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लिखा लिखी की है नहीं (कबीर वाणी)

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7925
आईएसबीएन :81-7182-325-4

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कौन है यह? इसे क्या हक है हमें जगाने का? दिखता तो हमारे जैसा है, फिर भी बड़ा भिन्न है।

Likha Likhi Ki Hai Nahi (Kabir Vani) - A Hindi Book - by Osho

(कबीर-वाणी)

हम जी रहे हैं, हमारे चारों ओर फैला विराट अस्तित्व जी रहा है, लेकिन कभी इस चमत्कार के प्रति हमारे मन में कुतूहल नहीं उठता! कभी-कभी कोई बिरला व्यक्ति इस जगत के प्रति विस्मय भाव से भर उठता है। इसका रहस्य खोलने की जिज्ञासा उसके प्राणों को आग की तरह पकड़ लेती है। और वह अपने को लुटा देता है इस खोज पर। रहस्य खुलता तो नहीं बल्कि और घना होता जाता है। और खोजते-खोजते अंततः खोजने वाला इस रहस्य में इस कदर समा जाता है कि खुद रहस्य बन जाता है।

और वह चलता-फिरता रहस्य जब भरे बाजार में आकर सोये लोगों को जगाने लगता है तो नींद से अलसायी आंखें खोलकर वे नाराजगी से देखने की कोशिश करते हैं : कौन है यह? इसे क्या हक है हमें जगाने का? दिखता तो हमारे जैसा है, फिर भी बड़ा भिन्न है। लेकिन जहां तर्क हथियार डाल देता है, बुद्धि का सूरज डूब जाता है और मन की चिता जलती है, उस पार जाकर ओशो जैसे परमहंसों का जगत प्रारंभ होता है। इसलिये अगर सच में ही ओशो का परिचय पाना हो तो तत्काल अपने को पहचानने की यात्रा पर निकल पड़ना।

अनुक्रम


  • अकथ कहानी प्रेम की
  • लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात
  • दुलहा दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात
  • सम्यक् जीवन : मृत्यु
  • एक-एक जिनि जानिया तिन ही सच पाया



  • अकथ कहानी प्रेम की

    एक


    प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
    राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देय लै जाय।

    पोथी पढ-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।

    प्रेम-गली अति सांकरी, तामें दो न समाहिं।
    जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।

    कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।
    अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।

    जिहि घट प्रीति न प्रेमरस, पुनि रसना नहिं राम।
    ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।

    राता माता नाम का, पीया प्रेम अघाय।
    मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।

    अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाय।
    गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुसकाय।

    मैं देखता हूं तुम्हें, और एक बात सुनिश्चित मालूम होती है कि कुछ तुम्हारे पास था और खो गया है–कोई संपदा, कोई सुराग, कोई राज, कोई रहस्य, कोई कुंजी, जो तुम्हारे पास थी और खो गई।

    तुम सदा कुछ खोज रहे हो; प्रतिपल, सोते-जागते खोज में लगे हो। शायद ठीक पता भी नहीं कि क्या खोजते हो, और यह भी पता नहीं कि क्या खोया है; लेकिन खोज तुम्हारी आंखों में है; तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन में है। और यह खोज जन्मों से चल रही है। कभी तुम उस खोज को सत्य की खोज कहते हो; लेकिन सत्य तो तुमने कभी जाना नहीं, उसे खोज कैसे सकोगे? कभी तुम उसे परमात्मा की खोज कहते हो; लेकिन परमात्मा से भी तुम्हारा मिलन कभी हुआ नहीं, तो तुम बिछुड़ कैसे सकोगे? मंदिर में, मस्जिद में, काशी में, मक्का में, द्वार-द्वार तुम चोट करते फिरते हो, इस आशा में कि जो खो गया है, वह मिल जाएगा। लेकिन जब तक ठीक-ठीक पक्का पता न हो कि क्या खोया है, कहां खोया है, तब तक खोज पूरी नहीं हो सकती। तुम्हारा अनुभव भी कहेगा–द्वार तो बहुत खट-खटाए; लेकिन खाली हाथ ही तुम लौट आए हो। इसमें द्वारों का कोई कसूर नहीं है। खोज के पहले ही सुनिश्चित होना चाहिए–क्या मैं खोज रहा हूं? कहां खोया है? बीमारी का ठीक पता ही न हो तो तुम औषधि को कैसे खोजोगे? वैद्य भी मिल जाए तो क्या करेगा?

