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धर्म एवं दर्शन >> श्रीहरि नाम महिमा

श्रीहरि नाम महिमा

विद्या विन्दु सिंह

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7924
आईएसबीएन :9789380183213

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‘श्री हरिनाम महिमा’ पुस्तक भारतीय धर्म-दर्शन को लोक की आँखों से परखने का एक प्रयास है...

Srihari Nam Mahima - A Hindi Book - by Vidya Vindu Singh

श्रीहरि नाम महिमा

मैं विदुषी डॉ. विद्या विन्दु सिंहजी को उनकी उम्दा साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से वर्षों से परिचित हूँ। उन्होंने हिंदी की विविध विधाओं पर अपनी कलम चलाई हैं। विशेष रूप से लोक साहित्य और संस्कृति से संबंधित उनका कार्य प्रशंसनीय एवं रेखांकनीय है।
‘श्री हरिनाम महिमा’ पुस्तक भारतीय धर्म-दर्शन को लोक की आँखों से परखने का एक प्रयास है। लोक का यह आलोक इस कृति के माध्यम से पाठकों तक पहुँचे, यही प्रभु से प्रार्थना है।

–डॉ. बालशौरि रेड्डी

अध्यक्ष, तमिलनाडु हिंदी अकादमी, चेन्नै बरसों से मैं डॉ. विद्या विन्दु सिंह से और लोकजीवन व साहित्य पर किए गए उनके कार्यों से सुपरिचित हूँ। गाँव में जनमी, पली और जिस तरह अपना विकास शहरी परिवेश में आकर किया, वहाँ भी वे ग्रामीण-लोकजीवन की कलाभिव्यक्तियों के प्रति सचेत रहीं। अवध के लोकांचल को नगरीय समाज के समक्ष लाने में उनकी भूमिका स्मरणीय रहेगी।

जिसे हम लोकजीवन कहते हैं वह ब्रह्माण्डीय जीवन है, जिसके दिगंत बहुआयामी हैं। लोक से परलोक, भौतिकता से आध्यात्मिकता का संसार फैला हुआ है। कहते हैं कि भारत को केवल पदार्थ विज्ञान से नहीं बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से समझने की जरूरत है, क्योंकि यहाँ का अध्यात्म और यहाँ की भौतिकता न किसी कर्मकांड में शामिल है, न किसी राजनीति में।

अब अगर कोई इसकी व्याख्या करना चाहे तो वह भी यहाँ स्वीकार्य तो है, पर लोक उस पर अपनी मुहर लगाए, यह जरूरी नहीं है।
यह कृति लोक के इस सहज भाव को पाठकों तक पहुँचा सके, यही शुभकामना है।

–डॉ. विजय बहादुर सिंह

श्री चैतन्य महाप्रभु और भारतीय समाज


मध्युग में चैतन्य की सत्ता एक भिन्न प्रेमयोगमयी सत्ता है, जिसने ज्ञान अर्जित किया और ज्ञान की उपलब्धियों को पद्मा की धारा में विसर्जित कर दिया। जिसने समाज में समता की चेतना जगाने का कोई संकल्प नहीं लिया, न उपदेश दिया, पर केवल अपनी प्रेमव्यापी यात्रा और मधुर हरि नाम कीर्तन से जाति भेद, वर्ग भेद, प्रदेश भेद सभी प्रकार के भेदों को समाप्त कर दिया। जिसने कोई दर्शन का ग्रंथ नहीं लिखा, न ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा, न बीजक लिखा, न परची (परिचय) लिखी पर जिसकी छाया में अद्वैत वेदांत की ऐसी शाखा का जन्म हुआ, जिसमें अचिन्त्य भेदाभेद बह गया और उसने समस्त वेदांत दर्शनों और सभी प्रकार के वैष्णव सम्प्रदायों को श्री राधाकृष्ण के रंग में रँग दिया।

चैतन्य कबीर के कुछ ही काल बाद आविर्भूत हुए।
कुलीन ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। संस्कृत के शास्त्रों की उस समय की पूर्वाचली राजधानी नवद्वीप में विधिवत् शिक्षा पाई, पर हरि का रंग बचपन से ऐसा गहरा था कि सब पढ़ना-लिखना हरिमय हो गया था। उनका विवाह विष्णुप्रिया से हुआ, पर वे तो स्वयं पुरुष की देह में राधाभाव के उत्कृष्टतम स्त्रीभाव के अवतार थे। उन्होंने शास्त्र का ऐसा अभ्यास किया कि अध्ययन काल में ही नव्यन्याय के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘तत्त्व-चिंतामणि’ पर विद्वत्तापूर्ण टीका लिख डाली विनोद-विनोद में।

उस टीका को उनके ज्येष्ठ गुरु भाई रधुनाथ शिरोमणि ने देखा, वे तत्त्व चिंतामणि पर स्वयं टीका लिख चुके थे। श्री चैतन्य महाप्रभु की टीका पढ़ते ही उन्हें लगा कि मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ है, कौन पूछेगा मेरी टीका को ? वे उदास रहने लगे।
श्री चैतन्य महाप्रभु से उनकी उदासी देखी नहीं गई, पूछा, क्या बात है?

