नारी विमर्श >> पत्तों में कैद औरतें पत्तों में कैद औरतेंशरद सिंह
|
2 पाठकों को प्रिय 141 पाठक हैं |
शरद सिंह की स्त्री विमर्श पर यह नवीनतम पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ उन औरतों की जीवन-दशाओं से साक्षात्कार कराती है जो सबके सामने हैं, फिर भी अनदेखी हैं
Patton Mein Kaid Auratein - A Hindi Book - by Sharad Singh
पत्तों में कैद औरतें
‘पिछले पन्ने की औरतें’ और ‘पचकौड़ी’ जैसे बहुचर्चित उपन्यासों की लेखिका डॉ. शरद सिंह की यह पुस्तक उन औरतों के बारे में है जो इसी समाज में रह रही हैं किन्तु उनकी नियति समाज की अन्य औरतों की भांति नहीं है।
अछूते विषयों पर अपने लेखन के लिए ख्यातलब्ध इस युवा लेखिका ने एक बार फिर एक नए विषय को विश्लेषणात्मक ढंग से सामने रखते हुए उन औरतों की समस्याओं को उजागर करने का साहसिक कार्य किया है जो बीड़ी उद्योग के लिए तेंदू पत्तों के संग्रहण का काम करती हैं तथा जो उन पत्तों से बीड़ियां बनाने का कार्य करती हैं।
ये औरतें कामकाजी हैं, श्रमिक हैं, घरेलू हैं और इन्होंने अपने परिवार की आर्थिक सहायता करने के लिए स्वयं को पत्तों में क़ैद कर रखा है, चाहे वह तेंदू का हरा पत्ता हो या सूखा पत्ता या फिर तम्बाकू के पत्ते का चूर्ण हो।
शरद सिंह की स्त्री विमर्श पर यह नवीनतम पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ उन औरतों की जीवन-दशाओं से साक्षात्कार कराती है जो सबके सामने हैं, फिर भी अनदेखी हैं।
इस पुस्तक में अनेक चौंकाने वाले तथ्य हैं तथा इसमें निहित जीवन-कथाएं मन को उद्वेलित करने में सक्षम हैं। यह पुस्तक उन औरतों के बीच ला खड़ा करती है जो पत्तों की क़ैद में हैं।
अछूते विषयों पर अपने लेखन के लिए ख्यातलब्ध इस युवा लेखिका ने एक बार फिर एक नए विषय को विश्लेषणात्मक ढंग से सामने रखते हुए उन औरतों की समस्याओं को उजागर करने का साहसिक कार्य किया है जो बीड़ी उद्योग के लिए तेंदू पत्तों के संग्रहण का काम करती हैं तथा जो उन पत्तों से बीड़ियां बनाने का कार्य करती हैं।
ये औरतें कामकाजी हैं, श्रमिक हैं, घरेलू हैं और इन्होंने अपने परिवार की आर्थिक सहायता करने के लिए स्वयं को पत्तों में क़ैद कर रखा है, चाहे वह तेंदू का हरा पत्ता हो या सूखा पत्ता या फिर तम्बाकू के पत्ते का चूर्ण हो।
शरद सिंह की स्त्री विमर्श पर यह नवीनतम पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ उन औरतों की जीवन-दशाओं से साक्षात्कार कराती है जो सबके सामने हैं, फिर भी अनदेखी हैं।
इस पुस्तक में अनेक चौंकाने वाले तथ्य हैं तथा इसमें निहित जीवन-कथाएं मन को उद्वेलित करने में सक्षम हैं। यह पुस्तक उन औरतों के बीच ला खड़ा करती है जो पत्तों की क़ैद में हैं।