    नानक बीमार पड़े–ऐसे ही बीमार पड़े जैसे तुम सब बीमार हो–तो घर के लोगों ने वैद्य को बुलाया। कोई बीमार पड़े तो हम वैद्य को बुलाते हैं, बिना यह समझे कि ऐसी भी बीमारियां हैं, जिनसे वैद्य का कोई संबंध नहीं। वैद्य आया, नानक की नब्ज पकड़ी, नाड़ी गिनने लगा। नानक हंसने लगे। उन्होंने कहा : ‘बीमारी वहां नहीं है, नाड़ी पकड़ने से कुछ भी न होगा; बीमारी हृदय की है।’’

    वैद्य की तो कुछ समझ में आया नहीं, क्योंकि वैद्य की तो एक दुनिया है, जहां नाड़ी पकड़ी कि बीमारी पकड़ में आ जाती है। नानक को वैद्य नहीं, गुरु चाहिए था। गुरु भी वैद्य है, पर शरीर का नहीं, हृदय का। और गुरु का पहला काम है इस बात को स्पष्ट कर देना कि क्या खोज रहे हो। फिर खोज बहुत आसान हो जाती है।

    निदान हो जाए तो औषधि खोजनी बहुत मुश्किल नहीं है। निदान आधा इलाज है। निदान न हो तो औषधियों के ढेर लगे रहें–ढेर लगे हैं तुम्हारे चारों तरफ–पर कौन-सी औषधि तुम्हारे लिए है? और अकसर हो जाता है कि तुम शब्दों से प्रभावित होकर सोचने लगते हो कि शायद यही मैंने खोया है–परमात्मा को खो दिया है, मोक्ष को खो दिया है। फिर तुम खोज पर निकल जाते हो; और खोज आरंभ से ही गलत हो गई।

    जैसे-जैसे तुम्हें मैं समझता हूं, और जैसे-जैसे तुम्हारे हृदय में देखता हूं, वैसे-वैसे लगता है, सिंहासन वहां खाली है। सिंहासन तो है, कोई जरूर वहां बैठा रहा होगा, किंतु भटक गया है। तुम्हारा हृदय सिंहासन है, प्रेम का सम्राट वहां से भटक गया है।

    हर बच्चा प्रेम को लेकर पैदा होता है, तभी तो खोज हो सकती है। खोज से पहले खोना तो जरूरी है। हर बच्चा प्रेम को लेकर पैदा होता है, लेकिन बड़े होने की प्रक्रिया में प्रेम कहीं खो जाता है। शिक्षण-दीक्षण, समाज, संस्कृति-प्रेम कहीं खो जाता है। और उस प्रेम के खोने के कारण ही तुम्हारे भीतर एक रिक्तता है, एक अभाव है, एक खालीपन है। तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो, परमात्मा को नहीं। यद्यपि, प्रेम मिल जाए, तो परमात्मा के मिलने का द्वार मिल जाता है। लेकिन खोज तुम प्रेम को रहे हो, परमात्मा से तुम्हारा मिलन कहाँ हुआ? परमात्मा को तुमने कभी जाना ही नहीं; वह अनजान है, उसकी कोई खोज नहीं हो सकती। खोज के लिए कुछ संबंध होना चाहिए, कोई पहचान होनी चाहिए–वह कोई भी पहचान तुम्हारी नहीं है।

    सत्य तो सब तरफ मौजूद है; सत्य को तुम खोजोगे कैसे? सत्य तो है ही; असली सवाल तुम्हारे पास आंख का है। सूरज तो निकला है सदा से; तुम अंधे हो। अंधा सूरज को खोजे या आंख को? और आंख न हो, सूरज भी मिल जाए, तो क्या करोगे? कोई दरस तो न हो सकेगा। तुम तो अंधेरे में ही रहोगे।

    आंख चाहिए–वही आंख प्रेम है। परमात्मा सब तरफ मौजूद है; आंख खो गई है। प्रेम का अर्थ है अनुभव करने की क्षमता, संवेदनशीलता। प्रेम का अर्थ है ऐसी पुलक, जिसमें तुम निर्मल होकर सब द्वार-दरवाजे खोल देते हो। जो द्वार पर खड़ा है, उसे तुम शत्रु की भांति नहीं देखते; अतिथि है; प्रेमी द्वार पर आया है, और तुम द्वार खोल देते हो।

    जब तुम्हे सारा जगत अपना मालूम पड़ने लगेगा, जो भी द्वार पर आएगा, उसमें प्रेमी की ही झलक मिलने लगेगी, अजनबी समाप्त हो जाएगा, शत्रु मिट जाएगा, मित्र-ही-मित्र दिखाई पड़ने लगेंगे, तब तुमने प्रेम को पाया। और जिसने प्रेम को पा लिया, उसे पाने को क्या शेष रह जाता है! जिसमें प्रेम को पा लिया, उसने परमात्मा के द्वार की कुंजी पा ली।