वह बोले तुम्हारी टीका ने मेरी टीका को तुच्छ बना दिया। महाप्रभु ने हँसते-हँसते अपना ग्रंथ पदमा की धारा में डाल दिया। केवल ग्रंथ ही उन्होंने नहीं प्रवाहित किया ग्रंथ के साथ-साथ उन्होंने ग्रंथिल शास्त्री और उससे पनपी जटिल सामाजिक स्तर-रचना भी विसर्जित कर दी।

उनकी प्रेमाभक्ति का मार्ग राजमार्ग बन गया, जिस पर उनके गुरु वासुदेव सार्वभौम स्वयं शिष्य बन कर आ गये। जीव गोस्वामी, रूप सनातन गोस्वामी जैसे पंडित श्री कृष्ण के गौर रंग अवतार चैतन्य देव से खिंच कर आ गये। साथ ही अनपढ़ पिछड़ी जाति के लोग खिंचकर आये, मुसलमान आये बिना इस्लाम छोड़े, बौद्ध आये, बौद्ध रहते हुए। बाउल आये, जिनको समाज में कोई स्थान ही नहीं मिला था। मणिपुर की जनता आई जो वैष्णव भाव का अर्थ भी नहीं जानती थी।

मणिपुर वैष्णव भक्ति का नामी मंदिर बन गया। उड़ीसा के आदिवासी आये, वृंदावन निवासी आये, पूर्ण मानव महासागर उस राजमार्ग पर उमड़ आया। श्री चैतन्य कुछ अधिक बोलते नहीं थे, बस भावावेश में घूमते रहते थे। वह भावावेश बड़ा संक्रामक था। छूत की तरह फैलता एक व्यापक प्रेमभाव, जिसके आगे पर–भेद की प्रतीति की तो बात ही क्या स्व की प्रतीति नहीं रहती, केवल पर की, परकीय होने की, परमात्मा की, परमात्मा का होने की प्रतीति रह जाती है। यह भाव सबको आविष्ट करता गया। सभी चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं हुए पर सभी के मन में वृंदावन बस गया और उस वृंदावन में राधा-कृष्ण के सनातन मिलन और सनातन विछोह की लीला रची जाने लगी। अपने आप मन की अशुचिता, बुद्धि का छल, अहंकार, काम, मोह, मद जाने कहाँ बह-बिला गए, मन, बुद्धि अहंकार ही नष्ट हो गए, फिर उनके अवगुणों के बचे रहने की बात ही क्या ? भारतीय समाज में एक चमत्कारी परिवर्तन की भूमिका रची जाने लगी। मीरा, सूर सभी चैतन्य महाप्रभु के बाद आविर्भूत हुए और ये सभी अन्य सम्प्रदायों में दीक्षित होते हुए भी श्री चैतन्य महाप्रभु के भावयोग में सहज ही जुड़ गए। जयदेव के गीत गोविन्द की व्याख्या करते हुए पंडित विद्या निवास मिश्र जी ने एक बात बहुत महत्त्व की कही है कि जयदेव से राधायुग शुरू होता है। राधायुग भारतीय संस्कृति के तरुण होने का लक्षण है। प्रारम्भिक अवस्था में श्री कृष्ण युग था, अर्थात विराट सत्ता केंद्र में थी। व्यष्टि परिधि में थी, श्रीराधाभाव के प्रमुख होने पर व्यष्टि केंद्र में स्थापित हो गई, विराट सत्ता उस केंद्र के चारों ओर नाचने लगी। पहले मनुष्य को किसी विशाल, पर चैतन्य की अपेक्षा थी, अब विशालतर चैतन्य की अपेक्षा थी। अब विशालतर चैतन्य को अपनी सार्थकता पाने के लिए लघु मनुष्य की व्यष्टि चेतना की अपेक्षा होने लगी। उपेक्षित से उपेक्षित, दीन से दीन, साधारण से साधारण व्यक्ति के भीतर यह विश्वास जगने लगा कि विशाल पारावार ब्रह्म मेरे आगे मानव बन कर उपस्थित है, मैं क्षुद्र नहीं, उपेक्षणीय नहीं, साधारण नहीं, नहीं-नहीं।