अपनी स्त्रियोचित समस्याओं से जूझती रहती हैं
उसका नाम है मालाबाई। उसने अपनी मां के साथ जंगल में जाना उस समय शुरू कर दिया था जब वह न तो बोल पाती थी और न चल पाती थी। वह अपनी मां को भी मात्र उसके स्पर्श से पहचानती थी। मां की ‘कैंया’ (कमर में ली जानी वाली गोद) में चढ़कर वह अलस्सुबह जंगल पहुंच जाती। जंगल में पहुंच कर मां उसे कैंया से उतार देती और स्वयं तेंदू के पत्ते तोड़ने में व्यस्त हो जाती। माला वहीं धूल-मिट्टी में खेलती रहती। भूख लगने पर रोती तो उसकी मां उसे अपनी गोद में लिपटाकर दूध पिला देती। अपने पैरों पर चलने योग्य होते ही उसने अपनी मां की नकल उतारनी शूरू कर दी। अब वह मां की देखा-देखी पत्ते तोड़ने लगती यद्यपि उसे न तो तेंदू और छेवला (पलाश) के पेड़ में अन्तर पता था और न उनके पत्तों में। अम्मा एक बड़े से कपड़े में तेंदूपत्ते इकट्ठे करती जाती और नन्हीं माला अपनी मैली फ्राक में पत्ते बटोरती रहती। कुछ पत्ते फ्राक में टिके रहते तो कुछ सरककर नीचे गिर जाते। यह खेल उसे दिलचस्प लगता।
कुछ और बड़ी होने पर माला को समझ में आया कि पत्ते तोड़कर इकट्ठा करना कोई खेल नहीं है। हर पत्ता काम का नहीं है। उनके काम का पत्ता है–तेंदूपत्ता। माला ने अपनी मां के पत्ते तोड़ने की क्रिया को देख-देखकर तेंदू के पत्ते को पहचानना और तोड़ना सीख लिया। तेंदूपत्तों में भी वह पत्ता, जिसकी गड्डियां बनाई जाती हैं और जिसे गड्डियों के रूप में फड़मुंशी खरीदता है। माला को फड़मुंशी अच्छा लगता था क्योंकि वह पत्तों के बदले उसकी मां को रुपये दिया करता था। मां भी उससे हँस-हँसकर बातें करती थी। फड़मुंशी माला को स्नेहपूर्वक पुचकार कर बातें करता था। माला कभी समझ नहीं पाई कि मां और फड़मुंशी के बीच व्यावसायिक मित्रता थी या सहानुभूति पर आधारित।
माला की मां जीवन्त प्रकृति की स्त्री थी। वह छोटी-छोटी बात पर हँस पड़ती थी। माला को भी यह गुण अपनी मां से मिला था। वह भी हंसमुख है। यद्यपि समय के साथ मां की प्रकृति में अंतर आ गया है। वह बहुओं और पोतों वाली होकर खीझी-खीझी-सी रहने लगी है लेकिन युवा माला अभी भी मस्तमौला है। हो सकता है कि बेटियों के बड़ी होने या फिर और बच्चे जनने के बाद उसकी भी हँसमुख प्रकृति खीझ में बदल जाए।
बचपन में माला ने जब पत्ते तोड़ने शुरू किए तो वह भी अपनी मां की भांति अपने साथ मां की एक पुरानी साड़ी का बड़ा-सा टुकड़ा ले जाया करती। पत्ते तोड़-तोड़कर साड़ी के उसी टुकड़े में इकट्ठा करती जाती। मां उसे बीच-बीच में समझाइश भी दे देती कि ये वाला नहीं, इस प्रकार का पत्ता तोड़ो। माला मां के बताए अनुसार पत्तों का चयन करती।