    प्रेम को ठीक से समझ लो। उससे बड़ा कुछ भी नहीं है, परमात्मा भी नहीं है; चूंकि, प्रेम से परमात्मा मिलता है, परमात्मा के मौजूद होने से प्रेम तो नहीं मिलता। परमात्मा मौजूद है, प्रेम नहीं मिलता; लेकिन प्रेम मौजूद हो जाए तो परमात्मा मिल जाता है।

    जीसस ने कहा है : प्रेम ही परमात्मा है।
    और असली सवाल प्रेम को खोज लेने का है।

    तो पहले तो हम यह समझें कि कैसे प्रेम खो दिया जाता है। क्योंकि खोने की प्रक्रिया को समझ लेने पर पाने की प्रक्रिया का पता चलेगा। क्योंकि जैसे हम खोते हैं, वही रास्ता पाने का भी है; सिर्फ उलटे चलने की जरूरत है। वही सीढ़ी स्वर्ग ले जाती है, वही नरक; नीचे का छोर तो नरक में टिका रहता है, ऊपर का छोर स्वर्ग में। प्रेम जैसे-जैस खोता जाता है, वैसे-वैसे जीवन पदार्थ से भर जाता है। वह नरक है। सीढ़ी का एक छोर पदार्थ पर टिका है। जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता है, वैसे-वैसे पदार्थ खो जाता है और परमात्मा प्रकट हो जाता है। वह दूसरा छोर है। सीढ़ी का दूसरा छोर वहां टिका है। और प्रेम सीढ़ी है। अगर तुम प्रेम को छोड़ते गए तो तुम नीचे उतरते जाते हो। अगर तुम प्रेम को पकड़ते गए, तुम ऊपर चढ़ते जाते हो।

    अगर मुझसे पूछो, तो भूल जाओ परमात्मा को, भूल जाओ सत्य को, तुम सिर्फ प्रेम को खोजो और शेष सब उसके पीछे चला आएगा। परमात्मा ऐसे बंधा चला आता है जैसे प्रेम के पीछे, जैसे, छाया तुम्हारे पीछे बंधी चली आती है। लेकिन, प्रेम के बिना तुम कुछ भी खोजो, कुछ भी न पा सकोगे–क्योंकि पाने वाला संवेदनशील ही नहीं है; पाने वाले के पास क्षमता और पात्रता ही नहीं है; पाने वाला बेहोश है–घृणा में, क्रोध में, वैमनस्य में, पानेवाला जहर में दबा है। प्रेम के अमृत से पुलक आएगी।

    हर बच्चा पैदा होता है प्रेम को लेकर, इसीलिए तो हर बच्चा प्यारा लगता है। लेकिन धीरे-धीरे कहीं कुछ गड़बड़ हो जाती है। हर बच्चा प्यारा लगता है, हर बच्चा सुंदर है। तुमने कोई कुरूप बच्चा देखा? बच्चे का सौंदर्य जैसे उसके शरीर पर निर्भर नहीं है, बल्कि किसी भीतरी क्षमता पर। बच्चे का दीया जल रहा है। अभी उसके रोएं-रोएं से चारों तरफ से प्रेम की रोशनी पड़ती है। अभी वह जिस तरफ देखता है वहीं प्रेम है। पर जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, वैसे-वैसे प्रेम खोने लगेगा। हम सहायता करते हैं कि प्रेम खो जाए। उसे हम प्रेम करना नहीं सिखाते; प्रेम से सावधान रहना सिखाते हैं–क्योंकि प्रेम बड़ा खतरनाक है।

    हम बच्चे को सिखाते हैं संदेह करना, क्योंकि इस दुनिया में संदेह की जरूरत है, नहीं तो लोग लूट लेंगे। धोखा-धड़ी है, बहुत बेईमानी है, प्रपंच है–अगर तुम संदेह न कर सके तो कोई भी तुम्हें लूट लेगा। चारों तरफ लुटेरे हैं। हम चारों तरफ से परमात्मा का ध्यान नहीं रखते; हम चारों तरफ के लुटेरों का ध्यान रखते हैं। और हम लुटेरों के लिए तैयार करते हैं बच्चों को। तो लुटेरों के लिए तैयार करना हो तो प्रेम नहीं सिखाया जा सकता, क्योंकि प्रेम खतरनाक है।

