणियों का द्वीप, उड़नखटोले की सैर! और आजकल? ज्यों ही आँखें लगीं कि मैं पहुँच गई उस सुनहली घाटी में, जहाँ इंद्रधनुष का मेला लगा रहता है, जहाँ जवानी तितलियों के रूप में उड़ती रहती हैं; या उस देवलोक में जहाँ सुनहले पंखवाले देवकुमार नीलम के पंखोंवाली अप्सराओं के अगल-बगल, आगे-पीछे मँडराते फिरते हैं; या कम-से-कम उस रूपदेश की राजभाषा में, जहाँ कलँगीवाले राजकुमारों की भरमार है–जहाँ नृत्य है, संगीत है और है–(अचानक सिहर उठती है) मधु, मधु! तू क्या ऐसे सपने नहीं देखती?

मधूलिका : मैं देखती या नहीं देखती, बात मत बहला। बता, तूने रात भी क्या कुछ ऐसा ही सपना देखा है?
अंबपाली : रात जो देखा, उसकी मत पूछ! उफ, बिलकुल अद्भुत, अपूर्व! उसकी याद से ही शर्म आती है, सखी!
मधूलिका : शर्म! सपने में शर्म की कौन सी बात है री?
अंबपाली : नहीं मधु, जिद न कर। सचमुच उसकी याद में ही मैं शर्म से गड़ने लगती हूँ।

मधूलिका : (व्यंग्य के शब्दों में) समझी, समझी। तभी तो भोर-भोर यह गीत! आखिर अचानक आकर उसने तुझे गुदगुदा ही दिया ‘किसने अचानक...गुदगुदाया’ (गाने का व्यंग्य करती है)
अंबवाली : लेकिन तेरा यह निशान ठीक नहीं बैठा, मधु! यह वह बात नहीं, जिसकी तू कल्पना भी कर सके।

मधूलिका : मेरी कल्पना की रानी? मैं, और वहाँ तक पहुँच सकूँ? खैर बता, तूने क्या देखा?
अंबपाली : तेरी जिद; अच्छा सुन (वह चकित नेत्रों से इधर-उधर देखती है कि कोई दूसरा तो नहीं है और फिर धीरे स्वर में कहने लगती है) रात देखा, कहीं अजीब देश में पहुँच गई हूँ, जहाँ चारों ओर फूल-ही-फूल लगे है–चंपा के, गुलाब के, पारिजात के।

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