माला यौवन की दहलीज पर कब जा खड़ी हुई इसका भान न तो माला की मां को हुआ और न ही माला को।
उस दिन सुबह के नौ बजे थे। तेरह साल की माला को इस बात की समझ हो चली थी कि यदि लघुशंका के लिए जाना है तो पेड़ की ओट में जाना चाहिए। अब वह उम्र निकल चुकी है कि कहीं भी निकर सरकाई और बैठ गए। उस दिन भी माला लघुशंका के लिए छेवला के पौधों की ओट में जा बैठी। लघुशंका से निवृत्त होकर वह उठी ही थी कि उसने जमीन की ओर देखा और उसके मुंह से चींख निकल गई।
‘‘अम्मा! अम्मा!’ पुकारती हुई वह रोने लगी। उसकी मां पत्ते तोड़ती हुई कुछ दूर निकल गई थी। उसने माला की आवाज सुनी भी तो उसे खिलवाड़ ही समझा। लेकिन वहीं पास ही माला की बुआ भी पत्ते तोड़ रही थी। वह दौड़कर माला के पास आई।
‘क्या हुआ?’ बुआ ने घबराकर माला से पूछा।
माला ने रोते हुए जमीन की ओर संकेत किया। बुआ ने देखा, जिस स्थान पर माला ने लघुशंका की थी वहां की मिट्टी लाल हो गई थी। बुआ हँस दी।
‘रो मत! चल इधर आ।’ बुआ उसे एक पेड़ की छांह में ले गई और माला जिस कपड़े में तेंदूपत्ते रखती जा रही थी, उस कपड़े से एक बड़ा-सा टुकड़ा फाड़ा। उस टुकड़े में से भी एक नाड़ानुमा टुकड़ा फाड़ा।
‘चल फिराक ऊपर कर!’ बुआ ने कहा।
माला ने अपनी फ्राक उठा दी। बुआ ने उसकी निकर उतारी और कमर पर वह नाड़ा बांध दिया। फिर उस नाड़े में फंसाकर कपड़े के टुकड़े की लंगोट-सी पहना दी। माला को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बुआ ये सब क्या कर रही है। व घबराई हुई, डबडबाई आंखों से बुआ की ओर देखे जा रही थी। तभी मां भी उधर आ गई।
‘जे का हो रओ?’ मां ने आश्चर्य से बुआ से पूछा।
‘हो का रओ है? बिन्ना खों महीना सुरू हो गओ है।’ बुआ ने माला की मां से कहा।
‘हो गओ फेर तो काम!’ अम्मा ने हताशा भरे स्वर में कहा और आगे बोली, ‘इतई बैठी रहियो! जो नींद आए तो सो लइयो!’
‘अम्मा…’ माला अपनी मां से पूछना चाह रही थी कि ये उसे क्या हो गया है? लेकिन रुंधा हुआ गला साथ नहीं दे रहा था। वह हिचकियां लेकर सुबकने लगी।
‘अब रो मत! जे सबई लुगाइयों खों होत है। मोए भी होत है। जे तुमाई बुआ को सोई होत है। अब चुप कर! अबे मुतके (बहुत से) पत्ते तोड़ने है।’ मां ने माला को समझाया और फिर जुट गई अपने काम में।
पेड़ की छांह में बैठी माला उदास मन से सोचती रही कि उसे क्या हो गया है? क्या वह बीमार हो गई है? अगर वह बीमार हो गई है तो उसे अब गांव के डाक्टर साहब के पास ले जाया जाएगा जहां डाक्टर साहब उसे ‘सुई’ (इंजेक्शन) लगाएंगे। उसे सुई लगवाने से बहुत डर लगता था। उसकी रुलाई फिर फूट पड़ी। रोते-रोत उसे कब झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। बुआ ने उसे झकझोरकर जगाया तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी।