    प्रेम का अर्थ है : भरोसा। प्रेम का अर्थ है : श्रद्धा। प्रेम का अर्थ है : स्वीकार। संदेह का अर्थ है : होश रखो, कोई लूट न ले; बचाओ अपने को, सदा तत्पर रहो, आक्रमण होने को है, कहीं-न-कहीं से, और इसके पहले कि आक्रमण हो, तुम खुद आक्रमण कर दो, क्योंकि वही रक्षा का सबसे उचित उपाय है। तो प्रतिपल जैसे संतरी पहरे पर खड़ा हो, ऐसे हम बच्चों को तैयार करते हैं। तभी हम बच्चे को कहते हैं कि प्रौढ़ हुआ, जब उसकी प्रेम की क्षमता पूरी खो जाती है; जब वह चारों तरफ शत्रु को देखने लगता है, मित्र उसे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता; जब वह अपने आप पर भी संदेह करता है–तभी हम समझ पाते हैं कि अब यह योग्य हुआ, दुनिया में जाने योग्य हुआ। अब बचपना न रहा। अब इसे कोई धोखा न दे सकेगा। अब यह दूसरों को धोखा देगा।

    कबीर ने कहा कि तुम धोखा खा लो, लेकिन धोखा मत देना; क्योंकि धोखा खा लेने से कुछ भी नहीं खोता है। धोखा देने से सब कुछ खो जाता है।
    किस सब कुछ की बात करते हैं कबीर?

    जैसे-जैसे तुम खोधा देते हो, वैसे-वैसे तुम्हारे प्रेम की क्षमता खो जाती है। कैसे तुम प्रेम करोगे, अगर तुम धोखा देते हो? और अगर तुम डरे हो, तो भय तो जहर है, प्रेम का फूल खिल न पाएगा। अगर तुम डरे हुए हो तो प्रेम कैसे करोगे? भय से कहीं प्रेम उपजा है? भय से तो घृणा उपजती है। भय से तो शत्रुता उपजती है। भय से तो तुम अपनी सुरक्षा में लग जाते हो।

    पूरा जीवन, जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे सुरक्षा करता है–धन से, मकान से, व्यवस्था से; सब तरफ से इंतजाम करता है कि कहीं से कोई हमला न हो जाए। लेकिन इसी इंतजाम में हम भूल जाते हैं कि सब द्वार बंद हो जाते हैं, और प्रेम के आने का रास्ता भी अवरुद्ध हो जाता है। सुरक्षा पूरी हो जाती है, लेकिन सुरक्षा ही कब्र बन जाती है।


    एक सम्राट ने अपनी सुरक्षा के लिए एक महल बनाया। सम्राट निश्चित ही डरा हुआ है, और भी डरे हुए लोग हैं, क्योंकि उनके लिए और भी ज्यादा खतरा है। उनके पास बहुत कुछ है, और बहुत कुछ लूटा जा सकता है। इसलिए उतनी ही मात्रा में भय भी है।

    एक बड़ा महल बनाया, उसमें उसने एक ही दरवाजा रखा; कोई खिड़की नहीं, कोई दरवाजे नहीं, शत्रु को भीतर पहुँचने का कोई उपाय नहीं। पड़ोस का सम्राट उसके महल को देखने आया। वह भी प्रभावित हुआ; क्योंकि महल इतना सुरक्षित गढ़ था कि उसमें कोई प्रवेश कर ही न सके। एक ही दरवाजा और एक दरवाजे पर पहरेदारों की जमात और एक पहरेदार पर दूसरा पहरेदार, दूसरे पहरेदार पर तीसरा पहरेदार–ऐसी श्रृंखला। क्योंकि, पहरेदार का भी क्या भरोसा! रात प्रवेश कर जाए, हत्या कर दे! तो एक पहरेदार पर दूसरा पहरेदार, दूसरे पर तीसरा–ऐसी एक लंबी कतार, और एक ही दरवाजा, घुसने का कोई उपाय नहीं।

    दूसरा सम्राट भी प्रभावित हुआ। उसने कहा, मैं भी ऐसा ही भवन बना लूंगा।
    जब वे दोनों द्वार पर खड़े होकर बात कर रहे थे, तो एक भिखारी सड़क के किनारे बैठ के जोर से हंसने लगा। दोनों ने चौंककर उसकी तरफ देखा। उस भिखारी ने कहा : ‘माफ करें! इसमें सिर्फ एक भूल है। मैं भी यहीं बैठा रहता हूं, भीख मांगता हूँ। यह मकान मैंने बनते देखा। इसमें सिर्फ एक खतरा है। वह खतरा भी महंगा पड़ेगा। अगर मेरी सलाह मानें तो आप भीतर हो जाएं और यह एक दरवाजा और है, इसको भी चुनवा दें, इसमें भी पत्थर लगवा दें। फिर कोई खतरा नहीं है।’

    तो उस सम्राट ने कहा कि नासमझ! बात तो तेरी समझ में आती है, लेकिन फिर तो मैं मर ही गया भीतर। यह तो कब्र हो गई!
    उस फकीर ने कहा कि कब्र तो यह हो ही गई है, बस एक दरवाजा बचा है।

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