यह विश्वास बनने की प्रक्रिया अगर राज्य व्यवस्था का सहारा पाती, यदि वह धर्म नियामक वर्ग का साधन पाती तो भारतीय समाज में एक क्रान्ति हो गई होती, क्रांति का नाम लिए बिना। पर मार्दवी दया की, जड़ता की जड़ें बड़ी गहरी थीं। ऊपर से पेड़ कट गए, पर फिर पनप गए, पनपे ही नहीं और विशालतर हो गए। चैतन्य का जादू केवल मणिपुर जैसे क्षेत्रों में कारगर हुआ, जहाँ कोई शासन नहीं थे, जहाँ कोई दया नहीं थी, जहाँ मानवीय रिश्ते, साझेदारी और समानता पर आधारित थे, जहाँ जीवन सहज था।

मणिपुर में वह रंग ऐसे गहराया कि आज तक पृथकतावादी आंदोलनों के बावजूद चटकीला बना हुआ है। मणिपुर में कीर्तन एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें नृत्य, संगीत साहित्य सब मिलकर एक रक्षक बन गए हैं इतना गहरा सौंदर्य बोध भारत के किसी भी कोने के धार्मिक अनुष्ठान में नहीं देखा जा सकता।

गीतगोविंद की मणिपुरी प्रवृत्ति के बारे में गुरुओं से बात करें तो पता चलता है कि उनके मन में कैसी विह्वलता है और उस विह्वलता को स्थापित करने में कैसा संयम है। राधा रूठ गई हैं, राधा मनाए मान नही रही हैं, राधा पछता रही हैं, हर एक स्थिति की भावपूर्ण प्रस्तुति करते समय भी कभी भी नर्तक या नर्तकी यह नहीं भूलते कि यह विह्वलता बड़े समाहित चित्त से समाती है, चंचल चित्त से नहीं समाती। जीवन को बाण की तरह सीधा बनाना पड़ता है। तभी वह लक्ष्य से एकाकार हो सकता है।

श्री चैतन्य की जगन्नाथ यात्रा और वृंदावन यात्रा का ही यह परिणाम हुआ कि जगन्नाथजी के भोग में जाति भेद, वर्ग भेद, सब समान हो गए, वृंदावन में बसने वाली अछूत जातियाँ भी लाड़लीजी के अभिभावक होने का गर्व करने लगीं। आज भी चैतन्य की ही प्रेमाभक्ति ने अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न और कठोर अर्थपूर्णक देश में नंगे सिर, पैर चलने वालों का ऐसा नजारा पैदा कर दिया है कि मजहबी कठोरता चकित हो गई है। श्री कथा और हरि नाम कीर्तन जीवन के अंग बन गए हैं, उन लोगों के जो हर प्रकार के नशे में डूबे हुए थे। परंतु भारतीय समाज अभी चैतन्य का महत्त्व नहीं समझ पा रहा है। उसे सबको समेटने वाला भाव कुछ बहुत अवास्तविक लगता है, भक्ति बड़ी स्त्रैण लगती है, प्रेमाभक्ति तो विशिष्ट क्लिष्ट लगती है, उसे चैतन्य महाप्रभु, हरिदास, हरिराम व्यास जैसे फक्कड़ रसोपासक समझ में नहीं आते। जयदेव, चंडीदास, विद्यापति, सूर में अश्लीलता ही अश्लीलता और ऐंद्रियता ही ऐंद्रियता दिखाई पड़ती है।

कारण यह है कि भारतीय समाज मन में बहुत कलुषित हो गया है। वह थोथी नैतिकता के आवरण में दुर्भेद्य अहंकार को और विकट क्षुद्रता को छिपाए हुए है। इसीलिए यह समाज मुख्य धारा की बात करता है तो उसमें एक बेईमानी छिपी होती है। वह परिगणित जातियों और नवजातियों के उद्धार की बात करता है। पर उनकी इकाई को अक्षुण्ण बनाकर रखना चाहता है ताकि अपनी नियामकता सुरक्षित रहे। वह नारी की समानता की बात करता है पर उसी समाज का पढ़ा-लिखा आदमी बहुओं को जलाता है। अनपढ़ मजदूर या खेतिहर मारपीट कितनी कर ले, कभी स्त्री को जलाएगा नहीं, कम से कम दहेज के लिए तो कभी नहीं। यह समाज अध्यात्मवाद की बात करता है, पश्चिम की भौतिक संस्कृति की बड़ी निंदा करता है, पर भौतिक सुख-सुविधाओं की लालसा इसमें जितनी तीव्र है, उतनी पश्चिम के समाज में नहीं है, इसका अध्यात्म अब केवल शब्दजाल है, कहीं भी आचरण में उसकी परछाई तक नहीं दिखाई पड़ती।