‘रोटी नई खाने का?’ बुआ उससे पूछ रही थी। वे लोग रात में ही रोटियां बनाकर रख लेती हैं ताकि सुबह रोटी बनाने में समय गंवाना न पड़े। बासी रोटियों को एक कपड़े में बांधकर साथ ले आती हैं। दोपहर के दस-ग्यारह बजे तक बच्चों को भूख लग आती है और वे ‘रोटी-रोटी’ की रट लगाने लगते हैं। बच्चों के साथ ही अन्य लड़कियां और स्त्रियां भी एक-एक, दो-दो रोटियां खा लिया करती हैं।
माला को भूख महसूस होने लगी थी। बुआ ने छेवला के पत्ते पर रखकर दो रोटी, प्याज का एक टुकड़ा और आम के अचार का एक टुकड़ा माला के हाथ में थमा दिया। माला ने प्याज और अचार के साथ रोटी ले ली। धीरे-धीरे स्वाद ले-लेकर खाने लगी।
बुआ भी उसकी बगल में बैठकर रोटी खाने लगी।
‘जे कोई रोबे वाली बात नइयां! जोन लुगाई को महीना नई होत है, ऊ कभऊ मां नहीं बन पात है।’ बुआ ने माला को समझाना शुरू किया।
‘हमें दवाई तो नई खाने पड़हे?’ माला ने अपने मन की बात पूछ ही ली।
‘ऊंहू! दवाई काए खाने पड़हे? कौन कछू बिमारी भई है? जे तो अब हर महीने हूहे।’ बुआ ने लापरवाही से कहा। उसे माला की बात मूर्खतापूर्ण लगी।
‘हर महीने?’ माला डर गई। उसे इतना डर तो उस समय भी नहीं लगा था जब एक बार तेंदू के पेड़ के तने से चिपका हुआ काला-धूसर गिरगिट उसकी बांह पर से रेंगता हुआ दौड़ गया था। जंगल में विभिन्न पेड़ों के आस-पास घूमने वाले गिरगिटों से वह बखूबी परिचित थी। उसे पता था कि ये गिरगिट जहरीले अवश्य होते हैं किंतु कभी किसी इंसान को काटते नहीं हैं। लेकिन यह मामला उसके लिए अपरिचित था अतः उसका डरना स्वाभाविक था।
माला का डर दो-चार दिन ही रहा। फिर उसे अपनी सहेलियों से बहुत सारी ऐसी गोपन बातों का पता चल गया जो अब तक न तो उसे पता थीं और न वह उन्हें समझ पाती। माला ने एक स्त्री के जीवन की आरंभिक अवस्था का परिचय जाना, तेंदूपत्ते की तुड़ाई के दौरान। उसने घने जंगल के बीच युवावस्था में पांव रखा। वह एक बात फिर भी नहीं जान सकी कि उसकी बुआ ने जिस सहजता से उसे कपड़े का टुकड़ा फाड़कर पहना दिया था वह धूल-मिट्टी के लगातार संपर्क में रहा था। यदि उसमें किसी प्रकार के कीटाणुओं की उपस्थिति भी रही हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस अवस्था में स्वच्छता सबसे अधिक आवश्यक हो जाती है उस अवस्था में माला को एक गंदा-सा कपड़ा धारण करना पड़ा। उस गंदे कपड़े के कारण उसे किसी प्रकार की छूत (इंफेक्शन) भी लग सकती थी या कोई अन्य परेशानी हो सकती थी। किंतु इस बात की चेतना जब माला की मां और बुआ को नहीं थी तो भला, माला को कहां से होती?
