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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


'भइया शाम को निकले हैं, आपको बैठने को कह गये हैं। शायद आते ही होंगे।'

'पढ़ाई-लिखाई में मन लगा। दिन में अठारह घण्टे पढ़ना होगा। तेरा भविष्य इसी परीक्षा पर निर्भर करता है।'

हाँ, बात तो सही है। लेकिन, आप चाहे जो कहें, आम लड़कियों की तरह दिन-दिन भर किताब में मुँह गड़ाए रहना, मुझे अच्छा नहीं लगता। अच्छा, मृदुल'दा, उस दिन जो लोग आये थे, सभी क्या गाते हैं?

'हूँ-'

'मंसूर भी?'

'हूँ-'

मेरे लिए यही मुश्किल है। मैं एक कड़ी भी नहीं गा सकती। सिर्फ़ कान लगा कर सुन सकती हूँ। किसी गाने वाले को साथ ले कर चलने-फिरने में मुझे परेशानी होती है। फ़र्ज़ करें, वह अचानक गा उठे। स्थायी गाने के बाद, अगर वह पूछ बैठे-'अन्तरा का सुर...कैसे गाते हैं?' ऐसे सवालों का जवाब देना मेरे लिए कतई सम्भव नहीं होता। मुमकिन है, वह पूछ बैठे, 'यह कौन-सा राग है या यह किस लय-ताल में है?' उस वक़्त, निर्वाक बैठे रहने के अलावा, मेरे लिये और कोई उपाय नहीं होता।

मंसूर को और एक बार देखने का मन करता है। उससे बातें करने का चाव होता है। चलो, मान लिया कि वह गाना जानता है, तो में क्या कुछ भी नहीं जानती? मैं कविता लिखती हूँ, भले वह मेरी निजी और गोपन कॉपी तक ही सीमित हो। कविता लिखती हूँ, तो ज़ाहिर है कि मुझमें भी कुछ कम प्रतिभा नहीं है। अगर प्रतिभा कुछ कम नहीं है, तो उसकी तुलना में भले मैं असुन्दर हूँ, वह क्या एक बार मेरी तरफ़ पलट कर, देख भी नहीं सकता?

मेरे एक संन्यासी मामा ने एक दिन मुझसे कहा था, 'अगर तू खूब मन से कुछ चाहे, तो ज़रूर मिलेगा तुझे।'

मैंने अवाक हो कर कहा, 'कितना चाहती हूँ, लेकिन मिलता तो कुछ भी नहीं।'

'चाहने जैसी चाह होनी चाहिए।'

'कैसे?'

'सुन, पहले कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लेना। ज़मीन पर आसन मार कर बैठ जाना। तेरी दोनों हथेलियाँ, तेरे मुड़े हुए घुटनों पर हों। आँखें मूंद कर बैठी रहना। एकदम स्थिर! ज़रा भी हिलना-डुलना मत। जितनी देर हो सके, साँस रोके रखना। जो चाहिए, सिर्फ उसी बारे में सोचती रहना। पहले चरण में आकांक्षा तरल होती है, यही तरल चीज़ जब घनी होने लगती है, तब तुझे फल मिलने लगेगा। हर रोज़, दो घण्टे तुझे यह तपस्या करनी होगी।'

संन्यासी मामा के बदन पर, उजला-धुला, बुर्राक़ पायजामा-कुर्ता!

चेहरे पर घनी-घनी दाढ़ी! लम्बे-लम्बे बाल!

आजकल माँ उन्हें देखते ही भड़क जाती है, 'तू यहाँ किसलिये?'

मामा भी साफ़ जवाब सुना देते हैं, 'खाने आया हूँ। लाओ, खाना दो।'

'रास्ता-घाट घूमता-भटकता फिरता है, खाना नहीं जुटता?'

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