इस समाज को यह समझाना कठिन है कि सभी भाव, प्रभाव से उत्कृष्टकर है, क्योंकि इसी भाव से पूर्ण उत्सर्ग संभव है, इसी भाव से सहज मानवीय भाव की सिद्धि संभव है। यह समाज यह समझ ही नहीं सकता कि भक्ति की भूमिका एक बड़े जागरूक कर्म की भूमिका है, बिना आलम्बन के कर्मच्युत होता रहता है, विचलित होता रहता है और अविचलित भक्ति का आलम्बन पाते ही कामनाओं का पाना आसान हो जाता है, तब निष्काम कर्म अनायास होने लगता है। यह समाज सहज प्यार की अधिदेवता राधा के श्याम रूप को नहीं समझ सकता, क्योंकि काम से दूषित चित्त में काम या किसी प्रकार की अभिलाषा का त्याग करनेवाले प्रिय की प्रगति की अभिलाषा के लिए त्याग करनेवाले प्रेम का कोई आकार बन नहीं सकता।

श्री कृष्ण के प्रेम का अर्थ चैतन्य महाप्रभु ने एक ही पाया कि उनके विरह की आकुलता में त्रिभुवन तन्मय हो जाता है, उनके विरह की आकुलता में श्रीकृष्णमय हो जाता है। बराबर अनुभव करो कि वे मिल नहीं रहे हैं और सारा शरीर उनकी उपस्थिति का अनुभव कर रहा है। केवल उनका नाम कान में पड़ा है, तन-मन ऊर्जा से भर उठा है, आँखें आँसुओं से गल रही हैं, वाणी गले में से निकल नहीं पा रही है, शरीर में रोम-रोम प्रहृष्ट हो गए हैं, नाम एकदम भीतर तक विद्युत प्रवाह की तरह मिल गया है। ऐसे अनुभव में भले ही अपना शरीर पराया हो जाय, पर संपूर्ण सृष्टि आत्मीय हो जाएगी, क्योंकि संपूर्ण सृष्टि में वही नाम घुल गया है ऊर्जा का छोटा प्रवाह बड़े प्रवाह का क्षेत्र हो गया है। बहुत कम लिखा है कि चैतन्य बन कर जीवन जिया है। उन्होंने समाज को नहीं देखा। श्रीकृष्ण-भावाकुल समस्त लोक को देखा, इसलिए उनका समाज छोटी इकाइयों का समूह न रह कर एक विराट् चेतन व्यापार बन गया। उनका चैतन्य नाम सार्थक हो गया।

भारतीय समाज आज बहुत भावशून्य हो गया है, वह इसीलिए जो काम करता है, वे काम, केवल काम के नाटक होते हैं। जो ज्ञान बघारता है, वह केवल दया का पात्र होता है और जो समानता की बात, सामाजिक न्याय की बात करता है, यह किताब की रटी हुई बात होती है।

इस समाज को चैतन्य की आवश्यकता है, गौर हरि की आवश्यकता है। पर इस आवश्यकता की तीव्र प्रतीति अभी नहीं हो पा रही है। यह भाव आज मन में तीव्रता से उतना आवश्यक है। गुजरात, असम में मनुष्य और मनुष्य के बीच संशय-अविश्वास की जो खाईं चौड़ी होती जा रही है, दक्षिण-उत्तर का जो अंतर प्रखर होता जा रहा है और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के बावजूद भी मतान्धता का डर बढ़ता जा रहा है और मजहबी संकीर्णता का प्रवाह प्रवल होता जा रहा है, उसमें कोई दूसरा उपाय नहीं है, सिवाय एक व्यापक आविष्ट मानव की दिव्यता के आवाहन के, मनुष्य के आकर्षण से खिंचे ईश्वर की लाचारी के। इसके लिए श्री चैतन्य महाप्रभु का परिग्रह मुक्त, छल मुक्त, कामना युक्त, व्यापक प्रेम भाव ही परम औषधि है। यही है कि बीमार अपनी बीमारी को ही पहचान रहा है, अपने को बीमार नहीं अनुभव कर रहा है। हिंदुस्तान का समाज जिस दिन अपने को बीमार समझेगा, अपनी बीमारियों को असाध्य समझेगा, वह यह उपाय अपने आप समझेगा। तभी सारे मोहजाल प्रबुद्ध बनने के, समाज का नायक बनने के कट जायेंगे और चैतन्य का नया उदय होगा।

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