माला जैसी न जाने कितनी बालिकाएं मई-जून की भीषण गर्मी में घने जंगल में तेंदूपत्ते तोड़ती हुई युवती बन जाती हैं जबकि न तो उन्हें चिकित्सक से परामर्श लेने का ज्ञान होता है और न स्वच्छता का भान होता है। तेंदूपत्ते तोड़ने वाली लड़कियां और औरतें चिलचिलाती धूप में भी अपनी स्त्रियोचित समस्याओं से जूझती रहती हैं, फिर भी जंगलों में भटकती रहती हैं। मात्र इसलिए कि बीस-पच्चीस दिनों में चार पैसे कमाकर अपने परिवार को आर्थिक सहायता दे सकें या फिर अपने परिवार में अपना महत्त्व स्थापित कर सकें। वे यह जता सकें कि वे स्त्री हैं तो क्या हुआ, वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ, वे घर-गृहस्थी संभालती हैं तो क्या हुआ, वे बच्चे पैदा करती और उन्हें पालती हैं तो क्या हुआ–वे भी चार पैसे कमा सकती हैं। इस काम के लिए उन्हें किसी विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है तो सहनशक्ति की, जिसकी स्त्रियों में यूं भी कोई कमी नहीं होती है। जो लोग समझते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां इसलिए अधिक रोती हैं क्योंकि उनमें सहनशक्ति की कमी होती है तो ऐसे लोग भ्रम में जीते हैं। स्त्री अपनी उद्वेलित भावनाओं को अपने आंसुओं के द्वारा प्रकट करती है और यही रुदन उसके भीतर के दुख को कम करके उसके साहस को दुगुना कर देता है।
कुछ और बड़ी होने पर माला को समझ में आया कि पत्ते तोड़कर इकट्ठा करना कोई खेल नहीं है। हर पत्ता काम का नहीं है। उनके काम का पत्ता है–तेंदूपत्ता। माला ने अपनी मां के पत्ते तोड़ने की क्रिया को देख-देखकर तेंदू के पत्ते को पहचानना और तोड़ना सीख लिया। तेंदूपत्तों में भी वह पत्ता, जिसकी गड्डियां बनाई जाती हैं और जिसे गड्डियों के रूप में फड़मुंशी खरीदता है। माला को फड़मुंशी अच्छा लगता था क्योंकि वह पत्तों के बदले उसकी मां को रुपये दिया करता था। मां भी उससे हँस-हँसकर बातें करती थी। फड़मुंशी माला को स्नेहपूर्वक पुचकार कर बातें करता था। माला कभी समझ नहीं पाई कि मां और फड़मुंशी के बीच व्यावसायिक मित्रता थी या सहानुभूति पर आधारित।
माला की मां जीवन्त प्रकृति की स्त्री थी। वह छोटी-छोटी बात पर हँस पड़ती थी। माला को भी यह गुण अपनी मां से मिला था। वह भी हंसमुख है। यद्यपि समय के साथ मां की प्रकृति में अंतर आ गया है। वह बहुओं और पोतों वाली होकर खीझी-खीझी-सी रहने लगी है लेकिन युवा माला अभी भी मस्तमौला है। हो सकता है कि बेटियों के बड़ी होने या फिर और बच्चे जनने के बाद उसकी भी हँसमुख प्रकृति खीझ में बदल जाए।
बचपन में माला ने जब पत्ते तोड़ने शुरू किए तो वह भी अपनी मां की भांति अपने साथ मां की एक पुरानी साड़ी का बड़ा-सा टुकड़ा ले जाया करती। पत्ते तोड़-तोड़कर साड़ी के उसी टुकड़े में इकट्ठा करती जाती। मां उसे बीच-बीच में समझाइश भी दे देती कि ये वाला नहीं, इस प्रकार का पत्ता तोड़ो। माला मां के बताए अनुसार पत्तों का चयन करती।
माला यौवन की दहलीज पर कब जा खड़ी हुई इसका भान न तो माला की मां को हुआ और न ही माला को।
उस दिन सुबह के नौ बजे थे। तेरह साल की माला को इस बात की समझ हो चली थी कि यदि लघुशंका के लिए जाना है तो पेड़ की ओट में जाना चाहिए। अब वह उम्र निकल चुकी है कि कहीं भी निकर सरकाई और बैठ गए। उस दिन भी माला लघुशंका के लिए छेवला के पौधों की ओट में जा बैठी। लघुशंका से निवृत्त होकर वह उठी ही थी कि उसने जमीन की ओर देखा और उसके मुंह से चींख निकल गई।
‘‘अम्मा! अम्मा!’ पुकारती हुई वह रोने लगी। उसकी मां पत्ते तोड़ती हुई कुछ दूर निकल गई थी। उसने माला की आवाज सुनी भी तो उसे खिलवाड़ ही समझा। लेकिन वहीं पास ही माला की बुआ भी पत्ते तोड़ रही थी। वह दौड़कर माला के पास आई।
‘क्या हुआ?’ बुआ ने घबराकर माला से पूछा।
माला ने रोते हुए जमीन की ओर संकेत किया। बुआ ने देखा, जिस स्थान पर माला ने लघुशंका की थी वहां की मिट्टी लाल हो गई थी। बुआ हँस दी।
‘रो मत! चल इधर आ।’ बुआ उसे एक पेड़ की छांह में ले गई और माला जिस कपड़े में तेंदूपत्ते रखती जा रही थी, उस कपड़े से एक बड़ा-सा टुकड़ा फाड़ा। उस टुकड़े में से भी एक नाड़ानुमा टुकड़ा फाड़ा।
‘चल फिराक ऊपर कर!’ बुआ ने कहा।
माला ने अपनी फ्राक उठा दी। बुआ ने उसकी निकर उतारी और कमर पर वह नाड़ा बांध दिया। फिर उस नाड़े में फंसाकर कपड़े के टुकड़े की लंगोट-सी पहना दी। माला को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बुआ ये सब क्या कर रही है। व घबराई हुई, डबडबाई आंखों से बुआ की ओर देखे जा रही थी। तभी मां भी उधर आ गई।
‘जे का हो रओ?’ मां ने आश्चर्य से बुआ से पूछा।
‘हो का रओ है? बिन्ना खों महीना सुरू हो गओ है।’ बुआ ने माला की मां से कहा।
‘हो गओ फेर तो काम!’ अम्मा ने हताशा भरे स्वर में कहा और आगे बोली, ‘इतई बैठी रहियो! जो नींद आए तो सो लइयो!’
‘अम्मा…’ माला अपनी मां से पूछना चाह रही थी कि ये उसे क्या हो गया है? लेकिन रुंधा हुआ गला साथ नहीं दे रहा था। वह हिचकियां लेकर सुबकने लगी।
‘अब रो मत! जे सबई लुगाइयों खों होत है। मोए भी होत है। जे तुमाई बुआ को सोई होत है। अब चुप कर! अबे मुतके (बहुत से) पत्ते तोड़ने है।’ मां ने माला को समझाया और फिर जुट गई अपने काम में।
पेड़ की छांह में बैठी माला उदास मन से सोचती रही कि उसे क्या हो गया है? क्या वह बीमार हो गई है? अगर वह बीमार हो गई है तो उसे अब गांव के डाक्टर साहब के पास ले जाया जाएगा जहां डाक्टर साहब उसे ‘सुई’ (इंजेक्शन) लगाएंगे। उसे सुई लगवाने से बहुत डर लगता था। उसकी रुलाई फिर फूट पड़ी। रोते-रोत उसे कब झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। बुआ ने उसे झकझोरकर जगाया तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी।
‘रोटी नई खाने का?’ बुआ उससे पूछ रही थी। वे लोग रात में ही रोटियां बनाकर रख लेती हैं ताकि सुबह रोटी बनाने में समय गंवाना न पड़े। बासी रोटियों को एक कपड़े में बांधकर साथ ले आती हैं। दोपहर के दस-ग्यारह बजे तक बच्चों को भूख लग आती है और वे ‘रोटी-रोटी’ की रट लगाने लगते हैं। बच्चों के साथ ही अन्य लड़कियां और स्त्रियां भी एक-एक, दो-दो रोटियां खा लिया करती हैं।
माला को भूख महसूस होने लगी थी। बुआ ने छेवला के पत्ते पर रखकर दो रोटी, प्याज का एक टुकड़ा और आम के अचार का एक टुकड़ा माला के हाथ में थमा दिया। माला ने प्याज और अचार के साथ रोटी ले ली। धीरे-धीरे स्वाद ले-लेकर खाने लगी।
बुआ भी उसकी बगल में बैठकर रोटी खाने लगी।
‘जे कोई रोबे वाली बात नइयां! जोन लुगाई को महीना नई होत है, ऊ कभऊ मां नहीं बन पात है।’ बुआ ने माला को समझाना शुरू किया।
‘हमें दवाई तो नई खाने पड़हे?’ माला ने अपने मन की बात पूछ ही ली।
‘ऊंहू! दवाई काए खाने पड़हे? कौन कछू बिमारी भई है? जे तो अब हर महीने हूहे।’ बुआ ने लापरवाही से कहा। उसे माला की बात मूर्खतापूर्ण लगी।
‘हर महीने?’ माला डर गई। उसे इतना डर तो उस समय भी नहीं लगा था जब एक बार तेंदू के पेड़ के तने से चिपका हुआ काला-धूसर गिरगिट उसकी बांह पर से रेंगता हुआ दौड़ गया था। जंगल में विभिन्न पेड़ों के आस-पास घूमने वाले गिरगिटों से वह बखूबी परिचित थी। उसे पता था कि ये गिरगिट जहरीले अवश्य होते हैं किंतु कभी किसी इंसान को काटते नहीं हैं। लेकिन यह मामला उसके लिए अपरिचित था अतः उसका डरना स्वाभाविक था।
माला का डर दो-चार दिन ही रहा। फिर उसे अपनी सहेलियों से बहुत सारी ऐसी गोपन बातों का पता चल गया जो अब तक न तो उसे पता थीं और न वह उन्हें समझ पाती। माला ने एक स्त्री के जीवन की आरंभिक अवस्था का परिचय जाना, तेंदूपत्ते की तुड़ाई के दौरान। उसने घने जंगल के बीच युवावस्था में पांव रखा। वह एक बात फिर भी नहीं जान सकी कि उसकी बुआ ने जिस सहजता से उसे कपड़े का टुकड़ा फाड़कर पहना दिया था वह धूल-मिट्टी के लगातार संपर्क में रहा था। यदि उसमें किसी प्रकार के कीटाणुओं की उपस्थिति भी रही हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस अवस्था में स्वच्छता सबसे अधिक आवश्यक हो जाती है उस अवस्था में माला को एक गंदा-सा कपड़ा धारण करना पड़ा। उस गंदे कपड़े के कारण उसे किसी प्रकार की छूत (इंफेक्शन) भी लग सकती थी या कोई अन्य परेशानी हो सकती थी। किंतु इस बात की चेतना जब माला की मां और बुआ को नहीं थी तो भला, माला को कहां से होती?
माला जैसी न जाने कितनी बालिकाएं मई-जून की भीषण गर्मी में घने जंगल में तेंदूपत्ते तोड़ती हुई युवती बन जाती हैं जबकि न तो उन्हें चिकित्सक से परामर्श लेने का ज्ञान होता है और न स्वच्छता का भान होता है। तेंदूपत्ते तोड़ने वाली लड़कियां और औरतें चिलचिलाती धूप में भी अपनी स्त्रियोचित समस्याओं से जूझती रहती हैं, फिर भी जंगलों में भटकती रहती हैं। मात्र इसलिए कि बीस-पच्चीस दिनों में चार पैसे कमाकर अपने परिवार को आर्थिक सहायता दे सकें या फिर अपने परिवार में अपना महत्त्व स्थापित कर सकें। वे यह जता सकें कि वे स्त्री हैं तो क्या हुआ, वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ, वे घर-गृहस्थी संभालती हैं तो क्या हुआ, वे बच्चे पैदा करती और उन्हें पालती हैं तो क्या हुआ–वे भी चार पैसे कमा सकती हैं। इस काम के लिए उन्हें किसी विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है तो सहनशक्ति की, जिसकी स्त्रियों में यूं भी कोई कमी नहीं होती है। जो लोग समझते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां इसलिए अधिक रोती हैं क्योंकि उनमें सहनशक्ति की कमी होती है तो ऐसे लोग भ्रम में जीते हैं। स्त्री अपनी उद्वेलित भावनाओं को अपने आंसुओं के द्वारा प्रकट करती है और यही रुदन उसके भीतर के दुख को कम करके उसके साहस को दुगुना कर देता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book